26 दिसंबर 2008

सुखानुभूति-हिंदी शायरी

जीवन की धारा में
पानी के बुलबुलों की तरह बहता आदमी
हर पल सुख की तलाश करता जाता
कई पल ऐसे भी आते हैं
जो मन को गुदगुदाते हैं
फिर समय की धारा में
वह भी बह जाते हैं
खुशी के चिराग जलते कुछ पल
पर फिर अंधेर आ ही जाते हैं
सुखानुभूति कोई ऐसी शय नहीं
जिसे आदमी अपनी जेब में रखकर
निरंतर चलता जाये
पर दिल में ख्यालों की जमीन पर
उम्मीदों के पेड़ उग आते हैं
जिन पर सुख के पल फूल की तरह
पहले खिलते
फिर मुरझा जाते हैं
आदमी कितना भी चाहे
उसके हाथ में हमेशा कुछ नहीं
बना रह पाता
समय कभी शय बदलता तो
कभी उसका इस्तेमाल बेकार कर जाता

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22 दिसंबर 2008

बड़ा कौन, कलम कि जूता-हास्य व्यंग्य

देश के बुद्धिजीवियों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया गया था। गोलमेज सम्मेलन का विषय था कि ‘जूता बड़ा कि कलम’। यह सम्मेलन विदेश में एक बुद्धिजीवी द्वारा सरेराह जूते उछालने की एक घटना की पृष्ठभूमि में इस आशय से आयोजत किया गया था कि यहां के लोग इस बारे में क्या सोचते हैं?
जाने माने सारे बुद्धिजीवी दौड़े दौड़े चले जा रहे थे । एक बुद्धिजीवी तो घर से एक ही पांव में जूता पहनकर निकल गये उनको दूसरा पहनने का होश ही नहीं रहा। रास्ते चलते हुए एक आदमी ने टोका तो वह कहने लगे-"अपने देश के तुम आम लोग भी निहायत जाहिल हो। तुम मेरे पांव के जूते देखने की सोच भी पा रहे होयह जानकर ताज्जुब होता है। अरे, अखबार या टीवी नहीं देखते क्या? विदेश में जूता फैंकने की इतनी बड़ी घटना हो गयी और हमें उसी पर ही सोचना है। मैंने एक ही पांव में जूता पहना है पर यह कोई एतिहासिक घटना नहीं है और इस पर चर्चा मत करो।''

कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्धिजीवियों के लिये यह एक ऐसा विषय था जिसमें उनकी जमात का ही आदमी जूता फैंकने की घटना में शामिल पाया गया था वैसे तो अपने देश में जूतमपैजार रोज होती है पर बुद्धिजीवियों का काम लिखने पढ़ने और भाषण तक ही सीमित होता है। कोई भला काम हो बुरा उनकी दैहिक सक्रियता स्वीकार नहीं की जातीं। पश्चिम से आयातित विचारों पर चलने वाले बुद्धिजीवियों ने स्वयं ही यह बंदिश स्वीकार की है और किसी बुद्धिजीवी द्वारा सरेराह जूता उछालने की घटना देखकर अब यह प्रश्न उठा था कि क्या वह अपनी इस राह में बदलाव करें। क्या मान लें कि बुद्धिजीवी को कलम के अलावा जूता भी उठाना चाहिये। अगर कहीं ऐसी घटना देश में होती तो शायद बुद्धिजीवी विचार नहीं करते मगर यह धटना पश्चिम दिशा से आयी थी इसलिये विचार करना जरूरी था। अपने देश का कोई बुद्धिजीवी होता तो सभी एक स्वर में उसकी निंदा करते या नहीं भी करते। निंदा करते तो उस बुद्धिजीवी को प्रचार होता इसलिये शायद अनदेशा करना ही ठीक समझते या फिर कह देते कि यह तो बुद्धिजीवी नहीं बल्कि एक साधारण आदमी है। विदेश में वह भी पश्चिम में कुछ हो तो यहां का बुद्धिजीवी उछलने लगता है। उस पर कुछ कहने या लिखने के लिए उसका मन उछलने लगता है।

सम्मेलन शुरू हुआ। कुछ बुद्धिजीवियों ने इस कृत्य की घोर निंदा की तो कुछ ने प्रशंसा। प्रशंसकों का मानना था कि यह बुद्धिजीवी के देश में चल रहे आक्रोश का परिणाम है। विरोधियों ने पूछा कि ‘जब अपने पास कलम हैं तो फिर हमारे द्वारा जूते से विरोध प्रदर्शन करना ठीक कैसे माना जा सकता है?’
जूता फैंकने के प्रशंसकों ने कहा-‘लिखे हुऐ का असर नहीं होता तो क्या करें?’*

विरोधियों ने कहा-‘तो ऐसा लिखो कि कोई दूसरा जूता उछाले। आम आदमी हमारी बात सुनता नहीं है चाहे हम कुछ भी लिखें, पर अपना जूता हाथ में उठाकर किसी पर नहीं फैंकता। इतने दिनों से इशारे में लिखते हैं अब खुलकर लिख कर भी देख लेते हैं कि "जूता उठाओ*।
प्रशंसकों ने कहा-‘अगर कोई दूसरा जूता न उछाले तो आखिर क्या किया जाये?‘
विरोधियों ने कहा-‘अगर आपके लिखे से समाज में कोई दूसरा व्यक्ति सरेराह जूते उछालने को तैयार नहीं है तो फिर उसके लिये लिखने से क्या फायदा?’
प्रशंसकों ने कहा-‘अरे वाह! तुम तो हमारा लिखना ही बंद करवाओगे। तुम पिछडे हुए हो और तुम जानते नहीं कि अब समय आ गया है कि बुद्धिजीवी को एक हाथ में कलम और दूसरे हाथ में जूता उठाना चाहिये।’
यह सुनकर एक पांव में जूता पहनकर आये बुद्धिजीवी को जोश आ गया और उसने अपने पांव से जूता उतार कर हाथ में लिया और चिल्लाया-‘ऐसा करना चाहिये।’
प्रशंसक और विरोधी दोनों खेमों में डर फैल गया। पता नहीं वह कहीं उछाल न बैठे-यह सोचकर लोग जड़वत् खड़े हो गये। सभी को पता था कि अगर उसने जूता उछाला तो वह हीरो बन जायेगा और जिसको पड़ा वह खलनायक कहलायेगा।’
कमबख्त वह आम आदमी भी उस बुद्धिजीवी के पीछे यह जिज्ञासा लेकर आया कि ‘आखिर यह आदमी कहां जा रहा है और क्या करेगा’ यह चलकर देखा जाये। तय बात है कि आम आदमी ही ऐसा सोचता और करता है, कोई बुद्धिजीवी नहीं।

उसने जब यह देखा तो चिल्लाया-‘अरे, यह तो इस कार्यक्रम के न्यौते से ही इतना खुश हो गये कि एक जूता पहनकर चले आये दूसरा पहनना भूल गये-यह बात रास्ते में इन्होंने स्वयं बतायी। अब वह जूता इसलिये पांव से उतार लिया कि कोई पूछे कर हंसी न उडाये और अपनी बात कहकर हीरो भी बन जायें। इस एक जूते को लेकर कब तक पहनकर चलते और हाथ में लेते तो लोग अनेक तरह के सवाल करते। अब कौन पूछेगा कि यह एक जूता लेकर कहां घूम रहे हो? यह बोल देंगे किबुद्धिजीवियों के हाथ में कलम और दूसरे हाथ में जूता लेने का नया रिवाज शुरू हो गया है।’"

उस बुद्धिजीवी को ताव आ गया और उसने वह जूता उस आम आदमी की तरफ ऐसे उछाला जैसे कि उसे लगे नहीं-यानि एक प्रतीक के रूप में! वह भी उस्ताद निकला उसने जूता ऐसे ही लपका जैसे क्रिकेट में स्लिप में बायें तरफ झुककर कैच लिया जाता है और भाग गया।

गोलमेज सम्मेलन में कोहराम मच गया। विरोधियों ने उस जूता फैंकने वाले बुद्धिजीवी की निंदा की तो प्रशंसकों ने भी उसे फटकारा-‘शर्म आनी चाहिये एक आम आदमी पर जूता फैंकते हुए। वह चालाक था इसलिये लेकर भाग गया। बचने की कोशिश करता नजर भी नहीं आया जैसे कि विदेश में हुई घटना में नजर आया है। किसी खास आदमी पर फैंकते तो कुछ एतिहासिक बन जाता। हमने जो विदेश का दृश्य देखा है उससे यह दृश्य मेल नहीं खाता। हो सकता है कि वह किसी अखबार के दफ्तर पहुंचकर यह ख़बर दे कि देखो एक बुद्धिजीवी का जूता मार लाया।

बहरहाल बहस जारी थी। कोई निष्कर्ष नहीं निकला। कई दिन तक बहस चली। अनेक लोग उस पर अपने विचार लिखते रहे। कोई समर्थन करता तो कोई विरोध। आखिर उसी आम आदमी को बुद्धिजीवियों पर दया आ गयी और वह वहां इस सम्मेलन में आया। उसके हाथ में वही जूता था। उसे देखकर सब बुद्धिजीवी भागने लगे। सभी को लगा कि वह मारने आ रहा है। हर कोई यही सोचकर बच रहा था कि ‘दूसरे में वह जूता पड़ जाये पर मैं बच जांऊ ताकि अगर घटना ऐतिहासिक हो तो उस लिखूं। आखिर एक आम आदमी द्वारा बुद्धिजीवी पर जूता बरसना भी एक एतिहासिक घटना हो सकती थी।

वह आम आदमी ढूंढता हुआ उस बुद्धिजीवी के पास पहुंचा जिसका जूता लेकर वह भागा था और बोला-‘मैं आपका जूता ले गया पर बाद में पछतावा हुआ। मैंने अपनी पत्नी को बताया कि यह जूता एक बुद्धिजीवी ने मेरी तरफ उछाला तो वह बोली कि इससे तुम खास आदमी तो नहीं हो गये! जाओ उसे वापस कर आओ। कहीं उसकी पत्नी उसे डांटती न हो। बाहर अगर तुम कोए चीज छोड़ आते हो मैं तुम्हें कितना दांती हूँ।।"

बुद्धिजीवियों में से एक ने पूछा-‘तुम्हें यहां आते डर नहीं लगा यह सोचकर कि कोई तुम पर दूसरा जूता न फैंके।’
आम आदमी ने कहा-‘यह सोचा ही नहीं, क्योंकि आप लोग बिना प्रस्ताव पास हुए कुछ नहीं करते और ऐसी कोई खबर मैंने अखबार में भी नहीं पढ़ी कि आप लोगों ने किसी आम आदमी पर जूता फैंकने का प्रस्ताव पास किया है, पर आप लोगों को परेशान देखकर सोचता हूं कि आपके सामने खड़ा हो जाता हूं आम एक एक कर मेरे ऊपर जूता उछालो पर एक बात याद रखना कि वह मुझे लगे नहीं।’
बुद्धिजीवियों को गुस्सा आ गया और वह चिल्लाने लगे कि-‘तू मक्कार है। ठहर अभी तेरे को जूते लगाते हैं।
दूसरे बुद्धिजीवी ने आपति की और कहा-"नहीं! यह ख़ास आदमी थोड़ी ही है कि ख़बर चर्चा लायक बनेगी।

वह आदमी हंसता वहीं खड़ा रहा। सभी बुद्धिजीवी एक दूसरे से कहते रहे कि -‘इस आदमी को जूता मारो कोई चिंता वाली बात नहीं है।’

कुछ लोग कहने लगे कि-‘इससे क्या? कोई इतिहास थोड़े ही बनेगा। यह तो एक आम आदमी है। इसको जूता मारने की कोई खबर नहीं छापेगा। फिर हम में से कौन इसे जूते मार यह तय होना है क्योंकि जिसे इस विषय पर लिखना है वह तो जूता फैंककर उसके समर्थन में तो लिख नहीं सकता। यानि जूता वही फैंके जो इस विषय पर लिखना नहीं चाहता।’
इस सभी बुद्धिजीवी एक दूसरे से कहने लगे-तू फैंक जूता मैं तो उस पर लिखूंगा।’
कुछ कहने लगे कि-‘अभी यह तय नहीं हुआ कि बुद्धिजीवी को जूता उठाना चाहिये कि नहीं।’

आम आदमी वहीं खड़ा सब देखता रहा। वह इंतजार करता रहा कि कब उस पर कौनसा सर्वसम्मत प्रस्ताव पास होता है। वह कई चक्कर लगा चुका है पर अभी भी वह यह जानना चाहता है कि‘बुद्धिजीवी को कलम के साथ जूता भी चलाना चाहिये कि नहीं।’

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19 दिसंबर 2008

सौदागरों से ही खरीदेंगे-हिन्दी शायरी

इतनी सुरक्षा करेंगे
कि खरगोश क्या
शेर भी आ गया तो पकड़ लेंगे
मगर भेड़िया ही किला भेद जाता है
आदमी का शिकार चूहे के तरह कर जाता है
कभी उसके पीछे नहीं जाते शिकारी
दिखाने के लिए अपने किले जरूर घेर लेंगे
इंसानों का क्या
वह तो मनोरंजन के लिए ही देखेंगे और खेलेंगे
खाली मन लिए भटकते लोगों को
असल और नक़ल से वास्ता नहीं
शेर बकरी का हो
या चूहे बिल्ली का
या डंडा गिल्ली का
अपनी आँखें वीडियो गेम में ही पेलेंगे
जूता मारने का हो या गोली चलाने का दृश्य
हादसा हो या कामयाबी
सौदागर हर शय को बाज़ार में बेचेंगे
जज्बातों के मायने अब कोई नहीं है
इंसानों में अब जज्बा कहाँ
इसलिए सौदागरों से ही खरीदेंगे

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15 दिसंबर 2008

जूते को अस्त्र कहा जाये या शस्त्र-व्यंग्य

जूते का उपयोग सभी लोग पैर में पहनने के लिये करते हैं इसलिये उसकी अपनी कोई इज्जत नहीं है। हमारे देश में कोई स्त्री दूसरे स्त्री को अपने से कमतर साबित करने के लिये कहती है कि ‘वह क्या है? मेरी पैर की जूती के बराबर नहीं है।’

वैसे जूते का लिंग कोई तय नहीं किया गया है। अगर वह आदमी के पैर में है तो जूता और नारी के पैर में है तो जुती। यही जूती या जूता जब किसी को मारा जाता है तो उसका सारा सम्मान जमीन पर आ जाता है। अगर न भी मारा जाये तो यह कहने भर से ही कि ‘मैं तुझे जूता मारूंगा’ आदमी की इज्जत के परखच्चे उड़ जाते हैं भले ही पैर से उतारा नहीं जाये। अगर उतार कर दिखाया जाये तो आदमी की इज्जत ही मर जाती है और अगर मारा जाये तो तो आदमी जीते जी मरे समान हो जाता है।

इराक की यात्रा में एक पत्रकार ने अपने पावों में पहनी जूतों की जोड़ी अमेरिका के राष्ट्रपति की तरफ फैंकी। पहले उसने एक पांव का और फिर दूसरे पांव का जूता उनकी तरफ फैंका। यह खबर दोपहर को सभी टीवी चैनल दिखा रहे थे। दुनियां के सर्वशक्तिमान देश के राष्ट्रपति पर यह प्रहार भारत का ही नहीं बल्कि विश्व के हर समाज का ध्यान आकर्षित करता है। यानि कम से कम एक बात तय है कि जूता फैंकना विश्व के हर समाज में बुरा माना जाता है।

पत्रकार ने जिस तरह जूता फैंका उससे लगता था कि वह कोई निशाना नही लगा रहा था और न ही उसका इरादा बुश को घायल करने का था पर वह अपना गुस्सा एक प्रतीक रूप में करना चाहता था। वहां उसे सुरक्षा कर्मियों ने पकड़ लिया और वह भी दूसरा जूता फैंकने के बाद। अभी तक बंदूकों और बमों से हमलों से सुरक्षा को लेकर सारे देश चिंतित थे पर अब उसमें उनको जूते के आक्रमण को लेकर भी सोचना पड़ेगा। आखिर सम्मान भी कोई चीज होती है। हमारा दर्शन कहता है कि ‘बड़े आदमी का छोटे के द्वारा किया गया अपमान भी उसके लिये मौत के समान होता है।

