29 जनवरी 2010

चुटकुले और हास्य कविताऐं भी साहित्य होती हैं-आलेख (chutkule aur sahitya-hindi lekh)

पता नहीं कुछ लोग चुटकुलों को साहित्य क्यों नहीं मानते, जबकि सच यह है कि उनके सृजन में वैसे ही महारथ की आवश्यकता होती है जैसी कि कहानी या व्यंग लिखने में। चुटकुलों में ही एक अधिक पात्र सृजित कर उनसे ऐसी बातें कहलायी जाती हैं जिनसे स्वाभाविक रूप से हंसी आती है और पाठक इस बात की परवाह नहीं करता कि वह साहित्य है या नहीं।
चुटकुलों की तरह हास्य कविताओं को भी अनेक लोग साहित्य नहीं मानते जबकि उनकी लोकप्रियता बहुत है। ऐसे में सवाल यह है कि साहित्य कहा किसे जाता है?
क्या उन बड़ी बड़ी किताबों को ही साहित्य माना जाये जिनको एक सीमित वर्ग का पाठक वर्ग पढ़ता है और बहुतसंख्यक वर्ग उनका नाम तक नहीं जानता। अनेक पुस्तकें तो ऐसी होती हैं कि किसी मध्यम रुचि वाले पाठक को सौंप दी जाये तो वह उसे हाथ में लेकर एक तरफ रख देता है। क्या साहित्य उन पुस्तकों को माना जाये जिनमें अनेक पात्रों वाली उलझी हुई निष्कर्ष से पर कहानी हो या जिनको पाठक पढ़ते हुए यही याद नहीं रख पाता कि कौन से पात्र की भूमिका क्या थी? क्या साहित्य उन निबंधों को माना जाये जिसका आम आदमी की बजाय केवल समाज के एक खास वर्ग के आचार विचार से संबंधित सामग्री होती है?
पता नहीं साहित्य की क्या परिभाषा हो सकती है, पर हमारी नज़र में जो रचना अधिक से अधिक पाठक वर्ग को प्रभावित करे वह साहित्य है। दरअसल हमारे देश के सम्मानों को लेकर विरोधाभासी परंपरा रही है। भारत का व्यवसायिक सिनेमा ही देश की जनता की पंसद है पर जब पुरस्कार की बात आती है तो कथित कलात्मक फिल्मों को ही पुरस्कृत किया जाता है जो कि देश की गरीबी बेरोजगारी या अन्य समस्याओं को सीधे सीधे प्रस्तुत कर दर्शक के सामने प्रश्न चिन्ह प्रस्तुत करती हैं। उनसे न तो समस्यायें हल होती हैं न आदमी का मनोरंजन होता है। सवाल यह है कि एक आम आदमी के सामने प्रश्न आयें तो भी वह क्या करे? देश की सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक समस्याओं की उसकी कोई निर्णायक भूमिका नहीं होती। अब भले ही पुरस्कार देने वाले आत्ममुग्धता की स्थिति में हों पर सच यही है कि व्यवसायिक सिनेमा ही इस देश के लोगों की दिल की धड़कन है।
यही स्थिति साहित्य से संबंधित पुरस्कारों की है। जब किसी लेखक की किताब छपी हो उसे ही पुरस्कार दिया जाता है जबकि सच तो यह है कि इस देश के हजारों ऐसे लेखक हैं जो अपनी रचनाओं से साहित्यक प्रवाह की निरंतरता बनाये हुए हैं-उनकी रचनायें अखबारों में छपती हैं या फिर वह मंच पर सुनाते हैं। इनमें अनेक चुटकुले और हास्य कविता लिखने वाले लेखक भी हैं। दरअसल हुआ यह है कि सम्मान आदि प्रदान करने वाली संस्थाओं पर कुछ रूढ़िवादी लेखक काबिज हो जाते हैं-यकीनन यह पद उनको चाटुकारिता लेखन के कारण ही मिलता है-जो चुटकुले या हास्य कवितायें नहीं लिख सकते वही उनकी गौण भूमिका मानते हैं जबकि इस देश का एक बहुत बड़ा वर्ग चुटकुले और हास्य कविताओं ही सुनता और पढ़ता है। इस देश में ऐसे अनेक कवि हैं जो अपनी हास्य रचनाओं के कारण ही लोगों के हृदय में छाये हुए हैं। यकीनन वह भी साहित्यकार ही हैं। प्रश्न चिन्ह खड़े करने वाली या समस्याओं को रूबरू कर पाठक के मन को चिंताओं के वन में छोड़ने वाली रचनायें ही साहित्य नहीं होती बल्कि जो लोगों के मन को मनोरंजन के साथ शिक्षा भी दें भले ही हास्य कविता या चुटकुले ही क्यों न हों साहित्य ही कही जा सकती हैं। वैसे हमारे यहां अब कुछ लोगों द्वारा क्षणिकाओं को भी साहित्य माना जाता है तब चुटकुलों और हास्य कविताओं की उपेक्षा करना ठीक नहीं लगता। अब लंबी रचनायें लिखने का समय नहीं रहा। थोड़े में अपनी बात कहने की आवश्यकता सभी जगह महसूस की जा रही है तब चुटकुलों और हास्य कविताओं का महत्व कम नहीं माना जा सकता।
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26 जनवरी 2010

निकल जायेगा तेल-हिन्दी हास्य कविता (nikal jayega tel-hindi hasya kavita)

फंदेबाज आया दनदनाता और बोला

‘दीपक बापू सुना है साहित्य के इनाम बांटने वाली

किसी संस्था का एक कंपनी से हो गया है तालमेल,

कर रहे हैं लेखक उसका विरोध.

