14 मार्च 2010

गोली को आंख नहीं होती-हिन्दी व्यंग्य कविताएँ (goli ko ankh nahin hoti-hindi vyangya kavitaen)

दूसरे के दर्द का बयान करना
बहुत आसान और अच्छा लगता है,
जब देखते हैं अपना दर्द तो
वही बयान हल्का लगता है।
आदत है जिनकी दूसरों के बयान करने की
जमाने में लूटते हैं वाहवाही
पर अपने दर्द के साथ जीते हुए भी
उनको बयान करना मुश्किल लगता है।

जीकर देखो अपने दर्द के साथ
सतही बयान करने की आदत चली जायेगी,
शब्दों की नदिया कोई
नई बहार लायेगी,
अपने पसीने से सींचे पाठों में
जीना भी अच्छा लगता है।
अपने दर्द पर लिखते आती है शर्म
क्योंकि बेशर्म बनना मुश्किल लगता है।
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उठा लिये हैं
उन्होंने हथियार
जमाने को इंसाफ दिलाने के लिये।
उन्हें मालुम नहीं कि
गोली को आंख नहीं होती
सही गलत की पहचान करने के लिये।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

"अपने पसीने से सींचे पाठों में
जीना भी अच्छा लगता है।"
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"गोली को आंख नहीं होती"
सच्चा और अच्छा सन्देश

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