1 जनवरी 2012

सन् 2011 में छाये रहे अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार, नववर्ष में क्या होगा-हिन्दी लेख (varsh 2011 mein anna aur bhrashtacha chhaya raha, naye varsh mein kya hoga-hindi lekh or article)

             इस वर्ष अगर राजनीतिक और खबरों का आंकलन किया जाये तो यकीनन अन्ना हजारे और उनका भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन टीवी चैनलों, समाचार पत्रों तथा इंटरनेट पर छाया रहा। चूंकि प्रचार माध्यमों के प्रकाशनों और प्रसारणों में सब तरह का मसाला बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। इसलिये कभी गंभीर चिंत्तन तो कभी तनाव पूर्ण विवाद तो कभी हास्य व्यंग्य का मिश्रण भी शामिल रहा। हालांकि ऐसे में हम लोगों के लिये केवल देश में व्याप्त भ्रष्टाचार ही चिंत्तन का विषय रहा। यह अलग बात है कि जो बहसें देखी उनमें केवल सतही सोच दिखाई दी। आक्षेपों और हास्य टिप्पणियों ने एक तरह से हमारा मन ही खट्टा किया। हम चाहते थे कि देश में व्याप्त भ्रष्टाचार पर गंभीर मंथन हो न कि व्यक्तिगत आक्षेपों या मजाक में समय बरबाद हो। मगर यह हम जैसे फोकटिया लेखकों के सोचने से क्या होता है? व्यवसायिक लोग जहां चाहे सार्वजनिक बहसों को ले जा सकते हैं।
                    वर्ष के आखिर में हमने इस पर दो लेख लिखे पर लगता नहीं है कि हम अपनी बात पूरी कह पाये। लोकपाल और जनलोकपाल के मध्य द्वंद्व भले ही चलता रहा हो पर हमारी नज़र इस बात पर अधिक रही है कि क्या वाकई समाज इस बात के लिये तैयार है कि वह भ्रष्टाचार व्यवस्था चाहता है। हमें लगता नहीं है कि समाज में कोई गंभीर हलचल है। राज्य व्यवस्था का हर कोई उपयोग अपने हित में करना चाहता है और यही भ्रष्टाचार की जड़ है और इससे आम जनमानस अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। जिस तरह पर बहस चल रही है उसमें हम जैसे चिंत्तक फिट भी नहीं बैठ सकते क्योंकि व्यवसायिक बुद्धिजीवियों का वर्ग केवल अपने तयशुदा विचार पर ही निर्णय करना चाहता है। नयी बात उसे मूर्खतापूर्ण या अप्रासंगिक लगती है। बहरहाल हमारे दोनों लेख यहां प्रस्तुत हैं।

                ईसवी संवत 2011 समाप्त  होकर  ही 2012 प्रारंभ हो गया  है। आमतौर से आधुनिक शिक्षा पद्धति से परे रहने वाले आम भारतीय जनमानस के लिये 31 दिसम्बर तथा 1 जनवरी यह पुराना साल समाप्त तथा नया साल प्रारंभ होने का समय नहीं होता। भारतीय संवत अप्रैल या मार्च में प्रारंभ होता है। इतना ही नही भारत के बजट का वर्ष भी 1 अप्रैल से 31 मार्च को होता है। अलबत्ता बाज़ार तथा प्रचार समूहो  ने अपनी कमाई के लिये 1 जनवरी से नववर्ष प्रारंभ होने के तिथि को इस तरह समाज में स्थापित कर लिया है कि पुरानी, मध्यम तथा नयी पीढ़ी की शहरी पीढ़ी इसके जाल में फंसी हुई है। पहले होता था ‘नववर्ष की बधाई’ और अब हो गया ‘हैप्पी न्यू ईयर’।
