8 दिसंबर 2008

प्रचार का चक्रव्यूह-व्यंग्य कविता

जीतता है कोई और है
जश्न मनाता कोई और है
हारता कोई और है
उससे अधिक मातम मनाता कोई और है
सपनों के सौदागरों ने
बुन लिया है जाल
लोगों को फंसाने के लिए
एसएम्एस एक चक्रव्यूह की तरह रचा है
जिस पर किसी ने नहीं किया गौर है

सपने दिखाकर लोगों के हमदर्दी
पर अपने जजबातों के सौदागरों में
बहस इस पर नहीं होती कि
क्या सच क्या झूठ है
बल्कि किसने कितना कमाया
इसकी खोज पर होता जोर है
कहै दीपकबापू
कभी-कभी मन बहलाने के
साधन काम पड़ जाएं
तो इन सौदागरों खरीदे हुए
खुशी का जश्न मनाते देख लो
या मातम से जूझता देख लो
जीनते वाला क्या जीता नहीं बताता
हारने वाला भी कहीं छिप जाता
किराए पर खुशी और गम
मनाने वालों का ही सब जगह जोर है

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1 टिप्पणी:

नीरज मुसाफ़िर ने कहा…

बिलकुल दीपक जी, सही बात है. अच्छा कमेन्ट किया है.

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