तुम भी दिखलाओ क्रोध,

मौका अच्छा है लेखकों में नाम कमाने का,

नहीं है मौका यह गंवाने का,

जम जाये शायद तुम्हारे लिये किसी पुरस्कार का खेल।’



सुनकर पहले तो चैंके

फिर इंटरनेट पर कीबोर्ड पर हाथ नचाते

कहैं दीपक बापू

‘कमबख्त, हमारा लिखा कभी पढ़ना नहीं,

बस, जहां देखो  इनाम की बात

उम्मीद हमारे अंदर आकर जगाना वहीं,

तुम्हें नहीं मालूम

दिग्गज साहित्यकारों के नज़र में

हास्य कविताएं कभी साहित्य नहीं होती,

कवि वही है जो खुद एक भी आंसु न बहाये

पर लिखे ऐसा कि पढ़कर जनता रोती,

हमसे बेहतर लिखने वाले बहुत सारे लेखक

जोरदार लिखते रहे,

उनके नाम पर एक भी पुरस्कार नहीं

पर अविस्मरणीय है उनके शब्द

जो उन्होंने कहे,

वैसे सच कहें कि इनाम बांटने वाली संस्था का

प्रायोजित कंपनी से हुआ है जो मेल,

हम जैसे अदना को मिलने की तो भूल जाओ

बड़ों बड़ों का बिगड़ जायेगा खेल।

न किसी ने पहले पूछा

न कोई आगे पूछेगा

जब क्रिकेट, फिल्म और पत्रकारिता में

चल रहा है कंपनियों का खेल

चलने दो साहित्य के साथ उनका मेल।

हम तो कवि हैं

कविता करते जायेंगे,

पुरस्कारों की भीड़ में शायद ही

कभी अपना नाम पायेंगे,

अलबत्ता कहो तो समर्थन करने लगें

शायद जम जाये अपने लिये भी पुरस्कार का खेल।

बड़े बड़े लोग कतार में लगे हैं,

जीत लिये हैं बहुत सारे पुरस्कार

अब दूसरे के पीछे भगे हैं,

न तो विरोध में

न क्रोध में अपना नाम चमकेगा,

नक्कारखाने में तूती की तरह बजेगा,

निकल जायेगा कीबोर्ड पर ऐसे ही तेल।


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23 जनवरी 2010

बाजारू खेल में देशप्रेम ढूंढने का प्रयास-आलेख (cricket aur deshprem-hindi lekh)

