31 अक्तूबर 2008

फरिश्तों के नाम पर तो आकाश बन जाता है -हिन्दी कविता

अपने ख्यालों के साथ इंसान
जिन्दगी में यूं ही चलता जाता है
कोई बहाता है खून लोगों का
कोइ अपनी खून बहाकर
लोगों को पार लगा जाता है
शैतानों का चमकता है आकाश में कुछ देर ता
पर दूसरों का दर्द हल्का करने वाले फरिश्तों का
नाम पर तो आकाश ही बन जाता है
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कहीं प्रेम का दरिया बहेगा
कहीं भड़केंगे नफरत के शोले
कहीं बेकसूरों का खून बहेगा
कहीं कसूरवारों के सिर पर मुकुट सजेगा

जब न हो अपने पास फैसले की ताकत
तब भला क्या करिएगा
लोग भागते हो जब अपने जिम्मे से
तब कौन शेर बनेगा
जिंदगी की अपनी धारा
फूल चुनो या कांटे
दृश्य देखने के लिए दो ही हैं
कही केवल होता है मौत का सौदा
कहीं दरियादिल बांटते हैं दया
इंसानियत के दुश्मनों से लड़ते हैं बनकर योद्धा
जो अच्छा लगे उसे ही देखों
खतरनाक दृश्य भला क्या देखना
नहीं है जिंदगी के सौदागरों का भरोसा
कहीं उडाया बम कहीं इनाम परोसा
नज़रों के दरवाजे से दिल पर
कब्जे की जंग चलती दिख रही है सभी जगह
हो न हो बना लेते हैं कोई न कोई वजह
नफरत की नहीं
बाजार में अब प्रेम की जंग बिकती हैं
हर कहानी पैसे की दम पर लिखी दिखती है
छोड़ दो ऐसी जंगो पर सोचना
एक इंसान के रूप तभी तुम्हारा चेहरा बचेगा
वरना प्रेम का दरिया तो बहता रहेगा
नफरत के शोले भी जलते रहेंगे
तुम देखते और पढ़ते रहे दूसरों की कहानी
तो तुम्हारा दिल अपने हाल कब पढेगा

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26 अक्तूबर 2008

गृहलक्ष्मी के साथ आने वाला सामान है-हास्य कविता

रिश्ते की बात करते हुए
वर पक्ष ने जमकर डींग मारीं
'हमारे पास अपना आलीशान मकान है
अपनी बहुत बड़ी दुकान है
घर में रंगीन टीवी, फ्रिज,ऎसी और
कपडे धोने की मशीन है
रसोई में बनते तमाम पकवान हैं'
रिश्ता तय होते ही अपनी
मांगों की सूची कन्या पक्ष को थमा दीं
जिसमें तमाम तरह का मांगा था सामान
जैसे बेटा बिकाऊ इन्सान है

कन्या के पिता ने रिश्ते से
इनकार करते हुए कहा
'आपके घर में बहु की कमी थी
वही पूरी करने के लिए मैं अपनी
बेटी का हाथ देने को तैयार था
पर मुझे लगता है कि
उसकी आपको कोई जरूरत नहीं
क्योंकि आपकी प्राथमिकता
गृह लक्ष्मी को घर में जगह देने की बजाय
उसके साथ आने वाला सामान है'
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21 अक्तूबर 2008

जैसे कोई बम पहने हों-हास्य कविता


जब से मोबाइल की बैटरी
फ़टने की खबर आई है लोग सहमे हैं
जिनके लिये मोबाइल
कोई फोन नहीं बल्कि गहने हैं
बैटरी खराब होने और
उसके फटने के भय से
लोग इधर-उधर
कर रहे हैं पूछताछ
जैसे कोई बम पहने हैं
मोबाइल फोन में खरा सोने की
तरह माने जाने वाली कंपनी का नाम
अब पानी में लगा बहने है

वाह रे बाजार तेरा खेल
जो मीडिया बनता है दोस्त
बडी-बडी कंपनियों का
दुश्मन बनते उसे देर नहीं लगती
लोकतंत्र में मीडिया के होते लोगों के
आंख, कान और अकल में प्राण
जब वह खुल हों तो
मीडिया भी बदल जाता है
दिखावे ले लिये ही सही
जनहित पर उतर आता है
अस्तित्व है तो विज्ञापन
फिर भी मिलते रहेंगे
जनता के दृष्टि में गिर गये
तो कंपनी वाले भी नहीं पूछेंगे
भौतिक साधन के उपयोग से
जो रचे गये हैं आडंबर
सब एक-एक न दिन ढहने हैं
अभी तो शुरूआत है यह
समय को कई ऐसे किससे कहने हैं

