31 जुलाई 2009

हिंदी में लिखा अन्य भाषाओं में पढ़ते देखना रोमांचित करता है-आलेख (translate toolbar and hindi article)

भले ही वह संख्या कम है पर हिंदी भाषा में अपने ब्लाग अन्य भाषाओं में पढ़े जाते देखकर अचरज तो होता है। स्पष्टतः यह लगने लगा है कि अंतर्जाल पर जब आप किसी भाषा में लिख रहे हैं तो केवल आप उस भाषा के लेखक नहीं हैं बल्कि उस समूह के भावों के प्रवर्तक भी हैं। इस लेखक ने गूगल के अनुवाद टूलों को में अपने ब्लागों को दूसरी भाषा में पढ़े जाते देखा है। यह प्रतीत होता है कि हिंदी से अन्य भाषाओं में अधिक शुद्ध अनुवाद हो रहा है क्योंकि कोई शब्द अनुवाद से परे नहीं रह गया। हिंदी के शब्दों को पहले दूसरी भाषा में अनुवाद करके देखा। फिर उस अनुवाद को अंग्रेजी में किया तो देखा तो पाया कि उनका अनुवाद ठीक हो रहा है।

जिन भाषाओं में अपने ब्लाग को पढ़े जाते देखा उनमें चीनी, जापानी और हिब्रू शामिल हैं। अब अन्य भाषाओं से हिंदी में अनुवाद कैसे होगा इस पर भी काम करने का प्रयास करेंगे। भाषाई दृष्टि से सिकुड़ रहे विश्व में यह परिवर्तन देखने लायक होगा। यह लेखक आज भी भारत के ही उस अंग्रेजी ब्लाग लेखक को याद करता है जिसने यह भविष्यवाणी की थी कि विश्व में भाषाई दीवार अधिक समय तक नहीं चलेगी।

गूगल ने इस विश्व में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने का प्रयास किया है जिसके परिणाम अब दृष्टिगोचर होने लगे हैं। इधर यह सुनने में आ रहा है कि गूगल को याहू और माइक्रोसोफ्ट चुनौती देने की योजना बना रहे हैं। पता नहीं उनकी क्या योजनायें होंगी पर इतना तय है कि याहू भारत के आम प्रयोक्ताओं में अधिक उपयोग में लाया जाता है जबकि गूगल रचनाधर्मी और व्यापारिक क्षेत्रो की पंसद है।

