किसी भूखे को रोटी खिलाने का
उनकी किताबों में कोई इलाज नहीं
ढेर सारे कसूरों की सजाएं है
कसूरवार की मजबूरी समझने का
कोई कहीं रिवाज नहीं
जमाने को सिखाते हैं तमाम तरीके
जन्नत में जाने के
अपनी हकीकतो से दूर
ख्वाबों में जाने के
सर्वशक्तिमान ने कोई कानून नहीं बनाया
फिर भी उसके नाम पर सुनाते हैं
चंद किताबें पढ़कर फैसले
इंसान की भूख को पढ़ने का
कहीं कोई मिजाज नहीं
सभी को मोहब्बत का पैगाम देते हैं
पर जिस्म की भूख पर है खामोश
क्योंकि उस पर किसी का बस नहीं
अरे, ऊपर वाले का नाम लेकर
दुनियो को उसके दस्तूर पर चलाने वालों
उससे पूछ का बताओ
भूखा अगर रोटी की चोरी करे
तो उसकी सजा क्यों होना चाहिए
अगर वह इंसान के पेट में भूख नहीं बनाता तो
मान लेते उसका होगा वजूद
इस धरती पर भी कहीं
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की चिंतन पत्रिका’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
लेखक के अन्य ब्लाग@पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
शांति लाने का दावा
बारूद के ढेर चारों और लगाकर
हर समस्या के इलाज के लिए
नये-नयी चीजें बनाकर
आदमी में लालच का भूत जगाकर
वह करते हैं दुनिया में शांति लाने का दावा
बंद कमरों में मिलते अपने देश की
कुर्सियों पर सजे बुत
चर्चाओं के दौर चलते
प्रस्ताव पारित होते बहुत
पर जंग का कारवाँ भी
चल रहा है फिर भी हर जगह
होती कुछ और
बताते और कुछ वजह
जब सब चीज बिकाऊ है
तो कैसे मिल सकता है
कहीं से मुफ्त में शांति का वादा
बहाने तो बहुत मिल जाते हैं
पर कुछ लोग का व्यवसाय ही है
देना अशांति को बढावा
एक दुकान से खरीदेंगे शांति
दूसरा अपनी बेचने के लिए
जोर-जोर से चिल्लाएगा
फैलेगी फिर अशांति
जब फूल अब मुफ्त नहीं मिलते
तो बंदूक और गोली कैसे
उनके हाथ आते हैं
जहाँ से चूहा भी नहीं निकल सकता आजादी से
वहाँ कोहराम मचाकर
वह कैसे निकल जाते हैं
विकास के लिए बहता दौलत का दरिया
कुछ बूँदें वहाँ भी पहुंचा देता है
जहाँ कहीं शांति का ठेकेदार
कुछ समेट लेता है
जानते सब हैं पर
दुनिया को देते हैं भुलावा
न दें तो कैसे करेंगे शांति लाने का दावा
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