जब देश में केवल दूरदर्शन इकलौता ही दृष्य श्रवण का साधन था उस पर अनेक तरह के पक्षपात के आरोप लगते थे। उसके बाद जब निजी टीवी चैनलों का आगमन हुआ तो लोगों को लगा कि निष्पक्षता, रोचकता तथा समाचारों की विविधता से उनको अपनी चेतन इंद्रियों को अधिक सुविधाजनक स्थिति अनुभव होगी। उस समय बहुत कम लोगों ने इस बात का अनुमान किया था कि निजी टीवी चैनलों की व्यवसायिक मजबूरी उनको विज्ञापनों का ऐसा बंधक बना देंगी कि उनके प्रसारण दूरदर्शन से अधिक बोरियत का कारण बनेंगे।
वर्ष 2011 की भारत में संपन्न विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता अब समाप्त हो गयी है पर देश के समाचार चैनल अभी उसमें देश की टीम की जीत की खुमारी को भुना रहे हैं जबकि दूरदर्शन उससे आगे बढ़कर नये समाचार तथा कार्यक्रम प्रसारण चला रहा है। क्रिकेट के अब दो भाग हैं एक तो खेल का दूसरा व्यापार का! निजी टीवी समाचार चैनल क्रिकेट के व्यापारिक पक्ष को इस कदर भुनाने में लगे हैं जैसे कि उनका समाचारों से मतलब न होकर केवल धनपतियों के उत्पादों के प्रचारक भर की है। यह सभी जानते हैं कि दुनियां की सभी टीमों के खिलाड़ी कहीं न कहीं धनपतियों से ही प्रायोजित होते हैं। कुछ पर तो सट्टे में लिप्त होने के आरोप लगे और प्रमाणित हुए। सीधी बात कहें तो यह कहना यकीनन गलत होगा कि सभी खिलाड़ी फिक्सर हैं पर यह मानना भी कठिन है कौन सट्टेबाजों से मिला है और कौन नहीं इसका पता लगाना कठिन है। वैसे भी अपने देश के अब तो कहा जाता है जब तक आदमी पकड़ा नहीं गया है तभी तक ही साहुकार है वरना तो यहां चोरों की जमात सभी जगह बैठी है।
खिलाड़ी जीते तो उनको इनाम मिलेंगे। उनकी एक बार जानकारी दे दी ठीक है पर निजी टीवी चैनल निरंतर लोगों को ब्रेकिंग न्यूज बनाकर दिखाये जा रहे हैं।
ब्रेकिंग न्यूज का मतलब ही शायद टीवी चैनलों के प्रसारक नहीं जानते। अब टीवी चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज 24 घंटे पुरानी खबर भी बनने लगी है। रात दस बजे खत्म हुए मैच की दोपहर तक ब्रेकिंग न्यूज चल रही है।
‘गंभीर ने सचिन को विश्व कप जीत समर्पित की।’
‘भारत ने श्रीलंका को हराकर विश्व कप जीता।’
‘मेन ऑफ दि मैच धोनी।’
‘देश भर में विजय का जश्न।’
यह अव्यवसायिक रवैया है। लोगों ने मैच देखा और भूल गये। यह अलग बात है कि इसकी चर्चा लोग आपस में मित्रों और रिश्तेदारों के बीच में करेंगे पर यह व्यवसायिक चैनलों का काम नहीं है कि वह अपना बाकी काम छोड़कर केवल एक खबर पर मर मिटें। क्या इस समय देश में कोई अन्य गतिविधि नहीं है। कहीं चोरी और डकैती की घटनायें नहीं हो रही हैं। ऐसा लगता है कि धनपति तथा उनके प्रचारक भौंपू की तरह समाज की समस्त इंद्रियों का हरण कर अपने यहां बंधक बनाकर रखना चाहते हैं। इनके प्रचारक बता रहे हैं कि 121 करोड़ लोगों की आशा पूरी हुई है जबकि अगर आप बाज़ार में निकलें तो ऐसे बहुत से लोग मिल जायेंगे जिनका इस खबर में एक फीसदी भी रुचि नहीं है।
बहरहाल हमने कल वह मैच पूरा देखा। विराट कोहली, गौतम गंभीर तथा महेंद्रसिंह धोनी ने दिल खुश कर दिया। महेंद्रसिंह धोनी की 91 रन की पारी जानदार रही। ऐसी एतिहासिक पारियां कभी कभी देखने सुनने को मिलती हैं। सचिन की कोई ऐसी पारी नहीं है जो उसके समकक्ष रखी जा सके। प्रचार माध्यमों की तरह क्रिकेट में भी व्यवसायिकता का बोलबाला है। स्थिति भी वैसी है। जिस तरह प्रचार माध्यमों में कमाने वाले सभी व्यवसायिक पहुंच नहीं रखते वैसे ही क्रिकेट में भी ढेर सारा धनार्जन करने वाले खिलाड़ी अव्यवसायिक प्रवृत्ति के हैं। व्यवसायिक प्रवृत्ति के लोग अपने काम में सहजता से लग जाते हैं और उसमें आने वाले उतार चढ़ाव में स्थित रहते हैं। क्रिकेट में जब टीम संकट में होती है तब उसे वही खिलाड़ी उबारता है जो व्यवसायिक प्रवृत्ति को हो क्योंकि वह मानसिक उतार चढ़ाव से प्रभावित से यह सोचकर प्रभावित नहीं होता कि उसे तो अपना काम करना है। कल विश्व कप जीतने वाली बीसीसीआई की टीम में ऐसा माद्दा विराट कोहली, गौतम गंभीर, महेंद्रसिंह धोनी तथा सुरेश रैना, अश्विन तथा आशीष नेहरा में ही दिखाई देता है जबकि सचिन तेंदुलकर, वीरेंद्र सहबाग, जहीर खान तथा मुनाफ पटेल चाहे कितना भी कमायें पर उनमें व्यवसायिक पहुंच का अभाव साफ दिखाई देता है। सचिन और सहबाग ने जिस तरह पारी शुरु की उससे साफ लगा कि वह तनाव में खेल रहे हैं। उसी तरह जहीर के अंतिम दो ओवर जिस तरह पिटे उससे भी साफ लगा कि अंतिम ओवर में रन बचाने से अधिक उनको विकेट लेने की पड़ी थी जिससे उनकी गेंद पिट गयी। वैसे भी सचिन कभी तनाव में अपनी टीम को नहीं बचाते। यह अलग बात है कि धनपतियों की नगरी में रहने की वजह से उनको नाम और नामा खूब मिलता है जबकि धोनी जैसे जांबाज लोगों का महानतम श्रेणी में आने के लिये कल जैसी जानदार पारियां खेलनी पड़ती हैं। यह अलग बात है कि उसके बाद भी उनके एतिहासिक योगदान को कम आंकने की कोशिश की जाती हैं। हमने यह लेख अपनी बोरियत दूर करने के लिये लिखा है सो इसमें निरंतरता का अभाव साफ दिखाई देता है।
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior
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