अंतर्जाल पर हिंदी लिखवाने के लिये जो गूगल ने योगदान दिया है उसे अनदेखा तो करना कठिन है। याहू भारतीय जनमानस में लोकप्रिय इसलिये बना हुआ है क्योंकि उसके बारे में यह भ्रम है कि एक भारतीय अभिनेता ने बनाया था जिसने अपनी फिल्म में याहू याहू कर गाना भी गया था। इसके बावजूद याहू की कोई हिंदी के लिये कोई खास भूमिका नहीं है। जो पाठक इस पाठ को पढ़ रहे हैं उन्हें यह पता होना चािहये कि इस हिंदी के पीछे गूगल के टूलों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
इधर ब्लागों के आवागमन पर दृष्टिपात करने से भी यह पता चलता है कि याहू से पाठ पठन /पाठक संख्या नगण्य है जबकि गूगल का योगदान अधिक है। याहू से अधिक तो वेबदुनियां तथा दूसरे सर्च इंजिनों से पाठक आ रहे हैं। इसका कारण भी है। याहू ने हिंदी में अपना वर्चस्व जमाने के लिये एक हिंदी प्रकाशन से तालमेल किया है। जब पाठक उसका मुख्य पृष्ठ खोलता है तो वहां उस प्रकाशन द्वारा लगाये गये हिंदी में स्तंभ दिख जाते हैं। पाठक उन्हीं में उलझकर रह जाता है। यह स्तंभ केवल पुराने स्थापित या प्रसिद्ध लेखकों से ही सुजज्जित है। पाठक वहां आकर शायद ही हिंदी में लिखा शब्द पढ़ने का प्रयास करे। उसे पता भी नहीं होगा कि हिंदी में अंतर्जाल पर लिखने वाले अन्य ऐसे लेखक भी हैं जो प्रसिद्ध न हों पर सार्थक लिखते हैं। सच बात तो यह है कि याहू कि अंतर्जाल पर हिंदी लाने में कोई अधिक भूमिका नहीं है। इसके विपरीत गूगल ने न केवल रोमन लिपि से हिंदी में लिखने का टूल दिया है बल्कि कृतिदेव को यूनिकोड में परिवर्तित करने वाला टूल स्थापित कर हिंदी को सहज भाव से लिखने की प्रेरणा भी दी है।
भारत से बाहर गूगल को अधिक महत्व मिल रहा है। इसका कारण यह है कि उसने सर्ज इंजिन से खोज कर आने वाले पाठकों को ब्लाग/ वेबसाईटों को पढ़ने के लिये वहीं अनुवाद टूल भी लगा दिया है। इसी कारण हिंदी में लिखे गये ब्लाग अन्य भाषाओं में तथा अन्य भाषाओं से हिंदी में पढ़ना सहज हो गया है। यही कारण है कि रचानाधर्मी तथा व्यवसायी गूगल को अधिक पसंद करते हैं। इतना ही नहीं गूगल ने अपने अनेक कार्यक्रमों का निर्माण इस तरह किया है कि लोग उसके साफ्टवेयरों का उपयोग सार्वजनिक रूप से कर सकते हैं। गूगल ग्रुप में हिंदी टूल भारतीय विद्वानों ने ही लगाये हैं जबकि याहू इस तरह की सुविधा नहीं देता। सबसे बड़ी बात यह है कि अनुवाद और हिंदी लिखने के लिये जो गूगल ने जो सुविधा दी है उसने हिंदी लेखकों को बहुत सहायता मिली है।
इस लेखक को जितने भी मित्र मिले उन्होंने अपना ईमेल सबसे पहले याहू पर बनाया। आपसी बातचीत में चर्चा होने के बाद ही उन्होंने जीमेल बनाया।
इस लेखक का स्पष्ट मानना है कि याहू की लोकप्रियता से हिंदी को कोई लाभ नहीं है। उसने हिंदी के लिये बस इतना ही किया है कि एक पुराने प्रकाशन संस्थान को उसका जिम्मा दे दिया है। इसके विपरीत गूगल आम आदमी के जज्बातों को बाहर लाने के लिये जोरदार प्रयास कर रहा है। अन्य भाषाओं में हिंदी ब्लाग पढ़े जा सकते हैं यह बात रोमांचित करती है। साथ ही यह भी कि हम अन्य भाषाओं का लिखा हम हिंदी में पढ़ सकते हैं।
एक हिंदी लेखक के नाते अब इस बात पर भी विचार करना होगा कि मामला अब केवल हिंदी लेखन तक ही सीमित नहीं है। आपके पाठ विश्व स्तर पर पढ़े और समझे जायेंगे। इसलिये हिंदी के मठाधीशों से सम्मान या इनाम की आशा की बजाय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी बात पहुंचाने के लिये इस ब्लाग सुविधा का उपयोग करें। उन्हें यह समझना चाहिये कि वह किसी सीमित समूह के लिये वह अपना पाठ नहीं लिख रहे बल्कि पूरे विश्व में उसे कहीं भी कोई किसी भाषा में भी पढ़ सकता है। लिखकर तत्काल वाह वाही या सम्मान पाने का मोह न हो तो ही यह बात रोमांचित कर सकती है।
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26 जुलाई 2009

असमंजस-हिंदी लघुकथा (hindi lagu katha)