भारत में चलने वाली एक क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को नीलामी में किसी ने नहीं खरीदा तो दोनों देशों में हो हल्ला मच गया है। किसी मनुष्य की नीलामी! बहुत आश्चर्य हो रहा है! यह तो गनीमत है कि इस देश में अधिकतर संख्या अभी भी अशिक्षित और अखबार न पढ़ने वाले लोगों की है वरना सारे देश मुंह खुला रह जाता और हर घर में चर्चा हो रही होती। कुछ लोग दुःखी होते तो कुछ खुश!
जब हम जैसा लेखक लिखता है तो अध्यात्म या धर्म की चर्चा न करे यह संभव नहीं हो पाता क्योंकि कहीं न कहीं लगता है कि एक तरफ लोग भारत के विश्व में अध्यात्मिक गुरु होने की बात करते हैं दूसरी तरफ अपने ही लोग जाते उल्टी दिशा में ही है। भारत से बाहर पनपी विचाराधाराओं के बारे में कहा जाता है कि वह मनुष्य को मनुष्य की गुलामी से बचाने के लिये प्रवाहित हुईं हैं। एक पश्चिमी देव पुरुष ने तो अपने कबीले के लोगों को गुलामी से मुक्ति के लिये संघर्ष किया। उसने गुलामी से अपने लोगों को मुक्त होने की प्रेरणा दी। उसकी जीवनी पर एक ंविदेशी हिन्दी टीवी चैनल ने ही कार्यक्रम दिखाया था जिसमें गुलामों की बकायदा नीलामी दिखाई जा रही थी। भारत में बंधुआ मजदूरी की परंपरा रही है पर उसमें कहीं ऐसी नीलामी की चर्चा नहीं होती जिसमें एक मालिक अपने गुलाम को दूसरे मालिक के हाथ बेचता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस गुलामी और नीलामी की परंपरा का पश्चिमी सभ्यता ने करीब करीब त्याग दिया है उसी को भारतीय धनपतियों ने क्रिकेट के सहारे यहां जिंदा किया। धन्य है धन की महिमा!
क्ल्ब स्तरीय प्रतियोगिता को कोई अधिक भावनात्मक महत्व नहीं है और इसके मैच क्रिकेट के वही समर्थक देखते हैं जिनको उस समय कोई कामकाज नहीं होता है-जिन लोगों को कामकाज होता है वह ऐसे मैच में समय खराब नहीं करते क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मैच ही उनको इसके लिये उपयुक्त लगते हैं। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि यह मैच दर्शकों के नंबर एक धन के साथ ही उस पर दांव खेलने वालो मूर्खों के धन से भी चलते हैं। मैच फिक्सिंग की वजह से बदनाम क्रिकेट हुई है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मैच जोखिम वाले हो गये हैं इसलिये इन क्लब स्तरीय मैचों को आयोजित किया जा रहा है क्योंकि इसमें राष्ट्रप्रेम जैसी कोई चीज नहीं होती और फिक्सिंग की बात सामने आने उसके आहत होने वाली कोई बात हो।
ऐसे में पाकिस्तानी खिलाड़ियों के लिये नीलाम बोली न लगाना कोई राष्ट्रीय विषय नहीं होना चाहिये था पर इसे बनाया गया। पाकिस्तान में मातम मन रहा है तो उसके लिये स्यापा करने वाले कुछ लोग यहां भी हैं। उससे अधिक हैरान होने वाली बात तो यह कि उस पर खुश होने वाले भी बहुत हैं। कुछ लोगों ने तो भारतीय नेताओं पर आक्षेप करते हुए धनपतियों को महान बता डाला तो कुछ ने पाकिस्तान को अपने यहां भी ऐसा आयोजन करने का मजाकिया संदेश दिया। लगता है कि लोग समझे ही नहीं। लोग इसे पाकिस्तान पर एक फतह समझ रहे हैं और भारतीय धनपतियों को नायक! बाजार, सौदागर और उसके बंधुआ प्रचार माध्यमों का खेल को अगर नहीं समझेंगे तो यह भ्रम बना रहेगा।
जब भारत में कुछ लोग पाकिस्तानी खिलाड़ियों के लिये नीलाम बोली न लगने का जश्न मना रहे थे तब उस क्लब स्तरीय आयोजकों की एक प्रवक्ता अभिनेत्री एक संवाद सम्मेलन में यह बता रही थी कि ‘पाकिस्तान के खिलाड़ियों को यहां के ही कुछ लोगों की धमकियों की वजह से यहां न बुलाया गया।’
यह होना ही था। भारत की फिल्म और क्रिकेट को आर्थिक रूप से प्रभावित करने वाली कुछ ताकतें पाकिस्तान में हैं या नहीं कहना कठिन है पर इतना तय है कि भारतीय धनपतियों का मायावी संसार मध्य एशिया पर बहुत निर्भर करता है। पूरा मध्य एशिया भारत को रोकने के लिये पाकिस्तान का उपयोग करता है। यह संभव नहीं है कि भारत की कुछ आर्थिक ताकतें पाकिस्तान की अवहेलना कर सकें। इनकी मुश्किल दूसरी भी है कि पश्चिम के बिना भी यह भारतीय आर्थिक ताकतें नहीं चल सकती क्योंकि अंततः उनके धन संरक्षण के स्त्रोत वहीं हैं। यही पश्चिम पाकिस्तान से बहुत चिढ़ा हुआ है। पहले इस निर्णय के द्वारा पश्चिमी देशों को भी पाकिस्तान से दूरी का संकेत भेजा गया और भारत के कुछ संगठनों की धमकी की बात कर पाकिस्तान पर मरहम लगाया गया। भारतीय धनपतियों के नायकत्व की पोल तो उनकी प्रवक्ता वालीवुड अभिनेत्री के बयान से खुल ही गयी। इस लेखक ने कल अपने एक लेख में पाकिस्तान प्रचार युद्ध में भारत से हारने पर अपने मध्य एशिया मित्रों की मदद लेने का जिक्र किया था। यही कारण है कि क्लब स्तरीय प्रतियोगिता के आयोजकों को यह सब कहना पड़ा कि ‘यहां के कुछ संगठनों की धमकियों की वजह से ऐसा किया गया।’
