25 जनवरी 2012

गणतंत्र एक भ्रम-हिन्दी लेख (gantantra or republic or democracy a confusion-hindi article on republic day or 26 janwary or 26 january)

         गणतंत्र एक शब्द है जिसका आशय लिया जाये तो मनुष्यों के एक ऐसे समूह का दृश्य सामने आता है जो उनको नियमबद्ध होकर चलने के लिये प्रेरित करता है। न चलने पर वह उनको दंड देने का अधिकार भी वही रखता है। इसी गणतंत्र को लोकतंत्र भी कहा जाता है। आधुनिक लोकतंत्र में लोगों पर शासन उनके चुने हुए प्रतिनिधि ही करते हैं। पहले राजशाही प्रचलन में थी। उस समय राजा के व्यक्तिगत रूप से बेहतर होने या न होने का परिणाम और दुष्परिणाम जनता को भोगना पड़ता था। विश्व इतिहास में ऐसे अनेक राजा महाराज हुए जिन्होंने बेहतर होने की वजह से देवत्व का दर्जा पाया तो अनेक ऐसे भी हुए जिनकी तुलना राक्षसों से की जाती है। कुछ सामान्य राजा भी हुए। आधुनिक लेाकतंत्र का जनक ब्रिटेन माना जाता है यह अलग बात है कि वहां प्रतीक रूप से राजशाही आज भी बरकरार है।
          मूल बात यह है कि हम गणतंत्र में मनुष्य समुदाय पर एक नियमबद्ध संस्था शासन के रूप में रखते हैं। विश्व के जीवों में एक मनुष्य ही ऐसा है जिसे राज्य व्यवस्था की आवश्यकता है। इसकी वजह साफ है कि सबसे अधिक बुद्धिमान होने के कारण उसके ही अनियंत्रित होने की संभावना भी अधिक रहती है। माना जाता है कि राज्य ही मनुष्य का नियंता है जिसके बिना वह पशु की तरह व्यवहार कर सकता है। राज्य करना मनुष्य की प्रवृत्ति भी है। उसमें अहंकार का भाव विद्यमान रहता है। सभी मनुष्य एक दूसरे से श्रेष्ठ दिखना चाहते हैं और राज्य व्यवस्था के प्रमुख होने पर उनको यह सुखद अनुभूति स्वतः प्राप्त होती है। जिन लोगों को प्रमुख पद नहीं मिलता वह छोटे पद पर बैठकर बाकी छोटे लोगों को अपने दंड से शासित करते है। इस तरह यह क्रम नीचे तक चला आता है। वहां तक जहां से आम इंसान की पंक्ति प्रारंभ होती है। इस पंक्ति के ऊपर बैठा हर शख्स अपने श्रेष्ठ होने की अनुभूति से प्रसन्न है पर साथ ही अपने से ऊपर बैठे आदमी की श्रेष्ठता पाने का सपना भी उसमें रहता है। इस तरह यह चक्र चलता है। जो राज्य व्यवस्था से नहीं जुड़े वह भी कहीं न कहीं अपनी श्रेष्ठता दिखाने के व्यसन में लिप्त हैं।
          राज्य कर्म अंततः राजस भाव की उपज है। उसमें सात्विकता बस इतनी ही हो सकती है जितना आटे में नमक! इससे अधिक की अपेक्षा अज्ञान का प्रमाण है। राज्य कर्म में ईमानदारी एक शर्त है पर उसे न मानना भी एक कूटनीति है। प्रजा हित आवश्यक है पर अपनी सत्ता बने रहने की शर्त उसमें जोड़ना आवश्यक है। अकुशल राज्य प्रबंधकों के के लिये ईमानदारी और प्रजा हित अंततः गौण हो जाते हैं। राज्य कर्म में एक सीमा तक ही सत्य भाषण, धर्म के प्रति निष्ठा और दयाभाव दिखाया जा सकता है। छल, कपट, प्रपंच तथा क्रूर प्रदर्शन राज्य कर्म करने वालों की शक्ति का प्रमाण बनता है। वह ऐसा न करें तो उनको सम्मान नहीं मिल सकता। न्याय के सिद्धांत सुविधानुसार चाहे जब बदले जा सकते हैं।
         सभी राजस कर्म करने वाले असात्विक हैं यह मानना ठीक नहीं है पर इतना तय है कि उनमें एक बहुत वर्ग ऐसे लोगों का रहता है जो अपने लाभ के लिये इसमें लिप्त होते हैं जिसे राजस भाव माना जाता है। आज के समय में तो राजनीति एक व्यवसाय बन गया है। यह अलग बात है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से परे बुद्धिमान लोग उसमें सत्य, अहिंसा तथा दया के भाव ढूंढना चाहते है।
           विश्व में अधिकतर लोग चाहते हैं कि उन्हें राजसुख न मिल पाये तो उनकी संतान को प्राप्त हो। राजसुख क्या है? यह सभी जानते हैं। दूसरे पर हमारा नियम चले पर हम पर कोई नियम बंधन न हो! लोग हमारी माने पर हम किसी की न सुने। किसी में हमारी आलोचना की हिम्मत न हो। बस हमारी पूजा भगवान की तरह हो। इसी भाव ने राज्य व्यवस्था को महत्वपूर्ण बना दिया है।
           राज्य संकट पड़ने पर प्रजा की मदद करता है। गणतंत्र का मूल सिद्धांत है पर यह एक तरह का भ्रम भी है। प्रजा कोई इकाई नहीं बल्कि कई मनुष्य इकाईयेां का समूह है। मनुष्य अपने कर्म के अनुसार फल भोगता है। वह इंद्रियों से जैसे दृश्य चक्षुओं से, सुर कर्णों से, भोजन मुख से तथा सुगंध नासिका से ग्रहण करने के साथ ही अपने हाथ से जिन वस्तुओं का स्पर्श करता है वैसी ही अभिव्यक्ति उसकी इन्हीं इद्रियों से प्रकट होती है। विषैले विषयों से संपर्क करने वालों से अमृतमय व्यवहार की अपेक्षा केवल अपने दिल को दिलासा देने के लिये ही है। मनुष्य को अपना जीवन संघर्ष अकेले ही करना है। ऐसे में वह अपने साथ गणसमूह और उसके तंत्र के साथ होने का भ्रम पाल सकता है पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है।
       उससे बड़ा भ्रम तो यह है कि गणतंत्र हम चला रहे हैं। धन, पद और अर्थ के शिखर पुरुषों का समूह गणतंत्र को अपने अनुसार प्रभावितकरते हैं जबकि आम इंसान केवल शासित है। वह इस गणतंत्र का प्रयोक्ता है न कि स्वामी। स्वामित्व का भ्रम है जिसमें जिंदा रहना भी आवश्यक है। अगर आदमी को अकेले होने के सत्य का अहसास हो तो वह कभी इस भ्रामक गणतंत्र की संगत न करे। जिनको पता है वह सात्विक भाव से रहते हैं क्योंकि जानते हैं कि सहनशीलता, सरलता और कर्तव्यनिष्ठ से ही वह अपना जीवन संवार सकते हैं। जिनको नहीं है वह आक्रामक ढंग से अभिव्यक्त होते है। वह अनावश्यक रूप से बहसें करते है। वाद विवाद करते हैं। निरर्थक संवादों से गणतंत्र को स्वयं से संचालित होने का यह भ्रम हम अनेक लोगों में देख सकते है।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

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