पिता ने अपनी पूरी जिंदगी छोटी दुकान पर गुजारी और वह नहीं चाहते थे कि उनका पुत्र भी इसी तरह अपनी जिंदगी बर्बाद करे। उन्होंने अपने पुत्र को खूब पढ़ाया। पुंत्र कहता था कि ‘पापा, मुझे नौकरी नहीं करनी!
पिता कहते थे कि-‘नहीं बेटे! धंधे में न तो इतनी कमाई है न इज्जत। बड़ा धंधा तो तुम कभी नहीं कर पाओगे और छोटा धंधा में करने नहीं दूंगा। नौकरी करोगे तो एक नंबर की तनख्वाह के अलावा ऊपरी कमाई भी होगी।’
पुत्र ने खूब पढ़ाई की। आखिर उसे एक कंपनी में नौकरी मिल गयी। जब पहले दिन वह लौटा तो पिता ने पूछा-‘कैसी है नौकरी? कमाई तो ठीक होगी न!’
पुत्र ने कहा-‘हां, पापा नौकरी तो बहुत अच्छी है। अच्छा काम करूंगा तो बोनस भी मिल जायेगा। थोड़ा अतिरिक्त काम करूंगा तो वेतन के अलावा भी पैसा मिल जायेगा।’
पिता ने कहा-‘यह सब नहीं पूछ रहा! यह बताओ कहीं से इसके अलावा ऊपरी कमाई होगी कि नहीं। यह तो सब मिलता है! हां, ऐसी कमाई जरूर होना चाहिये जिसके लिये मेहनत की जरूरत न हो और किसी को पता भी न चले। जैसे कहीं से सौदे में कमीशन मिलना या कहीं ठेके में बीच में ही कुछ पैसा अपने लिये आना।’
पुत्र ने कहा-‘नहीं! ऐसी कोई उम्मीद नहीं है। यह सारा काम तो बड़े स्तर के अधिकारी करते हैं और फिर कंपनी में इस तरह की कोई कमाई नहीं कर सकता।’
पिता ने कहा-‘तुझे पढ़ाना लिखाना बेकार गया! एक तरह से मेरा सपना टूट गया। तुझे ऐसी ही कंपनी मिली थी नौकरी करने के लिये जहां ऊपरी कमाई करने का अवसर ही न मिले। मैं तो सोच रहा था कि ऊपरी कमाई होगी तो शान से कह सकूंगा। वैसे तुम अभी यह बात किसी से न कहना। हो सकता है कि आगे ऊपरी कमाई होने लगे।’
पुत्र ने कहा-‘इसके आसार तो बिल्कुल नहीं है।’
पिता ने कहा-‘प्रयास कर देख तो लो। प्रयास से सभी मिल जाता है। वैसे अब तुम्हारी शादी की बात चला रहा हूं। इसलिये लोगों से कहना कि ऊपरी कमाई भी होती है। लोग आजकल वेतन से अधिक ऊपरी कमाई के बारे में पूछते हैं। इसलिये तुम यही कहना कि ऊपरी कमाई होती है। फिर बेटा यह समय है, पता नहीं कब पलट जाये। हो सकता है कि आगे ऊपरी कमाई का जरिया बन जाये। इसलिये अच्छा है कि तुम कहते रहो कि ऊपरी कमाई भी होती है इससे अच्छा दहेज मिल जायेगा।’
पुत्र ने कहा-‘पर पापा, मैं कभी ऊपरी कमाई की न सोचूंगा न करूंगा।’
पिता ने कहा-पागल हो गया है! यह बात किसी से मत कहना वरना तेरी शादी करना मुश्किल हो जायेगा। हो भी गयी तो जीवन गुजारना मुश्किल है।
पुत्र चुप हो गया। पिता के जाने के बाद वह घर की छत की तरफ देखता रहा।
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24 जुलाई 2009

दिल के खेल का हिट फार्मूला- हास्य कविता ( hasya kavita)

एक अभिनेत्री के स्वयंबर
धारावाहिक से प्रभावित होकर
निर्देशक ने अपने लेखक से कहा
‘अपनी फिल्म की अभिनेत्री के लिये
कोई स्वयंबर का दृश्य लिखकर लाओ
भले ही कहानी का हिस्सा नहीं है
पर तुम उसके लिये सपना या ख्वाब बनाओ
मगर याद रखना अपनी फिल्म का हीरो ही
वह स्वयंबर जीते
साथ ही उसमें एक गाना भी हो
जिसमें लोग नजर आयें शराब पीते
मैंने समझा दिया तुम अब दृश्य लिख लाओ।’