इस आक्रमण के बाद बुश पत्रकारों से कह रहे थे कि ‘यह प्रचार के लिये किया गया है। अब देखिये आप उसके बारे में मुझसे पूछ रहे हैं।’

हमेशा आक्रमक तेवर अपनाने वाले उस राष्ट्रपति का चेहरा एकदम बुझा हंुआ था। उससे यह लग रहा था कि उनको अपने अपमान का बोध हो रहा था। उनका चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे कि गोली से बचे हों।
हमारी फिल्मों में दस नंबर जूते की चर्चा अक्सर आती है पर मारे गये जूते का साइज अगर सात भी तो कोई अपमान का पैमाना कम नहीं हो जाता।

दुनियां में सभी महत्वपूर्ण स्थानों की सुरक्षा वहां मैटल डिटेक्टर से केवल बारूद की जांच की जाती है और अगर इसी तरह जूतों से आक्रमण होते रहे तो आने वाले समय में जूतों से भी सुरक्षा का उपाय होगा।

युद्ध में अस्त्र शस्त्र का प्रयोग होता है। जिनका उपयोग हाथ रखकर किया जाता है उनको अस्त्र और जिनका फैंक कर किया जाता है उनको शस्त्र कहा जाता है। अभी तक जूते को अस्त्र शस्त्र की श्रेणी में नहीं माना जाता अलबत्ता इसके अस्त्र के रूप में ही उपयोग होने की बात कही जाती है। जूतों से मारने की बात अधिक कही जाती है पर यदाकदा ही ऐसा कोई मामला सामने आता है। लोग आपस में लड़ते हैं। एक दूसरे को तलवार से काटन या गोली से उड़ाने की बात कही जाती है पर जूते से मारने की बात केवल कमजोर से कही जाती है वह भी अगर अपना हो तो।

एक सेठ जी के यहां अनेक नौकर थे पर वह अक्सर अपने एक प्यारे नौकर को ही गलती होने पर जूते से मारने की धमकी देते थे। वह नौकर भी चालू था। सुन लेता था क्योंकि वह वेतन के अलावा अन्य तरह की चोरियां और दांव पैंच कर भी अपनी काम चलाता था। उसका वेतन कम था पर आय सबसे अधिक करता था। बाकी नौकर यह सोचकर खुश होतेे थे कि चलो हमें तो कभी जूते से मार खाने की धमकी नहीं मिलती। कम से कम सेठ हमारी इज्जत तो करता है और इसलिये सतर्कता पूर्वक काम करते ताकि कभी उनको उसकी तरह से बेइज्जत न होना पड़े। उनको यह पता ही नहीं था कि सेठ उनको साधने के लिये ही उस नौकर को जूते से मारने की धमकी देता था। इज्जत सभी को प्यारी होती है । कई लोग गोली या तलवार से कम जूते की मार खाने से अधिक डरते हैं। तलवार या गोली खाकर तो आदमी जनता की सहानुभूति का पात्र बन जाता है पर जूते से मार खाने पर ऐसी सहानुभूति मिलने की संभावना नहीं रहती । उल्टे लोगों को लगता है कि चोरी करने या लड़की छेड़ने-यही दोनों आजकल जघन्य अपराध माने जाते हैं जिसमें पब्लिक मारने को तैयार रहती है-के आरोप में पिट रहा है। यानि इससे पिटने वाला आदमी हल्का माना जाता है।

एक बात तय रही कि जूता मारने वाला हाथ में पकड़े ही रहता है फैंकता नहीं है-अगर विरोधी के हाथ लग जाये और वह भी उससे पीट दे तो अपमान करने पर प्रतिअपमान भी झेलना पड़ सकता है। एक बात और है कि गोली या तलवार से लड़ चुके दुश्मन से समझौता हो सकता है पर जूते मारने या खाने वाले से समझौता करने में भी संकोच होता है। एक सज्जन को हमेशा ही गुस्से में आकर जूता उठाने की आदत है-अलबत्ता मारा किसी को नहीं है। अपने जीवन में वह ऐसा चार पाचं बार कर चुके हैं। वही बतातेे हैं कि जिन पर जूता उठाया है अब वह कहीं मिल जाने पर देखकर ऐसे मूंह फेर लेते हैं जैस कि कभी मिले ही न होंं न ही मेरा साहस उनको देखने का होता है।

जूता मारना या मारने के लिये कहना ही अपने आप में एक अपराध है। ऐसे में अगर कहीं जूता उठाकर मारा जाये तो वह भी किसी महान हस्ती पर तो उसकी चर्चा तो होनी है। वह भी सर्वशक्तिमान देश के राष्ट्रपति पर एक पत्रकार जूता फैंके। पत्रकार तो बुद्धिजीवी होते हैं। यह अलग बात है कि सबसे अधिक जूता मारने की बात भी वही कहते हैं कि उनकी बंदूक या तलवार चलाने की बात पर यकीन कौन करेगा? यह कृत्य इतना बुरा है कि जूता फैंकने वाले पत्रकार के साथियों तक ने कह डाला कि वह पूरे इराक का प्रतिनिधि नहीं है। कुछ लोगों ने घर आये मेहमान के साथ इस अपमानजनक व्यवहार की कड़ी निंदा तक की है

यह लगभग उस देश पर हमले जैसा है पर कोई देश उसका जवाब देने का सोच भी नहीं सकता। कोई वह जूते उठाकर उस पत्रकार की तरफ फैंकने वाला नहीं था। उसे सुरक्षा कर्मी पकड़ कर ले गये और यकीनन वह बिना जूतों के ही गया होगा। उसकी हालत भी ऐसे ही हुई होगी जैसी कि आतंकवादियों की बंदूक के बिना हो जाती है।

इतिहास में यह शायद पहली मिसाल होगी जब जूते का शस्त्र के रूप में उपयोग किया गया होगा। अब आखिर उन जूतों का क्या होगा? वह पत्रकार को वापस तो नहीं दिये जायेंगे। अगर दे दिये तो वह उन जूतों को नीलाम कर भारी रकम वसूल कर लेगा। पश्चिम में ऐसी ही चीजों की मांग है। उन जूतों को उठाकर ले जाने की समस्या वहां के प्रशासन के सामने आयेगी। अगर वह कहीं असुरक्षित जगह पर रखे गये तो तस्करों की नजर उस पड़ सकती है। अब वह जूते एतिहासिक हो गये हैं कई लोग उन जूतों पर नजर गड़ाये बैठेंगे। भारत की अनेक एतिहासिक धरोहरों पश्चिम में पहुंच गयीं हैं और यह तो उनकी खुद की धरोहर होगी। भारत की धरोहर का प्रदर्शन तो वह कर लेते हैं पर इस धरोहर का प्रदर्शन करना संभव नहीं है।

वैसे अपने देश में जूता मारने के लिये कहने की कई लोगों में आदत है पर इसका अस्त्र शस्त्र की तरह उपयोग करने की चर्चा कभी नहीं हुई। अब लगता है कि आने वाले इस सभ्य युग में यह भी एक तरीका हो सकता है पर यह पश्चिम के लिये ही है। अपने देश में तो हर आदमी क्रोध में आने पर जूता मारने की बात करता है पर हर कोई जानता है कि उसके बाद क्या होगा? वैसे यहां कोई नई बात नहीं है। किसी ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि तीसरा युद्ध पत्थरों से लड़ा जायेगा। लगता है नहीं! शायद वह जूतों से लड़ा जायेगा। अमेरिका ने परमाणु बम का ईजाद कर जापान पर उसका उपयोग किया पर जूता परमाणु बम से अधिक खतरनाक है। परमाणु बम की मार से तो आदमी मर खप जाता है या कराह कराह कर जीता है पर जूते की मार तो ऐसी होती है कि अगर एक बार फैंका भी जाये तो कोई भी जूता देखकर वह मंजर नजर आता है। या मरने या कराहने से भी बुरी स्थिति है। अब सवाल यह है कि जूते को अस्त्र कहा जाये कि शस्त्र? दोनों की श्रेणी में तो उसे रखा नहीं जाता। या यह कहा जाये कि जूते को जूता ही रहने तो क्योंकि उसकी मार अस्त्रों शस्त्रों से भी गहरी होती है।

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11 दिसंबर 2008

धीमे-धीमे बहाओ खून के आंसू-व्यंग्य कविता

शिष्य के हाथ से पिटाई का
गुरुजी को मलाल हो गया
जिसको पढ़ाया था दिल से
वह यमराज का दलाल हो गया

गुरुजी को मरते देख
हैरान क्यों हैं लोग
गुरू दक्षिणा के रुप में
लात-घूसों की बरसात होते देख
परेशान क्यों है लोग
यह होना था
आगे भी होगा
चाहत थी फल की
बोया बबूल
अब वह पेड युवा हो गया

राम को पूजा दिखाने के लिये
मंदिर बहुत बनाए
पर कभी दिल में बसाया नहीं
कृष्ण भक्ति की
पर उसे फिर ढूँढा नहीं
गांधी की मूर्ति पर चढाते रहे माला
पर चरित्र अंग्रेजों का
हमारा आदर्श हो गया

कदम-कदम पर रावण है
सीता के हर पग पर है
मृग मारीचिका के रूप में
स्वर्ण मयी लंका उसे लुभाती है
अब कोई स्त्री हरी नहीं जाती
ख़ुशी से वहां जाती है
सोने का मृग उसका हीरो हो गया

जहाँ देखे कंस बैठा है
अब कोइ नहीं चाहता कान्हा का जन्म
कंस अब उनका इष्ट हो गया
रिश्तों को तोलते रूपये के मोल
ईमान और इंसानियत की
सब तारीफ करते हैं
पर उस राह पर चलने से डरते हैं
बैईमानी और हैवानियत दिखाने का
कोई अवसर नहीं छोड़ते लोग
आदमी ही अब आदमखोर हो गया

घर के चिराग से नहीं लगती अब आग
हर आदमी शार्ट सर्किट हो गया
किसी अवतार के सब इन्तजार में हैं
जब होगा उसकी फ़ौज के
ईमानदार सिपाही बन जायेंगे
पर तब तक पाप से नाता निभाएंगे
धीमे-धीमे ख़ून के आंसू बहाओ
जल्दी में सब न गंवाओ
अभी और भी मौक़े आएंगे
धरती के कण-कण में
घोर कलियुग जो हो गया

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10 दिसंबर 2008

वह विनाश था-लघु कथा

गरीब किसान अपने खेत में हल जोत रहा था. उसी समय एक खूबसूरत चेहरे वाला सूट-बूट पहने एक शख्स उसके सामने आकर खडा हो गया और बोला-''मैं विकास हूँ और तुम्हें भी विकसित करना चाहता हूँ. यह लो कुछ पैसे और अपनी जमीन मुझे दे दो.
किसान ने कहा-''नहीं, यह मेरे बाप-दादों की जमीन है और मैं इसे किसी को नहीं दे सकता.
विकास ने कहा-''देखो मैं पूरे विश्व में फ़ैल रहा हूँ तुम अपने इलाके को पिछडा क्यों रखा चाहते हो, तुम यह जमीन मुझे दे दो. यहाँ तमाम तरह के कारखाने, इमारत, मनोरंजनालय और तरणताल खुलने वाले हैं. तुम और तुम्हारे बच्चों का भविष्य सुधर जायेगा. उनको नौकरी मिलेगी और उनकी जवानी बहुत ऐसे मजे लेते हुए गुजरेगी जैसी तुमने सोची भी नहीं होगी.

किसान सोच में पढ़ गया तो वह बोला-''सृष्टि का नियम है मैं हर जगह जाता हूँ. अभी तुमसे बडे प्यार से कह रहा हूँ, पैसे भी दे रहा हूँ और नहीं मानोगे तो इससे भी जाओगे और तुम्हारे बच्चों का भविष्य भी नहीं बन पाएगा.यहाँ मेरा आना तय है और उसे तुम रोक नहीं सकते.

किसान ने इधर-उधर देखा और पैसे लेते हुए बोला-अब मैं फिर कब आऊँ आपसे मिलने?''
वह कुटिलता से बोला-''एक साल बाद. अभी तो यह पैसा तुम्हारे पास है, जब यह ख़त्म हो जाये तब आना. यह लो और भी पैसा तुम अपना मकान भी खाली कर दो. मैं तुम्हें एक साल बाद अच्छा मकान भी दूंगा.''

एक साल बाद जब अपने पैसे ख़त्म होने के बाद लौटा तो उसने देखा वहाँ सब बदला हुआ था. वह सब वहाँ वह सब था जो विकास ने उसे बताया था. वह पता करता हुआ उसकी कोठी के पास पहुंचा और दरबान से कहा'-मुझे साहब से मिलना है.''

दरबान ने कहा-साहब से क्या तुम्हारी मुलाक़ात तय है तो दिखाओ कोई कागज़, ऐसे अन्दर नहीं जाने दिया जा सकता.''
इतने में उसने देखा कि कार में वही विकास बैठकर बाहर आ रहा है. जैसे ही कर बाहर आयी वह उसके सामने खडा हो गया. विकास बाहर निकला और चिल्लाया-''तुम्हें मरना है?"
किसान बोला-''आपने मुझे नहीं पहचाना. मैं हूँ किसान. आपको यह जमीन दी थी.''
विकास बोला-तो? मैंने तुम्हें पैसे दिए थे. हट जाओ यहाँ से.'
विकास कार में बैठ गया तो किसान उसकी कार के सामने आने की करने लगा पर वह उसे धकियाते हुए निकला गया. कार के पहिये की चोट खाकर वह किसान गिर पडा. एक आदमी ने आकर उसे उठाया. वह आदमी पायजामा कुर्ता पहने हुए था. उसने रोते हुए किसान को उठाया. किसान ने पूछा-''आप कौन?

