4 अगस्त 2010

एक शब्द से हिल जाते हैं-व्यंग्य चिंतन (ek shabd se hil jate hain-hindi vyangya chinttan)

अकादमिक हिन्दी लेखक, आलोचक और विद्वानों की स्थिति भाषा की दृष्टि से बहुत रोचक है। पहली बात तो यह है कि अकादमिक हिन्दी वाले भाषा के शिखर संगठनों, समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा टीवी चैनलों पर इस तरह कब्जा किये बैठे हैं कि जैसे हिन्दी भाषा की कल्पना उनके बिना नहीं की जा सकती। दूसरी बात यह है कि आम हिन्दी भाषी पाठकों में कोई उनका नाम भी नहीं जानता। इस लेखक ने अनेक नाम तो अब जाकर अंतर्जाल पर पढ़कर सुने हैं। इससे पहले भी कुछ लेखकों का नाम समाचार पत्र पत्रिकाओं में पढ़ा पर उनकी रचनायें पढ़ने को नहीं मिली। ऐसे लेखकों ने खूब किताबें लिखी। कुछ को शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में भी जगह मिली, पर वह आम दुकानों में उनके दर्शन नहीं हुए। सरकार द्वारा संपोषित लाईब्रेरियों के अलावा अन्य कहीं भी उनको पाना कठिन है।
हम इधर आम पाठक को देखते हैं तो वह बाज़ार, रेल्वे स्टेशन और बस स्टैंडों पर जो किताबें खरीदता है वह इनका नाम तक नहीं जानता। दिलचस्प बात यह है कि अकादमिक लेखक उसे महत्व भी नहीं देते। कई तो कह देते हैं कि ‘लोगों को पढ़ने की तमीज़ नहीं है।’
कहने का अभिप्राय यह है कि अकादमिक हिन्दी और आम हिन्दी में बहुत अंतर है। अकादमिक हिन्दी वालों को यह भ्रम पता नहीं कैसे रहता है कि वह हिन्दी का विकास कर रहे हैं। यह लोग अखबार में छपते जरूर है पर उसे स्वयं पढ़ते नहीं। अगर पढ़ते होते तो पता चलता कि आजकल अखबारों के शीर्षकों में धड़ल्ले से देवनागरी लिपि में अंग्रेजी शब्दों का उपयोग करें-यथा‘ अपने फिगर मेन्टेन करें’, ‘बरसात का एंजोयमेंट‘ और ‘अपना होम स्वीट बनायें’, आदि आदि।
इसका मतलब साफ है कि हिन्दी के अकादमिक लेखक, विद्वान तथा आलोचक हिन्दी को साफ सुथरी भाषा के रूप में बनाये रखने में नाकाम रहे हैं जैसा कि वह उनके चेले दावा करते हैं। इससे ज्यादा बुरी बात क्या हो सकती है कि अधिकतर बड़े अखबार अंग्रेजी लेखकों के आलेख अपने हिन्दी संस्करणों में छापकर कृतकृत्य हो रहे हैं। मतलब यह कि हिन्दी में तो सामयिक लेखक पैदा होना ही बंद हो गये हैं भले ही अखबार, टीवी चैनल और प्रकाशन संस्थानों की कृपा पाने हिन्दी लेखकों की कमी नहीं है। कहते हैं हिन्दी में पाठक नहीं मिलते क्योंकि सभी मस्तराम और सविता भाभी जैसा साहित्य चाहते हैं। इससे बड़ा झूठ कुछ नहीं हो सकता क्योंकि आज भी श्रीबाल्मीकि रामायण, श्रीमद्भागवत तथा अन्य पौराणिक ग्रंथ लोग बड़े चाव से पढ़ते हैं।
कभी कभी तो लगता है कि इस देश के आर्थिक, सामाजिक तथा संस्कृति पुरुषों ने मिलकर यही प्रयास किया है कि अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का साहित्य जनमानस से विस्मृत किया जाये मगर भला हो धार्मिक प्रकाशनों का जिन्होंने ऐसा नहीं होने दिया। अभिप्राय यह है कि एक तरफ मस्तराम तथा सविताभाभी नुमा साहित्य आधुनिक बाज़ार ने लिखवाया तो वहीं क्लिष्ट शब्दों तथा निरर्थक संदेशों वाली ऐसी सामग्री को तैयार करवाया जिससे हिन्दी का आम पाठक समझ ही न सके।
यहां अकादमिक लेखकों से आशय भी स्पष्ट कर दिया जाये तो ठीक है। वह लेखक जो सरकार से सहायता प्राप्त संस्थाओं, प्रतिबद्ध वैचारिक संगठनों अथवा निजी प्रकाशकों की कृपा से किताबें छपवाते हैं वह अकादमिक लेखकों की श्रेणी में आते हैं। जो लेखक अपने निजी पैसे से किताबें छपवाते हैं या उनके लिये यह कार्य दृष्कर है वह आम लेखक हैं। इस आम लेखक की स्थिति तो बड़ी दयनीय है। अकादमिक लेखक उनको भीड़ की भेड़ की तरह अपने कार्यक्रमों में बुलाते हैं। चाहे कितनी भी रचनायें आम लेखक लिख चुका हो वह उसे लेखक नहीं मानते। अगर किसी ने निजी सहारे से किताब छपवाई है तो पूछा जाता है-‘इसकी कुछ प्रतियां बिकी हैं क्या?’