लेखक ने कहा-
‘स्वयंबर का दृश्य ख्वाब में भी लिख देता
पर यह अभिनेता और अभिनेत्री
असल जिंदगी और फिल्म दोनों में
आशिक माशुका का रिश्ता बनाये हुए हैं
इसलिये लोगों को नहीं जमेगा।
स्वयंबर का दृश्य तो
प्यार और विवाह से पहले लिखा जाता है
इस कहानी में नायक पहले ही
गुंडों से बचाकर
नायिका का दिल जीत चुका है,
बस उसका काम
माता पिता की अनुमति पर रुका है,
फिर आप किस चक्कर में पड़े हो
अपनी फिल्मों में
नायक द्वारा नायिका को
गुंडों से बचाने का दृश्य
कभी स्वयंबर से कम नहीं होता
स्वयंबर में तो टूटता है धनुष
या मछली की आंख फूटती है,
अपने फिल्मी स्वयंबर में तो
एक साथ अनेक खलनायकों की
टांग टूटती है,
दूसरे का खून बहते देखकर
जनता असल मजा लूटती है,
आपको मजा नहीं आ रहा तो
नायक द्वारा नायिका को बचाने के दृश्य में
कुछ गुंडों की संख्या बढ़ाओ
दिल के खेल में यही हिट फार्मूला है
कोई नया न आजमाओ।

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20 जुलाई 2009

पूरब पश्चिम-आलेख(poorv aur pachshim-hindi lekh)