उसने कहा-''विकास?'
किसान ने पूछा-'' वह कौन था"
आदमी ने कहा-'विनाश! पर अपना नाम विकास बताता है. मैं तुम्हें अपने घर पहुंचा दूं. तुम्हारी मरहम पट्टी करवा दूं. चिंता न करो मैं पैसे खर्च करूंगा.''
किसान ने कहा-''नहीं मैं खुद चला जाऊंगा.'
किसान वहाँ से चला और कहता जा रहा था''विनाश और विकास'
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8 दिसंबर 2008

प्रचार का चक्रव्यूह-व्यंग्य कविता

जीतता है कोई और है
जश्न मनाता कोई और है
हारता कोई और है
उससे अधिक मातम मनाता कोई और है
सपनों के सौदागरों ने
बुन लिया है जाल
लोगों को फंसाने के लिए
एसएम्एस एक चक्रव्यूह की तरह रचा है
जिस पर किसी ने नहीं किया गौर है

सपने दिखाकर लोगों के हमदर्दी
पर अपने जजबातों के सौदागरों में
बहस इस पर नहीं होती कि
क्या सच क्या झूठ है
बल्कि किसने कितना कमाया
इसकी खोज पर होता जोर है
कहै दीपकबापू
कभी-कभी मन बहलाने के
साधन काम पड़ जाएं
तो इन सौदागरों खरीदे हुए
खुशी का जश्न मनाते देख लो
या मातम से जूझता देख लो
जीनते वाला क्या जीता नहीं बताता
हारने वाला भी कहीं छिप जाता
किराए पर खुशी और गम
मनाने वालों का ही सब जगह जोर है

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5 दिसंबर 2008

जंग के लिए मित्रों का जमावडा जरूरी -आलेख

1971 का भारत पाक युद्ध जिन लोगों ने देखा है वह यह बता सकते हैं कि उसमें इस देश ने क्या पाया और खोया? सच तो यह है कि वहां से इस देश के हालत बिगड़े तो फिर कभी संभले ही नहीं। भारतीय अर्थव्यवस्था में महंगाई और बेरोजगारी का दौर शुरू हुआ तो वह आज तक थमा ही नहीं है।

कुछ लोगों को लगता है कि देश का प्रबुद्ध वर्ग केवल बहस कर ही अपना काम चलाता है पर इसका कारण यह है कि 1971 के युद्ध की विजय का उन्माद जब थम गया तब उसके बाद जो हालत इस देश में हुए उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। सच तो यह है कि युद्ध के बाद इस देश के आम और खास दोनों प्रकार कम आदमियों में नैतिक चरित्र का गिरावट का ही प्रमाण मिला। उस सयम अमेरिका सहित अनेक देशों ने भारत पर प्रतिबंध लगाये थे जिससे देश में खाद्य सामग्री के साथ ही मिट्टी के तेल का संकट भी शुरू हो गया था। उस समय बाजार में सामान्य ढंग से उपलब्ध गेहूं, चावल, शक्कर,डालडा घी, मिट्टी का तेल, लक्स और लाईफबाय साबुन बाजार से गायब हो गये और उनको राशन की दुकानों पर बेचा जाने लगा। वैसे उस समय कालाबाजार का दौर शुरू हो गया पर आम आदमी की अधीरता का परिचय दे रहा था। लोगों ने मिट्टी के तेल के कनस्तर भरकर घर में रख लिये जैसे कि एक दिन फिर वह मिलने वाला ही न हो। लाईफबाय और लक्स साबुन को वह लोग भी राशन से लेने लगे जो उसका उपयोग नहीं करते थे। उनको भी यह डर लगने लगा कि कहीं अन्य साबुन मिलना भी बाजार में बंद न हो जाये। जिन लोगों को अपने काम से फुरसत नहीं थी वह अपने बच्चों को इस काम में लगाने लगे। लोग उस समय आवश्यकता से अधिक संग्रह कर रहे थे गोया कि बाजार में प्रलय हो जायेगी। आशय यह है कि फिलहाल तो लोग युद्ध की बात कर रहे हैं पर क्या वह उसके समाप्त होने पर अपने भविष्य को लेकर धीरज रख पायेंगे?

युद्ध के बाद बंग्लादेश की सहायता के लिये कर लगाया गया जो बहुत समय तक चला। अनेक चीजों में वह कर लगा था पर पता नहीं वह सभी सरकारी खजाने में जमा हुआ कि नहीं। आज के अनेक प्रबुद्ध लोगों ने यह दृश्य देखे हैं और इसलिये ही वह दोनों देशों के बीच बृहत युद्ध के विचार को खारिज करते हैं। अंतर्जाल पर अनेक ब्लाग लेखकों ने देश के खास वर्ग के लोगों के नैतिक चरित्र पर उंगली उठायी है पर उनको यहां के आम आदमी का चरित्र भी देखना चाहिये। 1971 का युद्ध जब तक चला खूब उन्माद था। लोग रातभर जागकर अपनी गलियों,मोहल्लों में पहरा देते थे कि कहीं दुश्मन का जासूस न आ जाये। जैसे ही युद्ध समाप्त हुआ सभी लोगे अपने स्वार्थ पूर्ति को लेकर अधीर हो गये और उसके बाद भारतीय अर्थव्यव्स्था में गरीब और अमीर के बीच का भेद बढ़ता ही गया और कालांतर में वह इतना विकराल रूप ले बैठा जिसे आज भी देश भुगत रहा है।
1971 में भारत ने जिस बंग्लादेश को आजाद कराया वह भी कोई पाकिस्तान से कम खतरनाक नहीं है। उसके यहां आतंकवादियों के अनेक शिविर है पर वह उनसे इंकार करता है। पूर्वांचल में चल रहा आतंक केवल उसी के सहारे चल रहा है और इस पर भी वह भारत को आंखें दिखाता है। सच बात तो यह है कि 1971 का विजय अपने आप में एक भ्रम साबित हुई है। ऐसे मेें 37 वर्ष बाद किसी ऐसे दूसरे युद्ध को बिना सोचे प्रारंभ करने का प्रबुद्ध लोग विरोध कर रहे हैं तो उनकी बात भी विचारणीय है पर इसका मतलब यह नहीं है कि कोई सीमित कार्यवाही नहीं की जानी चाहिये।

इसके लिये पाकिस्तान की अंदरूनी स्थिति का फायदा उठाना कोई मुश्किल काम नहीं है। पाकिस्तान में पंजाब प्रांत के प्रभाव का उसके तीन अन्य प्रांतों-सिंध, बलूचिस्तान और सीमा प्रांत में जमकर विरोध होता है। देखा जाये तो पाकिस्तान ने मजहब पर आधारित आतंकवाद को अपने देश में पनाह देकर अपने देश को एक ही किया यह अलग बात है कि अब यह आतंकी अपना खेल उसके इन्हीं क्षेत्रों में दिखाने लगे। आज भी पाकिस्तान का संविधान उसके एक बहुत बड़े भूभाग पर नहीं चलता। ऐसे ही भूभाग पर उसने विदेशी आतंकियों को स्थापित किया है जिनकी वजह से वहां के लोग उसके नियंत्रण में है।
अफगानिस्तान पर सोवियत संध के कब्जे के बाद जब अमेरिका ने उसके खिलाफ युद्ध शुरू किया तो बलूचिस्तान और सीमा प्रात में आतंकवादियों के अड्डे बनाये। सोवियत संघ के वहां से हटने के बाद अमेरिका ने भी उन आतंकियों से मूंह फेर दिया पर उन्होंने इसका बदला उसके यहां वर्डट्रेड सेंटर ध्वस्त कर लिया। उसके बाद अमेरिका ने आतंकवादियों के विरुद्ध जंग छेड़ ली और किसी न किसी स्तर पर भारत ने उसका समर्थन दिया।

अब अमेरिका के समर्थन की भारत को दरकरार है। सच तो यह है कि वह इस समय विश्व का सर्वाधिक संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र है पर वह भारत विरोधी आतंकियों के प्रति उसका रवैया उतना सख्त नहीं है। अब अगर वह भारत को समर्थन देकर आतंकियों के शिविरों को तहस नहस करने के लिये समर्थन देता है तभी कोई सीमित सैन्य कार्यवाही की जा सकती है। उसके बिना ऐसा करने पर बृहद युद्ध छिड़ जाने की आशंका भी बलवती हो सकती है। अब जो कूटनीतिक गतिविधियां विश्व के परिदृश्य पर उभर रही हैं उससे यह कहना आसान नहीं है कि भारत कोई सीमित कार्यवाही भी कर सकेगा। अमेरिका अगर यह मान लेता है कि भारत विरोधी आतंकी उसके भी दुश्मन है तो ठीक है। इसके विपरीत अगर वह अमेरिका को यह समझाने में सफल हो जाते हैं कि वह उसके विरोधी नहीं हैं तो शायद वह वैसा समर्थन नहीं दे। वैसे अमेरिका ने अभी पूरी तरह अपने पते नहीं खोले हैं पर इतना तय है कि वह पाकिस्तान के प्रति अभी झुका हुआ है पर उसे अब भारत के प्रति भी अपना समर्थन व्यक्त करना होगा क्योंकि यह तो वह भी मानता है आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष में भारत का उसे सहयोग मिलता रहा है। 1971 में भारत की विजय पर उसी ने ही प्रतिबंध लगाकर पानी फेरा था यह इस देश का प्रबुद्ध वर्ग जानता हैं। यह तब की बात है कि जब वह इतना शक्तिशाली नहीं था।
मगर यह सभी अनुमान है। आगे कैसा समय आने वाला है यह कहना कठिन है। अपने जन्म के बाद भारी मंदी से जूझ रहे अमेरिका को कई तरह से भारत की आवश्यकता है। ऐसे में यह भी संभव है कि वह कोई ऐसी योजना बना रहा हो जिससे कि सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। पाकिस्तान पर उसकी पकड़ स्पष्ट है और इसके बावजूद अगर वहां भारत विरोधी आतंकी मौजूद हैं तो शक के घेर में वह स्वयं भी आ जाता है। कुल मिलाकर मामला यह है कि भारत को विश्व के सभी देशों को साथ लेकर कोई कार्यवाही करनी होगी क्योंकि अकेले तो अमेरिका भी अभी आंतकवाद के विरुद्ध विजय प्राप्त नहीं कर सका है। किसी युद्ध में विजय अनिश्चित होती है इसलिये काफी विचार कर ही उसे शुरु करना चाहिये। युद्ध से पहले अपने मित्रों का जमावड़ा बड़ी संख्या में करना चाहिये ताकि समय आने पर वह मदद कर सकें।
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1 दिसंबर 2008

जंग तो कर देती है जिंदगी बदरंग-हिंदी शायरी

अच्छा लगता है दूसरों की
जंग की बात सुनकर
पर आसान नहीं है खुद लड़ना
दूसरों के घाव देखकर
भले ही दर्द उभरता है दिल में
पर बहता हो जब अपना खून
तब इंसान को दवा की तलाश में भटकना

अपने हथियार से दूसरों का
खूना बहाना आसान लगता है
पर जब निशाने पर खुद हों तो
मन में खौफ घर करने लगता है
दूसरों के उजड़े घर पर
कुछ पल आंसू बहाने के बाद
सब भूल जाते हैं
पर अपना उजड़ा हो खुद का चमन
तो फिर जिंदगी भर
उसके अहसास तड़पाते हैं
बंद मुट्ठी कुछ पल तो रखी जा सकती है
पर जिंदगी तो खुले हाथ ही जाती जाती है
क्यों घूंसा ताने रहने की सोचना
जब उंगलियों को फिर है खोलना
जंग की उमर अधिक नहीं होती
अमन के बिना जिदंगी साथ नहीं सोती
ओ! जंग के पैगाम बांटने वालों
तुम भी कहां अमन से रह पाओगे
जब दूसरों का खून जमीन पर गिराओगे
क्रिया की प्रतिक्रिया हमेशा होती है
आज न हो तो कल हो
पर सामने कभी न कभी अपनी करनी होती है
मौत का दिन एक है
पर जिंदगी के रंग तो अनेक हैं
जंग में अपने लिये चैन ढूंढने की
ख्वाहिश बेकार है
अमन को ही कुदरत का तोहफा समझना
जंग तो बदरंग कर देती है जिंदगी
कर सको भला काम तो
हमेशा दूसरे के घाव पर मल्हम मलना

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25 नवंबर 2008

इस जहां में बिकता है ख्वाब-हिंदी शायरी

आकाश में चांद को देखकर
उसे पाने की चाह भला किसमें नहीं होती
पर कभी पूरी भी नहीं होती

शायरों ने लिखे उस पर ढेर सारे शेर
हर भाषा में उस पर लिखे गये शब्द ढेर
हसीनों की शक्ल को उससे तोला गया
उसकी तारीफ में एक से बढ़कर एक शब्द बोला गया
सच यह है चांद में
अपनी रोशनी नहीं होती
सूरज से उधार पर आयी चांदनी
रोशनी का कतरा कतरा उस पर बोती
मगर इस जहां में बिकता है ख्वाब
जो कभी पूरे न हों सपने
उनकी कीमत सबसे अधिक होती
सब भागते हैं हकीकत से
क्योंकि वह कभी कड़वी तो
कभी बहुत डरावनी होती
सूरज से आंख मिला सके
भला इतनी ताकत किस इंसान में होती

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16 नवंबर 2008

कभी वह अच्छा लगा तो कभी बुरा-हिंदी शायरी

एक दिन घूमते हुए उसने
चाय पिलाई तब वह अच्छा लगा
कुछ दिन बाद वह मिला तो
उसने पैसे उधार मांगे तब वह बुरा लगा
फिर एक दिन उसने
बस में साथ सवारी करते हुए
दोनों के लिये टिकिट खरीदा तब अच्छा लगा
कुछ दिन बाद मिलने पर
फिर उधार मांगा
पहली बार उसको दिया उधार पर
फिर भी बहुत बुरा लगा
एक दिन वह घर आया और
सारा पैसा वापस कर गया तब अच्छा लगा
वह एक दिन घर पर
आकर स्कूटर मांग कर ले गया तब बुरा लगा
वापस करने आया तो अच्छा लगा

क्या यह सोचने वाली बात नहीं कि
आदमी कभी बुरा या अच्छा नहीं होता
इसलिये नहीं तय की जा सकती
किसी आदमी के बारे में एक राय
हालातों से चलता है मन
उससे ही उठता बैठता आदमी
कब अच्छा होगा कि बुरा
कहना कठिन है
चलाता है मन उसे जो बहुत चंचल है
जो रात को नींद में भी नहीं सोता
कभी यहां तो कभी वहां लगा

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9 नवंबर 2008

जब आये सोच की बारी आदमी हार जाता-हिंदी शायरी

एक तलाश पूरी होते ही
आदमी दूसरी में जुट जाता
अंतहीन सिलसिला है
अपने मकसद रोज नये बनाता
पूरे होते ही दूसरे में जुट जाता
भरता जाता अपना घर
पर कीमती समय का जो मिला है खजाना
नहीं देखता उसकी तरफ
जो हर पल लुट जाता

धरती के सामानो से जब उकता जाता
तब घेर लेती बैचेनी
तब चैन पाने के लिये आसमान
की तरफ अपने हाथ बढ़ता
दिल को खुश कर सके
ऐसा सामान भला वहां से कब टपक कर आता
हाथ उठाये सर्वशक्तिमान का नाम पुकारता
कभी नीली छतरी के नीचे
कभी पत्थर की छत को टिकाये
दीवारों के पीछे
पर फिर भी उसे तसल्ली का एक पल नहीं मिल पाता

हर पल दौड़ते रहने की आदत ऐसी
कि रुक कर सोचने का ख्याल कभी नहीं आता
जिंदगी में लोहे, लकड़ी और प्लास्टिक के सामान
जुटाता रहा
पर फिर उनका घर कबाड़ बन जाता
जिनके आने पर मनाता है जश्न
फिर उनके पुराने होने पर घबड़ाता
आदमी दिमाग के सोचने से परे होने का आदी होता
जब आये सोच की बारी वह हार जाता
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6 नवंबर 2008

शुरू से आखिर तक दुनियां में ओबामा ही छाए रहे-संपादकीय

अमेरिका 232 वर्ष के इतिहास में पहली बार कोई अश्वेत राष्ट्रपति बना है। बराक ओबामा ने वहां चुनाव में विजय हासिल कर ली है। हालांकि पहले भी अमेरिका में चुनाव होते रहे हैं, पर शायद यह पहली बार है कि प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार का नाम भी लोग नहीं जान पाये-जी हां, उनका नाम जान मैक्कैन है। एक तरह से ओबामा की की इस जीत में प्रचार माध्यमों के साथ अंतर्जाल पर इतना प्रचार हुआ कि उनका कोई प्रतिद्वंद्वी भी है इसका आभास ही नहीं होता था। ऐसा लगता है कि वह तो अकेले ही दुनियां के इस शक्त्शिाली पद की की तरफ बढ़ रहे हैं। अमेरिका के इस राष्ट्रपति चुनाव में अन्य प्रचार माध्यमों के साथ ही अंतर्जाल ने ओबामा को विजयी पाने का निश्चय कर लिया था और इसमें सफलता मिली-ऐसा अब प्रतीत होता है।
पहले अमेरिका के पूर्व बिल क्लिंटन की पत्नी हैनरी क्लिंटन के साथ पार्टी में ही उम्मीदवारी पर हुई प्रतिद्वंद्वता के दौरान दोनों को खूब प्रचार मिला। विश्व भर के प्रचार माध्यमों के साथ अंतर्जाल पर भी दोनों के बारे में खूब लिखा गया। जहां भी देखो वही ओबामा और हैनरी क्लिंटन के नाम पर कुछ न कुछ लिखा जरूर कुछ न कुछ जरूर मिलता था। जब तक हैनरी क्लिंटन अपनी पार्टी में उनकी प्रतिद्वंद्वी रही तक उनका नाम जरूर चमका पर बाद में अकेल ओबामा ही पूरी दुनियां में छा गये। न केवल प्रचार माध्यमों बल्कि अंतर्जाल पर भी उनके बारे में इतना लिखा गया कि चुनाव में उनके प्रतिद्वंद्वी का नाम तो शायद अब बहुत कम ही लोग याद रख पायें।