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13 अक्तूबर 2008

क्या प्यार और जंग में कुछ भी करना ठीक है-आलेख

प्रेम और युद्ध में सब जायज है। क्या इस तर्क को सही मान लिया जाये? पूरी तरह यथार्थ मीवन जीने वाले लोग इसे अपना आदर्श वाक्य मानते हैं। याद रखने लायक बात यह है कि यह सिद्धांत पश्चिमी अवधारणा आधारित है, और हमारी भारतीय और हिंदू मान्यताओं के ठीक विपरीत है। हमारे यहाँ प्रेम में संयम और युद्ध में भी नियम माना जाता है। प्रेम के बारे में कहा जाता है वह निस्वार्थ होना चाहिए और युद्ध में पीठ दिखा रहे शत्रु और शरण में आये शत्रु देश के नागरिक पर भी कभी प्रहार नहीं करना चाहिऐ। जिस शत्रु ने हथियार डाल दिए हौं और जिसने आधीनता स्वीकार कर ली हो उसके प्रति मैत्री का भाव रखना चाहिऐ। पश्चिम की विचारधारा किसी नियम को नहीं मानती-क्योंकि वह केवल दैहिक और भौतिक सिद्धांतों परा आधारित है जबकि भारतीय विचारधारा अध्यात्म पर आधारित है।

प्रेम में सिर्फ लाभ और लोभ का भाव है। स्त्री से प्रेम है तो केवल उसके शारीरिक सौन्दर्य के आकर्षण के कारण और पुरुष है तो उसके धन के कारण है-यही कहती है पश्चिम की धारणा। पर हमारा दर्शन कहता है कि इस जीवन में भौतिक आकर्षण क्षणिक है और उसे मानसिक संतोष नहीं प्राप्त होता अत: निस्वार्थ प्रेम करना चाहिए जिससे मन में विकार का भाव न आये और जिससे हम प्रेम करें उससे सात्विक रुप से देखें उसमे गुण देखे और अगर उसमें दोष दिखायी दें तो उसे सचेत करें। उसके प्रेम से हमारे मन को संतोष होना चाहिए न कि लोभ और लालच की भावना उत्पन्न हो जो अंतत: हमारे मन में विकार उत्पन्न करती है।

प्रेम और युद्ध में सब जायज मानना इस बात का प्रतीक है कि आदमी को एकदम स्वार्थी होना चाहिये और अगर सभी लोग इस रास्ते पर चलने लगें तो विश्व में सहकारिता, सदभाव और सदाचार की भावना ही खत्म हो जायेगी।
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12 अक्तूबर 2008

भारत की तरक्की चमत्कार नहीं है-आलेख


"द फाल ऑफ़ ए डायनेस्टी, दिल्ली १८५७" किताब के लेखक जाने-माने इतिहासकार विलियम डेरिम्पल के अनुसार पश्चिमी मीडिया के यह सोच ही गलत है कि भारत की तरक्की अपने आप में कोई 'चमत्कार' है। उनकी राय में तो यह एक बार फिर दुनिया भर के कारोबार की पुरानी परंपराओं पर लौटना मात्र है।


भारत में कुछ लोग अपने देश में भौतिक साधनों की बहुलता के चलते इतने भ्रमित हो गये हैं कि उन्हें विश्व के विकसित देशों की मुक़ाबले अपने देश का विकास अत्यंत नगण्य लगता है और कभी पहले सोवियत सोवियत संघ, जर्मनी और जापान जैसा अपने देश को बनाने का विचार आता था तो अब भारत को चीन और अमेरिका जैसा बनाने की बात चल रही है। सबसे बड़ी बात यह है जिन लोगों ने अंग्रेजी पढी है और लिखना भी सीख लिया है उन्हें अपना देश हमेशा अविकसित और पिछडा ही दिखाई देता है- उनके लिए विकास का अर्थ है केवल आर्थिक और भौतिक विकास ही है।


भारत की प्राचीन परंपराएं और संस्कार उनके लिए भोंदूपन का परिचायक है-ऐसे लोग यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि विश्व में भारत का सम्मान उसकी उन आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं की वजह से है जिससे भौतिकता से उपजे तनाव में शांति की स्थापना होती है। भगवान् श्री राम और श्री कृष्ण के चरित्र पर आज भी विकसित राष्ट्रों में शोध चल रहे हैं और उनके संदेशों को नये संदर्भों में भी उतना उपयुक्त पाया गया है जितना प्राचीन समय में देखा जाता था। भगवान महावीर, बुद्ध और गुरूनानक जीं के संदेश आज भी उतने ही प्रासंगिक है, यह बात विदेश के विद्वान कह रहे है और हमारे देश के कुछ विद्वान लोगों को यहाँ अंधविश्वास, कुरीतिया और पिछडापन ही दिखाई देता है।