       बहरहाल पिछले साल की खबरें, फिल्में, गीत, और समाचारों का पुलिंदा लेकर प्रचार माध्यम हाजिर हैं। हमें यह सब नहीं दिखाई देता। हमें दिखाई देता है भ्रष्टाचार का भूत! इस भूत ने हमारे समाज का वर्ष में से नौ महीने तक पीछा किया है। लग रहा है कि अगले वर्ष का प्रारंभ भी नायक अन्ना हजारे और खलनायक भ्रष्टाचार ही करेगा। आखिर हमने यह दावा किस आधार पर किया। दरअसल हमारे बीस ब्लॉग पिछले छह वर्ष से चल रहे हैं पर भ्रष्टाचार शब्द से इस बार सर्च इंजिनों में जितने ढूंढे गये उतना पिछले सालों में नहीं दिखाई दिया। इतना ही नहीं अन्ना हजारे के नाम से लिखे गये शीर्षक वाले पाठों के ब्लॉगों ने भी अधिक से अधिक पाठक जुटाये। अप्रैल 2011 से पहले भ्रष्टाचार पर लिखी गयी कविताओं तथा लेखों ने इसयिल लोकप्रियता पायी। हम अगर अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को एक वाक्य में सफल बताना चाहें तो वह यह कि उन्होंने भारत में फैले भ्रष्टाचार का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने में योगदान दिया।
           अन्ना हजारे 74 वर्ष के हैं। आयु की दृष्टि से उनका सम्मान होना चाहिए पर अपने आंदोलन की वजह से उनको अपमान भी झेलना पड़ा। इसके लिये उनके विरोधियों को नहीं बल्कि उनके समर्थकों को भी कम दोषी नहीं माना जा सकता जिन्होंने उनकी आयु की आड़ में अपने स्वार्थों के तीर चलाने के प्रयास किये।
वर्ष के पूरे नौ महीने तक जो आदमी भारतीय जनमानस पर छाया रहा वह वास्तव में नायक कहने योग्य है। यह अलग बात है कि कह कोई नहीं रहा। वर्ष के सबसे बुरी तरह से फ्लाप फिल्म रावन का नायक रहा। यह बात भी कोई नहीं कह नहीं रहा।
           उस दिन हमारे हम अपने एक मित्र से पहुंचने उसके घर पहुंचे। हमारे मित्र का लड़का रावन पिक्चर देखने मॉल में जा रहा था। हमारे मित्र ने उससे कहा ‘‘तुम्हारे यह अंकल कह रहे हैं कि रावन फिल्म फ्लॉप हो गयी है। हमने भी अपनी जवानी में फिल्में देखी हैं पर वही जो हिट होती थीं। तुम क्यो फ्लॉप रावन फिल्म देखने जाकर अपने घर की परंपरा और इज्जत का फालूदा बना रहे हो?
         पुत्र ने पूछा-‘‘अभी फिल्म आये तीन दिन हुए है तो उसे फ्लाप कैसे कह सकते है?’’
हमारे मित्र ने कहा-’’अंकल इंटरनेट पर सक्रिय रहते हैं और वहां ऐसा ही आंकलन प्रस्तुत किया गया होगा। तभी तो कह रहे हैं!’’
        पुत्र ने उनकी बात नहीं सुनी। तीन दिन बार हमारे मित्र बता रहा था कि उसके पुत्र को हमारी बात न मानने का मलाल था।
        देश की आज़ादी से पहले से यहां ऐसा तंत्र विकसित हो गया था जो यहां के जनमानस को बहलाफुसला कर बाज़ार के अनुकूल चलाने का अभ्यस्त था और उसने प्रचारतंत्र को भी वैसा ही बनाया। इस तरह भारतीय जनमानस भले ही अंग्रेजों के राजतंत्र से मुक्त हो गया पर उनके स्थापित व्यवस्था तंत्र के पंजों में अभी तक है। इतना ही नहीं आधुनिक शिक्षा से प्रशिक्षित अनेक लोग संस्कार और ंसस्कृति के नाम पर समाज को बचाने की बात तो करते हैं पर व्यवस्था की कार्यशैली बदलने की बात वह भी नहीं सोच पाते।         
            देश में भ्रष्टाचार आजादी के बाद से तेजी से पनपा है। अनेक लोग इससे जूड़ते हुए तो अनेक शिकार होते हुए अपना जीवन गंवा चुके हैं। जिनके पास राज्य की हल्दी सी गांठ है वह चूहा भी अपने आपको राजा से कम नहीं समझता। जहां जनता को सुविधा देने की बात आती है वहां राज्य के अधिकारों की बात चली आती है। प्रजा के लिये सुविधा पाना अधिकार नहीं बल्कि वह दे या न दे राज्य के अधिकार की बात हो गयी है। आम आदमी की भ्रष्टाचार से जो पीड़ा है उसका बयान सभी करते हैं पर हल कोई नहीं जानता। भ्रष्टाचार की पीड़ा को अन्ना साहेब के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पूरे विश्व के सामने जाहिर किया पर इससे वह कम नहीं हो गयी। यही कारण है कि इस वर्ष भ्रष्टाचार और अन्ना साहेब ने इंटरनेट पर ढेर सारी खोज पायी। रावन फिल्म फ्लाप हो गयी इसलिये उसे खोज में जगह अधिक नहीं मिली पर दीवाली पर रावन शब्द भी खूब खोजा जाता है। पुराने ईसवी संवत् की विदाई पर बस इतना ही।
