28 मार्च 2010

सोच की ताज़गी-हिन्दी व्यंग्य कविता (soch ki tazgi-hindi vyangya kavita)

अपनी सोच पर इतना न इतराओ
कि उसको कोई हिलाने लगे,
किसी पर न उछालो कीचड़ कि
छींटे तुम्हारे चेहरे पर भी आकर गिरें
फिर तुमको कोई आईना दिखाने लगे।
हवा के झौंके हैं सभी यहां
तुम भी बह जाओगे,
कोई नया कहेगा,
तुम पुराने हो जाओगे,
नई सांसों की ताजगी के साथ जीना सीखो
नहीं तो हो सकता है कि
कोई अपनी ताजगी से
तुम्हें बासी बताने लगे।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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