यह संगठन कौन है? इशारा सभी समझ गये पर सच यह है कि ‘पाकिस्तानी खिलाड़ियों को यहां न बुलाने के लिये किसी ने बहुत बड़े संगठन ने धमकी दी हो ऐसा कहीं अखबारों में पढ़ने को नहीं मिला। इन संगठनों से लोगों को जरूर भारतीय धनपतियों का आभारी होना चाहिये जो उन्हें बैठे बिठाये इस तरह का श्रेय मिल गया।
हमें इन बातों पर यकीन नहीं है। कम से कम क्रिकेट में अब हमारे अंदर देशप्रेम जैसा कोई भाव नहीं है क्योंकि हमारे देश का राष्ट्रीय खेल तो हाकी है। इस निर्णय के पीछे दूसरा ही खेल नजर आ रहा है। इस तरह के फैसले में क्या छिपा हो सकता है? यह क्रमवार नीचे लिख रहे हैं।
1-सन् 2007 में पचास ओवरीय क्रिकेट प्रतियोगिता में भारत के हारने के बाद क्रिकेट की लोकप्रियता एकदम गिर गयी। तीन महान खिलाड़ियों के विज्ञापन तक टीवी चैनलों ने रोक दिये। एक वर्ष बाद हुई बीस ओवरीय प्रतियोगिता में विश्व कप में भारत जीता(!) तो फिर लोकप्रियता बहाल हुई। उसके बाद ही यह क्ल्ब स्तरीय प्रतियोगिता भी शुरु हुई और उसमें वही तीन महान खिलाड़ी भी शामिल होते हैं जिनको अभी तक भारत क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की की बीस ओवरीय टीम के योग्य समझा नहीं जाता मगर बाजार के विज्ञापनों में उनकी उपस्थिति निरंतर रहती है। इन्हीं खिलाड़ियों की छवि भुनाने के लिये यह प्रतियोगिता आयोजित की जाती है इसमें पाकिस्तानी खिलाड़ियों का कोई अधिक महत्व नहीं है।
2-अंतिम बीस ओवरी प्रतियोगिता पाकिस्तान ने जीती और भारत का प्रदर्शन अत्यंत निराशाजनक रहा। इससे यकीनन क्रिकेट की लोकप्रियता गिरती लग रही है। कम से कम इस बीस ओवरीय प्रतियोगिता की लोकप्रियता अब संदिग्ध हो रही है। ऐसे में हो सकता है कि भारत के लोगों में राष्ट्रीय प्रेम और विजय का भाव पैदा कर इसके लिये उनमें आकर्षण पैदा करने का प्रयास हो सकता है। वैसे शुद्ध रूप से क्रिकेट प्रेमी अंतर्राट्रीय मैचों में दिलचस्पी लेते हैं पर ऐसे नवधनाढ्य लोगों के लिये यह क्लब स्तरीय मैच भी कम मजेदार नहीं होते। दूसरी बात यह है कि इन प्रतियोगिताओं में खेलने वालों को विज्ञापन के द्वारा भी धन दिलवाना पड़ता है। 26/11 के बाद भारत के जो स्थिति बनी है उसके बाद फिलहाल यह संभव नहीं है कि भारत में किसी पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी का विज्ञापन देखने को लोग तैयार हों।
3-संदेह का कारण यह है कि अनेक देशों की टीमों के खिलाड़ियों की बोली नहीं लगी पर पाकिस्तान का जिक्र ही क्यों आया? अभिनेत्री प्रवक्ता आखिर यह क्यों कहा कि ‘यहां के कुछ लोगों की धमकी की वजह से ऐसा हुआ’, अन्य देशों की बात क्यों नहीं बतायी। संभव है कि यह प्रश्न ही प्रायोजित ढंग से किया गया हो। संदेह के घेरे में अनेक लोग हैं जो पाकिस्तान के लिये अपना प्रेम प्रदर्शन कर रहे हैं पर दूसरों के लिये खामोश हैं। दरअसल भारत में एक खास वर्ग है जो पाकिस्तान की चर्चा बनाये रखकर वहां के लोगों को खुश रखना चाहता है।
हमने पहले भी लिखा था कि भारत और पाकिस्तान का खास वर्ग आपस में मैत्री भाव बनाये रखता है और इस तरह उसका व्यवहार है कि दोनों देशों के आम नागरिक ही एक दूसरे के दुश्मन हैं। अभिनेत्री के बयान से यह सिद्ध तो हो गया कि कम से कम उसके अंदर पाकिस्तान के लिये शत्रुता का भाव नहीं है और पाकिस्तान क्रिके्रट खिलाड़ी भी भारत के मित्र हैं। इसका सीधा आशय यही है कि आम लोग ही पाकिस्तान के आम लोगों के शत्रु हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि पाकिस्तान के खिलाड़ियों की इस प्रतियोगिता में नीलाम बोली न लगना इस देश में राष्ट्रप्रेम के जज़्बात भुनाकर उसे अपने फायदे के लिये भी उपयोग करना हो सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि धनाढ्य वर्ग तो वैसे भी अपने व्यवसायिक हितों की वजह से नहीं लड़ता ऐसे आर्थिक उदारीकरण के इस युग में बाजार और सौदागर से एक बाजारु खेल में देशप्रेम की छवि दिखाने की आशा करना बेकार है। खासतौर से तब जब यहां का भारत का एक बहुत बड़ा तबका क्रिकेट को जानता नहीं है या फिर इसे अधिक महत्व नहीं देता। अलबत्ता बौद्धिक विलास में रत लोगों के लिये यह एक अच्छा विषय भी हो सकता है। एक आम लेखक के लिये यह संभव नहीं है कि वह कहीं से वास्तविक तथ्य जुटा सके। ऐसे में अखबारों और टीवी पर प्रसारित खबरों के आधार पर ही हम यह बातें लिख रहे हैं। सच क्या है! यह तो खास वर्ग के लोग ही जाने!
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21 जनवरी 2010

