3 नवंबर 2008

शराब खुद ही बीमारी है-व्यंग्य कविता

मयखानों में भीड़ यूं बढ़ती जा रही हैं
जैसे बह्ती हो नदिया जहां दो घूँट पीने पर
हलक से उतारते ही शराब दर्द बन जायेगी दवा
या खुशी को बढा देगी बनकर हवा
रात को हसीन बनाने का प्रयास
हर घूँट पर दूसरा पीने की आस
अपने को धोखा देकर ढूंढ रहे विश्वास
पीते पीते जब थक जाता आदमी
उतर जाता है नशा
तब फिर लौटते हैं गम वापस
खुशी भी हो जाती है हवा
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शराब का नशा चढ़ता नहीं तो पीता कौन
उतरता नहीं तो खामोश होता कौन
गम और दर्द का इलाज करने वाली दवा होती या
खुशी को बढाने वाली हवा होती तो
इंसान शराब पर बना लेता जगह जगह
बना लेता दरिया
मगर सच से कुछ देर दूर भगा सकती हैं
बदलना उसके लिए संभव नहीं
इसलिए नशे में कहीं झूमते हैं लोग
कहीं हो जाते मौन
शराब खुद ही बीमारी हैं
यह नहीं जानता कौन

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