अगर किसी व्यक्ति ने अपना जीवन का श्रमिक के रूप में प्रारंभ किया हो और फिर लेखक भी बना हो तो उसके लिये इस देश में चल रही बहसों पर लिखने के लिये अनेक विषय स्वतः उपलब्ध हो जाते हैं। बस! उसे अपने लेखन से किसी प्रकार की आर्थिक उपलब्धि या कागजी सम्मान की बात बिल्कुल नहीं सोचना चाहिये। वैसे यह जरूरी नहीं है कि सभी लेखक कोई आरामगाह में पैदा होते हैं बस अंतर इतना यह है कि कुछ लोग ही अपने संघर्षों से कुछ सीख पाते हैं और उनमें भी बहुत कम उसे अपनी स्मृति में संजोकर उसे समय पड़ने पर अभिव्यक्त करते हैं।
इस समय देश में टीवी धारावाहिको और इंटरनेट की यौन सामग्री से सुसज्जित वेबसाईटों पर जमकर बहस चल रही है। इस देश में बुद्धिजीवियों की दो विचाराधारायें हैं। इनमें एक तो वह है जो मजदूरों और गरीबों को भला करने के के लिये पूंजीपतियों पर नियंत्रण चाहती है दूसरी वह है जो उदारीकरण का पक्ष लेती है। यह उदारीकरण वाली विचाराधारा के लोग संस्कृति संस्कार प्रिय भी हैं। वैसे तो दोनों विचारधाराओं के बीच हमेशा संघर्ष चलता रहता है पर दोनों एक मामले में सहमत हैं वह है राज्य से नियंत्रण की चाहत।
इंटरनेट पर सविता भाभी बैन हुई। दोनों विचाराधाराओं के लोग एकमत हो गये। इसका कारण यह था कि एक तो सविता भाभी देशी नाम था और उससे ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी भारतीय नारी के नाम का दोहन हो रहा है। पहली विचारधारा वालों को उससे कोई लेनादेना नहीं था क्योंकि उनका तो केवल पाश्चात्य विचारों और पात्रों पर नजर रखकर अपनी बात कहना ही लक्ष्य होता है। उदारीकरण और संस्कृति प्रिय बुद्धिजीवियों के लिये देशी और हिंदी नाम होने से सविता भाभी वेबसाईट पर प्रतिबंध लगना अच्छी बात रही।
आजकल सच का सामना चर्चा का विषय है। किसी काम को सोचना तब तक सच नहीं होता जब तक उसे किया न जाये। यही सोच सच के रूप में बिक रही है।
पता चला कि यह किसी ब्रिटिश और अमेरिकी धारावाहिकों की नकल है। वहां भाग लेने वाले पात्रों ने अपने राजफाश कर तहलका मचा दिया। इसी संबंध में लिखे एक पाठ पर इस लेखक को टिप्पणीकर्ता ने बताया कि ब्रिटेन में इस वजह से अनेक परिवार बर्बाद हो गये। उस सहृदय सज्जन ने बहुत अच्छी जानकारी दी। हमारा इस बारे में सोचना दूसरा है।
भारत और ब्रिटेन के समाज में बहुत बड़ा अंतर है। यह तो पता नहीं कि ब्रिटेन में कितना सोच बोला जाता है पर इतना तय है कि भारत में पैसे कमाने के लिये कोई कितना भी झूठ बोला जा सकता है-अगर वह सोचने तक ही सीमित है तो चाहे जितने झूठ बुलवा लो। इससे भी अलग एक मामला यह है कि अपने देश में ‘फिक्सिंग का खेल’ भी होता है। अभी एक अभिनेत्री के स्वयंबर मामले में एक चैनल ने स्टिंग आपरेशन किया था जिसमें एक भाग लेने वाले ने असलियत बयान की कि उसे पहले से ही तय कर बताया कि क्या कहना है?
अपने देश में एक मजेदार बात भी सामने आती है। वह यह है कि जिनका चरित्र अच्छा है तो बहुत है और जिनका नहीं है तो वह कहीं भी गिर सकते हैं। सच का सामना में भाग लेने वाले कोई मुफ्त में वहां नहीं जा रहे-याद रखिये इस देश में आदमी नाम तो चाहता है पर बदनामी से बहुत डरता है। हां, पैसे मिलने पर बदनाम होना भी नाम होने जैसा है। कहने का तात्पर्य यह है कि यह एक व्यवसाय है। बस अंतर इतना है कि ठगी के मामले में कोई शिकायत करता है पर इसमें पैसा होने के कारण कोई शिकायत नहीं करता।
इन मामलों में बुद्धिजीवियों का अंर्तद्वंद्व देखने लायक है। दोनों विचाराधाराओं के बुद्धिजीवियों ने बस एक ही राह पकड़ी है कि प्रतिबंध लगाओ।
