अपने दिल की बात सभी कहते,
किसी के दर्द में हमदर्द नहीं रहते।
कहें दीपकबापू चिंता की चादर
स्वये बनाकर अनिद्रा सब सहते।
लालच के साथ दौड़ें गिरे वही,
कौन जाने कदम गलत कि सही।
कहें दीपकबापू अपना खाता देख
कर ले पहले अपनी ठीक बही।
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सिंहासन पर बैठे सीना तना है
नीचे नजर करना नहीं आता।
‘दीपकबापू’
कंधे
पर
चढ़कर
हुए
मस्त
उनके दिल अब भरना नहीं आता।
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बेबस कुचलकर बड़प्पन दिखाते,
ताकतवर को दया करना सिखाते।
कहें दीपकबापू जंग के शौकीन
अमन का सपना बंदूक से दिखाते।
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चिंताओं में देह जला देते,
भय में अपना दिल गला देते।
कहें दीपकबापू हाथ में रखा भाग्य
लालची कढ़ाई मे तला देते।
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रोटी से ज्यादा मन की भूख बड़ी है,
अब मिले फिर बाद की चिंता खड़ी है।
कहें दीपकबापू मुख में राम
पीछे लालच की भीड़ पड़ी है।
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