आखिर हठयोगी प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ से चिकित्सा विज्ञान हार गया। उसने मान लिया कि इस हठयोगी का यह दावा सही है कि उसने पैंसठ साल से कुछ न खाया है न पीया है। अब इसे चिकित्सा विज्ञानी ‘चमत्कार’ मान रहे हैं। मतलब यह कि बात घूम फिर कर वहीं आ गयी कि ‘यह तो चमत्कार है’, इसे हर कोई नहीं कर सकता और योग कोई अजूबा है जिसके पास सभी का जाना संभव नहीं है। यहां यह समझ लेना चाहिए कि बाबा प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ सांख्ययोग के पथिक हैं और अगर कोई कर्मयोग का पथिक है तो वह भी उतना ही चमत्कारी होगा इसमें संदेह नहीं हे।
प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ यकीनन एक महान योगी हैं और उन जैसा कोई विरला देखने में आता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण को योगेश्वर कहा जाता है। सुदामा के चावल के दाने भी उनके भोजन के लिये पर्याप्त थे।
प्रसंगवश मित्रता के प्रतीक के रूप में भगवान श्री कृष्ण और सुदामा का नाम लिया जाता है। दोनों ने एक ही गुरु के पास शिक्षा प्राप्त की थी। पूरी दुनियां श्री सुदामा को एक गरीब और निर्धन व्यक्ति मानती है पर जिस तरह श्रीकृष्ण जी ने उनसे मित्रता निभाई उससे लगता है कि वह इस रहस्य को जानते थे कि सुदामा केवल माया की दृष्टि से ही गरीब हैं क्योंकि सहज योग ज्ञान धारण करने की वजह से उन्होंने कभी सांसरिक माया का पीछा नहीं किया। संभवत श्रीसुदामाजी ने एक दृष्टा की तरह जीवन व्यतीत किया और शायर यही कारण है कि उनके पास माया नहंी रही। अलबत्ता परिवार की वजह से उसकी उनको जरूरत रही होगी और उसके अभाव में ही श्रीसुदामा को गरीब माना गया।
जो खाना न खाये, पानी न पिये उसे संसार की माया वरण करे भी कैसे? यह ‘हठयोग’ भारतीय योग विज्ञान का बहुत ऊंचा स्तर है पर चरम नहीं है। यह ऊंचा स्तर पाना भी कोई हंसीखेल नहीं तो चरम पर पहुंचने की बात ही क्या कहना?
पहले हम योग का चरम स्तर क्या है उसे समझ लें जो इस पाठ के लेखक की बुद्धि में आता है।
इस संसार में रहते हुए अपने मन, विचार, और विचारों के विकार निरंतर निकालते रहने तथा तत्व ज्ञान को धारण करना ही योग का चरम स्तर है। इसमें आप देह का खाया अपना खाया न समझें। गले की प्यास को अपनी आत्मा की न समझें। अपने हाथ से किये गये कर्म को दृष्टा की तरह देखें। संसार में सारे कार्य करें पर उनमें मन की लिप्तता का अभाव हो।
हमारे देश के कुछ संतों द्वारा प्राचीन ग्रंथों का एक प्रसंग सुनाया जाता है। एक बार श्रीकृष्ण जी के गांव कहीं दुर्वासा ऋषि आये। उन्होंने उनके गांव से खाना मंगवाया। गांव वालों को पता था कि उनकी बात न मानने का अर्थ है उनको क्रोध दिलाकर शाप का भागी बनना। इसलिये गांव की गोपियां ढेर सारा भोजन लेकर उस स्थान की ओर चली जो यमुना के दूसरे पार स्थित था। किनारे पर पहुंचे कर गोपियों ने देखा कि यमुदा तो पानी से लबालब भरी हुई है। अब जायें कैसे? वह कृष्ण जी के पास आयीं। श्री कृष्ण जी ने कहा-‘तुम लोग यमुना नदी से कहो कि अगर श्रीकृष्ण ने कभी किसी स्त्री को हाथ न लगाया हो तो उनकी तपस्या के फल्स्वरूप हमें रास्ता दो।’
गोपियां चली गयीं। आपस में बात कर रही थीं कि अब तो काम हो ही नहीं सकता। इन कृष्ण ने दसियों बार तो हमको छूआ होगा या हमने उनको पकड़ा होगा।
यमुना किनारे जाकर उन्होंने श्रीकृष्ण जी बात दोहराई। उनके मुख से बात निकली तो यमुना वहां सूख गयी और गोपियां दुर्वासा के पास भोजन लेकर पहुंची।
दुर्वासा जी और शिष्यों ने सारा सामान डकार लिया और जमकर पानी पिया। गोपियां वहां से लौटी तो देखा यमुना फिर उफन रही थी। वह दुर्वासा के पास आयी। उन्होंने गोपियों से कहा-‘यमुना से कहो कि अगर दुर्वासा से अपने जीवन में कभी भी अन्न जल ग्रहण नहीं किया हो तो हमें रास्ता दो।’