दोस्ती दुश्मनी का दिखावा-आलेख (dosti dushmani ka dikhava-hindi lekh)

भारत की एक व्यवसायिक प्रतियोगिता में पाकिस्तान खिलाड़ियों की नीलामी न होने पर देश के अनेक बुद्धिजीवी चिंतित है। यह आश्चर्य की बात है।
पाकिस्तान और भारत एक शत्रु देश हैं-इस तथ्य को सभी जानते हैं। एक आम आदमी के रूप में तो हम यही मानेंगे। मगर यह क्या एक नारा है जिसे हम आम आदमियों का दिमाग चाहे जब दौड़ लगाने के लिये प्रेरित किया जाता है और हम दौड़ पड़ते हैं। अगर कोई सामान्य बुद्धिजीवी पाकिस्तान के आम आदमी की तकलीफों का जिक्र करे तो हम उसे गद्दार तक कह देते हैं पर उसके क्रिकेट खिलाड़ियों तथा टीवी फिल्म कलाकारों का स्वागत हो तब हमारी जुबान तालू से चिपक जाती है।
दरअसल हम यहां पाकिस्तान के राजनीतिक तथा धार्मिक रूप से भारत के साथ की जा रही बदतमीजियों का समर्थन नहीं कर रहे बल्कि बस यही आग्रह कर रहे हैं कि एक आदमी के रूप में अपनी सोच का दायरा नारों की सीमा से आगे बढ़ायें।
अगर हम व्यापक अर्थ में बात करें तो भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों का आशय क्या है? दो ऐसे अलग देश जिनके आम इंसान एक दूसरे के प्रति शत्रुता का भाव रखते हैं-इसलिये दोनों को आपस में मिलाने की बात कही जाती है पर मिलाया नहीं जाता क्योंकि एक दूसरे की गर्दन काट डालेंगे।
मगर खास आदमियों का सोच कभी ऐसा नहीं दिखता। भारत में अपने विचार और उद्देश्य संप्रेक्षण करने यानि प्रचारात्मक लक्ष्य पाने के लिये फिल्म, टीवी, अखबार और रेडियो एक बहुत महत्वपूर्ण साधन हैं। इन्हीं से मिले संदेशों के आधार पर हम मानते हैं कि पाकिस्तान हमारा शत्रु है। मगर इन्हीं प्रचार माध्यमों से जुड़े लोग पाकिस्तान से ‘अपनी मित्रता’ की बात करते हैं और समय पड़ने पर यह याद दिलाना नहीं भूलते कि वह शत्रु राष्ट्र है।
भारत के फिल्मी और टीवी कलाकार पाकिस्तान में जाकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं तो अनेक खेलों के खिलाड़ी भी वहां खेलते हैं-यह अलग बात है कि अधिकतर चर्चा क्रिकेट की होती है। पाकिस्तानी कलाकारो/खिलाड़ियों से उनके समकक्ष भारतीयों की मित्रता की बात हम अक्सर उनके ही श्रीमुख से सुनते हैं। इसके अलावा अनेक बुद्धिजीवी, लेखक तथा अन्य विद्वान भी वहां जाते हैं। इनमे से कई बुद्धिजीवी तो देश के होने वाले हादसों के समय टीवी पर ‘पाकिस्तानी मामलों के विशेषज्ञ’ के रूप में चर्चा करने के लिये प्रस्तुत होते हैं। इनके तर्कों में विरोधाभास होता है। यह पाकिस्तान के बारे में अनेक बुरी बातें कर देश का दिल प्रसन्न करते हैं वह यह कभी नहीं कहते कि उससे संबंध तोड़ लिया जाये। सीधी भाषा में बात कहें तो जिन स्थानों से पाकिस्तान के विरोध के स्वर उठते हैं वह मद्धिम होते ही ‘पाकिस्तान शत्रु है’ के नारे लगाने वाले दोस्ती की बात करने लगते हैं। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की बारे में सभी जानते हैं। इतना ही नहीं मादक द्रव्य पदार्थो, फिल्मों, क्रिकेट से सट्टे से होने वाली कमाई का हिस्सा पाकिस्तान में बैठे एक भारतीय माफिया गिरोह सरदार के पास पहुंचता है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह इन आतंकवादियों को धन मुहैया कराता है। अखबारों में छपी खबरें बताती हैं कि जब जब सीमा पर आतंक बढ़ता है तब दोनों के बीच अवैध व्यापार भी बढ़ता है। अंतराष्ट्रीय व्यापार अवैध हो या वैध उसका एक व्यापक आर्थिक आधार होता है और यह तय है कि कहीं न कमाई की लालच दोनों देशों में ऐसे कई लोगों को है जिनको भारत की पाकिस्तान के साथ संबंध बने रहने से लाभ होता है। अब यह संबंध बाहर कैसे दिखते हैं यह उनके लिये महत्वपूर्ण नहीं है। पाकिस्तान में भारतीय फिल्में दिखाई जा रही हैं। यह वहां के फिल्मद्योग के लिये घातक है पर संभव है भारतीय फिल्म उद्योग इसकी भरपाई वहां के लोगों को अपने यहां कम देखकर करना चाहता है। भारत में होने वाली एक व्यवसायिक क्रिकेट प्रतियोगिता में पाकिस्तान खिलाड़ियों का न चुने जाने के पीछे क्या उद्देश्य है यह अभी कहना कठिन है पर उसे किसी की देशभक्ति समझना भारी भूल होगी। दरअसल इस पैसे के खेल में कुछ ऐसा है जिसने पाकिस्तानी खिलाड़ियों को यहां नहीं खरीदा गया। एक आम आदमी