क्या अजब हो गया यह ज़माना,
वातानुकूलित कारों में देह सड़ा रहा है,
अपने रसोईघर से गैस के बादल
आसमान में चढ़ा रहा है,
हरियाली को जलाकर
अस्पताल में ढूँढता आरोग्य का खज़ाना।
कहें दीपक बापू
ज़िंदगी है चलने का नाम,
डुबो देता है आराम,
आदमी दौड़ रहा है इधर उधर
पाने के लिए फायदे,
मगर बदलती नहीं
प्रकृति अपने कायदे,
विषैले विषय बहुत सुविधाजनक हैं
पर ज़िंदगी में अमन नहीं दे सकते
दुनिया में ज़िंदा रहने के लिए
जरूरी है शरीर के हर अंग से लो जमकर काम
आदमी तो बस कहीं खड़े होकर
कहीं बैठकर
बेजान चीजों में आँखें गड़ा रहा है।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior
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