वर्डप्रेस पर लिखने वाले ब्लाग लेखक जब भी अपने ब्लाग के डेशबोर्ड की तरफ जाते तब उनके सामने ओबामा पर लिखा गया कोई न कोई पाठ अवश्य पड़ जाता। इससे यह आभास हो गया था कि ओबामा ही वहां के राष्ट्रपति बनेंगे क्योंकि अमेरिका में इंटरनेट का उपयोग बहुत होता है। हालांकि भारत में भी प्रयोक्ता कम नहीं है पर उनके उद्देश्य सीमित है और बहुत कम लोग अभी पढ़ने लिखने के लिये तैयार दिखते हैं इसलिये अंतर्जाल के सहारे यहां किसी को ऐसी सफलता की तो सोचना भी नहीं चाहिये। इस लेखक ने पिछले छह माह से ऐसा कोई दिन नहीं देखा जब ओबामा के नाम पर लिखा गया कोई पाठ उसके सामने न पड़ा हो।

हालांकि पहले यह लगा कि यह एकतरफा प्रचार भी हो सकता है क्योंकि अमेरिकी मतदाता शायद प्रचार माध्यमों की लहर में न बहें जैसा कि भारत में देखा जाता है पर लगता है कि वहां भी ऐसा ही हुआ हैं-कम से कम चुनाव परिणाम देखकर तो यही लगता है।

ओबामा की जीत को सबसे बड़ा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वह अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति हैं। अमेरिकनों पर रूढि़वादी होने को आरोप लगता है पर जिस तरह वहां पहला अश्वेत राष्ट्रपति बना इस बात को प्रमाण है कि वहां वाकई खुली विचार धारा पर चलने वाला समाज है। यही कारण है कि लाख विरोधों के बावजूद आज भी अमेरिका लोगों को भाता है। ओबामा ने इस चुनाव प्रचार के दौरान भारत के प्रवासी और अप्रवासी भारतीयों को प्रसन्न करने वाली बहुत सारी बातें कही-कुछ लोगों ने तो उनकी जेब में हनुमान जी की मूर्ति होने की बात भी लिखी। पाकिस्तान के प्रति उनके बयान कोई अधिक उत्साहवर्धक नहीं हैं पर यह तो भविष्य ही बतायेगा कि वह क्या करते हैं-क्योंकि भाषणों में कोई बात कहना अलग बात है और शासन में आने पर उन पर चलना एक अलग मामला है। शासन में अनेक अधिकारीगण अपने हिसाब से चलने को भी बाध्य करते हैं। वैसे भी अमेरिका की विदेश नीति में सबसे अधिक अपने हित ही महत्वपूर्ण होते हैं बाकी सिद्धांत तो ताक पर रखे जा सकते हैं।

वैसे जहां तक भारत और अमेरिकी संबंध हैं तो वह निरंतर बढ़ ही रहे हैं और उनमें कोई रुकावट आयेगी इसकी संभावना नहीं लगती। इधर पाकिस्तान मेें अमेरिका हस्तक्षेंप बढ़ रहा है उससे दोनों का आपसी विवाद बढ़ सकता है। वैसे भी चीन और पाकिस्तान के संबंध जिस दौर में जाते दिख रहे हैं. और ऐसा लग रहा था कि चुनावों में व्यस्तता के कारण अमेरिका प्रशासन उन पर उदासीनता दिखा रहा है-उस पर ओबामा का क्या नजरिया है यह जानना कई लोगों की दिलचस्पी का विषय है। अभी तक श्वेत राष्ट्रपति चुनने वाले अमेरिकन मतदाताओं ने एक अश्वेत राष्ट्रपति को चुनकर अपने उदार और खुले दिमाग का होने का परिचय दिया उससे विश्व के अन्य समाजों को सीखना चाहये। खासतौर से एशिया के देशों के लोगों को सीखना चाहिये जो संकीर्ण विवादों में ही अपना समय नष्ट करते हैं और आदमी की काबलियत देखने की बजाय उसकी जाति,धर्म,भाषा, और क्षेत्र देखते हैं। जिस तरह विश्व में आर्थिक मंदी छायी हुई है और उससे विश्व में अनेक प्रकार के समीकरण बदलने की संभावना है उसे देखते हुए ओबामा का यह कार्यकाल उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों से अधिक एतिहासिक और व्यस्त भी रह सकता है। कम से कम एक बात तो यह है कि वह जार्ज बुश से अधिक वह भारत के बारे में जानते हैं। जार्जबुश ने अपने चुनाव के दौरान भारत के बारे में अपनी अनभिज्ञता प्रकट की थी जबकि ओबामा ने कई बार भारत का नाम लिया। अपने चुनाव प्रचार में भारत द्वारा चंद्रयान भेजने पर उन्होंने अपने नासा के कार्य में सुधार की बात कही यह इस बात का प्रमाण है।
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3 नवंबर 2008

शराब खुद ही बीमारी है-व्यंग्य कविता

मयखानों में भीड़ यूं बढ़ती जा रही हैं
जैसे बह्ती हो नदिया जहां दो घूँट पीने पर
हलक से उतारते ही शराब दर्द बन जायेगी दवा
या खुशी को बढा देगी बनकर हवा
रात को हसीन बनाने का प्रयास
हर घूँट पर दूसरा पीने की आस
अपने को धोखा देकर ढूंढ रहे विश्वास
पीते पीते जब थक जाता आदमी
उतर जाता है नशा
तब फिर लौटते हैं गम वापस
खुशी भी हो जाती है हवा
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शराब का नशा चढ़ता नहीं तो पीता कौन
उतरता नहीं तो खामोश होता कौन
गम और दर्द का इलाज करने वाली दवा होती या
खुशी को बढाने वाली हवा होती तो
इंसान शराब पर बना लेता जगह जगह
बना लेता दरिया
मगर सच से कुछ देर दूर भगा सकती हैं
बदलना उसके लिए संभव नहीं
इसलिए नशे में कहीं झूमते हैं लोग
कहीं हो जाते मौन
शराब खुद ही बीमारी हैं
यह नहीं जानता कौन

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31 अक्तूबर 2008

फरिश्तों के नाम पर तो आकाश बन जाता है -हिन्दी कविता

अपने ख्यालों के साथ इंसान
जिन्दगी में यूं ही चलता जाता है
कोई बहाता है खून लोगों का
कोइ अपनी खून बहाकर
लोगों को पार लगा जाता है
शैतानों का चमकता है आकाश में कुछ देर ता
पर दूसरों का दर्द हल्का करने वाले फरिश्तों का
नाम पर तो आकाश ही बन जाता है
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कहीं प्रेम का दरिया बहेगा
कहीं भड़केंगे नफरत के शोले
कहीं बेकसूरों का खून बहेगा
कहीं कसूरवारों के सिर पर मुकुट सजेगा

जब न हो अपने पास फैसले की ताकत
तब भला क्या करिएगा
लोग भागते हो जब अपने जिम्मे से
तब कौन शेर बनेगा
जिंदगी की अपनी धारा
फूल चुनो या कांटे
दृश्य देखने के लिए दो ही हैं
कही केवल होता है मौत का सौदा
कहीं दरियादिल बांटते हैं दया
इंसानियत के दुश्मनों से लड़ते हैं बनकर योद्धा
जो अच्छा लगे उसे ही देखों
खतरनाक दृश्य भला क्या देखना
नहीं है जिंदगी के सौदागरों का भरोसा
कहीं उडाया बम कहीं इनाम परोसा
नज़रों के दरवाजे से दिल पर
कब्जे की जंग चलती दिख रही है सभी जगह
हो न हो बना लेते हैं कोई न कोई वजह
नफरत की नहीं
बाजार में अब प्रेम की जंग बिकती हैं
हर कहानी पैसे की दम पर लिखी दिखती है
छोड़ दो ऐसी जंगो पर सोचना
एक इंसान के रूप तभी तुम्हारा चेहरा बचेगा
वरना प्रेम का दरिया तो बहता रहेगा
नफरत के शोले भी जलते रहेंगे
तुम देखते और पढ़ते रहे दूसरों की कहानी
तो तुम्हारा दिल अपने हाल कब पढेगा

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26 अक्तूबर 2008

गृहलक्ष्मी के साथ आने वाला सामान है-हास्य कविता

रिश्ते की बात करते हुए
वर पक्ष ने जमकर डींग मारीं
'हमारे पास अपना आलीशान मकान है
अपनी बहुत बड़ी दुकान है
घर में रंगीन टीवी, फ्रिज,ऎसी और
कपडे धोने की मशीन है
रसोई में बनते तमाम पकवान हैं'
रिश्ता तय होते ही अपनी
मांगों की सूची कन्या पक्ष को थमा दीं
जिसमें तमाम तरह का मांगा था सामान
जैसे बेटा बिकाऊ इन्सान है

कन्या के पिता ने रिश्ते से
इनकार करते हुए कहा
'आपके घर में बहु की कमी थी
वही पूरी करने के लिए मैं अपनी
बेटी का हाथ देने को तैयार था
पर मुझे लगता है कि
उसकी आपको कोई जरूरत नहीं
क्योंकि आपकी प्राथमिकता
गृह लक्ष्मी को घर में जगह देने की बजाय
उसके साथ आने वाला सामान है'
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21 अक्तूबर 2008

जैसे कोई बम पहने हों-हास्य कविता


जब से मोबाइल की बैटरी
फ़टने की खबर आई है लोग सहमे हैं
जिनके लिये मोबाइल
कोई फोन नहीं बल्कि गहने हैं
बैटरी खराब होने और
उसके फटने के भय से
लोग इधर-उधर
कर रहे हैं पूछताछ
जैसे कोई बम पहने हैं
मोबाइल फोन में खरा सोने की
तरह माने जाने वाली कंपनी का नाम
अब पानी में लगा बहने है

वाह रे बाजार तेरा खेल
जो मीडिया बनता है दोस्त
बडी-बडी कंपनियों का
दुश्मन बनते उसे देर नहीं लगती
लोकतंत्र में मीडिया के होते लोगों के
आंख, कान और अकल में प्राण
जब वह खुल हों तो
मीडिया भी बदल जाता है
दिखावे ले लिये ही सही
जनहित पर उतर आता है
अस्तित्व है तो विज्ञापन
फिर भी मिलते रहेंगे
जनता के दृष्टि में गिर गये
तो कंपनी वाले भी नहीं पूछेंगे
भौतिक साधन के उपयोग से
जो रचे गये हैं आडंबर
सब एक-एक न दिन ढहने हैं
अभी तो शुरूआत है यह
समय को कई ऐसे किससे कहने हैं

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13 अक्तूबर 2008

क्या प्यार और जंग में कुछ भी करना ठीक है-आलेख

प्रेम और युद्ध में सब जायज है। क्या इस तर्क को सही मान लिया जाये? पूरी तरह यथार्थ मीवन जीने वाले लोग इसे अपना आदर्श वाक्य मानते हैं। याद रखने लायक बात यह है कि यह सिद्धांत पश्चिमी अवधारणा आधारित है, और हमारी भारतीय और हिंदू मान्यताओं के ठीक विपरीत है। हमारे यहाँ प्रेम में संयम और युद्ध में भी नियम माना जाता है। प्रेम के बारे में कहा जाता है वह निस्वार्थ होना चाहिए और युद्ध में पीठ दिखा रहे शत्रु और शरण में आये शत्रु देश के नागरिक पर भी कभी प्रहार नहीं करना चाहिऐ। जिस शत्रु ने हथियार डाल दिए हौं और जिसने आधीनता स्वीकार कर ली हो उसके प्रति मैत्री का भाव रखना चाहिऐ। पश्चिम की विचारधारा किसी नियम को नहीं मानती-क्योंकि वह केवल दैहिक और भौतिक सिद्धांतों परा आधारित है जबकि भारतीय विचारधारा अध्यात्म पर आधारित है।

प्रेम में सिर्फ लाभ और लोभ का भाव है। स्त्री से प्रेम है तो केवल उसके शारीरिक सौन्दर्य के आकर्षण के कारण और पुरुष है तो उसके धन के कारण है-यही कहती है पश्चिम की धारणा। पर हमारा दर्शन कहता है कि इस जीवन में भौतिक आकर्षण क्षणिक है और उसे मानसिक संतोष नहीं प्राप्त होता अत: निस्वार्थ प्रेम करना चाहिए जिससे मन में विकार का भाव न आये और जिससे हम प्रेम करें उससे सात्विक रुप से देखें उसमे गुण देखे और अगर उसमें दोष दिखायी दें तो उसे सचेत करें। उसके प्रेम से हमारे मन को संतोष होना चाहिए न कि लोभ और लालच की भावना उत्पन्न हो जो अंतत: हमारे मन में विकार उत्पन्न करती है।

प्रेम और युद्ध में सब जायज मानना इस बात का प्रतीक है कि आदमी को एकदम स्वार्थी होना चाहिये और अगर सभी लोग इस रास्ते पर चलने लगें तो विश्व में सहकारिता, सदभाव और सदाचार की भावना ही खत्म हो जायेगी।
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12 अक्तूबर 2008

भारत की तरक्की चमत्कार नहीं है-आलेख


"द फाल ऑफ़ ए डायनेस्टी, दिल्ली १८५७" किताब के लेखक जाने-माने इतिहासकार विलियम डेरिम्पल के अनुसार पश्चिमी मीडिया के यह सोच ही गलत है कि भारत की तरक्की अपने आप में कोई 'चमत्कार' है। उनकी राय में तो यह एक बार फिर दुनिया भर के कारोबार की पुरानी परंपराओं पर लौटना मात्र है।


भारत में कुछ लोग अपने देश में भौतिक साधनों की बहुलता के चलते इतने भ्रमित हो गये हैं कि उन्हें विश्व के विकसित देशों की मुक़ाबले अपने देश का विकास अत्यंत नगण्य लगता है और कभी पहले सोवियत सोवियत संघ, जर्मनी और जापान जैसा अपने देश को बनाने का विचार आता था तो अब भारत को चीन और अमेरिका जैसा बनाने की बात चल रही है। सबसे बड़ी बात यह है जिन लोगों ने अंग्रेजी पढी है और लिखना भी सीख लिया है उन्हें अपना देश हमेशा अविकसित और पिछडा ही दिखाई देता है- उनके लिए विकास का अर्थ है केवल आर्थिक और भौतिक विकास ही है।


भारत की प्राचीन परंपराएं और संस्कार उनके लिए भोंदूपन का परिचायक है-ऐसे लोग यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि विश्व में भारत का सम्मान उसकी उन आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं की वजह से है जिससे भौतिकता से उपजे तनाव में शांति की स्थापना होती है। भगवान् श्री राम और श्री कृष्ण के चरित्र पर आज भी विकसित राष्ट्रों में शोध चल रहे हैं और उनके संदेशों को नये संदर्भों में भी उतना उपयुक्त पाया गया है जितना प्राचीन समय में देखा जाता था। भगवान महावीर, बुद्ध और गुरूनानक जीं के संदेश आज भी उतने ही प्रासंगिक है, यह बात विदेश के विद्वान कह रहे है और हमारे देश के कुछ विद्वान लोगों को यहाँ अंधविश्वास, कुरीतिया और पिछडापन ही दिखाई देता है।