मजदूरों और गरीबों के लिये मसीहाई छबि रखने वालों का तो खैर ठीक है पर उदारवादियों का रवैया थोड़ा हैरान करने वाला है। यही उदारवादी देश मे अमेरिका और ब्रिटेन जैसे आर्थिक प्रारूप की मांग करते रहे हैं। उन्होंने सरकारी नियंत्रण का जमकर विरोध किया। धीरे धीरे सरकारी नियंत्रण कम होता चला गया और निजी क्षेत्र ने हर उस जगह अपना काम शुरु किया जहां आम आदमी की नजर जाती है। नतीजा सामने हैं! अगर समाचारों के लिये कोई सबसे बेहतर चैनल लोगों को लगता है तो वह दिल्ली दूरदर्शन!
देश के समाचार चैनल केवल विज्ञापन चैनल बन कर रह गये हैं जिनमें खबरें कम ही होती हैं। हिंदी फिल्म उद्योग बहुत बड़ा है और उसके लिये 365 दिन भी कम हैं। हर दिन किसी न किसी अभिनेता या अभिनेत्री का जन्म दिन होता है। फिर इतने अभिनेता और अभिनेत्रियां हैं कि उनके निजी संपर्क भी इन्हीं समाचारों में स्थान पाते हैं।
मुद्दे की बात तो यह है कि नियंत्रणवादी हो या उदारवादी व्यवस्था दोनों में अपने दोष और गुण हैं। नियंत्रणवादी व्यवस्था में कुछ बौद्धिक मध्यस्थों के द्वारा पूंजीपति समाज पर नियंत्रण स्थापित करते हैं तो उदारवादी में बौद्धिक मध्यस्थ उनका निजी कर्मचारी बन जाता है। दरअसल राज्य को सहज विचारधारा पर चलना चाहिये। यह सहज विचाराधारा अधिक लंबी नहीं है। राज्य को अपने यहां स्थित सभी समाजों पर नियंत्रण करना चाहिये पर उनकी आंतरिक गतिविधियों से परे रहना ही अच्छा है। पूंजीपतियों को व्यापार की हर तरह की छूट मिलना चाहिये पर आम आदमी को ठगने से भी बचाना राज्य का दायित्व है। व्यापार पर बाह्य निंयत्रण रखना जरूरी है पर उसमें आंतरिक दखल करना ठीक नहीं है।
दोनों ही विचारधारायें पश्चिम से आयातित हैं इसलिये आम भारतीय का सोच उनसे मेल नहीं खाता। सच बात तो यह है कि नारे और वाद की चाल से चलता यह देश दुनियां में कितना पिछड़ गया है यह हम सभी जानते और मानते हैं। इस देश की समस्या अब संस्कार, संस्कृति या धर्म बचाना नहीं बल्कि इस देश में इंसान एक आजाद इंसान की तरह जी सके इस बात की है। पूरे देश के समलैंगिक होने की बात करने वालों पर केवल हंसा ही जा सकता है। इस पर इतनी लंबी च ौड़ी बहस होती है कि लगता नहीं कि कोई अन्य समस्या है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस देश मेें लोग सच से भागते हैं और उसकी पर्दे पर ईमानदारी से अभिव्यक्ति करेंगे इसमें संदेह है।
दूसरी बात यह है कि आधी अधूरी विचाराधाराओें से व्यवस्थायें कहीं भी नहीं बनती। अगर नियंत्रणवादी हो तो पूरी तरह से सब राज्य के नियंत्रण में होना चाहिये। उदारवादी हैं तो फिर यह सब देखना पड़ेगा। सहज विचारधारा अभी किसी की समझ में नहीं आयेगी। हम इस पर लिखें भी तो बेकार लगता है। बुद्धिजीवियों के पूर्वाग्रहों को भी भला कोई मिटा सकता है। अमेरिका और ब्रिटेन की संस्कृति और संस्कारों का हम पर बहुत प्रभाव है और धीरे धीरे वह सभी बुराईयां यहां आ रही हैं जो वहां दिखती हैं। हां, हमें उनसे अधिक बुरे परिणाम भोगने पड़ेंगे। वजह यह कि पश्चिम वाले भौतिकता के अविष्कारक हैं और उसकी अच्छाईयों और बुराईयों को जानते हुए समायोजित करते हुए चलते हैं और हमारे यहां इस प्रकार के नियंत्रण की कमी है। शराब पश्चिम में भी पी जाती है पर वहां शराबी के नाम से कोई बदनाम नहीं होता क्योंकि उनके पीने का भी एक सलीका है। अपने यहां कोई नई चीज आयी नहीं कि उससे चिपट जाते हैं। उससे अलग तभी होते हैं जब कोई नई चीज न आ जाये। इसके अलावा पश्चिम में व्यायाम पर भी अधिक ध्यान दिया जाता है जिस पर हमारे लोग कम ही ध्यान देते हैं। ढेर सारी बुराईयों के बावजूद वहां हमारे देश से बड़ी आयु तक लोग जीते हैं वह भी अच्छे स्वास्थय के साथ। अपने यहां एक उम्र के बाद आदमी चिकित्सकों के द्वार पर चक्कर लगाने लगता है।
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15 जुलाई 2009