विकास!बस विकास! देश में भौतिक साधनों के कबाडे को एकत्रित करना ही विकास का परिचायक नहीं हो सकता। कबाडा मैंने इसलिये कहा क्योंकि हर वस्तु का मोडल तीन माह में पुराना हो जाता है। एक साल में नयी तकनीकी आ जाती है और अपने घर में रखी चीज ही कबाड़ दिखाई देती है। लोग कहते हैं कि चीन ने बहुत विकास किया है और उसकी चीजें बहुत सस्ती हैं। मैं उस दिन अपने घर की सफाई कर रहा था तो मैंने देखा के अनेक चीनी वस्तुओं का कबाड़ उनमें भरा पडा था। उसकी कई चीजे जो मैं सस्ती और उपयोगी समझ कर ले आया था वह एक या दो दिन और अधिक से अधिक एक सप्ताह चलीं थीं। उससे आठ गुना महंगी भारतीय वस्तुएं आज भी अपनी काम दे रहीं है। तब मुझे लगता है कि वास्तव में विश्वसनीयता ही भारत की पहचान है और मुझे इस पर गर्व होता है।


आज जो भारत का स्वरूप है वह हमारी पुरानी पीढ़ियों के परिश्रम, तपस्या और मनोबल के कारण है न कि किसी विदेशी राष्ट्र की कृपा से है। यहाँ के लोगों ने शिक्षा प्राप्त कर विदेश में नाम कमाया है और उन देशों की सेवा की है पर क्या किसी देश ने हमें परमाणु, अन्तरिक्ष या किसी अन्य क्षेत्र में हमें तकनीकी ज्ञान दिया है? कतई नहीं। अनेक भारतीय वैज्ञानिक अमेरिका की सेवा कर रहे है यहाँ उनकी इस बात पर गर्व करते हैं पर क्या अमेरिका ने कभी हमें संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्यता दिलवाने का वादा किया है ? नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा। अभी भी भारत का नाम इस मामले में प्रस्तावित नहीं है । अगर सदस्यता मिली भी तो बिना वीटो पॉवर के मिलेगी जो कि अभी भी बहुत दूर है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी महत्ता खो चूका है और वह अमेरिका की जेबी संस्था बन कर रह गया है।


विकास केवल भौतिक ही नहीं होता वरन मानसिक शांति और और आध्यात्मिक ज्ञान होना भी उसका एक भाग है-और इस विषय में भारत का एकाधिकार है यही वजह है कि भारत को विश्व में आध्यात्म गुरू कहा जाता है। अनेक भारतीयों ने पश्चिम में जाकर आर्थिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में भारी-भरकम उपलब्धि प्राप्त की है पर फिर भी इस देश की छबि उनके कारण नहीं वरन महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद , रामकृष्ण परमहंस और महर्षि अरविंद जैसे मनीषियों और विद्वानों के संदेशों से है-पूरा विश्व उनके संदेशों को मान्यता देता है। भौतिक विकास एक सामयिक आवश्यकता होता है पर आध्यात्मिक और मानसिक शांति के बिना उसका कोई लाभ नहीं होता। जो लोग इस देश को पश्चिम की अवधारणाओं पर चलाना चाहते हैं उन्हें यह बात समझ लेना चाहिए कि गरीबी , अशिक्षा, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी वहां भी हैं और इसी कारण कुछ पश्चिमी देशों में विदेशियों पर हमले भी होते हैं क्योंकि वहाँ के मूल निवासियों को लगता है कि उन लोगों ने उनके अधिकारों का हनन किया है।


वैसे भी अपने देश में कहा जाता है कि दूर के ढोल सुहावने-इस उक्ति को ध्यान में रखते हुए अपने देश को किसी पश्चिमी देश की स्वरूप में ढाँचे देखने की इच्छा करने की बजाये अपने ही आध्यात्मिक ज्ञान और संस्कारों के साथ प्राचीन विज्ञान को नये संदर्भों में व्याख्या करना चाहिऐ।


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8 अक्तूबर 2008

ख्याली पुलाव किसके लिए पकाना-हिन्दी शायरी


अब दिल नहीं भरता किसी की तस्वीर से
लड़ते लड़ते हार गये अब अपने तकदीर से
अपने दिल में मोहब्बत सजा कर रखी थी कई बरस
पर कभी उनको नहीं आया हमारी बक्रारे पर तरस
हर बार उनके इन्तजार के सन्देश लगे तीर से
लगता है अब तस्वीरों से क्या दिल लगाना
ख्याली पुलाव भला किसके लिए पकाना
इसलिए अपने लिए खुद ही बन जाते हैं पीर से

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4 अक्तूबर 2008

अपने अह्सास अकेले में ही सजाना अच्छा लग्ता है-हिंदी शायरी

अपने अह्सासों की धारा में
बह्ते जाना ही अच्छा लगता है
लोगों की मह्फ़िल में
अपने दर्द का हाल सुनाकर
उनका दिल बहलाने से
अपने दिलदिमाग में
उठती गिरती ख्यालों की लह्रों में
डूबना उतरना अच्छा लगता है
बयां करो जो अपने दिल का दर्द
बनता है हमदर्द सामने दिखाने के लिये
पूरा ज़माना
पर नज़रों से हटते ही
हंसता है हमारे हाल पर
इसलिये अकेले में ही
अपनी सोच और ख्याल में
अपने अह्सास सजाना
कही ज्यादा अच्छा लगता है

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