विकास!बस विकास! देश में भौतिक साधनों के कबाडे को एकत्रित करना ही विकास का परिचायक नहीं हो सकता। कबाडा मैंने इसलिये कहा क्योंकि हर वस्तु का मोडल तीन माह में पुराना हो जाता है। एक साल में नयी तकनीकी आ जाती है और अपने घर में रखी चीज ही कबाड़ दिखाई देती है। लोग कहते हैं कि चीन ने बहुत विकास किया है और उसकी चीजें बहुत सस्ती हैं। मैं उस दिन अपने घर की सफाई कर रहा था तो मैंने देखा के अनेक चीनी वस्तुओं का कबाड़ उनमें भरा पडा था। उसकी कई चीजे जो मैं सस्ती और उपयोगी समझ कर ले आया था वह एक या दो दिन और अधिक से अधिक एक सप्ताह चलीं थीं। उससे आठ गुना महंगी भारतीय वस्तुएं आज भी अपनी काम दे रहीं है। तब मुझे लगता है कि वास्तव में विश्वसनीयता ही भारत की पहचान है और मुझे इस पर गर्व होता है।


आज जो भारत का स्वरूप है वह हमारी पुरानी पीढ़ियों के परिश्रम, तपस्या और मनोबल के कारण है न कि किसी विदेशी राष्ट्र की कृपा से है। यहाँ के लोगों ने शिक्षा प्राप्त कर विदेश में नाम कमाया है और उन देशों की सेवा की है पर क्या किसी देश ने हमें परमाणु, अन्तरिक्ष या किसी अन्य क्षेत्र में हमें तकनीकी ज्ञान दिया है? कतई नहीं। अनेक भारतीय वैज्ञानिक अमेरिका की सेवा कर रहे है यहाँ उनकी इस बात पर गर्व करते हैं पर क्या अमेरिका ने कभी हमें संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्यता दिलवाने का वादा किया है ? नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा। अभी भी भारत का नाम इस मामले में प्रस्तावित नहीं है । अगर सदस्यता मिली भी तो बिना वीटो पॉवर के मिलेगी जो कि अभी भी बहुत दूर है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी महत्ता खो चूका है और वह अमेरिका की जेबी संस्था बन कर रह गया है।


विकास केवल भौतिक ही नहीं होता वरन मानसिक शांति और और आध्यात्मिक ज्ञान होना भी उसका एक भाग है-और इस विषय में भारत का एकाधिकार है यही वजह है कि भारत को विश्व में आध्यात्म गुरू कहा जाता है। अनेक भारतीयों ने पश्चिम में जाकर आर्थिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में भारी-भरकम उपलब्धि प्राप्त की है पर फिर भी इस देश की छबि उनके कारण नहीं वरन महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद , रामकृष्ण परमहंस और महर्षि अरविंद जैसे मनीषियों और विद्वानों के संदेशों से है-पूरा विश्व उनके संदेशों को मान्यता देता है। भौतिक विकास एक सामयिक आवश्यकता होता है पर आध्यात्मिक और मानसिक शांति के बिना उसका कोई लाभ नहीं होता। जो लोग इस देश को पश्चिम की अवधारणाओं पर चलाना चाहते हैं उन्हें यह बात समझ लेना चाहिए कि गरीबी , अशिक्षा, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी वहां भी हैं और इसी कारण कुछ पश्चिमी देशों में विदेशियों पर हमले भी होते हैं क्योंकि वहाँ के मूल निवासियों को लगता है कि उन लोगों ने उनके अधिकारों का हनन किया है।


वैसे भी अपने देश में कहा जाता है कि दूर के ढोल सुहावने-इस उक्ति को ध्यान में रखते हुए अपने देश को किसी पश्चिमी देश की स्वरूप में ढाँचे देखने की इच्छा करने की बजाये अपने ही आध्यात्मिक ज्ञान और संस्कारों के साथ प्राचीन विज्ञान को नये संदर्भों में व्याख्या करना चाहिऐ।


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8 अक्तूबर 2008

ख्याली पुलाव किसके लिए पकाना-हिन्दी शायरी


अब दिल नहीं भरता किसी की तस्वीर से
लड़ते लड़ते हार गये अब अपने तकदीर से
अपने दिल में मोहब्बत सजा कर रखी थी कई बरस
पर कभी उनको नहीं आया हमारी बक्रारे पर तरस
हर बार उनके इन्तजार के सन्देश लगे तीर से
लगता है अब तस्वीरों से क्या दिल लगाना
ख्याली पुलाव भला किसके लिए पकाना
इसलिए अपने लिए खुद ही बन जाते हैं पीर से

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4 अक्तूबर 2008

अपने अह्सास अकेले में ही सजाना अच्छा लग्ता है-हिंदी शायरी

अपने अह्सासों की धारा में
बह्ते जाना ही अच्छा लगता है
लोगों की मह्फ़िल में
अपने दर्द का हाल सुनाकर
उनका दिल बहलाने से
अपने दिलदिमाग में
उठती गिरती ख्यालों की लह्रों में
डूबना उतरना अच्छा लगता है
बयां करो जो अपने दिल का दर्द
बनता है हमदर्द सामने दिखाने के लिये
पूरा ज़माना
पर नज़रों से हटते ही
हंसता है हमारे हाल पर
इसलिये अकेले में ही
अपनी सोच और ख्याल में
अपने अह्सास सजाना
कही ज्यादा अच्छा लगता है

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28 सितंबर 2008

महफिलों में नहीं असली शायर का काम-हिंदी शायरी

लोगों को आपस में
मिलाने के लिये किया हुआ है
उन्होंने शामियानों का इंतजाम
बताते हैं जमाने के लिये उसे
भलाई का काम
खुद सज जाते हैं हमेशा दूल्हों की तरह
अपना नाम लेकर
पढ़वाते हैं कसीदे
उनके मातहत बन जाते सिपहसालार
वह बन जाते बादशाह
बाहर से आया हर इंसान हो जाता आम

जिनको प्यारी है अपनी इज्जत
करते नहीं वहा हुज्जत
जो करते वहां विरोध, हो जाते बदनाम
मजलिसों के शिरकत का ख्याल
उनको इसलिये नहीं भाता
जिनको भरोसा है अपनी शख्यिसत पर
शायद इसलिये ही बदलाव का बीज
पनपता है कहीं एक जगह दुबक कर
मजलिसों में तो बस शोर ही नजर आता
ओ! अपने ख्याल और शायरी पर
भरोसा करने वालोंे
मजलिसों और महफिलों में नहीं तुम्हारा काम
बेतुके और बेहूदों क्यों न हो
इंतजाम करने वाले ही मालिक
सजते हैं वहां शायरों की तरह
बाहर निकल कर फीकी पड़ जायेगी चमक
इसलिये दुबके अपने शामियानों के पीछे
कायरों की तरह
वहां नहीं असली शायर का काम

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27 सितंबर 2008

समझने और समझाने का अभियान-व्यंग्य आलेख

बहुत दिन से हमारे दिमाग में यह बात नहीं आ रही कि आखिर कौन किसको क्या और क्यों समझा रहा है? कब समझा रहा है यह तो समझ में आ रहा है क्योंकि चाहे जब कोई किसी को समझाने लगता है? मगर माजरा हमारी समझ में नहीं आ रहा है। कहीं छपा हुआ पढ़ते हैं या कोई दिखा रहा है तो उसे पढ़ते हैं, मगर समझ में कुछ नहीं आ रहा है।

देश में अनेक जगह पर बम फटे उसमें अनेक लोग हताहत हुए और कई परिवारों पर संकट टूट पड़ा। सब जगह तफशीश चल रही है पर इधर बुद्धिजीवियों ने देश में बहस शुरू कर दी है। अमुक धर्म देश तोड़ता है और अमुक तो प्रेम का संदेश देता है। जाति, भाषा और धर्म के लोग बहस किये जा रहे हैं। किसी से पूछो कि भई क्या बात है? आखिर यह बहस चल किस रही है।’

जवाब मिलता है कि ‘क्या करें विषयों की कमी है।’

जवाब सुनकर हैरानी होती है। फिर सोचते हैं कि ‘जिनको वाद और नारों पर चलने की आदत हो गयी है कि उनके लिये यह कठिनाई तो है कि जो विषय अखबार और टीवी पर दिखता हो उसके अलावा वह लिखें किस बात पर? फिर आजकल लो आलेख और व्यंग्य तात्कालिक मुद्दों पर लिखने के सभी अभ्यस्त हैं। वाद और नारों जमीन पर खड़े लेखक लोग समाज की थोड़ी हलचल पर ही अपनी प्रतिक्रिया देना प्रारंभ कर देते हैं। आदमी का नाम पूछा और शुरू हो गये धर्म, जाति और भाषा के नाम पर एकता का नारा लेकर। अगर अपराधी है तो उसकी जाति,भाषा और धर्म की सफाई की बात करते हुए एकता की बात करते हैं। हमारे एक सवाल का जवाब कोई नहीं देता कि क्या ‘आतंकी हिंसा अपराध शास्त्र से बाहर का विषय है?’

अगर आजकल के बुद्धिजीवियों की बातें पढ़ें और सुने तो लगता है कि यह अपराध शास्त्र से बाहर है क्योंकि इसमें हर कोई ऐसा व्यक्ति अपना दखल देकर विचार व्यक्त करता है जैसे कि वह स्वयं ही विशेषज्ञ हो। व्यवसायिक अपराध विशेषज्ञों की तो कोई बात ही नहीं सुनता। अपराध के तीन कारण होते हैं-जड़ (धन),जोरु (स्त्री) और जमीन। मगर भाई लोग इसके साथ जबरन धर्म, जाति और भाषा का विवाद जोड़ने में लगे हैं। यानि उनके लिये यह अपराध शास्त्र से बाहर का विषय है।

हम तो ठहरे लकीर के फकीर! जो पढ़ा है उस पर ही सोचते हैं। कभी सोचते हैं कि अपराध शास्त्र के लोग अपने पाठ्यक्रम का विस्तार करें तो ही ठीक रहेगा। अब इन तीनों चीजों के अलावा तीन और चीजें भी अपराध के लिये उत्तरदायी माने-धर्म,जाति और भाषा।’

यहां यह स्पष्ट कर दें कि हमने अपराध शास्त्र नहीं पढ़ा उनका एक नियम हमने रट रखा है कि अपराध केवल जड़,जोरु और जमीन के कारण ही होता है। अगर अपराध शास्त्री उसमें तीन से छह कारण जोड़ लें तो हम भी अपनी स्मृतियों में बदलाव करेंगे। अपने दिमागी कंप्यूटर में तीन से छह कारण अपराध के फीड कर देंगे। बाकी जो अन्य विद्वान है उनसे तो हम इसलिये सहमत नहीं हो सकते क्योंकि हम भी अपने को कम विद्वान नहीं समझते। एक विद्वान दूसरे विद्वान से सहमत नहीं होता यह भी हमने कहीं पढ़ा तब से चाहते हुए भी असहमति व्यक्त कर देते हैं ताकि मर्यादा बनी रहे। हां, कोई अपराध शास्त्री कहेगा तो उसे मान जायेंगे। इतना तो हम भी जानते हैं कि अपने से अधिक सयानों की बात मान लेनी चाहिये।


सभी आतंकी हिंसा की घटनाओं की चर्चा करते हैंं। हताहतों के परिवारों पर जो संकट आया उसका जिक्र करने की बजाय लोग उन मामलों में संदिग्ध लोगों पर चर्चा कर रहे हैं। उनके धर्म और जाति पर बहस छेड़े हुए हैं। अब समझाने वालों के जरा हाल देखिये।

एक तरफ कहते हैं कि दहशत की वारदात को किसी धर्म,जाति या भाषा से मत जोडि़ये। दूसरी तरफ जब वह उस पर चर्चा करते हैं तो फिर अपराधियों की जाति, भाषा और धर्म को लेकर बहस करते हैं। वह धर्म ऐसा नहीं है, वह जाति तो बहुत सौम्य है और भाषा तो सबकी महान होती है। अब समझ में नहीं आता कि वह कि हिंसक घटना से धर्म, जाति और भाषा से अलग कर रहे हैं या जोड़ रहे हैं। यह हास्याप्रद स्थिति देखकर कोई भी हैरान हो सकता है।

फिर कहते हैं कि संविधान और कानून का सम्मान होना चाहिये। मगर बहसों में संदिग्ध लोगों की तरफ से सफाई देने लगते हैं। एक तरफ कहते हैं कि अदालतों में यकीन है पर दूसरी तरफ बहस करते हुए किसी के दोषी या निर्दोष होने का प्रमाण पत्र चिपकाने लगते हैं। इतना ही नहीं समुदायों का नाम लेकर उनके युवकों से सही राह पर चलने का आग्रह करने लगते हैं। हम जैसे लोग जो इन वारदातों को वैसा अपराध मानते हैं जैसे अन्य और किसी समुदाय से जोड़ने की सोच भी नहीं सकते उनका ध्यान भी ऐसे लोगों की वजह से चला जाता है।

इस उहापोह में यही सोचते हैं कि आखिर लिखें तो किस विषय पर लिखें। अपराध पर या अपराधी के समुदाय पर। अपराध की सजा तो अदालत ही दे सकती है पर अपराधी की वजह से जाति,धर्म, और भाषा के नाम पर बने भ्रामक समूहों की चर्चा करना हमें पसंद नहीं है। ऐसे में सोचते हैं कि नहीं लिखें तो बहुत अच्छा। जिन लोगों ने इन वारदातों में अपनी जान गंवाई है उनके तो बस जमीन पर बिखरे खून का फोटो दिखाकर उनकी भूमिका की इतिश्री हो जाती है और उनके त्रस्त परिवार की एक दो दिन चर्चा रहती है पर फिर शुरू हो जाता है अपराधियों के नाम का प्रचार। हादसे से पीडि़त परिवारों की पीड़ा को इस तरह अनदेखा कर देने वाले बुद्धिजीवियों को देखकर उनके संवेदनशील होने पर संदेह होता है।

फिर शुरू होता है समझने और समझाने का अभियान। इस समय सभी जगह यह समझने और समझाने का अभियान चल रहा है। हम बार बार इधर उधर दृष्टिपात करते हैं पर आज तक यह समझ में नहीं आया कि कौन किसको क्या और क्यों समझा रहा है? समझाने वाला तो कहीं लिखता तो कहीं बोलता दिखता है पर वह समझा किसको रहा है यह दिखाई नहीं देता।
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23 सितंबर 2008

इज्जत की खातिर क्या न किया-हिंदी शायरी


अपने खानदान की इज्जत

बचाने के लिये क्या नहीं किया

जमाने भर को दी दावत

जगमगा दिया मेहमानों के आने का रास्ता

अपनी मुस्कान बिखेर दी हर मिलने वाले से

पर फिर भी शिकायतों ने हैरान किया

खाने में स्वाद की कमी

शराब के खराब होने की चर्चा

शमियाने के बेढंगे होने की बात

जिसे इज्जत की खातिर किया वह

फिर भी नसीब नहीं हुई

चाहे जिंदगी की बचत को हवा किया

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22 सितंबर 2008

कर्ज के मर्ज का इलाज कहीं नहीं मिलता है-हिंदी शायरी

बाजार अब केवल सड़क पर ही नहीं सजते
उनके बैंड तो अब घर घर बजते
विज्ञापन के युग का हुआ है यही असर
जेब में पैसा नहीं हो फिर भी
खरीददार तो कर्ज लेकर चीज लाने के लिये सजते
फिर तो आगे किश्तों की खाई है
उससे भला लोग कहां बचते
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किश्तों में खरीदने के लिये
कर्ज भी मिलता है
सच है मर्ज भी किश्तों में
शरीर को मिलता है
उसके इलाज के लिय भी कर्ज मिलता है
जब तब इंसान के जिस्म में खून है
उसे पीने के लिये
मच्छर तो हर जगह है मौजूद
रोज की कहानियों कोई न कोई
हादसा दर्ज होता
पर कर्ज के मर्ज का इलाज कहीं नहीं मिलता
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21 सितंबर 2008

अगर समझते तो अमीर नही बन जाते-लघुकथा

उन्होंने अपनी गाड़ी थोड़ी दूर बनवाई। जब वह मैकनिक को पैसे दे रहे थे तब उनके साथ एक मित्र भी था। अपने आपको स्याना साबित करने के लिये उन्होंने मैकनिक पैसे किच किच कर दिये। जितने उसने मांगे थे उससे कम ही दिये।