अपने ही पसीने से नहाये हम-हिंदी शायरी (apna pasina-hindi shayri)

ताउम्र एड़ियां रगड़कर चलते रहे
सिंहासन पर बैठने की बात
कभी समझ ही नहीं आई।
यह तय रहा हमेशा
पैदा मजदूर की तरह हुए हैं
वैसे ही छोड़ जायेंगे दुनियां
जिसके लिये बहायेंगे पसीना
मिलेगी नहीं वह खुशियां
कभी चली ठंडी हवा तो
उसने ही दिया सुकून
दूसरे की चाहतें पूरी करते रहे
अपनी सोचकर आंखें भर आई।

फिर भी नहीं गम है
अपनी शर्तो पर जिये
यह भी नहीं कम है
गरीबों पर जग हंसा तो
बादशाहों की भी मखौल उड़ाई।
हमने पैबंद लगाये अपने कपड़ों में
उन्होंने सोने से अपनी देह सजाई।
जिंदगी का फलासफा है
वैसी होगी वह जैसी तुमने नजरें पाई।
दूसरे का खून निचोड़कर
जिन्होंने अमीरी पाई
बैचेनी की कैद हमेशा उनके हिस्से आई।
अपने ही पसीने में नहाये हम तो क्या
हमेशा चैन की बंसी बजाई।

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11 जुलाई 2009

मशहूरी का राज-व्यंग्य कविता (mashahuri ka raz-vyangya kavita)

हर इंसान खड़ा है हाथ में लिए ताज
कोई आकर पहना दे
इस इंतजार में।
विरला ही कोई बेताज बादशाह होता
जो रखता सभी के सिर पर ताज
बिना सौदा किये निकल जाता
हाथ उठाकर कुछ नहीं मांगता
चलता है मस्त हाथी की तरह
इस बाजार में।
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सजे संवरे चेहरे
हाथ में पकड़े हैं ताज।
अपने ही सिर पर पहन लेते हैं
या कर लेते हैं
एक दूसरे के साथ सौदा
चमकाते हैं एक दूसरे का चरित्र
बना लेते हैं कामयाबी का
काल्पनिक चित्र
यही है उनकी मशहूरी का राज।

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7 जुलाई 2009

बजट का कटु सत्य-हास्य व्यंग्य (hindi vyangya on budget)

उन्होंने जैसे ही दोपहर में बजट देखने के लिये टीवी खोला वैसे ही पत्नी बोली-‘सुनते हो जी! कल तुमने दो हजार रुपये दिये थे सभी खर्च हो गये। अब कुछ पैसे और दो क्योंकि अभी डिस्क कनेक्शन वाला आने वाला होगा। कुछ देर पहले आया तो मैंने कहा कि बाद में आना।’
उन्होंने कहा-‘अरे, अब तो बैंक से पैसे निकालने पड़ेंगे। अभी तो मेरी जेब में पैसा नहीं है। अभी तो टीवी परबजट सुन लूं।’
पत्नी ने कहा-‘इस बजट की बजाय तुम अपने घर का ख्याल करो। अभी डिस्क कनेक्शन वाले के साथ धोबी भी आने वाला है। मुन्ना के स्कूल जाकर फीस जमा भी करनी है। आज आखिरी तारीख है।’
वह टीवी बंदकर बाहर निकल पड़े। सोचा पान वाले के यहां टीवी चल रहा है तो वहां पहुंच गये। दूसरे लोग भी जमा थे। पान वाले ने कहा-‘बाबूजी इस बार आपका उधार नहीं आया। क्या बात है?’
उन्होंने कहा-‘दे दूंगा। अभी जरा बजट तो सुन लूं। घर पर लाईट नहीं थी। अपना पर्स वहीं छोड़ आया।’
उनकी बात सुनते ही पान वाला खी खी कर हंस पड़ा-‘बाबूजी, आप हमारे बजट की भी ध्यान रखा करो।’
दूसरे लोग भी उनकी तरफ घूरकर देखने लगे जैसे कि वह कोई अजूबा हों।
वह अपना अपमान नही सह सके और यह कहकर चल दिये कि‘-अभी पर्स लाकर तुमको पैसा देता हूं।’
वहां से चले तो किराने वाले के यहां भी टीवी चल रहा था। वह वहां पहुंचे तो उनको देखते ही बोला-‘बाबूजी, अच्छा हुआ आप आ गये। मुझे पैसे की जरूरत थी अभी थोक दुकान वाला अपने सामान का पैसा लेने आता होगा। आप चुका दें तो बड़ा अहसान होगा।’
उन्होंने कहा-‘अभी तो पैसे नहीं लाया। बजट सुनकर चला जाऊंगा।’
किराने वाले ने कहा-‘बाबूजी अभी तो टीवी पर बजट आने में टाईम है। अभी घर जाकर ले आईये तो मेरा काम बन जायेगा।’
वहां भी दूसरे लोग खड़े थे। इसलिये तत्काल ‘अभी लाया’ कहकर वह वहां से खिसक लिये।
फिर वह चाय के होटल की दुकान पर पहुंचे। वहां चाय वाला बोला-‘बाबूजी, क्या बात इतने दिन बाद आये। न आपने चाय पी न पुराना पैसा दिया। कहीं बाहर गये थे क्या?’
दरअसल अब उसकी चाय में मजा नहीं आ रहा था इसलिये उन्होंने दो महीने से उसके यहां चाय पीना बंद कर दिया था। फिर इधर डाक्टर ने भी अधिक चाय पीने से मना कर दिया था। चाय पीना बंद की तो पैसा देना भी भूल गये।
वह बोले-यार, अभी तो पैसा नहीं लाया। हां, बजट सुनकर वापस घर जाकर पर्स लेकर तुम्हारा पैसा दे जाऊंगा।’
चाय वाला खी खी कर हंस पड़ा। एक अन्य सज्जन भी वहां बजट सुनने वहां बैठे थे उन्होंने कहा-‘आईये बैठ जाईये। जनाब! पुराना शौक इसलिये छूटता नहीं इसलिये बजट सुनने के लिये घर से बाहर ही आना पड़ता है। घर पर बैठो तो वहां इस बजट की बजाय घर के बजट को सुनना पड़ता है।’
यह कटु सत्य था जो कि सभी के लिये असहनीय होता है। अब तो उनका बजट सुनने का शौक हवा हो गया था। वह वहां से ‘अभी लाया’ कहकर निकल पड़े। जब तक बजट टीवी पर चलता रहा वह सड़क पर घूमते रहे और भी यह बजट तो कभी वह बजट उनके दिमाग में घूमता रहा।
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4 जुलाई 2009

