सांड लाल होते हैं यह हमको पता नहीं। कभी किसी किताब में नहीं देखा न टीवी या फिल्म में देखा। अलबत्ता भूरे चितकबरे सांड देखे हैं। सांड लाल नहीं हो सकते क्योंकि कभी कोई गाय लाल नहीं देखी गयी।
अगर लाल सांड होगा तो यकीनन वह आकाश से अवतरित हुआ होगा। आकाश से देवता अवतरित होते हैं। देवताओं के बारे में कहा जाता है कि वहा जमीन पर आकर चलते फिरते हैं पर उनको पांव जमीन पर नहीं पड़ते। उनको भूख प्यास नहीं लगती। अगर कोई लाल सांड है तो यकीनन वह देवताओं की श्रेणी का होगा उसे हम नमन करेंगे।
एक ब्लाग पर पढ़ने को मिला कि भारतीय बुद्धिजीवी लाल सांड को देखकर भड़कते क्यों हैं? लिखने वाला स्वयं बुद्धिजीवी था-ऐसे लोगों को परबुद्धिजीवी भी कहा जा सकता है।
लोग सोच रहे होंगे कि आखिर यह लाल सांड का मामला क्या है? दरअसल एक ब्लाग लेखक ने नक्सलवादियों-इनमें कुछ लेनिनवादी तो कुछ माओवादी हैं-द्वारा दंतेवाड़ा में 80 से अधिक सुरक्षाकर्मियों की हत्या को जायज ठहराने का प्रयास किया है। आदिवासी क्षेत्रों की गरीबी, भुखमरी तथा शोषण रोकने के नाम पर हिंसा तथा आतंक फैलाने वालों को स्वयं उस लेखक ने लाल सांड कहा है-भारतीय बुद्धिजीवी आखिर उसी पर ही तो भड़कते हैं।
इस घटना ने हमें झिंझोर कर रख दिया थौर इस पर लिखा भी था। यकीनन उस ब्लाग लेखक ने हमें पढ़ा नहीं होगा-इस ब्लाग लेखक के पाठकों को यह पता होना चाहिए कि यह एक फ्लाप लेखक का ब्लाग है-इसलिये यह आशा नहीं करना चाहिये कि उसने नक्सलवादियों के पास होने वाले महंगे हथियारों, गाड़ियों तथा अन्य ऐसी सुविधायें होने के प्रश्न पर अवश्य जवाब देता जो पैसे से नहीं बल्कि बहुत ज्यादा पैसे होने पर ही जुटायी जाती हैं। प्रसंगवश अंतर्जाल पर फ्लाप होने का अपना सुख भी है। अपनी बात चंद लोग पढ़ लेते हैं पर वह उन लोगों तक नहीं पहुंचती जिनको लक्ष्य कर लिखी गयी है जिससे लाभ यह होता है कि विवादों का जवाब देने से बचे रहते हैं। जहां तक हमारी बात पर पढ़कर उनके जवाब देने या उनके सुधर जाने की बात है तो यह आशा तो करना भी नहीं चाहिए।
हमारे प्रश्न साफ हैं उसे चाहे जब मौका मिलेगा दोहराते रहेंगे। चाहे भले ही हम बोर होकर पाठकों को बोर करते रहें, टाईप्ड होने का ठप्पा लग जाये तब भी अपने प्रश्नों का उत्तर तो इसी तरह ढूंढते रहेंगे।
1-संगठित समाचार माध्यमों-टीवी, रेडियो तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं में इन आतंकवादी संगठनों के धन उगाही के व्यापक स्त्रोतों के बारे में छपता है। यह धन किसी राज्य की आय तरह वसूला जाता है। इससे यह नक्सली हथियार खरीदने की बजाय वहां की जनता की भलाई पर क्यों नहंी खर्च करते? इस धरती पर सारी समस्यायें तो धन की कमी के कारण ही तो पैदा होती हैं। क्या कभी इन नक्सलियों ने किसी बीमार को दवा दिलवाई है। किसी भूखे को खाना खिलाया है? क्या किसी गरीब लड़की का विवाह करवाया है? अगर कोई यह दावा करता है कि वह जनता की भलाई करता है तो उसे यही काम कर साबित करना होता है।
अगर नक्सलवादी यह दावा करते हैं कि वह अपना राज्य आने पर ऐसा करेंगे तो यह दुनियां का सबसे बड़ा धोखा है क्योंकि सभी को पता है कि इस तरह चूहों की तरह हरकत करने वाले कभी राजा नहीं बनते क्योंकि दावा वह चाहे कितना भी करें लोग उनको दिल से समर्थन नहीं करते।