के रूप में हमें कुछ नहीं दिख रहा पर यकीनन इसके पीछे निजी पूंजीतंत्र की कोई राजनीति होगी। एक बात याद रखने लायक है कि निजी पूंजीतंत्र के माफियाओं से भी थोड़े बहुत रिश्ते होते हैं-अखबारों में कई बार इस गठजोड़ की चर्चा भी होती है। भारत का निजी पूंजीतंत्र बहुत मजबूत है तो पाकिस्तान का माफिया तंत्र-जिसमें उसकी सेना भी शामिल है-भी अभी तक दमदार रहा है। एक बात यह भी याद रखने लायक है कि भारत के निजी पूंजीतंत्र की अब क्रिकेट में भी घुसपैठ है और भारत ही नहीं बल्कि विदेशी खिलाड़ी भी यहां के विज्ञापनों में काम करते हैं। संभव है कि पाकिस्तान के खिलाड़ियों की इन विज्ञापनों में उपस्थिति भारत में स्वीकार्य न हो इसलिये उनको नहीं बुलाया गया हो-क्योंकि अगर वह खेलने आते तो मैचों के प्रचार के लिये कोई विज्ञापन उनसे भी कराना पड़ता और 26/11 के बाद इस देश के आम जन की मनोदशा देखकर इसमें खतरा अनुभव किया गया हो।
ऐसा लगता है कि विश्व में बढ़ते निजी पूंजीतंत्र के कारण कहीं न कहीं समीकरण बदल रहे हैं। पाकिस्तान के रणनीतिकार अभी तक अपने माफिया तंत्र के ही सहारे चलते रहेे हैं और उनके पास अपना कोई निजी व्यापक पूंजीतंत्र नहीं है। यही कारण है कि उनको ऐसे क्षेत्रों में ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है जहां सफेद धन से काम चलता है। पाकिस्तानी रुपया भारतीय रुपये के मुकाबले बहुत कमजोर माना जाता है।
वैसे अक्सर हम आम भारतीय एक बात भूल जाते हैं कि पाकिस्तान की अपनी कोई ताकत नहीं है। भारतीय फिल्म, टीवी, रेडियो और अन्य प्रचार माध्यम पाकिस्तान की वजह से उसका गुणगान नहीं करते बल्कि मध्य एशिया में भारत के निजी पूंजीतंत्र की गहरी जड़े हैं और धर्म के नाम पर पाकिस्तान उनके लिये वह हथियार है जो भारत पर दबाव डालने के काम आता है। जब कहीं प्रचार युद्ध में पाकिस्तान भारत से पिटने लगता है तब वह वहीं गुहार लगाता है तब उसके मानसिक जख्मों पर घाव लगाया जाता है। मध्य एशिया में भारत के निजी पूंजीतंत्र की जड़ों के बारे में अधिक कहने की जरूरत नहीं है।
कहने का अभिप्राय यह है कि हम आम आदमी के रूप में यह मानते रहें कि पाकिस्तान का आम आदमी हमारा शत्रु है मगर खास लोगों के लिये समय के अनुसार रुख बदलता रहता है। एक प्रतिष्ठत अखबार में पाकिस्तान की एक लेखिका का लेख छपता रहता है। उससे वहां का हालचाल मालुम होता है। वहां आतंकवाद से आम आदमी परेशान है। भारत की तरह वहां भी महंगाई से आदमी त्रस्त है। हिन्दूओं के वहां हाल बहुत बुरे हैं पर क्या गैर हिन्दू वहां कम दुःखी होगा? ऐसा सोचते हुए एक देश के दो में बंटने के इतिहास की याद आ जाती है। अपने पूर्वजों के मुख से वहां के लोगों के बारे में बहुत कुछ सुना है। बंटवारे के बारे में हम लिख चुके हैं और एक ही सवाल पूछते रहे हैं कि ‘आखिर इस बंटवारे से लाभ किनको हुआ था।’ जब इस पर विचार करते हैं तो कई ऐसे चित्र सामने आते हैं जो दिल को तकलीफ देते हैं। एक बाद दूसरी भी है कि पूरे विश्व के बड़े खास लोग आर्थिक, सामाजिक, तथा धार्मिक उदारीकरण के लिये जूझ रहे हैं पर आम आदमी के लिये रास्ता नहीं खोलते। पैसा आये जाये, कलाकर इधर नाचें या उधर, और टीम यहां खेले या वहां फर्क क्या पड़ता है? यह भला कैसा उदारीकरण हुआ? हम तो यह कह रहे हैं कि यह सभी बड़े लोग वीसा खत्म क्यों नहीं करते। अगर ऐसा नहीं हो सकता तो उसके नियमों का ढीला करें। वह ऐसा नहीं करेंगे और बतायेंगे कि आतंकवादी इसका फायदा ले लेंगे। सच्चाई यह है कि आतंकवादियों के लिये कहीं पहुंचना कठिन नहीं है पर उनका नाम लेकर आम आदमी को कानूनी फंदे में तो बंद रखा जा सकता है। कुल मिलाकर भारत पाकिस्तान ही नहीं बल्कि कहीं भी किन्हीं देशों की दोस्ती दुश्मनी केवल आम आदमी को दिखाने के लिये रह गयी लगती है। उदारीकरण केवल खास लोगों के लिये हुआ है। अगर ऐसा नहीं होता तो भला आई.पी.एल. में पाकिस्तान के खिलाड़ियों की नीलामी पर इतनी चर्चा क्यों होती? एक बात यहां उल्लेख करना जरूरी है कि क्रिक्रेट की अंतर्राष्ट्रीय परिषद के अध्यक्ष के अनुसार इस खेल को बचाने के लिये भारत और पाकिस्तान के बीच मैच होना जरूरी है। इस पर फिर कभी।
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14 जनवरी 2010

