जाने माने सारे बुद्धिजीवी दौड़े दौड़े चले जा रहे थे । एक बुद्धिजीवी तो घर से एक ही पांव में जूता पहनकर निकल गये उनको दूसरा पहनने का होश ही नहीं रहा। रास्ते चलते हुए एक आदमी ने टोका तो वह कहने लगे-"अपने देश के तुम आम लोग भी निहायत जाहिल हो। तुम मेरे पांव के जूते देखने की सोच भी पा रहे होयह जानकर ताज्जुब होता है। अरे, अखबार या टीवी नहीं देखते क्या? विदेश में जूता फैंकने की इतनी बड़ी घटना हो गयी और हमें उसी पर ही सोचना है। मैंने एक ही पांव में जूता पहना है पर यह कोई एतिहासिक घटना नहीं है और इस पर चर्चा मत करो।''
कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्धिजीवियों के लिये यह एक ऐसा विषय था जिसमें उनकी जमात का ही आदमी जूता फैंकने की घटना में शामिल पाया गया था वैसे तो अपने देश में जूतमपैजार रोज होती है पर बुद्धिजीवियों का काम लिखने पढ़ने और भाषण तक ही सीमित होता है। कोई भला काम हो बुरा उनकी दैहिक सक्रियता स्वीकार नहीं की जातीं। पश्चिम से आयातित विचारों पर चलने वाले बुद्धिजीवियों ने स्वयं ही यह बंदिश स्वीकार की है और किसी बुद्धिजीवी द्वारा सरेराह जूता उछालने की घटना देखकर अब यह प्रश्न उठा था कि क्या वह अपनी इस राह में बदलाव करें। क्या मान लें कि बुद्धिजीवी को कलम के अलावा जूता भी उठाना चाहिये। अगर कहीं ऐसी घटना देश में होती तो शायद बुद्धिजीवी विचार नहीं करते मगर यह धटना पश्चिम दिशा से आयी थी इसलिये विचार करना जरूरी था। अपने देश का कोई बुद्धिजीवी होता तो सभी एक स्वर में उसकी निंदा करते या नहीं भी करते। निंदा करते तो उस बुद्धिजीवी को प्रचार होता इसलिये शायद अनदेशा करना ही ठीक समझते या फिर कह देते कि यह तो बुद्धिजीवी नहीं बल्कि एक साधारण आदमी है। विदेश में वह भी पश्चिम में कुछ हो तो यहां का बुद्धिजीवी उछलने लगता है। उस पर कुछ कहने या लिखने के लिए उसका मन उछलने लगता है।
सम्मेलन शुरू हुआ। कुछ बुद्धिजीवियों ने इस कृत्य की घोर निंदा की तो कुछ ने प्रशंसा। प्रशंसकों का मानना था कि यह बुद्धिजीवी के देश में चल रहे आक्रोश का परिणाम है। विरोधियों ने पूछा कि ‘जब अपने पास कलम हैं तो फिर हमारे द्वारा जूते से विरोध प्रदर्शन करना ठीक कैसे माना जा सकता है?’
जूता फैंकने के प्रशंसकों ने कहा-‘लिखे हुऐ का असर नहीं होता तो क्या करें?’*
विरोधियों ने कहा-‘तो ऐसा लिखो कि कोई दूसरा जूता उछाले। आम आदमी हमारी बात सुनता नहीं है चाहे हम कुछ भी लिखें, पर अपना जूता हाथ में उठाकर किसी पर नहीं फैंकता। इतने दिनों से इशारे में लिखते हैं अब खुलकर लिख कर भी देख लेते हैं कि "जूता उठाओ*।
प्रशंसकों ने कहा-‘अगर कोई दूसरा जूता न उछाले तो आखिर क्या किया जाये?‘
विरोधियों ने कहा-‘अगर आपके लिखे से समाज में कोई दूसरा व्यक्ति सरेराह जूते उछालने को तैयार नहीं है तो फिर उसके लिये लिखने से क्या फायदा?’
प्रशंसकों ने कहा-‘अरे वाह! तुम तो हमारा लिखना ही बंद करवाओगे। तुम पिछडे हुए हो और तुम जानते नहीं कि अब समय आ गया है कि बुद्धिजीवी को एक हाथ में कलम और दूसरे हाथ में जूता उठाना चाहिये।’
यह सुनकर एक पांव में जूता पहनकर आये बुद्धिजीवी को जोश आ गया और उसने अपने पांव से जूता उतार कर हाथ में लिया और चिल्लाया-‘ऐसा करना चाहिये।’
प्रशंसक और विरोधी दोनों खेमों में डर फैल गया। पता नहीं वह कहीं उछाल न बैठे-यह सोचकर लोग जड़वत् खड़े हो गये। सभी को पता था कि अगर उसने जूता उछाला तो वह हीरो बन जायेगा और जिसको पड़ा वह खलनायक कहलायेगा।’
कमबख्त वह आम आदमी भी उस बुद्धिजीवी के पीछे यह जिज्ञासा लेकर आया कि ‘आखिर यह आदमी कहां जा रहा है और क्या करेगा’ यह चलकर देखा जाये। तय बात है कि आम आदमी ही ऐसा सोचता और करता है, कोई बुद्धिजीवी नहीं।
