1 अगस्त 2015

फांसी की सजा पर सवाल बवाल और समाज का ताल बेताल-हिन्दी चिंत्तन लेख(fansi ke saja par swatl, bawal aur samaj ka tal betal-hindi thought article)

                               अभी भारत के प्रचार माध्यमों में एक फांसी का प्रकरण इस तरह छाया रहा गोया किसी युद्ध के समाचार हो। एक अपराधी को धारावाहिक बमविस्फोटों तथा सामूहिक हत्याकांड में 22 वर्ष तक जेल में रखने के बाद फांसी की सजा मिली।  कुछ लोग कह रहे हैं कि न्याय में देरी हुई है पर हमारा मानना सब दुरस्त हुआ है। न्यायपालिक पर विलंब का दायित्व डालने वाले जरा उस अपराधी को मिले दोहरे दंड के बारे में सोचें।  उसने अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ आयु सीमा जेल में तिल तिल कर सड़ते हुए गुजारी। अगर फांसी की सजा माफ होकर आजीवन कारावास में बदलती जो संभवत वह रिहा भी हो जाता। मगर नहीं, 22 साल तक अपने अपराध का बोझ वह कारावास में गुजारता रहा फिर पाई मौत।  यह दोहरा दंड है इस पर अफसोस करने वाले नहीं जानते सारी सुविधायें मिल जायें तो भी स्वतंत्रता पूर्वक विचरण में रुकावट आदमी के मन को सबसे ज्यादा त्रास देती है। भारतीय न्याय तथा प्रशासनिक व्यवस्था पर दोष ढूंढने की बजाय उसमें गुण भी ढूंढने चाहिये।

                              फांसी के धारावाहिक प्रसारण पर प्रचार माध्यमों ने विज्ञापन की राशि कितनी कमाई होगी पता नहीं।  फांसी प्राप्त अपराधी की प्रचार माध्यमों में खलनायक की छवि बनाकर पेश करना सहज है वह जानता था।  इसलिये फांसी की सजा से  एक दिन पहले उसने अपने पास खड़े प्रहरी से कहा मेरी फांसी का राजनीतिक उपयोग हुआ।
                              उसे जाकर कौन बताता कि उसकी फांसी का राजनीतिक से अधिक व्यवसायिक उपयोग हुआ। सच बात तो यह है कि उसका अपराध ऐसा था कि नैतिक आधार खत्म हो गया था वरना वह इन प्रचार माध्यमों से अपने नाम के सहारे कमाई करने के एवज में पैसा भी मांग सकता था।
                              राह चलते हुए एक आदमी को हमने यह कहते सुना कि कल फांसी प्रकरण के प्रसारण से टीवी समाचार चैनलों ने बोर कर दिया। दूसरी कोई खबर ही नहीं सुना रहे थे।
                              दूसरे ने कहा कि हमने तो अब हिन्दी समाचार चैनल देखना ही कम कर दिया है।  सभी अपने विज्ञापन देने वालों की खबरे चला रहे हें। किसी को देश से कोई मतलब नहीं है।
                              हम पहले से प्रचार माध्यमों के बारे में यह कहते आ रहे हैं कि वह दर्शकों की चिंता नहीं करते। वह जितने दर्शक जुटा रहे हैं उनकी संख्या होने पर भी  आबादी की दृष्टि से बृहद इस देश में स्तर से कम भी हो सकती है।  आजकल हम देख रहे हैं कोई भी अब टीवी समाचार से स्थापित किसी मुद्दे पर उस तरह सार्वजनिक चर्चा पहले के मुकाबले कम ही होती जा रही है। अनेक पुराने समाचार पढ़ने और सुनने वाले नशेड़ी इन प्रचार माध्यमों से निराश हो गये है।
                              प्रगतिशील और जनवादी बुद्धिजीवियों के प्रभाव में प्रचार माध्यमों के पेशेवर कर्मी अभी भी चल रहे हैं।  धर्म, जाति, भाषा तथा क्षेत्र के विषय में उन परंपरागत सिद्धंातों अभी हमारे प्रचार तथा विचार विमर्श की र्शैली मुक्त नहंी हो पायी जो बोरियत पैदा करती है।  एक व्यक्ति को उकसाती है दूसरे का डराती है। सामाजिक द्वंद्वों के बीच समाचार तथा बहसों का चुनाव व्यवसायिकता के लिये ठीक है पर जब अपनी निष्कर्म भाव की सक्रियता से समाज में एक परिवर्तन लाने की इच्छा हो तब सबसे पहले परंपरागत धारा से स्वयं को बाहर लाना चाहिये।
                               विज्ञापन से चलने वाले इन हिन्दी समाचार चैनलों से निष्काम भाव की आशा करना तो व्यर्थ ही है इसलिये परंपरागत प्रचार और विचारधारा के साथ उनका साथ रहेगा।  मगर यह भी सच यह है कि अभिव्यक्ति की प्रगतिशील और जनवादी शैली अब बोरियत पैदा करने वाली हो गयी है। इससे प्रथक होकर एक स्वतंत्र आक्रामक शैली होने पर ही प्रचारक और विचारक की छवि अब समाज में बन सकती है पर सवाल यह है कि अकुशल प्रबंध के शिकार इन व्यवसायिक प्रचार घरानों से नये प्रयोग की आशा नहीं की जा सकती।
                              सभ्य समाज में क्या फांसी की सजा होना चाहिये? जवाब यह है कि अगर फांसी की सजा नहीं होगी तो कुछ सुविधा भोगी लोग इसका विरोधकर अपनी छवि नहीं बना पायेंगे।      हमारे देश के हिन्दल प्रचार माध्यमों में कार्यरत पेशेवर विद्वान  सामान्य जन से प्रथक सभ्य दिखने के लिये फासीवाद के विरोध का आश्रय नहीं ले पायेंगे।
                              सभ्य समाज में क्या फांसी की सजा जरूरी है? जवाब यह कि समाज को सभ्य रखने के लिये फांसी की सजा जरूरी है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh


संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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