जब वहां से निकले तो उन्होंने अपने मित्र से कहा-‘यह लेबर क्लास ऐसे ही होते हैं। दूसरे की जेब से पैसा लूटना चाहते हैं। मेहनत से अधिक पैसा वसूल करते हैं।’
मित्र मध्यम वर्ग से संबद्ध था उसने कहा-‘हां, मेहनत का दाम कम होता है। लोग तो अक्ल से ही शिकार बनते हैं। मेहनत दिखती है पर अक्ल की मार को कौन देख पाता है। जो ठग ले वह तो अक्लमंद कहलाता है।

उन्होंने कहा-‘अरे यार, तुम मिडिल क्लास भी ऐसे ही सोचते हो।’

कुछ दिन बाद वह अपने उसी मित्र के साथ एक दूर दराज के इलाके में जा रहे थे। वहां उनकी कार फिर खराब हो गयी। एक दूसरी गाड़ी की सहायता से वहा मैकनिक तक पहुंचे। उसने उनकी गाड़ी ठीक की और जो पैसा उसने मांगा। उन्होंने चुपचाप दे दिया।

मित्र ने कहा-‘आज तुमने पैसे देने में बहस नहीं की।’

उन्होंने जवाब दिया-‘आज अपनी अटकी पड़ी थी। वह इससे दुगुना पैसा मांगता तो भी देता पर वह हमारी तकलीफ को समझ नहीं पाया और उसने ठीक पैसा मांगा। सच तो यह है कि लेबर क्लास में यही तो अक्ल नहीं होती वरना सब अमीर नहीं हो जाते।’

मित्र ने कहा-‘हां, क्योंकि मेहनतकश ठग नहीं होता इसलिये कह सकते हो कि वह अक्लमंद नहीं होता। उस दिन तो मैकनिक पर खूब बिफरे थे।’

उन्होंने जवाब दिया‘-उस दिन समय अलग था। वहां हम किसी दूसरे मैकनिक के पास भी जा सकते थे। यहां तो कोई चारा ही नहीं था। इसलिये तो लेबर क्लास गरीब होते हैं क्योंकि वह समय और मांग को नहीं जानते।’
मित्र ने कहा-‘इसलिये किसी को ठगतेे नहीं है।
उन्होंने कहा-‘तुम नहीं समझोगे? अगर दौलतमंद होते तो समझते। दौलत कमाना आसान नहीं है। उसके लिये मेहनत के साथ अक्ल भी लगानी पड़ती है।’
मित्र ने कहा-अक्ल यानि ठगना ही न!
उन्होंने कहा-‘छोड़ो यार तुम मिडिल क्लास के आदमी इस बात को नहीं समझते। अगर तुम समझते तो मेरे से अमीर नहीं जाते।’
मित्र चुप हो गया।
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20 सितंबर 2008

ऐसे भी लिखा जाता है-हास्य व्यंग्य

उस दिन उस लेखक मित्र से मेरी मुलाकात हो गयी जो कभी कभी मित्र मंडली में मिल जाता है और अनावश्यक रूप विवाद कर मुझसे लड़ता रहता है। हमारी मित्र मंडली की नियमित बैठक में हम दोनों कभी कभार ही जाते हैं और जब वह मिलता है तो न चाहते हुए भी मुझे उससे विवाद करना ही पड़ता है।
उस दिन राह चलते ही उसने रोक लिया और बिना किसी औपचारिक अभिवादन किए ही मुझसे बोला-‘‘मैंने तुम पर एक व्यंग्य लिखा और वह एक पत्रिका में प्रकाशित भी हो गया। उसमें छपने पर मुझे एक हजार रुपये भी मिले हैं।’

मैंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपना हाथ बढ़ाते हुए उससे कहा-‘बधाई हो। मुझ पर व्यंग्य लिखकर तुमने एक हजार रुपये कमा लिये और अब चलो मैं भी तुम्हें होटले में चाय पिलाने के साथ कुछ नाश्ता भी कराता हूं।’
पहले तो वह हक्का बक्का होकर मेरी तरफ देखने लगा फिर अपनी रंगी हुई दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोला-‘‘बडे+ बेशर्म हो। तुम्हें अपनी इज्जत की परवाह ही नहीं है। मैंने तुम्हारी मजाक बनाई और जिसे भी सुनाता हूं वह तुम हंसता है। मुझे तुम पर तरस आता है, लोग हंस रहे हैं और तुम मुझे बधाई दे रहे हो।’’

मैंने बहुत प्रसन्न मुद्रा में उससे कहा-‘तुमने इस बारे में अन्य मित्रों में भी इसकी चर्चा की है। फिर तो तुम मेरे साथ किसी बार में चलो। आजकल बरसात का मौसम है। कहीं बैठकर जाम पियेंगे। तुम्हारा यह अधिकार बनता है कि मेरे पर व्यंग्य लिखने में इतनी मेहनत की और फिर प्रचार कर रहे हो। इससे तो मुझे ही लाभ हो सकता है। संभव है किसी विज्ञापन कंपनी तक मेरा नाम पहुंच जाये और मुझे किसी कंपनी के उत्पाद का विज्ञापन करने का अवसर मिले। आजकल उन्हीं लोगों को लोकप्रियता मिल रही है जिन पर व्यंग्य लिखा जा रहा है।
मेरा वह मित्र और बिफर उठा-‘‘यार, दुनियां में बहुत बेशर्म देखे पर तुम जैसा नहीं। यह तो पूछो मैंने उसमें लिखा क्या है? मैंने गुस्से में लिखा पर अब मेरा मन फटा जा रहा है इस बात पर कि तुम उसकी परवाह ही नहीं कर रहे। मैंने सोचा था कि जब मित्र मंडली में यह व्यंग्य पढ़कर सुनाऊंगा तो वह तुमसे चर्चा करेंगे पर तुम तो ऐसे जैसे उछल रहे हो जैसे कि कोई बहुत बड़ा सम्मान मिल गया है।’’
मैंने कहा-‘’तुम्हारा व्यंग्य ही मुझे बहुत सारे सम्मान दिलायेगा। तुम कुछ अखबार पढ़ा करो तो समझ में आये। जिन पर व्यंग्य लिखे जा रहे हैं वही अब सब तरह चमक रहे हैं। उनकी कोई अदा हो या बयान लोग उस पर व्यंग्य लिखकर उनको प्रचार ही देते हैं। वह प्रसिद्धि के उस शिखर पर इन्हीं व्यंग्यों की बदौलत पहुंचे हैं। उनको तमाम तरह के पैसे और प्रतिष्ठा की उपलब्धि इसलिये मिली है कि उन पर व्यंग्य लिखे जाते रहे हैं। फिल्मों के वही हीरो प्रसिद्ध हैं जिन पर व्यंग्य लिखे जा रहे हैं। जिस पर व्यंग्य लिखा जाता है उसके लिये तो वह मुफ््त का विज्ञापन है। मैं तुम्हें हमेशा अपना विरोधी समझता था पर तुम तो मेरे सच्चे मित्र निकले। यार, मुझे माफ करना। मैंने तुम्हें कितना गलत समझा।’’

वह अपने बाल पर हाथ फेरते हुए आसमान में देखने लगा। मैंने उसके हाथ में डंडे की तरह गोल हुए पत्रिका की तरफ हाथ बढ़ाते हुए कहा-‘देखूं तो सही कौनसी पत्रिका है। इसे मैं खरीद कर लाऊंगा। इसमें मेरे जीवन की धारा बदलने वाली सामग्री है। तुम चाहो तो पैसे ले लो। तुम बिना पैसे के कोई काम नहीं करते यह मैं जानता हूं, फिर भी तुम्हें मानता हूं। मैं इसका स्वयं प्रचार करूंगा और लोग यह सुनकर मुझसे और अधिक प्रभावित होंगे कि मुझ पर व्यंग्य लिखा गया है।’’

उसने अपनी पत्रिका वाला हाथ पीछे खींच लिया और बोला-‘मुझे पागल समझ रखा है जो यह पत्रिका तुम्हें दिखाऊंगा। मैंने तुम पर कोई व्यंग्य नहीं लिखा। तुमने अपनी शक्ल आईने में देखी है जो तुम पर व्यंग्य लिखूंगा। मैं तो तुम्हें चिढ़ा रहा था। इस पत्रिका में मेरा एक व्यंग्य है और उसका पात्र तुमसे मिलता जुलता है। तुम सबको ऐसे ही कहते फिरोगे कि देखो मुझ पर व्यंग्य लिखा गया है। चलते बनो। मैंने जो यह व्यंग्य लिखा है उसका पात्र तुमसे मिलता जुलता जरूर है पर उसका नाम तुम जैसा नहीं है।’

मैंने बनावटी गुस्से का प्रदर्शन करते हुए कहा-‘‘तुमने उसमें मेरा नाम नहीं दिया। मैं जानता हूं तुम मेरे कभी वफादार नहीं हो सकते।’’

वह बोला-‘मुझे क्या अपनी तरह अव्यवसायिक समझ रखा है जो तुम पर व्यंग्य लिखकर तुम्हें लोकप्रियता दिलवाऊंगा। तुम में ऐसा कौनसा गुण है जो तुम पर व्यंग्य लिखा जाये।’

मैंने कहा-‘‘तुम्हारे मुताबिक मैं एक गद्य लेखक नहीं बल्कि गधा लेखक हूं और मेरी पद्य रचनाऐं रद्द रचनाऐं होती हैं।’’
वह सिर हिलाते हुए इंकार करते हुए बोला-‘नहीं। मैंने ऐसा कभी नहीं कहा। तुम तो अच्छे गद्य और पद्यकार हो तभी तो कोई उनको पढ़ता नहीं है। मैं तुम्हें ऐसा प्रचार नहीं दे सकता कि लोग उसे पढ़तें हुए मुझे ही गालियां देने लगें।
मैंने कहा-‘तुम मेरे लिऐ कहते हो कि मैं ऐसी रचनाऐं लिखता हूं जिससे मेरी कमअक्ली का परिचय मिलता है।’
उसने फिर इंकार में सिर हिलाया और कहा-‘मैंने ऐसा कभी नहीं कहा। तुम तो बहुत अक्ल के साथ अपनी रचनाएं लिखते हो इसी कारण किसी पत्र-पत्रिका के संपादक के समझ में नही आती और प्रकाशन जगत से तुम्हारा नाम अब लापता हो गया है। फिर मैं अपने व्यंग्य में तुम्हारा नाम कैसे दे सकता हूं।

मेरा धीरज जवाब दे गया और मैंने मुट्ठिया और दंात भींचते हुए कहा-‘फिर तुमने मुझे यह झूठा सपना क्यों दिखाया कि मुझ पर व्यंग्य लिखा है।’
वह बोला-‘ऐसे ही। मैं भी कम चालाक नहीं हूं। तुम जिस तरह काल्पनिक नाम से व्यंग्य लेकर दूसरों को प्रचार से वंचित करते हो वैसे मैंने भी किया। तुमने पता नहीं मुझ पर कितने व्यंग्य लिखे पर कभी मेरा नाम लिखा जो मैं लिखता। अरे, तुम तो मेरे पर एक हास्य कविता तक नहीं लिख पाये।’

मैंने आखिर उससे पूछा-‘पर तुमने अभी कुछ देर पहले ही कहा था कि‘तुम पर व्यंग्य लिखा है।’

वह अपनी पत्रिका को कसकर पकड़ते हुए मेरे से दूर हो गया और बोला-‘तब मुझे पता नहीं था कि व्यंग्य भी विज्ञापनों करने के लिये लिखे जाते हैं।’
फिर वह रुका नहीं। उसके जाने के बाद मैंने आसमान में देखा। उस बिचारे को क्या दोष दूं। मैं भी तो यही करता हूं। किसी का नाम नहीं देखा। इशारा कर देता हूं। हालत यह हो जाती है कि एक नहीं चार-चार लोग कहने लगते हैं कि हम पर लिखा है। किसी ने संपर्क किया ही नहीं जो मैं उन पर व्यंग्य लिखकर प्रचार करता। अगर किसी का नाम लिखकर व्यंग्य दूं तो वह उसका दो तरह से उपयोग कर सकता है। एक तो वह अपनी सफाई में तमाम तरह की बातें कहेगा और फिर अपने चेलों को मुझ पर शब्दिक आक्रमण करने के लिये उकसायेगा। कुल मिलाकर वह उसका प्रचार करेगा। इसी आशंका के कारण मैं किसी ऐसे व्यक्ति का नाम नहीं देता जो इसका लाभ उठा सके। वह मुझे इसी चालाकी की सजा दे गया।
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दीपक भारतदीप

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18 सितंबर 2008

मुकरने के लिए वादे किये जाते हैं-हिन्दी साहित्य और क्षणिका

जमीन से उठाकर आसमान में

पहुंचाने का वादा किये जाते हैं

मतलब निकल जाए तो

फिर नजर नहीं आते हैं

अरे ओ आँख मूँद कर भरोसा करने वालों

वादे मुकरने की लिए ही किये जाते हैं

जिनको करना हां भला काम

वह बिना वादे के किये जाते हैं

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10 सितंबर 2008

महामशीन कैसे महादानव बन जायेगी-हास्य कविता mahamashin aur mahadanav

बहुत शोर सुना था
महामशीन बन जायेगी
महादानव और
पूरी धरती काले छेद में घुस जायेगी
ऐसा नहीं होना था, नहीं हुआ
क्योंकि हाड़मांस की दानव भी
भस्मासुर जैसे महादानव तभी बनते थे
जब करते थे भारी तपस्या
इंसानी फितरत से बने लोहे के ढांचे का क्या
जो दुनियां ढह जायेगी
देवता तो वह इंसान स्वयं नहीं बनता
महादानव की कल्पना भी भला
कैसे साकार हो पायेगी
यारों, शोर चाहे जितना मचा लो
तपस्या से ही बनता है महान
देवता हो या दानव
भूल जाता है यह बात मानव
बिना तप के केवल
कल्पना तो कल्पना ही रह जायेगी

.................................