सचिव पुरान-हिन्दी हास्य कविता (sachiv parun-hindi hasya kavita)

छोटे नेता ने बड़े नेता से कहा

‘हमारी मेहनत से आप बने बड़े नेता

और अब हमें भुला दिया,

कोई काम लेकर

जब भी आपसे मिलने की कोशिश की

आप अपने हमें सचिव के पास टरका दिया।

वह अपनी मजबूरियां बताकर भगा देता है

कभी कभी तो लगता है कि

हम पुराने लोगों  से अलग कर

आपको उसने बंधक बना लिया।’



सुनकर बोले बड़े नेता

‘भईया, धीरे से बोल

अपना मुंह बिना सोचे मत खोल,

कहीं कोई सुन न ले

तुम्हें गलतफहमी हो गयी है

वह भी पुराना है पर तुम नहीं देख पाये

तुम मैदान में जाकर हमारे लिये

जब जाते लड़ने

उसने पर्दे के पीछे बहुत खेल किया।

वह हमारी पसंद नहीं

बल्कि हम उसकी पसंद हैं

इसलिये उसने अपना स्वामी बना दिया।

तुम नहीं जानते यह खेल

निकल जाता है इसमे तेल

इसलिये बड़ा बनने पर

अपनी उंगली सचिव के हाथ में देकर ही

चलना पड़ता है

जो नहीं चले उनकी राह

उनका बेड़ा भी ऐसे ही सचिवों ने गर्क किया।

हम तुम्हारे मुख हैं

पर सचिव ने अपना मुखौटा बना लिया।

हम जैसे तो बहुत आयेंगे,

पर सचिव के बिना नहीं चल पायेंगे,

हम उसे छोड़े देंगे

तो दूसरे लोग  खुद से जोड़ लेंगे,

सचिव भी ताकत की धार

उसकी तरफ मोड़ देंगे,

भईये, हमारा सचिव अच्छा इंसान है

हमें दुनियां कहती, पर असल में वही महान है

यही सचिव पुरान है,

हम नेताओं का ताज छिन जाता,

पर उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाता,

वैसे भी हम ठहरे भाषण देने वाले,

कहीं गद्य सुनाते, कहीं करते कविता

कभी चुटकुले भी सुनाते

किराये पर बुलाते तालियां बजाने वाले,

पद पर पहुंचने के लिये खूब पापड़ बेले

भले ही तुमने वहां पहुंचाया

पर उस बने रहने के लिये

सचिव की कृपा जरूरी है

वह तो ऊपर वाले की कृपा है कि

ऐसा सेवक मिला  

जिसने हमें अपना स्वामी बना लिया।


कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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9 जनवरी 2010

कन्या भ्रुण हत्या समस्या नहीं परिणाम है-हिन्दी लेख (kanya bhrun hatya-hindi lekh)