भूख भला कभी किसी की मिटी है-हिंदी शायरी (hindi shayri)

गरीब के घर पैदा होने पर
आयु पूरी होने से पहले मर नहीं जाते।
अमीर घर में लेकर जन्म
कोई सोने की रोटी नहीं खाते।
लेकर बड़े घरों से उधर का नजरिया
देख रहे हैं इस रंग बिरंगी दुनियां को
फिर कमजोर की शिकायत क्यों करने आते।
कपड़े मैले हो सकते हैं
हाथ में पकड़े थैले फटे हो सकते हैं
जरूरतों जितना सामान हो तो ठीक
सामान जितनी जरूरतें क्यों नहीं रख पाते।
अपनी झौंपड़ी मे रहते हुए
महलों के सुख यूं ही बड़े नजर आते।
गलतफहमियों में जिंदगी अमीर की भी रहती
गरीब भी कोई सच्चाई के साथ नहीं आते।
भूख भला कभी किसी की मिटी है
जो उसे मिटाने के सपने दिखाये जाते
जिसमें गरीब भी बह जाते।
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1 जुलाई 2009

सच्चे इंसान की तस्वीर-हिंदी शायरी

कभी कोई आंखें कातर भाव से
तुम्हारी तरफ ताकती हैं
क्या उन पर रहम खाते हो?

उठते नहीं हाथ मांगने के लिये
पर उनकी छोटी चाहतें
तुम्हारे सामने खड़ी होती हंै
क्या उनको पूरा कर पाते हो?

उठा रहे हैं बरसों से
जो कंधे जमाने का बोझ
क्या उनकी पीठ सहलाते हो?

कोई थक गया है
लड़ते हुए उसूलों की जंग
क्या कभी उससे हमदर्दी दिखाते हो?

आदमी जिंदा बहुत हैं
पर जिंदादिल वही है
जो अपने मतलब की दुनियां से
बाहर निकल कर
पराया दर्द देख पाते हैं
बिना कहे किसी के
दूसरे का दर्द समझ पाते हैं
बिना मतलब के ही
बेबसों की मदद कर जाते हैं
क्या सच्चे इंसान की तस्वीर से
कभी अपना चेहरा मिलाते हो?

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