26 अप्रैल 2014

किसानों में बढ़ती आत्महत्या की घटनायें चिंत्ताजनक-हिन्दी चिंत्तन लेख(kisanon mein badhti aatmhatya ki ghatnayen chinttajanak-hindi chinnta lekh)



      हमारे देश में आजकल प्रचार माध्यमों में किसानों की आत्महत्या करने की घटनाओं की चर्चा खूब होती है।  इसका कारण यह है कि हमारे प्रचार माध्यम गरीबों, किसानों, तथा बेसहारों के मददगारों को नायकत्व की छवि प्रदान करते हैं इसलिये उनका मुद्दा उठाने वाले बहुत सारे विद्वान मिल जाते हैं। । दूसरी बात यह यह है कि चूंकि भारत में आबादी का एक बड़ा भाग गांवों में रहता है इसलिये यह माना जाता है कि वहां सभी किसान है-हालांकि उसमें सभी भूमि के स्वामी नहीं होते-इसलिये उनकी खुशहाली ही में देश का हित है।  वैसे हमारे देश में प्रचारात्मक रूप से गरीब, मजदूर, किसान, महिला, बच्चे और वृद्ध जैसे वर्गों के कल्याण क बात कही खूब जाती है मगर फिर भी लोग खुश नहीं होते। 
      हमारे रणनीतिकारों के लिये यह सुविधाजनक स्थिति है कि वर्गों में बांटकर समाज के भले का दावा कर अपनी छवि बनाते रहो क्योंकि वर्तमान स्वाचालित व्यवस्था में कोई कदम तो उठाना संभव नहीं है। देखा जाये तो जब तक समाज को एक इकाई मानकर कल्याण का काम नहीं होगा तब तक वास्तव में देश का उद्धार नहीं हो सकता।  हमारा मानना है कि बिजली, शुद्ध पानी तथा सड़क जैसी मूलभूत समस्यायें का अगर निवारण पूरी तरह हो जाये तो हमारा समाज स्वयं ही शक्ति रूप बन जायेगा।  हालांकि अगर ऐसा हो गया तो उन लोगों का प्रभाव भी समाप्त हो सकता है जो कल्याण के नाम पर अनेक प्रकार के स्वयंसेवी सगंठन चलाते हैं या फिर वह कल्याण की दुहाई देकर पहले लोकप्रियता प्राप्त करने के बाद उसका नकदीकरण करते है।
      बहरहाल हमारे देश में किसानों की आत्महत्या की घटनायें चिंता का विषय तो है पर यह विषय भी महत्वपूर्ण है कि छोटे व्यवसायी तथा मजदूर वर्ग में यह समस्या बढ़ी है।  इतना ही नहीं धनिक वर्ग के लोग भी आत्महत्यायें कर रहे हैं। किसानों की आत्महत्याओं की संख्या तो मिल जाती है पर दूसरे वर्ग के लोगों का आंकड़ा पता नहीं चलता। अलबत्ता समाचारों को देखें तो आत्महत्या को उसी तरह किसी वर्ग विशेष से जोड़ा जाता है जैसे कल्याण के विषय को जोड़ा जाता है।  कर्ज न चुकाने पर किसान ही आत्महत्या करते हैं यह सोचना भी गलत होगा।  यह अलग बात है कि अन्य वर्गों से अनुपात में अधिक होने पर उनकी संख्या भी अधिक हो सकती हैं।
      हमारा मानना है कि उदारीकरण के चलते अर्थव्यवस्था के बदले रूप के कारण ही हमारे देश में सामाजिक ढांचा गड़बड़ाया है। मकान, गाड़ी, टीवी, फ्रिज और कंप्यूटर के साथ ही अन्य उपभोग की वस्तुऐं कर्ज पर मिल रही हैं और लोग ले रहे हैं।  समस्या है उनके भुगतान की।  कर्ज लेने का मतलब यह है कि कहीं न कहीं लोगों के पास बचत की कमी है। बचत की कमी इसलिये क्योंकि उनकी आय कम है।  तय बात है कि कर्ज लेकर उस आय से कर्ज का भुगतान करना संभव नहीं होता। हमारे यहां ऋषि चार्वाक एक सिद्धांत चर्चित है कि कर्ज लो और घी पियो  इसे व्यंग्यात्मक रूप से कहा जाता है।  वरना तो यह माना जाता है कि कर्ज मर्ज की तरह होता है जो बढ़ता ही जाता हैं।  प्रचार माध्यमों के समाचारों से पता चलता है कि बैंकों का ढेर कर्ज डूबत खाते में है।  सुनने में तो यह आता है कि कि बड़े ऋणदाताओं से कर्ज भले ही वसूल न कर पायें पर छोटे के मामले में उनका वैसा पैमाना नहीं है।  वैसे कर्ज वसूली में सार्वजनिक बैंक अधिक संकट खड़ा नहीं करते पर  निजी बैंक तथा साहुकारों के कर्जे न चुकाना एक भारी तनाव बढ़ जाता है।
      महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे देश में उपभोग प्रवृत्ति में गुणात्मक परिवर्तन आया है जबकि आय के विषय में यह बात नहीं कही जा सकती। स्थिति यह है कि लोगों ने खाने पीने से अधिक आधुनिक सामानों पर व्यय करना शुरु कर दिया है।  किसान, छोटे व्यापारी तथा लघु उद्योगपति की आय के स्वरूप में वैसी प्रगति नहीं हुई पर उपभोग प्रवृत्ति के बदलाव ने उन्हें निम्न वर्ग में ला खड़ा कर दिया है। मूल बात यह है कि समाज को अगर वर्गों में बांटकर हम उनकी आत्महत्याओं की संख्या पर बहस करेंगे तो कहीं निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पायेंगे।  मध्यम वर्ग किसी भी समाज का एक महत्वपूर्ण सहयोगी होता है और वह इस नयी अर्थव्यवस्था में स्वयं को असहाय पा रहा है।  इस पर हमारे देश में धार्मिक कर्मकांड, विवाह तथा मृत्यु के अवसर पर अपनायी जानी वाली खर्चीली रीतियों की धारा निरंतर प्रवाहित हैं जो मध्यम वर्ग के लिये संकट का कारण बनी हुई हैं।  किसान फसल आने के पहले ही कर्जा लेते हैं तो छोटे व्यवसायी और अन्य श्रमिक वर्ग आय के मौसम के आधार पर उधार पर खरीददारी करने लगा है।
      कहने का अभिप्राय यह है कि हमारे देश के आर्थिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक विद्वानों को समाज को एक इकाई मानकर विचार करना चाहिये।  इस देश में भूमिस्वामी तथा मजदूर दोनों ही किसान की श्रेणी में आते हैं।  अगर परेशान हैं तो दोनों ही हैं।  इतना ही नहीं कृषि से अलग व्यवसाय करने वाले लोग भी कम हैरान परेशान नहीं है।  किसानों की आत्महत्या का एक सामाजिक पहलु अवश्य दर्दनाक है कि आमतौर से ग्रामीण क्षेत्रों में इस तरह की घटनायें नहीं होती थीं पर यह भी सच है कि शहरी हवाओं ने अब ग्रामों में बहना शुरु कर दिया है। इसलिये पूरे समाज की स्थिति पर दृष्टिपात करना होगा।


लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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18 अप्रैल 2014

केवल नारे लगायें-दो हिन्दी व्यंग्य कवितायें(kewal nare lagayen-two short hinde poem)



स्वयं सुनाते हैं वह लोगों को अपनी जिंदगी की कथायें,
अपनी तारीफ खुद करें दर्द के लियेे गैरों पार आरोप लगायें।
कहें दीपक बापू यह विज्ञापन का दौर है
 लोगों की हमदर्दी हासिल करने के लिये
अपनी हालातों का बुरा बयान करना पड़ता है,
अपनी तरक्की पर हर कोई सीना फुलाता
पिछड़ने का दोष दूसरे पर मढ़ता है,
बड़े भाषण से कोई असर नहीं होता
लोगों की भीड़ अपने पास लाने के लिये
चलने फिरने की बजाय केवल नारे लगायें।
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जादू से किसी का पेट नहीं भरता
न ही बीमारी की दवा बनती है,
फिर भी सिद्ध बन गये हैं हमदर्दी के व्यापारी
 जिनकी मलाई छनती है।
कहें दीपक बापू अक्ल का कमरा बंद कर चुके लोग
वादों में बहक जाते
सच कहो तो उनसे लड़ाई ठनती है।
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10 अप्रैल 2014

भलाई के सौदे में लक्ष्य साधना-हिन्दी व्यंग्य कविता(bhalai ke saude mein lakshya sadhna-hindi satire poem)



जहां शब्दों से लक्ष्य साधना हो
वहां सोचकर बोला नहीं जाता,
जहां अपना पेट भरना हो
थाली में रखा खाना तोला नहीं जाता।
कहें दीपक बापू आग लगाकर हुड़दंग की भट्टी में
कई लोग रोटी पकाते हैं,
वह स्वांग रचते हैं कभी हंसने तो कभी रोने का
सबकी नजर उनकी तरफ बनी रहे
इसलिये कभी गंभीर चिंतक
कभी हास्य की अदाओं से लोगों को छकाते हैं,
तरक्की के आसमान पर चढ़ने के लिये
बनाते हैं हमदर्दी की सीढ़ियां,
फिर उनको गिरा देते हैं
ताकि जमी रहे शिखर पर
उनकी आने वाली पीढ़ियां,
जहां की भलाई का भी सौदा होता है
दाम का लेनदेन होता है दीवारों के पीछे
चौराहे पर बताया नहीं जाता।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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3 अप्रैल 2014

तख्त की जंग पर दो क्षणिकायें-हिन्दी व्यंग्य क्षणिकायें(takhta ki zang two short poem's)



कोई जीतता कोई हारता है,
तख्त की जंग में चलते हैं
अब वीरों के बाण अपने मुख से
कोई किसी को नहीं मारता है।
कहें दीपक बापू  रणनीति बनती है
वातानुकूलित कक्षों में
रण होता है मशीनों में
महल पहुंचता है वही योद्धा
प्रचार के बाज़ार में
प्रतिद्वंद्वी पर बाज़ी मारता है।
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घोड़ा घास से यारी करे
भूखा मर जायेगा,
तख्त की जंग में बनेगा जो दरियादिल
वह बोलने में डर जायेगा।
कहें दीपक बापू बंदूकों से जीत आसान होती है
जहां बयान करते है तय काबलियत
अच्छे खासे की अक्ल मंद होती है,
नये ज़माने में तीरों की तरह जो शब्द चलायेगा
वही महल का रास्ता तय कर जायेगा।
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