                  देश में पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की कम होती संख्या चिंता का विषय है। यह चिंता होना भी चाहिये क्योंकि जब हम मानव समाज की बात करते हैं तो वह दोनों पर समान रूप से आधारित है। रिश्तों के नाम कुछ भी हों मगर स्त्री और पुरुष के बीच सामजंस्य के चलते ही परिवार चलता है और उसी से देश को आधार मिलता है। इस समय स्त्रियों की कमी का कारण ‘कन्या भ्रुण हत्या’ को माना जा रहा है जिसमें उसके जनक माता, पिता, दादा, दादी, नाना और नानी की सहमति शामिल होती है। यह संभव नहीं है कि कन्या भ्रूण  हत्या में किसी नारी की सहमति न शामिल हो। संभव है कि नारीवादी कुछ लेखक इस पर आपत्ति करें पर यह सच नहीं बदल सकता क्योंकि हम अपने समाज की कुरीतियों, अंधविश्वासों और पाखंडों को अनदेखा नहीं कर सकते जिसमें स्त्री और पुरुष समान रूप से शामिल होते दिखते हैं।
           अनेक समाज सेवकों, संतों तथा बुद्धिजीवी निंरतर कन्या भ्रुण हत्या के विरुद्ध अभियान छेड़े हुए हैं-उनकी गतिविधियों की प्रशंसा करना चाहिये।
              मगर हमें यह बात भी देखना चाहिये कि ‘कन्या भ्रुण हत्या’ कोई समस्या नहीं बल्कि समाज में व्याप्त दहेज प्रथा तथा अन्य प्रकार की सामाजिक सोच का परिणाम है। ‘कन्या भ्रुण हत्या’ रोको जैसे नारे लगाने से यह काम रुकने वाला नहीं है भले ही कितनी ही राष्ट्रभक्ति या भगवान भक्ति की कसमें खिलाते रहें।
अनेक धार्मिक संत अपने प्रवचनों में भी यही मुद्दा उठा रहे हैं। अक्सर वह लोग कहते हैं कि ‘हमारे यहां नारी को देवी की तरह माना जाता है’।
             सवाल यह है कि वह किसे संबोधित कर रहे हैं-क्या उनमें नारियां नहीं हैं जो कहीं न कहीं इसके लिये किसी न किसी रिश्ते के रूप में शामिल होती हैं।
            दहेज प्रथा पर बहुत लिखा गया है। उस पर लिखकर कर विषय के अन्य पक्ष को अनदेखा करना व्यर्थ होगा। मुख्य बात है सोच की।
         हममें से अनेक लोग पढ़ लिखकर सभ्य समाज का हिस्सा बन गये हैं पर नारी के बारे में पुरातन सोच नहीं बदल पाये। लड़की के पिता और लड़के के पिता में हम स्वयं भी फर्क करते दिखते हैं पर तब हमें इस बात का अनुमान नहीं होता कि अंततः यह भाव एक ऐसी मानसिकता का निर्माण करता है जो ‘कन्या भ्रुण हत्या’ के लिये जिम्मेदार बनती है। शादी के समय लड़की वालों को तो बस किसी भी तरह बारातियों को झेलना है और लड़के वालों को तो केवल अपनी ताकत दिखाना है। अनेक बार ऐसी दोहरी भूमिकायें हममें से अनेक लोग निभाते रहे हैं। तब हम यंत्रवत चलते रहते हैं कि यह तो पंरपरा है और इसे निभाना है। शादी के समय जीजाजी का जूता साली चुराती है और उसे पैसे लेने हैं पर इससे पहले उसका पिता जो खर्च कर चुका होता है उसे कौन देखता है। साली द्वारा जुता चुराने की रस्म बहुत अच्छी लगती है पर उससे पहले हुई रस्में निभाते हुए दुल्हन का बाप कितना परेशान होता है यह देखने वाली बात है।
            हमारे यहां अनेक प्रकार के समाज हैं। कमोबेश हर समाज में नारी की स्थिति एक जैसी है। उस पर उसका पिता होना मतलब अपना सिर कहीं झुकाना ही है। अनेक लोग कहते भी हैं कि ‘लड़की के बाप को सिर तो झुकाना ही पड़ता है।’
             कुछ समाजों ने तो अब शराब खोरी और मांसाहार परोसने जैसे काम विवाहों के अवसर सार्वजनिक कर दिये हैं जो कभी हमारी परंपरा का हिस्सा नहीं रहे। वहां हमने पाश्चात्य सभ्यता का मान्यता दी पर जहां लड़की की बात आती है वहां हमें हमारा धर्म, संस्कार और संस्कृति याद आती है और उसका ढिंढोरा पीटने से बाज नहीं आते।
            कहने का अभिप्राय यह है कि ‘कन्या भ्रुण हत्या’ का नारा लगाना है तो नारा लगाईये पर देश के लोगों को प्रेरित करिये कि
              1. शादी समारोह अत्यंत सादगी से कम लोगों की उपस्थिति में करें। भले ही बाद में स्वागत कार्यक्रम स्वयं लड़के वाले करें।
                   2. दहेज को धर्म विरोधी घोषित करें। याद हमारे यहां दहेज का उल्लेख केवल भगवान श्रीराम के विवाह समारोह में दिया गया था पर उस समय की हालत कुछ दूसरे थे। समय के साथ चलना ही हमारे अध्यात्मिक दर्शन का मुख्य संदेश हैं।
                   3. लोगों को यह समझायें कि अपने बच्चों का उपयेाग अस्त्र शस्त्र की तरह न करें जिससे चलाकर अपनी वीरता का परिचय दिया जाता है।
                    4. अनेक रस्मों को रोकने की सलाह दें।
                 याद रखिये यही हमारा समाज हैं। अगर आज किसी को तीन लड़कियां हों तो उसे सभी लोग वैसे ही बिचारा कहते हैं। ऐसा बिचारा कौन बनना चाहेगा? जब तक हम अपने समाज में व्याप्त दहेज प्रथा, शादी में अनाप शनाप खर्च तथा सोच को नहीं बदलेंगे तब तक कन्या भ्रुण हत्या रोकना संभव नहीं है। दरअसल इसके लिये न केवल राजनीतिक तथा कानूनी प्रयास जरूरी हैं बल्कि धार्मिक संतों के साथ सामाजिक संगठनों को भी कार्यरत होना चाहिये। सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि जब लड़कियों की संख्या इतनी कम हो रही है तब भी लड़के वालों के दहेज बाजार में भाव क्यों नहीं गिर रहे? लाखों रुपये का दहेज, गाड़ी तथा अन्य सामान निरंतर दहेज में दिया जा रहा है। इतना ही नहीं लड़कियों के सामाजिक सम्मान में भी कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही है। इन सभी बातों का विश्लेषण किये बिना ‘कन्या भ्रुण हत्या’ रोकने के लिये प्रारंभ वैचारिक अभियान सफल हो पायेगा इसमें संदेह है।
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2 जनवरी 2010

तन्हाई-हिन्दी शायरी (tanhai-hindi shayri

 किसी की कामयाबी देखकर

कभी बहके नहीं

इसलिये अपनी राह खुद चुनी

उस पर  अकेला तो हो ही जाना था

अब अपनी तन्हाई में  भी

अपने साथ खुद ही होता हूं।

भीड़ तो भ्रम में

चाहे जहां चल देती है

उसके शोरशराबे का मतलब

तभी समझ में आता

जब अकेला होता हूं।

धोखा देने के

एक जैसे मंजर हमेशा

आंखों के सामने आते,

बस कभी नाम तो कभी चेहरे

बदलते दिखते,

मैं तो बस देख रहा होता हूं।

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