उसने जब यह देखा तो चिल्लाया-‘अरे, यह तो इस कार्यक्रम के न्यौते से ही इतना खुश हो गये कि एक जूता पहनकर चले आये दूसरा पहनना भूल गये-यह बात रास्ते में इन्होंने स्वयं बतायी। अब वह जूता इसलिये पांव से उतार लिया कि कोई पूछे कर हंसी न उडाये और अपनी बात कहकर हीरो भी बन जायें। इस एक जूते को लेकर कब तक पहनकर चलते और हाथ में लेते तो लोग अनेक तरह के सवाल करते। अब कौन पूछेगा कि यह एक जूता लेकर कहां घूम रहे हो? यह बोल देंगे किबुद्धिजीवियों के हाथ में कलम और दूसरे हाथ में जूता लेने का नया रिवाज शुरू हो गया है।’"
उस बुद्धिजीवी को ताव आ गया और उसने वह जूता उस आम आदमी की तरफ ऐसे उछाला जैसे कि उसे लगे नहीं-यानि एक प्रतीक के रूप में! वह भी उस्ताद निकला उसने जूता ऐसे ही लपका जैसे क्रिकेट में स्लिप में बायें तरफ झुककर कैच लिया जाता है और भाग गया।
गोलमेज सम्मेलन में कोहराम मच गया। विरोधियों ने उस जूता फैंकने वाले बुद्धिजीवी की निंदा की तो प्रशंसकों ने भी उसे फटकारा-‘शर्म आनी चाहिये एक आम आदमी पर जूता फैंकते हुए। वह चालाक था इसलिये लेकर भाग गया। बचने की कोशिश करता नजर भी नहीं आया जैसे कि विदेश में हुई घटना में नजर आया है। किसी खास आदमी पर फैंकते तो कुछ एतिहासिक बन जाता। हमने जो विदेश का दृश्य देखा है उससे यह दृश्य मेल नहीं खाता। हो सकता है कि वह किसी अखबार के दफ्तर पहुंचकर यह ख़बर दे कि देखो एक बुद्धिजीवी का जूता मार लाया।
बहरहाल बहस जारी थी। कोई निष्कर्ष नहीं निकला। कई दिन तक बहस चली। अनेक लोग उस पर अपने विचार लिखते रहे। कोई समर्थन करता तो कोई विरोध। आखिर उसी आम आदमी को बुद्धिजीवियों पर दया आ गयी और वह वहां इस सम्मेलन में आया। उसके हाथ में वही जूता था। उसे देखकर सब बुद्धिजीवी भागने लगे। सभी को लगा कि वह मारने आ रहा है। हर कोई यही सोचकर बच रहा था कि ‘दूसरे में वह जूता पड़ जाये पर मैं बच जांऊ ताकि अगर घटना ऐतिहासिक हो तो उस लिखूं। आखिर एक आम आदमी द्वारा बुद्धिजीवी पर जूता बरसना भी एक एतिहासिक घटना हो सकती थी।
वह आम आदमी ढूंढता हुआ उस बुद्धिजीवी के पास पहुंचा जिसका जूता लेकर वह भागा था और बोला-‘मैं आपका जूता ले गया पर बाद में पछतावा हुआ। मैंने अपनी पत्नी को बताया कि यह जूता एक बुद्धिजीवी ने मेरी तरफ उछाला तो वह बोली कि इससे तुम खास आदमी तो नहीं हो गये! जाओ उसे वापस कर आओ। कहीं उसकी पत्नी उसे डांटती न हो। बाहर अगर तुम कोए चीज छोड़ आते हो मैं तुम्हें कितना दांती हूँ।।"
बुद्धिजीवियों में से एक ने पूछा-‘तुम्हें यहां आते डर नहीं लगा यह सोचकर कि कोई तुम पर दूसरा जूता न फैंके।’
आम आदमी ने कहा-‘यह सोचा ही नहीं, क्योंकि आप लोग बिना प्रस्ताव पास हुए कुछ नहीं करते और ऐसी कोई खबर मैंने अखबार में भी नहीं पढ़ी कि आप लोगों ने किसी आम आदमी पर जूता फैंकने का प्रस्ताव पास किया है, पर आप लोगों को परेशान देखकर सोचता हूं कि आपके सामने खड़ा हो जाता हूं आम एक एक कर मेरे ऊपर जूता उछालो पर एक बात याद रखना कि वह मुझे लगे नहीं।’
बुद्धिजीवियों को गुस्सा आ गया और वह चिल्लाने लगे कि-‘तू मक्कार है। ठहर अभी तेरे को जूते लगाते हैं।
दूसरे बुद्धिजीवी ने आपति की और कहा-"नहीं! यह ख़ास आदमी थोड़ी ही है कि ख़बर चर्चा लायक बनेगी।
वह आदमी हंसता वहीं खड़ा रहा। सभी बुद्धिजीवी एक दूसरे से कहते रहे कि -‘इस आदमी को जूता मारो कोई चिंता वाली बात नहीं है।’
कुछ लोग कहने लगे कि-‘इससे क्या? कोई इतिहास थोड़े ही बनेगा। यह तो एक आम आदमी है। इसको जूता मारने की कोई खबर नहीं छापेगा। फिर हम में से कौन इसे जूते मार यह तय होना है क्योंकि जिसे इस विषय पर लिखना है वह तो जूता फैंककर उसके समर्थन में तो लिख नहीं सकता। यानि जूता वही फैंके जो इस विषय पर लिखना नहीं चाहता।’
इस सभी बुद्धिजीवी एक दूसरे से कहने लगे-तू फैंक जूता मैं तो उस पर लिखूंगा।’
कुछ कहने लगे कि-‘अभी यह तय नहीं हुआ कि बुद्धिजीवी को जूता उठाना चाहिये कि नहीं।’
आम आदमी वहीं खड़ा सब देखता रहा। वह इंतजार करता रहा कि कब उस पर कौनसा सर्वसम्मत प्रस्ताव पास होता है। वह कई चक्कर लगा चुका है पर अभी भी वह यह जानना चाहता है कि‘बुद्धिजीवी को कलम के साथ जूता भी चलाना चाहिये कि नहीं।’
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