तंग रास्तों से निकलते हुए
ख्यालों के दायरे भी सिमट जाते हैं,
कहें दीपक बापू
अपनी तरक्की चाहने वालों
पहले खुली हवा में
सांस लेना सीख लो
बंद कमरे हों या सोच
उनमें जो रहते हैं
उनकी किस्मत के दाव
सस्ते में निपट जाते हैं।
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रस्में निभाना
महंगा हो गया
फिर भी लोग निभा रहे हैं,
देखते कोई नहीं
एक दूसरे की तरफ
फिर भी दिखा रहे है।
कहें दीपक बापू
बुद्धिमान लोग भी बहुत हैं
मगर मौके पर लाचार होकर
अंधों में अपना नाम लिखा रहे हैं।
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ख्यालों के दायरे भी सिमट जाते हैं,
कहें दीपक बापू
अपनी तरक्की चाहने वालों
पहले खुली हवा में
सांस लेना सीख लो
बंद कमरे हों या सोच
उनमें जो रहते हैं
उनकी किस्मत के दाव
सस्ते में निपट जाते हैं।
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रस्में निभाना
महंगा हो गया
फिर भी लोग निभा रहे हैं,
देखते कोई नहीं
एक दूसरे की तरफ
फिर भी दिखा रहे है।
कहें दीपक बापू
बुद्धिमान लोग भी बहुत हैं
मगर मौके पर लाचार होकर
अंधों में अपना नाम लिखा रहे हैं।
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior
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