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अन्ना हजारे (अण्णा हज़ारे) के लिये आत्ममंथन का समय-हिन्दी लेख (anna hazare ke liye atmamanthan sa samay-hindi lekh or article)

           अन्ना हज़ारे ने अपना अनशन तथा जेलभरो आंदोलन फिलहाल स्थगित कर अच्छा ही किया है। जब हम अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की बात करते हैं तो उसके राजनीतिक पक्ष की चर्चा अधिक होती है और सामाजिक पक्ष पीछे रह जाता है। हमने जब भी इस पर लिखा है सामाजिक पक्ष को अधिक छूने का प्रयास किया है। एक बात के लिये यह आंदोलन हमेशा याद रखा जायेगा कि इसने संपूर्ण देश के समस्त समाजों के सभी लोगों को चिंत्तन और मनन के विवश किया। मूल प्रश्न भ्रष्टाचार से जुड़ा होने के बावजूद ऐसे अनेक विषय हैं-जिनका संबंध कहीं न कहीं उससे है-जिन पर चर्चा हुई। जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो आमतौर से सरकारी क्षेत्र के भ्रष्टाचार की बात होती है पर उद्योग, व्यापार, कला, तथा धर्म के क्षेत्र के कदाचार छिप जाता है। संभव है हम जैसे चिंतकों के इस मत से कम ही लोग सहमत होंगे कि हमारे समाज का यह सामान्य दृष्टिकोण ही ऐसे भ्रष्टाचार के लिये जिम्मेदार हैं जिसमें धन को सर्वाधिक महिमामय माना जाता है। सिद्धांतों की बात करना सभी को अच्छी लगती है पर जहां धन का मामला आये वहां सभी की आंख बंद हो जाती है।
             अपने आंदोलन के अकेले शीर्षक अन्ना साहेब हैं पर उनके विस्तार में अनेक प्रश्न चिन्ह थे। किसी पाठ में फड़कते शीर्षक के साथ बहुत सारे शब्द होते हैं जिनमें विषय से जुड़े सार का सार्थक होना आवश्यक है। इसके अभाव में शीर्षक एक नारा होकर रह जाता है। हम जैसे गीता साधकों के लिये यह आंदोलन अध्ययन और अनुसंधान के लिये बहुत महत्वपूर्ण रहा है। इस दौरान हमने केवल अन्ना के वाक्यों के साथ ही उनकी पर्दे पर दिख रही गतिविधियों को बहुत ध्यान से देखा। अन्ना के बारे में दूसरे लोग और दूसरे लोगों के बारे मे अन्ना क्या कह रहे हैं इसमें हमने दिलचस्पी नहीं रखी बल्कि अन्ना अपने इस आंदोलन से इस समाज के लिये क्या नया ढूंढ रहे हैं यह प्रश्न हमेशा हमारे लिये महत्वपूर्ण रहा है। अन्ना के स्वास्थ्य की चिंता हमेशा रही और हमारा मानना है कि ज्ञानी और ध्यानी अनशन जैसी हल्की गतिविधि से तब तक दूर रहें जब तक यह आवश्यक न हो। आंदोलनों और अभियानों का शांतितिपूर्ण प्रदर्शन करना ठीक है पर अनशन जैसी गतिविधि विचलित कर देती है।
               अन्ना ने जब अपना अनशन स्थगित किया तो प्रचार माध्यम उनका मखौल उड़ा रहे हैं। इन्हीं प्रचार माध्यमों ने उनके इसी आंदोलन पर अपने विज्ञापनों का समय पास कर कमाई की। टीवी चैनलों को इतने सारे दर्शक मिले होंगे कि वह कल्पनातीत होगा। हमारा मानना तो यह है कि यह आंदोलन ही आम जनमानस को भरमाने के लिये आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों का एक योजनाबद्ध प्रयास था। टीवी चैनलों में शामिल हुए जिन बुद्धिजीवियों ने उनके मुंबई में कम भीड़ होने की जो बात कही है वह इसी का ही परिणाम है। लोकपाल या जनलोकपाल से इतर बहस इस पर चल रही है कि क्या अन्ना साहेब का जादू खत्म हो गया है। तो क्या यह जादू चल रहा था?
