कवि ने प्रकाशक से पूछा
‘बार बार कहते हो किसैक्सी कविता और कहानियां लिखकर लाया करो,
वरना यहां आकर मेरा वक्त न जाया करो,
पहले यह तो बताओ कि सैक्सी कविता और कहानियां
किस तरह लिखकर लायीं जाये
ताकि वह बाज़ार में बेचकर बड़ी रकम पायी जाये,
श्रृंगार रस हो या विरह
कितनी कवितायें लिखकर तुम्हारे पास आया,
पर हमेशा अपने सामने टूटती आस को पाया।
सुनकर प्रकाशक ने कहा
‘‘कविताओं में गालियां लिखा करो,
नायिका के सौंदर्य पर लिखो खुलकर शब्द
मां बहिन की चर्चा व्यंजना विधा करते दिखा करो,
कहानियों में नायक की छाती पर कमीज न हो,
नायिका को घुटने के नीचे कपड़े पहनने तमीज न हो,
भई,
सौंदर्य का बोध अब मेकअप से हो जाता है,
आदमी अब चिंतन नहीं करता
कागज पर पढ़ते पढ़ते
पर्दे पर दिखे रूप में खो जाता है,
प्र्रेम मिलन में श्रृंगार रस
विरह में करुणा रस की धारा बहने की
अनुभूति अंतर्मन में पले
यह अब नहीं चलता,
बहती दिखे जमीन पर रचना
यही सभी के मन में पलता,
कभी हास्य भी लिखा करो
मां की बहिन की बात करते भी दिखा करो,
शब्दों का व्यापार अब
अनुभूति कराने से नहीं होता,
लिखो चिल्लाते हुए शब्द
जिसे पढ़कर आदमी कभी हंसता कभी रोता,
खुद को खुश करने के लिये लिखोगे तो
बाज़ार ने न करना आस,
हमारे हिसाब से चलो तो हो जाओगे पास।’’
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior
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