कार्ल मार्क्स के विचार खोखले हैं। वह कहता है कि दुनियां का सबसे बड़ा सच है रोटी पर वह कभी भारत नहीं आया। अगर वह भारत आता तो उसे पता लगता कि यहां रोटी के अलावा भी दूसरी भूख होती है वह अध्यात्मिक शांति की। भारत पर प्रकृति की कृपा रही है इसलिये सदैव यह धन धान्य से संपन्न रहा है। इसलिये रोटी को लेकर यहंा कभी हिंसक संघर्ष नहीं हुआ।
2.नक्सली स्वयं कहां खाते हैं? उनके आय के स्त्रोत भरने वाले कौन हैं? यकीनन वह विदेशी पूंजीपति नहीं है। जनता के पास जब पैसा नहीं है तो वह इन नक्सलियों को कहां से दे सकती है। यह पैसा यहीं के धनपति दे रहे हैं और यकीनन यह दो नंबर का काम करने वाले ही होंगे जो पुलिस प्रशासन का ध्यान बंटने की आड़ में अपना काम चलाते हैं। इस तरह नक्सली जनकल्याण के नाम पर पूंजवादी ताकतों को ही सहारा दे रहें है और अपराध के आश्रयदाता होने के उन पर वहीं की जनता लगाती है जहां वह सक्रिय हैं-यह बात संगठित प्रचार माध्यमों से पता चलती है।
3-संगठित प्रचार माध्यमों में सक्रिय बुद्धिजीवियो की बात अलग है पर अंतर्जाल पर लिखने वाले सभी लेखक सुविधाभोगी वर्ग के नहीं है। इस लेखक ने तो अपना जीवन ही एक श्रमिक के रूप में प्रारंभ किया था। आज कलम की खाता है पर फिर भी अपना पसीना बहाता है। यह लेख लिखते समय भी कुछ पसीना तो चूं ही रहा है। जब यह लेखक एक मजदूर के रूप में संघर्ष कर रहा था तब भी सपना था पर उसके लिये किसी देवता रूप लाल सांड से मदद की अपेक्षा नहीं थी। उस समय भी अनेक लोग जन कल्याण का दावा करते थे पर यह लेखक जानता था कि यह सब केवल नारे बाजी है।
अगर यह खूनखराबा करने वाले नक्सली लाल सांड हैं तो फिर वह देवता हैं। कुछ खाते पीते नहीं होंगे। गोलियां और बंदूक तो वह प्रकट कर लेते होंगे। गाड़िया तो उनको सर्वशक्तिमान ने पैदा होते ही दे दी होंगी। जिन नारियों के दैहिक शोषण कर उनका जीवन नष्ट करते हैं वह कोई उनके स्वर्ग की अप्सरायें होंगी जिस पर हम जैसे इंसानों को बोलने का हक नहीं है। यह बकवास संगठित प्रचार माध्यमों में ही चल सकती है जहां आम लेखक की बात को संपादक के कालम में ही जगह मिलती है। अंतर्जाल पर आपको उन प्रश्नों का जवाब देना ही होगा जो उठ रहे हैं कि आखिर यह हथियार, महंगी गाड़ियां और अन्य महंगा सामान इन गरीबों, शोषकों, आदिवासियों तथा मजदूरों के कल्याण के लिये लड़ने वालों के पास आता कहां से है? इस तरह चाहे कितनी भी जोर से नारे बाजी करें पर मूल प्रश्न गायब नहीं हो सकते।
------------कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com
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1 टिप्पणी:
दीपक भारतदीप जी आंख में मोतियाबिन्द हो तो साफ करवा लें । लिखा वह नहीं गया है जो आप बता रहे हैं बल्कि यह लिखा गया है-मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी सांड लाल रंग देखकर इतना भड़कते क्यों हैं! और हमने जो मूल प्रश्न उठाएँ हैं उनके जवाब देने की इच्छाशक्ति आप में है क्या?
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