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9 सितंबर 2008

चोरी के मामले में डाल दो ढील-हास्य कविता

घर में घुसते ही बोला फंदेबाज
‘शंका तो हमें रास्ते में ही हो गयी थी कि
आज होगी तुम्हारे लिये जश्न की शाम
सामने होगी बोतल और हाथ में होगा जाम
बा ने बताया था फोन पर कि
ब्लाग चोरी होने के बाद तुम्हारे
पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे
उछल कूद कर रहे हो इतनी कि
सिर के बाकी बाल भी झड़ रहे
क्या किसी अंग्रेज ब्लागर से की थी
अपना ब्लाग चुराने की डील
बड़ा बुरा हो रहा है हमें फील
देश में क्या कम ब्लागर थे
जो विदेश से ले आये हिट होने के लिये ऊर्जा
अपने लोगों के सीने में ठोक दी कील’


नोट-यह इस ब्लाग दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका" की मूल रचना है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है। अगर किसी को यह कहीं अन्य प्रकाशित मिले तो इस ब्लाग http://deepakraj.wordpress.com पर सूचित करे।
दीपक भारतदीप, लेखक संपादक

ग्लास को मूंह लगाने के बाद
फिर उसे रखते हुए बोले महाकवि दीपक बापू
‘कमबख्त आज अच्छे दिन भी
तुम्हारा आना हुआ है
अंतर्जाल पर ब्लाग चोरी होना
सम्मान की बात समझी जाती है
कोई भाग्यशाली ही होता है
जिसके हिस्से यह घटना पेश आती है
यहां सभी हिट होने के लिये मरे जा रहे हैं
नैतिकता और भक्ति का तो बस नाम लेते हैं सब
अपने ऊपर दो नंबर की गठरी ले जा रहे हैं
पहले लोग अपने यहां छापे पड़वाते थे
अपने यहां इज्जत बढ़ाने के लिये
अब फिर रहे हैं अपना सामान
चोरी कराने के लिये
कर लेते हैं डील
फिर करवाते हैं अपने हिट होने की फील
चोरी हो जाने पर कोई नहीं रोता
हो जाने पर ही हिट होने की चैन की नींद सोता
चोरी होने को सामान बहुत है
पर उसे उठाने वाले बहुत कम है
किसका उठायें और किसका नहीं
चोरों को भी यही गम है
देश में भला किससे चोरी करवाते
विदेश में ब्लागर तो छिपा रहेगा
देश का होता तो पता नहीं
कब पाला बदल जाता
और हम अपनी असलियत कब तक छिपाते
हमने नहीं की
हम क्या जाने तकनीकी के बारे में
कोई प्रशंसक ही कर आया है
हमारा ब्लाग चुराने की डील
किसने की और कैसे की, इससे क्या मतलब
हमें तो बस गाना है अपना गुड फील
जब तक किसी विदेशी से हाथ न मिलायें
भला इस देश में कौन इज्जत करता है
शादी हो या व्यापार
हर कोई विदेश में डील के लिये मरता है
चोरी हुआ हमारा ब्लाग
जो कि हिट की शर्त पूरी करने के लिये काफी है
अब तुम पर हास्य कवितायें लिखते हुए
हमेशा रहे फ्लाप
तो अपना रुतवा विदेशियों के दम पर दिखायेंगे
सारा जमाना जा रहा है
हम भी जरा चलकर देखें
फिर अपनी असलियत पर लौट आयेंगे
अपने घर का चिराग तेल से नहीं
विदेशी ऊर्जा से जलायेंगे
अभी तो चीयर्स करो
तकनीकी से हम दोनों हैं पैदल
जिसमें अपना फायदा दिखे वही कहो
और हिट पाने में मस्त रहो
चोरी के मामले में डाल दो ढील
देशभक्ति तुम संभालों
हमें लगाने दो सब तरफ हिट की कील
..................................................
नोट-यह एक काल्पनिक हास्य कविता है इसका किसी घटना या व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है। अगरकिसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा

8 सितंबर 2008

कभी सोचा नहीं था नक़ल इतना असल हो जायेगा-hasya kavita

आँख के अंधे अगर हाथी को
पकड कर उसके अंगों को
अंगों का देखें अपनी अंतदृष्टि से
अपनी बुद्धि के अनुसार
करें उसके अंगों का बयान
कुछ का कुछ कर लें
तो चल भी सकता है
पर अगर अक्ल के अंधे
रबड़ के हाथी को पकड़ कर
असल समझने लगें तो
कैसे हजम हो सकता है

कभी सोचा भी नहीं था कि
नकल इतना असल हो जायेगा
आदमी की अक्ल पर
विज्ञापन का राज हो जायेगा
हीरा तो हो जायेगा नजरों से दूर
पत्थर उसके भाव में बिकता नजर आएगा
कौन कहता है कि
झूठ से सच हमेशा जीत सकता है
छिपा हो परदे में तो ठीक
यहाँ तो भीड़ भरे बाजार में
सच तन्हाँ लगता है
इस रंग-बिरंगी दुनिया का हर रंग भी
नकली हो गया है
काले रंग से भी काला हो गया सौदागरों का मन
अपनी खुली आंखों से देखने से
कतराता आदमी उनके
चश्में से दुनियां देखने लगता है
........................................................

आंखें से देखता है दृश्य आदमी
पर हर शय की पहचान के लिये
होता है उसे किसी के इशारे का इंतजार
अक्ल पर परदा किसी एक पर पड़ा हो तो
कोई गम नहीं होता
यहां तो जमाना ही गूंगा हो गया लगता है
सच कौन बताये और करे इजहार

..................................................................

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6 सितंबर 2008

आखिर महादानव क्यों बना रहे हो भई-हास्य व्यंग्य

वैसे तो पश्चिम के लोग पूर्व के लोगों की खूब मजाक उड़ाते हैं कि वह शैतान और सर्वशक्तिमान के स्वरूपों की काल्पनिक व्याख्याओं में ही खोऐ रहते हैं पर स्वयं तो सचमुच में शैतान बनाते हैं जो कहीं न कहीं विध्वंस पैदा करता है,अलबत्ता ऐसा कोई सर्वशक्तिमान नहीं बना सके जो जीवन की धारा को सतत प्रवाहित करता हो।

अभी कहीं उन्होंनें कोई महामशीन बनाई है जिससे वह ब्रह्माण्ड की रचना का रहस्य जान सकें। पश्चिम के कुछ वैज्ञनिकों ने इसे बनाया है तो कुछ कह रहे हैं कि अगर यह प्रयोग विफल रहा तो पूरी धरती नष्ट हों जायेगी। इसको कहीं अदालत में चुनौती भी दी गयी है। अब सवाल यह है कि आखिर उन्हें इस ब्रह्माण्छ के रहस्य जानने की जरूरत क्या पड़ी। आखिर वह शैतान फिर क्यों बुलाया लिया जिसे पूर्व के लोग रोज भगाने के लिये सर्वशक्तिमान को याद करते हैं।

भारतीय दर्शन को जानने वाला हर आदमी इस ब्रह्माण्ड का रहस्य जानता है। यह सब मिथ्या है-यहां हर आदमी बता देगा। दृष्टिगोचर विश्व तो माया का ऐसा रूप है जो समय के साथ बनता बिगड़ता है। कुछ है ही नहीं फिर उसका रहस्य क्या जानना। अरे, अगर यह पश्चिम के लोग अगर अंग्रेजी की बजाय हिंदी पढ़ते तो जान जाते कि ब्रह्माण्ड में कुछ है ही नहीं तो रहस्य किस बात का जान रहे हैं।
यह जगत सत्य और माया दो में ही व्याप्त है। जो माया नश्वर है वह बढ़ती जाती है और फिर उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। वह फिर प्रकट होती है पर उसमें सत्य की सांसें होती हैं। सत्य का कोई स्वरूप है ही नहीं जिसे देखा जा सके।

भारतीय पुरातन ग्रथों में इसका वर्णन हैं उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस दुनिया के विस्तार में इस तरह की कहानी रही होगी। जिसे हम अपने शब्दों में इस तरह व्यक्त कर सकते हैं। सत्य कई बरसों तक पड़ा रहा। न हिला न डुला न चला बस उसे आभास था कि वह है। उसके पांच तत्व निष्क्रिय पड़े हुए थे-आकाश,जल,प्रथ्वी,अग्नि और वायु। यह छोटे कणों के रूप में पड़े हुए थे। सत्य को पता नहीं यह भ्रम हो गया कि वह स्वयं ही असत्य है सो परीक्षण करने के लिये इन तत्वों में प्रवेश कर गया। उसके प्रवेश करते ही इन तत्वों में प्राण आ गये और वह बृहद आकार लेने लगे। सत्य को भी इने गुण प्राप्त हुए। उसे आंख,कान,नाक तथा देह का आभास होने लगा। वह बाहर निकला पर यह सभी तत्व बृहद रूप लेते गये। सत्य को हैरानी हुई उसने ध्यान लगाया तो माया प्रकट हो गयी। उसने बताया कि उसके अंश इन तत्वों में रह गये हैं और वह अब इस सृष्टि का निर्माण करेंगे जहां वह विचरण करेगी। सत्य सोच में पड़ गया पर उसने यह सोचकर तसल्ली कर ली कि माया का कोई स्वरूप तो है नहीं उसके जो अंश इन तत्वों में रह गये हैं वह कभी न कभी उसके पास वापस आयेंगे।
माया मुस्करा रही थी तो सत्य ने पूछा-‘आखिर तुम में भी प्राण आ गये।
उसने कहा-‘मुझे बरसों से इसी बात की प्रतीक्षा थी कि कब तुम इन तत्वों में प्रवेश करो और मैं आकार लेकर इस संसार में विचरण करूं।’
सत्य ने कहा-‘तो क्या? यह तो मेरे अंश हैं। मैं चाहे इन्हें खींच लूंगा।’
माया ने कहा-‘पर जब तक मेरी शक्ति से बंधे हैं वह तुम्हारे पास नहीं आयेंगे पर जब उससे बाहर होंगे तो तुम्हारे पास आयेंगे।’
सत्य सोच में पड़ गया। उसने देखा कि धीरे धीरे अन्य जीव भी प्रकट होते जा रहे हैं। इनमें कई छटपटा रहे थे कि वह सत्य के अंश हैं और वहां से बिछड़ गये हैं तो कुछ इस बात से खुश थे कि वह अपनी इंद्रियों का पूरा आनंद उठा रहे हैं।’
कई जीव सत्य का स्मरण करते थे तो सत्य की उनकी दृष्टि जाती थी और जो नहीं करते उन पर भी उसका ध्यान था। इस तरह यह सृष्टि चल पड़ी। माया तो प्रकट थी पर उसमें शक्ति अपनी नहीं थी इसलिये वह रूप बदलती रही पर सत्य का स्वरूप नहीं है इसलिये वह स्थिर है।’ सत्य ने भी कोई हस्तक्षेप नहीं किया।

देवता और दानव दोनों ही इस संसार में विचरण करते हैं पर माया सभी को भाती है। जिन पर माया की अधिक कृपा हो जाती है वह बेकाबू हो जाते हैं और दानवत्व को प्राप्त होते हैं। पश्चिम के लोगों के पास अनाप शनाप धन है और इसलिये वह इस ब्रह््माण्ड का रहस्य जानने के लिये उतावले हैं और एक ऐसा दानव खड़ा कर रहे हैं जो अगर फैल गया तो इस धरती पर कोई देवता उसे बचाने वाला नहीं है।
रहस्य जानना है। अरे भाई, हमारे पौराणिक ग्रंथ ले जाओ सब सामने आयेगा। पश्चिम के वैज्ञानिक जीवन के लिये जो आधार आज बता रहे हैं उसे हमारे ग्रंथ पहले ही बता चुके हैं कि आकाश, प्रथ्वी,र्अिग्न,जल और वायु के संयोग से ही जीवन बन सकता है पर उसे पढ़ा ही नहीं अरबों डालर खर्च कर जो निष्कर्ष निकाला वहा हमारे विशेषज्ञ पहले ही निकाल चुके हैं। पेड़ पोधों में जीवन होता है यह कोई आज की खोज नहीं है बरसों पहले की है, पर पश्चिम के लोग ऐसी खोजों को बताकर अपना नाम कर लेते है। परमाणु बम बनाया तो उसका क्या नतीजा रहा। आजकल कई देश बना रहे हैं और पश्चिम के लोग उनको रेाकने का प्रयास कर रहे हैं। नये नये हथियार बनाते हैं और इधर शांति का प्रयास भी करते दिखते हैं।

बहरहला दानव को खड़ा कर वह जिस सत्य को ढूंढ रहे हैं वह तो अस्तित्व हीन है। वहां क्या है? हमसे पूछो। जहां तक दिख रहा है माया है और जहां दिखना बंद हो जाये समझ लो सत्य है। इसके लिये पूरी दुनियां का व्यर्थ ही खतरे में क्यों डालते हो।
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31 अगस्त 2008

जिसका ख्वाब भी नहीं आया-हिन्दी शायरी hindi shayri

तिनका तिनका कर बनाया घर
पर वह भी कभी दिल में न बस सका
ख्वाहिशें लिये भटकता शहर-दर-शहर
दोपहर की जलती धूप हो शाम की छाया

कभी चैन नसीब न हो सका
चाहत है पाना कागज के टुकड़ों की माया
देखना है सोने से बनी काया
एक लोहे और लकड़ी की चीज आती
तो दूसरे के लिये मन ललचाया
कहीं देखकर आंखें ललचाती सुंदर कामिनी की काया
तन्हाई में जब होता है मन
तब भी ढूंढता है कुछ नया
जिसका ख्वाब भी नहीं आया
खुले आकाश में कोई देखे
रात के झिलमिलाते सितारे
चंद्रमा की चमक देखे
जो होती सूरज के सहारे
आंखों से ओझल होते हुए भी
कर जाता हमारी रौशनी का इंतजाम
नहीं मांगने आता नाम
सदियों से वह यही करता आया
इसलिये देखकर हमेशा मुस्कराया

अनंत है कुछ पाने का मोह
जो अंधा बनाकर दौड़ाये जा रहा है
कहीं अंत नहीं आता इंसान की ख्वाहिशों का
जब तक है उसके पास काया
डूबते हुए भी नहीं छोड़ता माया
अपनों के इर्दगिर्द बनाये घेरे को दुनिया कहता
अस्ताचल में जाते हुए भी
जमाने से हमदर्दी नहीं होती
जब चमक रहा होता है तब भी
तंग दायरों मे रहते हुए मुरझा जाती उसकी काया
.......................................
दीपक भारतदीप

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17 अगस्त 2008

रहीम के दोहे:कटहल कभी राई के सामान छोटा नहीं दिखाई देता

बड़े पेट के भरन को, है रहीम देख बाढि
यातें हाथी हहरि कै, दया दांत द्वे काढि

कविवर रहीम कहते हैं कि जो आदमी बड़ा है वह अपना दुख अधिक दिन तक नहीं छिपा सकता क्योंकि उसकी संपन्नता लोगों ने देखी होती है जब उसके रहन सहन में गिरावट आ जाती है तब लोगों को उसके दुख का पता लग जाता है। हाथी के दो दांत इसलिये बाहर निकल आये क्योंकि वह अपनी भूख सहन नहीं कर पाया।

बड़े बड़ाई नहिं तजैं, लघु रहीम इतराइ
राइ करौंदा होत है, कटहर होत न राइ

कविवर रहीम कहते हैं कि बड़े आदमी कभी अपने मुख से स्वयं अपनी बड़ाई नहीं करते जबकि छोटे लोग अहंकार दिखाते है। करौंदा पहले राई की तरह छोटा दिखाई देता है परंतु कटहल कभी भी राई के समान छोटा नजर नहीं आता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-कहा जाता है कि धनाढ्य व्यक्ति इतना अहंकार नहीं दिखाता जितना नव धनाढ्य दिखाते हैं। होता यह है कि जो पहले से ही धनाढ्य हैं उनको स्वाभाविक रूप से समाज में सम्मान प्राप्त होता है जबकि नव धनाढ्य उससे वंचित होते हैं इसलिये वह अपना बखान कर अपनी प्रभुता का बखान करते हैं और अपनी संपत्ति को उपयोग इस तरह करते हैं जैसे कि किसी अन्य के पास न हो।

वैसे बड़ा आदमी तो उसी को ही माना जाता है कि जिसका आचरण समाज के हित श्रेयस्कर हो। इसके अलावा वह दूसरों की सहायता करता हो। लोग हृदय से उसी का सम्मान करते हैं जो उनके काम आता है पर धन, पद और बाहुबल से संपन्न लोगों को दिखावटी सम्मान भी मिल जाता है और वह उसे पाकर अहंकार में आ जाते हैं। आज तो सभी जगह यह हालत है कि धन और समाज के शिखर पर जो लोग बैठे हैं वह बौने चरित्र के हैं। वह इस योग्य नहीं है कि उस मायावी शिखर पर बैठें पर जब उस पर विराजमान होते हैं तो अपनी शक्ति का अहंकार उन्हें हो ही जाता है। जिन लोगों का चरित्र और व्यवसाय ईमानदारी का है वह कहीं भी पहुंच जायें उनको अहंकार नहीं आता क्योंकि उनको अपने गुणों के कारण वैसे भी सब जगह सम्मान मिलता है।
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13 अगस्त 2008

मोबाइल और इंटरनेट पर ही चल रहा है इश्का का काम-हास्य शायरी

इश्क में भी अब हो गया है इंकलाब
हसीनाएं ढूंढती है अपने लिए कोई
बड़ी नौकरी वाला साहब
छोटे काम वाले देखते रहते हैं
बस माशुका पाने का ख्वाब

