25 सितंबर 2016

वाणी से जब कालिख निकले सूरत भी कौए जैसी हो जाती -दीपकबापूवाणी (Wani se jab kalikh nikle-DeepakBapuwani(


बेदर्दी तो हमने अपने साथ की थी जो उनका साथ निभाया।
बेदर्दोंमें अपना दिल हमेशा जज़्बातों से खाली ही दिखाया।।
--------------------
सहायकों का जमघट लगा है, फिर भी कमजोर ही ठगा है।
फुर्सत के दोस्त बहुत बन जाते पर नहीं कोई उनमें सगा है।।
--------------------
उत्साह से भरें प्रातः की शीतल हवा, मन ढले रात के अंधेरे में।
जोगी आनंद ले साधना से, रोगी भटके दर दर दवा के फेरे में।
---------
प्रेम के रिश्ते तोड़ने में कभी नुस्खे आजमाये नहीं जाते।
दिल में तड़प की गुंजायश होती, भाव जमाये नहीं जाते।।
---------------
मौजूद नहीं धरती पर उस जन्नत के ख्वाब सभी देख रहे हैं।
पीर दरबार में देते हाजिरी कातिल खंजर पर मत्था टेके रहे हैं।।
-----------------------
पत्थरों पर नाम खुदवाकर अमर होने की ख्वाहिश बढ़ जाती है।
पैसे से कमअक्लों पर अक्लमंद दिखनें की ख्वाहिश बढ़ जाती है।
----------------
जमीन पर अन्न बिछा सोने जैसा फिर भी आदमी चाहे आकाश का तारा।
रोटी से पेट भरकर नहीं संतोष, दिल हीरे जवाहरात की चाहत का मारा।।
---------------
अपना मन बहलाने के लिये दर दर भटक रहे हैं।
दाम खर्च करते हुए भी बोरियत में अटक रहे हैं।
अपने सपनों का बोझ पराये कंधे पर हमेशा टिकाते हैं।
नाकामी पर रोयें कामयाबी पर अपनी ताकत दिखाते हैं।
-----------------
हर जगह लगते भलाई के मेले, फिर भी परेशान लोग रहें अकेले।
‘दीपकबापू’ जज़्बात बन गये सौदा, दाम चुकाकर चाहे जितना खेले।।
---
महल से बाहर कदम नहीं रखते, लोगों के दर्द में कम ज्यादा का भेद करते।
प्रहरियों से सजे किले में जिनकी जिंदगी, वह ज़माने की बेबसी पर खेद करते।
-----------------
भरोसा उठा गया सभी का, नहीं देखता कोई अपनी नीयत खाली।
करते अपने मतलब से काम, चाहें बजाये ज़माना मुंफ्त में ताली।।
-----------------
बहके इंसान बरसाते सदा मुंह से शब्दों की आग।
सभी  बन गये पाखंडी त्यागी मन में छिपाये राग।
--------------
पद और पैसा लेकर प्रवचन करते, समाज सुधारने का वचन भरते।
‘दीपकबापू’ पायें अपना पेशा पवित्र, पाप का बोझ दूसरे पर धरते।।
---------------
वाणी से जब कालिख निकले सूरत भी कौए जैसी हो जाती है।
दुर्भावना जब आये हृदय में चाल भी बदचलन हो ही जाती है।
--------------
चालाकी से चले चार दिन काम, जब पोल खुले होते नाकाम।
‘दीपकबापू’ धोखे के सौदागर, वसूल कर लेते वादे के भी दाम।
-----------
खुली आंख फिर भी सच्चाई से लोग मुंह फेर लेते हैं।
देखते आदर्श का सपना जागें तो आंखें फेर लेते हैं।।
------------
अपने बड़े अपराध पर भी चालाक लोग पुण्य का पर्दा डालते।
इज्जतदार बहादुर दिखते डर के मारे घर पर पहरेदार पालते।
------------

कोई टिप्पणी नहीं:

समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

संबद्ध विशिष्ट पत्रिकायें

लोकप्रिय पत्रिकाएँ

वर्डप्रेस की संबद्ध अन्य पत्रिकायें