1 अप्रैल 2010

अप्रैल फूल यानि मूर्ख दिवस-हास्य कविता (april fool-hindi hasya kavita)

एप्रिल फूल अब क्या मनायें
यहां तो खुद ही रोज मूर्ख बन जायें।
नकली नायकों को पर्दे पर दिखाकर
देवताओं की तरह उनका नाम जपायें।
बेकसूर रहें खौफ के साये में
कसूरवार जेल में भी जश्न मनायें।
सजाया है बाजार ने पर्दे पर खेल
उसमें आम इंसान अपनी नज़र गंवायें।
रोज रोज वादे कर, वह मुकर जाते हैं
हम हर बार उन पर यकीन जतायें।
देश की तरक्की के चर्चे हैं चारों तरफ
पर हम भूख और लाचारी को न भूल पायें।
खुद ही कसमें खाते हैं रोज बदलने की
पर कभी अपने को सुधार न पायें।
बेअक्लों की महफिल में रोज बैठते हैं
फिर भला क्या मूर्ख दिवस मनायें।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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1 टिप्पणी:

संगीता पुरी ने कहा…

खुद ही कसमें खाते हैं रोज बदलने की
पर कभी अपने को सुधार न पायें।
बेअक्लों की महफिल में रोज बैठते हैं
फिर भला क्या मूर्ख दिवस मनायें।
बहुत सटीक !!

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