गोपियों का मुंह उतर गया पर क्रोधी दुर्वासा के सामने वह कुछ न बोल पायीं। वहां से चलते हुए आपस में बात करते हुए बोली-यह कैसे संभव है? इतना बड़ा झूठ कैसे बोलें? इन्होंने तो इतना भोजन कर लिया कि यमुना उनकी बात सुनकर कहीं क्रोध में अधिक न उफनने लगे।
गोपियां ने यमुना किनारे आकर यही बात कहीं। यमुना सूख गयी और हतप्रभ गाोपियां उस पार कर गांव आयी।
हम इस कथा को चमत्कार के हिस्से को नज़रअंदाज भी करें ं तो इसमें यह संदेश तो दिया ही गया है कि सांसरिक वस्तुओं का उपभोग तथा उनमें लिप्तता अलग अलग विषय हैं। संकट उपभोग से नहींे लिप्तता से उत्पन्न होता है। जब कोई इच्छित वस्तु प्रापत नहीं होती तो मन व्यग्र होता है और मिलने के बाद नष्ट हो जाये तो संताप चरम पर पहुंच जाता है।
बाब प्रह्लाद जानी को सांख्ययोगी भी माना जा सकता है। श्रीमद्भागवत गीता में सांख्ययोग तथा कर्मयोग की दोनों को समान मार्ग बताया गया है। भगवान श्रीकृष्ण इसी कर्मयोग की स्थापना करने के लिये अवतरित हुए थे क्योंकि संभवतः उस काल में सांख्ययोग की प्रधानता थी और कर्मयोग की कोई सैद्धांतिक अवधारणा यहां प्रचलित नहीं हो पायी थी। आशय यह था कि लोग संसार को एकदम त्याग कर वन में चले जाते थे और संसार में रहते तो इतना लिप्त रहते थे कि उनको भगवत् भक्ति का विचार भी नहीं आता। लोग या तो विवाह वगैरह न कर ब्रह्म्चारी जैसा जीवन बिताते या इतने कामनामय हो जाते कि अपना सांसरिक जीवन ही चौपट कर डालते। कर्मयोग का सिद्धांत मध्यमार्गी और श्रेष्ठ है और इसकी स्थापना का पूर्ण श्रेय भगवान श्रीकृष्ण को ही जाता है।
बाबा प्रह्लाद जानी ने कम उमर में ही इस संसार के भौतिक पदार्थों का उपयोग त्याग दिया पर प्राणवायु लेते रहे। उनको बचपन में भक्ति और ज्ञान प्राप्त हो गया पर उनको देखकर यह नहीं सोचना चाहिये कि योग साधना कोई बड़ी उमर में नहीं हो सकती। अनेक लोग उनकी कहानी सुनकर यह सोच सकते हैं कि हम उन जैसा स्तर प्राप्त नहीं कर सकते तो गलती पर हैं। दुर्वासा जी भोजन और जल करते थे पर उसमें लिप्त नहीं होते थे। वह आत्मा और देह को प्रथक देखते थे। मतलब यह कि हम जब खाते तो यह नहीं सोचना चाहिये कि हम खा रहे हैं बल्कि यह देखना चाहिये कि देह इसे खा रही है।
बात अगर इससे भी आगे करें तो हम विचार करते हुए देखें कि आंख का काम है देखना तो देख रही है, कानों का काम है सुनना तो सुन रहे हैं, टांगों का काम है चलना चल रही हैं, हाथों का काम करना तो करते हैं, मस्तिष्क का काम है सोचना तो सोचता है, और नाक का काम है सांस लेना तो ले रही है। हम तो आत्मा है जो कि यह सब देख रहे हैं।
बाबा प्रह्लाद जानी ने सब त्याग दिया सभी को दिख रहा है पर जिन्होंने बहुत कुछ पाया पर उसमें लिप्त नहीं हुए वह भी कोई कम त्यागी नहीं है। ऐसे कर्मयोगी न केवल अपना बल्कि इस संसार का भी उद्धार करते हैं क्योंकि जहां निष्काम कर्म तथा निष्प्रयोजन दया करने की बात आई वहां आपको इस संसार में जूझना ही पड़ता है।
प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ भारतीय दर्शन का महान प्रतीक हैं। उनसे विज्ञान हार गया पर भारतीय योग विज्ञान में ऐसे सूत्र हैं जिनको समझा जाये तो पश्चिमी विज्ञान का पूरा किला ही ध्वस्त हो जायेगा। बाबा प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ से प्रेरणा लेना चाहिये। भले ही उनके सांख्ययोग के मार्ग का अनुसरण न करें पर कर्मयोग के माध्यम से इस जीवन को सहज बनाकर जीने का प्रयास करें।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com
-----------------------------
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें