28 मई 2019

शब्द तो श्रृंगार रस से सजा है, अर्थ न हो उसमें क्या मजा है-दीपकबापूवाणी (Shabd to Shrangar ras se saja hai-DeepakBapuwani)

बेपर इंसान परिदो जैसे उड़ना चाहें,
दम नहीं फैलाते अपनी बाहे।
कहें दीपकबापू भटकाव मन का
पांव भटकते जाते अपनी राहें।
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दीवाना बना दे उसे प्यार कहें,
लूट की कमाई को व्यापार कहें।
कहें दीपकबापू सोच हुई कुंद
खुली आंखें सपनों का भार सहें।
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करें चाकरी राज दरबार में,
ज्ञान बघारजक जाकर बार में।
गरीबी की भलाई का दावा
करते ‘दीपकबापू’ बैठे कार में।
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महंगे घर में चाहे मस्ती मनाना,
पर जिंदगी सस्ती न बनाना।
कहें दीपकबापू क्षण भी वर्ष बने
दिल से जिंदगी अपनी चलाना।।
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शब्द तो श्रृंगार रस से सजा है,
अर्थ न हो उसमें क्या मजा है।
‘दीपकबापू’ दिल के हुए कड़वे भाव
कान में बेस्वाद स्वर बजा है।।
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गरीबी हटाने के लिये पीर ढूंढें,
संकट भगाने के लिये वीर ढूंढें।
इंसानी दिमाग हुआ आलसी
‘दीपकबापू’ बिना श्रम पकी खीर ढूंढें।।
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सड़क के दोनों तरफ फूल खड़े हैं,
नीचे कहीं पत्थर भी पड़े हैं।
कहें दीपकबापू राह पर भीड़ में
अपने हमसफर ही बड़े हैं।
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