उन सज्जन ने सच की पहचान करने वाली
मशीन की दुकान लगाई
पर उसके उद्घाटन के लिये
कोई तैयार नहीं हुआ भाई।
न नेता
न अभिनेता
न अधिकारी
न व्यापारी
उसे जो भी मिले सभी थे
दिखाने के लिये सच के भक्त
पर थे झूठे दरबारी
तब उसे याद आया अपना
भूला बिसरा दोस्त
जो करता था हास्य कविताई।
उसने हास्य कवि से आग्रह किया
‘करो मेरी सच की मशीन का उद्घाटन
तो करूं कमाई।
कोई नहीं मिला
इसलिये तुम्हारी याद आई।
फ्लाप कवि हो तो क्या
हिट है जों उनकी असलियत भी देख ली
अब तुम दिखाओ अपना जलवा
मत करना ना कर बेवफाई।’
सुनकर हास्य कवि बोला-
‘मेरे भूले बिसरे जमाने के मित्र
तुम्हें अब मेरी याद आई।
तुम्हारे धोखे की वजह से
करने लगा था मैं हास्य कविताई।
वैसे भी तुम पहले नहीं थे
न तुम आखिरी हो जिससे धोखा खाया
फिर दाल रोटी के चक्कर में
बहुत से सच सामने आते हैं
उन्हें भुलाने के लिये शब्द भी चले आते हैं
लिखते नहीं नाम किसी का
इशारों में तो बहुत कुछ कह जाता हूं
लोग भागते हैं
पर मैं अपने सच से स्वयं लड़ता जाता हूं
मुझे तो कोई डर नहीं है
सच पहचाने वाली मशीन की
गर्म कुर्सी पर बैठ जाऊंगा
पर जो जेहन में हैं मेरे
उन लोगों के नाम भी आ जायेंगे
उनमें तुम्हारा भी होगा
बोलो झेल सकोगे जगहंसाई।’
मित्र भाग निकला यह सुनकर
फिर पीछे देखने की सोच भी उसमें न आई।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
राम का नाम लेते हुए महलों में कदम जमा लिये-दीपक बापू कहिन (ram nam japte
mahalon mein kadam jama dtla-DeepakBapukahin)
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*जिसमें थक जायें वह भक्ति नहीं है*
*आंसुओं में कोई शक्ति नहीं है।*
*कहें दीपकबापू मन के वीर वह*
*जिनमें कोई आसक्ति नहीं है।*
*---*
*सड़क पर चलकर नहीं देखते...
6 वर्ष पहले
1 टिप्पणी:
हा हा हा
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