अगर छपवाई और सरकारी संस्था या निजी प्रकाशन से समर्थन नहीं मिला तो उसका लेखक कुछ भी नहीं है। जिसने नहीं छपवाई उसे तो लेखक ही नहीं माना जाता। चलिऐ यह सब ठीक है मगर अब पता चला है कि अकादमिक लेखक, विद्वान और आलोचक लिखते चाहें कितना भी हों, आपस में एक दूसरे की प्रशंसा करते हों पर सच यह है कि वह पढ़ते बिल्कुल नहीं हैं। पांच सौ शब्दों में एक शब्द ही उनकी हालत खराब कर देता है।
‘‘यह शब्द क्यों लिखा या कहा है?’’
एक शब्द को समूची मानव सभ्यता से जोड़ देते हैं।
किसी अकादमिक लेखक ने कह दिया कि
‘आज के कुछ लड़के छिछोरे या आवारा हैं।’
बस मच गया बवाल! समूची मानव सभ्यता पर खतरा और हमला! यहां यह भी स्पष्ट कर दें कि ऐसे बयान अकादमिक लेखकों में भी विकासवादियों, नारीवादियों, जनकल्याण वादियों के ही छपते हैं। ऐसे में आम लेखक और पाठक किंकर्तव्यमूढ़ होकर देखता और पढ़ता है। अब वह पहले किसी का विवादास्पद लेखक या बयान पढ़े या उसमें लिखे गये अप्रिय शब्द को लेकर लग रहे नारों को देखे।
‘कुछ’ पर की गयी टिप्पणी को पूरी मानव जाति से जोड़ लिया। आम पाठक क्या कहे? आम लेखक तो लिखने से भी डरता है क्योंकि कई खेमों में बंटे इन अकादमिक लेखकों में उसकी कोई पहचान नहीं होती। अपनी अकादमिक पहचान रखने वाले इन महिला तथा पुरुष लेखकों का पूरी मानव सभ्यता ही क्या बल्कि अपने ही देश के हिन्दी समुदाय का प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता। इनकी संख्या चाहे कितनी भी हो पर उनसे हजार गुणा संख्या तो उन स्वतंत्र लेखकों की है जिनको इन अकादमिक लेखकों की वजह से अपने लिखा छपवाने से वंचित हो जाना पड़ता है।
ऐसे ही अकादमिक पुरुषों तथा महिलाओं के बीच झगड़ा चल पड़ा है। एक अकादमिक पुरुष ने कह दिया कि ‘कुछ महिला लेखिकाओं के लेखन का स्तर बहुत खराब है और उनमें बुरे सा बुरा दिखने की होड़ लगी है।’
अकादमिक न होने के कारण हमने उस शब्द का उपयोग नहीं किया जो उस हिन्दी के महापुरुष ने कहा है। अब चूंकि वह हिन्दी के महान विद्वानों का आपसी विवाद है-क्योंकि किताबें छपवाना कोई आसान काम नहीं है चाहे महिला हो या पुरुष-अतः कहना कठिन है कि आगे क्या होगा? वैसे वह बयान पढ़ने से पता चलता है कि इसमें प्रचार पाने के लिये फिक्सिंग भी हो सकती है क्योंकि जहां उस महापुरुष को खूब प्रचार मिला वहीं अनेक अकादमिक महिला लेखिकाओं ने भी इसका लाभ उठाया।
मजे की बात यह है कि हिन्दी की एक बहुत बड़ी अकादमी की पत्रिका में यह साक्षात्कार छपा। अंक का नाम बताया गया है ‘बेवफाई-भाग 2’। यह हिन्दी के सर्वौच्च पुरस्कार भी बांटती है। जिन स्वतंत्र और मौलिक लेखकों के दिमाग में कभी ऐसे पुरस्कार पाने की ख्वाहिश हो वह इस बात पर ध्यान दें कि कि वह महापुरुष एक कुलपति होने के साथ इस संस्था की प्रवर समिति में भी हैं। इतनी बड़ी अकादमिक संस्था ‘बेवफाई’ जैसे शब्द का उपयोग करती है और उसी से जुड़ा महापुरुष महिलाओं के लिये घटिया शब्द का इस्तेमाल करता है तब उससे सामान्य हिन्दी भाषियों का हितैषी कैसे माना जा सकता है। वह इन अकादमिक लेखकों के एक समूह के पितृपुरुष हैं और अब उसी के लोगों से उनकी ठन भी गयी है। यह लड़ाई एकदम निजी है पर जैसा कि अकादमिक लेखकों की प्रवृत्ति है वह समूची मानव सभ्यता को इससे जोड़ रह हैं।
आखिरी बात यह है कि उन कथित विद्वान ने एक जगह कुछ महिला लेखिकाओं की ओर इंगित करते हुए कहा है कि उनकी किताबों के शीर्षक का नाम ‘कितने बिस्तर में कितनी बार’ होना चाहिए। संभव है कि कोई अकादमिक लेखक इस शीर्षक की किताब लिख डालें क्योंकि उनके संगठन बहुत प्रभावशाली है। मुश्किल यह होगी कि इन लेखकों के लिखे हुए को आम आदमी पढ़ता नहीं और पाठकीय दृष्टि से यह लेखक स्वयं भी कोई उच्च स्तरीय नहीं है। उनके बयान का मतलब तो वही जाने या उनके समूह के लोग, पर उनके कथन में उस शब्द के अलावा भी अन्य शब्द भी हैं। हालांकि उन्होंने बुरे शब्द का उपयोग किया पर संदर्भ को देखें तो उसकी जगह दूसरा बुरा शब्द भी हो सकता था। मगर मुश्किल वही कि अकादमिक लेखकों को एक ही शब्द हिला देता है और दूसरी बात यह कि किसी अकादमिक लेखक या लेखिका पर उंगली उठाना उनको गवारा नहीं-आम लेखिका और लेखक तो उनके लिये भीड़ की भेड़ की तरह है। हमें क्या? देखते हैं कौन लिखता है ‘कितने बिस्तर में कितनी बार’।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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