वह दिन गये जब
बगीचों में आशिक और हसीना
चले जाते थे
अपने घर की छत पर ही
इशारों ही इशारों में प्यार जताते थे
अब तो मोबाइल और इंटरनेट चाट
पर ही चलता है इश्क का काम
कौन कहता है
इश्क और मुश्क छिपाये नहीं छिपते
मुश्क वाले तो वैसे हुए लापता
इश्क हवा में उडता है अदृश्य जनाब
जाकर कौन देख सकता है
जब करने वाले ही नहीं देख पाते
चालीस का छोकरा अटठारह की छोकरी को
फंसा लेता है अपने जाल में
किसी दूसरे की फोटो दिखाकर
सुनाता है माशुका को दूसरे से गीत लिखाकर
मोहब्बत तो बस नाम है
नाम दिल का है
सवाल तो बाजार से खरीदे उपहार और
होटल में खाने के बिल का है
बेमेल रिश्ते पर पहले माता पिता
होते थे बदनाम
अब तो लडकियां खुद ही फंस रही सरेआम
लड़कों को तो कुछ नहीं बिगड़ता
कई लड़कियों की हो गयी है जिंदगी खराब
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6 अगस्त 2008

जीवन के उतर-चढाव के साथ चलता आदमी-हिन्दी शायरी

जीवन के उतार चढाव के साथ
चलता हुआ आदमी
कभी बेबस तो कभी दबंग हो जाता
सब कुछ जानने का भ्रम
उसमें जब जा जाता तब
अपने आपसे दूर हो जाता आदमी

दुख पहाड़ लगते
सुख लगता सिंहासन
खुली आँखों से देखता जीवन
मन की उथल-पुथल के साथ
उठता-बैठता
पर जीवन का सच समझ नहीं पाता
जब अपने से हटा लेता अपनी नजर तब
अपने आप से दूर हो जाता आदमी

मेलों में तलाशता अमन
सर्वशक्तिमान के द्वार पर
ढूँढता दिल के लिए अमन
दौलत के ढेर पर
सवारी करता शौहरत के शेर पर
अपने इर्द-गिर्द ढूँढता वफादार
अपने विश्वास का महल खडा करता
उन लोगों के सहारे
जिनका कोई नहीं होता आधार तब
अपने आपसे दूर हो जाता आदमी

जमीन से ऊपर अपने को देखता
अपनी असलियत से मुहँ फेरता
लाचार के लिए जिसके मन में दर्द नहीं
किसी को धोखा देने में कोई हर्ज नहीं
अपने काम के लिए किसी भी
राह पर चलने को तैयार होता है तब
अपने आपसे दूर हो जाता आदमी

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2 अगस्त 2008

शब्द कभी अपनी अस्मिता नहीं खोते-हिंदी कविता

हर शब्द अपना अर्थ लेकर ही
जुबान से बाहर आता
जो मनभावन हो तो
वक्ता बनता श्रोताओं का चहेता
नहीं तो खलनायक कहलाता
संस्कृत हो या हिंदी
या हो अंग्रेजी
भाव से शब्द पहचाना जाता है
ताव से अभद्र हो जाता

बोलते तो सभी है
तोल कर बोलें ऐसे लोगों की कमी है
डंडा लेकर सिर पर खड़ा हो
दाम लेकर खरीदने पर अड़ा हो
ऐसे सभी लोग साहब शब्द से पुकारे जाते ं
पर जो मजदूरी मांगें
चाकरी कर हो जायें जिनकी लाचार टांगें
‘अबे’ कर बुलाये जाते हैं
वातानुकूलित कमरों में बैठे तो हो जायें ‘सर‘
बहाता है जो पसीना उसका नहीं किसी पर असर
साहब के कटू शब्द करते हैं शासन
जो मजदूर प्यार से बोले
बैठने को भी नहीं देते लोग उसे आसन
शब्द का मोल समझे जों
बोलने वाले की औकात की औकात देखकर
उनके समझ में सच्चा अर्थ कभी नहीं आता

शब्द फिर भी अपनी अस्मिता नहीं खोते
चाहे जहां लिखें और बोले जायें
अपने अर्थ के साथ ही आते हैं
जुबान से बोलने के बाद वापस नहीं आते
पर सुनने और पढ़ने वाले
उस समय चाहे जैसा समझें
समय के अनुसार उनके अर्थ सबके सामने आते
ओ! बिना सोचे समझे बोलने और समझने वालों
शब्द ही हैं यहां अमर
बोलने और लिखने वाले
सुनने और पढ़ने वाले मिट जाते
पर शब्द अपने सच्चे अर्थों के साथ
हमेशा हवाओं में लहराता
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30 जुलाई 2008

सर्वशक्तिमान ने कोई कानून नहीं बनाया -हिन्दी शायरी


किसी भूखे को रोटी खिलाने का
उनकी किताबों में कोई इलाज नहीं
ढेर सारे कसूरों की सजाएं है
कसूरवार की मजबूरी समझने का
कोई कहीं रिवाज नहीं
जमाने को सिखाते हैं तमाम तरीके
जन्नत में जाने के
अपनी हकीकतो से दूर
ख्वाबों में जाने के
सर्वशक्तिमान ने कोई कानून नहीं बनाया
फिर भी उसके नाम पर सुनाते हैं
चंद किताबें पढ़कर फैसले
इंसान की भूख को पढ़ने का
कहीं कोई मिजाज नहीं
सभी को मोहब्बत का पैगाम देते हैं
पर जिस्म की भूख पर है खामोश
क्योंकि उस पर किसी का बस नहीं
अरे, ऊपर वाले का नाम लेकर
दुनियो को उसके दस्तूर पर चलाने वालों
उससे पूछ का बताओ
भूखा अगर रोटी की चोरी करे
तो उसकी सजा क्यों होना चाहिए
अगर वह इंसान के पेट में भूख नहीं बनाता तो
मान लेते उसका होगा वजूद
इस धरती पर भी कहीं

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शांति लाने का दावा

बारूद के ढेर चारों और लगाकर
हर समस्या के इलाज के लिए
नये-नयी चीजें बनाकर
आदमी में लालच का भूत जगाकर
वह करते हैं दुनिया में शांति लाने का दावा

बंद कमरों में मिलते अपने देश की
कुर्सियों पर सजे बुत
चर्चाओं के दौर चलते
प्रस्ताव पारित होते बहुत
पर जंग का कारवाँ भी
चल रहा है फिर भी हर जगह
होती कुछ और
बताते और कुछ वजह
जब सब चीज बिकाऊ है
तो कैसे मिल सकता है
कहीं से मुफ्त में शांति का वादा
बहाने तो बहुत मिल जाते हैं
पर कुछ लोग का व्यवसाय ही है
देना अशांति को बढावा

एक दुकान से खरीदेंगे शांति
दूसरा अपनी बेचने के लिए
जोर-जोर से चिल्लाएगा
फैलेगी फिर अशांति
जब फूल अब मुफ्त नहीं मिलते
तो बंदूक और गोली कैसे
उनके हाथ आते हैं
जहाँ से चूहा भी नहीं निकल सकता आजादी से
वहाँ कोहराम मचाकर
वह कैसे निकल जाते हैं
विकास के लिए बहता दौलत का दरिया
कुछ बूँदें वहाँ भी पहुंचा देता है
जहाँ कहीं शांति का ठेकेदार
कुछ समेट लेता है
जानते सब हैं पर
दुनिया को देते हैं भुलावा
न दें तो कैसे करेंगे शांति लाने का दावा
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29 जुलाई 2008

पहरेदारी अपने घर की किसे सौपे-हिन्दी शायरी


लुट जाने का खतरा अब
गैरो से नहीं सताता
अपनों को ही यह काम
अच्छी तरह करना आता

पहरेदारी अपने घर की किसे सौपे
यकीन किसी पर नहीं आता
जहां भी देखा है लुटते हुए लोगों को
अपनों का हाथ नजर आता
कई बाग उजड़ गये हैं
माली अब फूल नहीं लगाता
इंतजार रहता है उसे
कोई आकर लगा जाये पेड़ तो
वह उसे बेच आये बाजार में
इस तरह अपना घर सजाता
नाम के लिये करते हैं मोहब्बत
बेईमानी से उनकी है सोहबत
जमाने के भलाई का लगाते जो लोग नारा
लूट में उनको ही मजा आता
कहें भारतदीप
मन में है उथलपुथल तो
अमन कहां से आयेगा यहां
जिनके हाथ में बागडोर होती चमन की
किसी और से क्या खतरा होगा
वही उसका दुश्मन हो जाता
..................................

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28 जुलाई 2008

मशहूर होने से भी भला क्या फायदा-व्यंग्य

लिखना मैंने इसलिये नहीं शुरू किया कि मुझे मशहूर होना है। मुझे अपने मशहूर होने की चिंता कभी नहीं सताती क्योंकि लगता है कि लोग अपनी पूरी ऊर्जा इसी प्रयास में नष्ट करते हैं कि वह प्रसिद्ध व्यक्ति बने और समाज में उनकी चर्चा चारों और लोग करें। मैं उनके करतबों पर ही लिखता रहता हूं पर किसी का नाम लिये बगैर अपनी बात कह जाता हूं कि अगर वह पढ़े भी तो उसे लगे कि किसी अन्य व्यक्ति के लिये लिखा होगा।

उस दिन पांच लोग कहीं आपस में मिले। इसमें मैं और मेरे ब्लाग/पत्रिका पढ़ने वाला एक मित्र भी था। तीन अन्य भी उसके परिचित थे। तीनों अपनी अपनी डींगे हांक रहे थे।
‘अरे, मैं किसी से नहीं डरता मेरी पहुंच दूर तक है।’
‘अरे, इस इलाके में मुझे सब जानते हैं। अपना ही राज्य है।’
‘मैं जहां रहता हूं, वहां सब लोग मेरी इज्जत करते हैं। एक मैं ही वहां इज्जतदार हूं।’
वैसे मेरा मित्र भी कम नहीं है, पर उसे मालुम है कि मैं हाल ही उसकी बात को पकड़ कर लिख कर व्यंग्य लिखने का काम कर सकता हूं। इसलिए कुछ देर तो चुप रहा फिर उसने मुझे ही वहां उलझाने के लिये अपना पासा फैंका और बोला-‘तुम मेरे इस मित्र को जानते हो। कई पत्र-पत्रिकाओं में इसके लेख और व्यंग्य छप चुके हैं। आजकल इंटरनेट पर लिखते हुए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाम कमा रहा है पर देखों अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं करता।’
मैंने मित्र की तरफ देखा और फिर कहा-‘‘अरे, यार तुम भी क्या बात लेकर बैठ गये। हमें भला कौन जानता है? लिखते हम भी हैं और फिल्मों के हीरो भी लिख रहे हैं पर भला कोई उनके मुकाबले हमें कौन पढ़ता है। तुम्हें और कोई नहीं मिला कि हमारा मजाक उड़ाने लगे।’
उनमें से एक सज्जन बोले-‘‘आप कौनसे अखबार में लिखते हैं?‘
मैने कहा-‘अरे, यह तो ऐसे ही बना रहा है। पहले कुछ कम प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं के लिखा था। अंतर्जाल पर ब्लाग लिख रहे हैं पर कौन पढ़ता है वहां पर। अब तो फिल्मी हीरो हीरोइन के ब्लाग बनते जायेंगे। लोग उनको पढेंगें कि हमें। यह मुझे मित्र कह रहा है इससे पूछो कितनी बार इसने मेरा ब्लाग खोला है?’

दूसरे सज्जन ने कहा-‘अगर आप लिखते हैं तो जरूर मशहूर हो जायेंगे। फिल्मी हीरो हीरोइन गासिपों के अलावा क्या लिखेंगे। वैसे भी उनका लिखा अखबार में आ जाता है। आप लिखते रहें तो एक दिन मशहूर हो जायेंगें।
बहरहाल मैंने अपनी बौद्धिक शक्ति का उपयोग करते हुए वहां बातचीत का विषय बदल दिया। वहां से निकलते ही मैंने मित्र से कहा-‘दिलवा दिया शाप! उसने क्या कह दिया कि मशहूर हो जाओगे।

मेरा मित्र बोला-‘यार, फिर तो वाकई चिंता की बात है तुम्हारे ब्लाग पर मैंने अभी तक तीन टिप्पणियां लिखीं हैं तो हमें भी तो मशहूर हो जायेंगे। वैसे मशहूर होना तो अच्छी बात है।’
मैंने उससे कहा-‘मशहूर होकर लिखा नहीं जाता। आदमी इसी फिक्र में कई बातें इसलिए नहीं लिख पाता कि अब तो मशहूर हो गया हूं कहीं ऐसा न हो कि लोग इससे नाराज न हो जायें। मशहूर होने का बोझ ढोना कई लोगों के लिए मुश्किल काम है और उनमें हम एक है।
मित्र ने कहा-‘फिर तुम लिखते क्यों हो? मशहूर होने के लिए ही न!
मैंने कहा-‘‘मशहूर नहीं हूं इसलिये लिख रहा हूं। जमकर लिख रहा हूं। मशहूर होने के बाद तो यही सोचकर बैठा रहूंगा कि लिखूं क्या?’

मित्र ने आखिर मुझसे पूछा-‘आखिर मशहूर होना होता कैसे है?’
मैंने भी प्रति प्रश्न किया-‘कैसे होता है?’
मित्र ने कहा-‘‘मैं क्या जानूं? तुम लेखक हो तुम्हीं बताओ।’
मैने कहा-‘मशहूर होने की बात तो तुमने उठाई थी। मुझे लगा कि होगी कोई अच्छी बात है।’
मित्र बोला-‘अच्छा तुम अब मुझ पर ही व्यंग्य करने लगे। मैं इसलिये वहां चुप था कि कहीं तुम मेरी बातों से व्यंग्य सामग्री न ढूंढ लो और अब यही कारिस्तानी यहीं करने लगे। मेरी टिप्पणियां वहां से हटा देना। मुझे ऐसे व्यक्ति के साथ मशहूर नहीं होना जिसे मालुम ही न हो कि वह होता क्या है?’

मशहूर होने के लिये लोग जाने क्या क्या पापड़ बेलते हैं? तमाम तरह की उल्टी सीधी हरकतें करते हैं। उलूलजुलूल लिखते है। लिखने में सबसे बड़ा मजा यह है कि आप किसी आदमी के सामने नहीं होते और इसलिये कोई आपको पहचान नहीं पाता। पिछली राखी की बात है मैं एक रेस्टरां में चाय पी रहा था। उसी दिन एक अखबार में मोबाइल पर लिख मेरा एक व्यंग्य छपा था और दो आदमी उसे पढ़कर हंस रहे थे। एक ने कहा-‘‘देखो यार, मोबाइल पर उसने क्या लिखा है?
दूसरा उसे पढ़ते हुए हंस रहा था। उसे नहीं मालुम कि उसको लिखने वाला लेखक उसे मात्र पांच फुट की दूरी पर बैठा है। बाद में मैंने जब अपने मित्र को जब यह घटना बताई तो वह कहने लगा कि-‘तुमने उनको बताया क्यों नहीं कि तुम उसके लेखक हो।
‘अगर वह कह देते कि क्या बकवाद लिखी है तो मैं क्या करता?‘मैने कहा-‘‘इतना ही ठीक है कि मुझे पढ़ रहे थे। अपने आपको मशहूर करने के प्रयास में कभी कभी उल्टा सीधा भी सुनना पड़ता है। इससे बेहतर है अपने लेख भले ही मशहूर हों, थोड़ा बहुत नाम भी हो जाये पर हमें अपना यह चेहरा मशहूर नहीं कराना।’

मशहूर होने को मतलब है कि अपने ऐसे विरोधी पैदा करना जो छींटाकशी के लिये तैयार बैठे रहते हैं और आप अपने मित्रों से हमेशा सतर्कता की आशा नहीं कर सकते जो सोचते हैं कि यह तो मशहूर आदमी है अपना बचाव स्वयं कर लेगा। वैसे चुपचाप लिखते रहने से ही इतनी आनंद की अनुभूति होती है कि लगता है कि मशहूर हुए तो मिलने वाले बहुत आयेंगे। कई तरह के फोन सुनने पड़ेंगे। तब भला क्या खाक लिख पायेंगे। ऐसे ही ठीक है कि कोई हमें चेहरे से जानता नहीं है। अधिक मशहूर होना मतलब अपनी शांति भंग करना भी होता है।

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