          अन्ना मूलतः अकेले थे पर उनके पीछे अनेक ज्ञात अज्ञात संगठन आये जिनके अपने अपने लक्ष्य थे। जनलोकपाल उनका नारा था जो संसद में लोकपाल का बिल पास होते ही फ्लाप हो गया। अन्ना के अनेक साथियों को लगा कि उनका नारा अब चलने वाला नहीं है। यकीनन अन्ना ने यह सब देखा होगा। अन्ना ने बहुत कुछ कहा पर हमें लगता है कि उन्होंने बहुत कुछ नहीं भी कहा। उनके सामने अनेक ऐसे सत्य अदृश्य रूप में प्रकट हुए होंगे जिनको देखकर वह आश्चर्यचकित हुए होंगे। वह उनको देखते होंगे पर उनका बयान करना उनके लिये कठिन रहा होगा। वह ऐसे सात्विक पुरुष हैं जो राजस पुरुषो के क्षेत्र में घुसकर उनको त्रास देता है। अभी तक उन्होंने राजस पुरुषों से जो द्वंद्व किया था उसमें भी उनके विरोधी राजस पुरुषों की सहायता लेते रहे होंगे। एक को परास्त किया तो दूसरा विजेता बना होगा। इस बार वह राजस पुरुषों के विशाल समूह से लोह लेने निकले थे और धीरे धीरे उनके इर्दगिर्द अपने राजसी वृत्ति के लोगों का आंकड़ा कम होता जा रहा था। राजस पुरुष पराक्रमी होते हैं जबकि सात्विक पुरुषों को पराक्रम की आवश्यकता नहीं होती। यदि राजस पुरुषों के विशाल समूह से सामना करना हो तो पहले अपने पराक्रम का भी परीक्षण करना चाहिए। अन्ना ने यह बात अब जाकर अनुभव की होगी। हम नहीं मानते कि अन्ना हारकर बैठ जायेंगे। दूसरी बात यह भी लगती है कि वह अपने वर्तमान राजस पुरुषों के साथ लेकर अपना अभियान चलने वाले भी नहीं है।
        हम जब अन्ना हजारे के अभियान से राजनीतिक पक्ष से हटकर उसका सामाजिक पक्ष देखते हैं तो लगता है कि अन्ना हजारे की त्यागी छवि जनमानस में है। इसलिये भविष्य में उनको समर्थन नहीं मिलेगा यह सोचना बेकार है। मुश्किल यह है कि अन्ना हजारे को बौद्धिक वर्ग का समर्थन अधिक नहीं मिला। इसका कारण यह है कि इस देश ने कई आंदोलन और उसके परिणाम देखे हैं जिससे निराशावादी दृष्टिकोण उभरता है। अन्ना हजारे के आंदोलन से जुड़े स्वयं सेवी और उनके संगठनों की निष्ठा को लेकर लोगों के मन में अनेक संदेह थे। देश के बौद्धिक समाज से जुड़े अनेक लोगों के लिये वह किसी भी दृष्टि से स्वयंसेवक नहीं थे। समाज सेवा में उनकी भूमिका धनपतियों और आमजनमानस के बीच उनकी भूमिका मध्यस्थ की थी। वैसे हमारा मानना है कि अन्ना को अपना अभियान राजनीति से जुड़े विषय से हटकर समाज में फैले अंधविश्वास, रूढ़िवादिता और भेदभाव मिटाने के लिये प्रारंभ करना चाहिए। हालांकि यह कहना कठिन है कि इसके लिये उनको प्रायोजक मिलेगा या नहीं। एक बात तय रही कि बिना प्रायोजन के ऐसे आंदोलन चल नहीं सकते।
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

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