अमेरिका की विदेश मंत्री हेनरी क्लिंटन ने कहा था अगर टाईम्स स्कवायर पर बम मिलने की घटना के तार पाकिस्तान से जुड़े पाये गये तो उसे गंभीर परिणाम भोगने पड़ेंगे। इससे पहले कि पाकिस्तान की तरफ से कोई औपचारिक विरोध दर्ज होता अमेरिका के रणनीतिकार ऐसी धमकी देने से ही इंकार करने लगे। इस तरह यह बात जाहिर हो गया है कि अमेरिका अब लगातार रणनीतिक गलतियां करता जा रहा है और सामरिक दृष्टि से विश्व का शक्तिशाली देश होने के बावजूद उनका आत्मविश्वास डांवाडोल हो रहा है।
ऐसा लगता है कि अमेरिकी रणीनीतिकार अपनी कार्य तथा विचार षैली में समय के अनुसार बदलाव नहीं लाना चाहते इसलिये नये लक्ष्यों को प्राप्त करने में अपने पुराने पूर्वाग्रह नहीं छोड़ते जिससे उनको असफलता मिल रही है। इसका सीधा आषय अमेरिकी रणनीतिकारों की बौद्धिक क्षमता पर संदेह उठाना भी लग सकता है। पर अगर यह प्रमाणित हो जाये कि वह लक्ष्य प्राप्त ही नहीं करना चाहते ताकि लंबे अभियानों से वह विष्व समुदाय को भ्रमित कर अपने हथियार तथा तकनीकी बेची जा सके तो फिर कोई प्रष्न नहीं रह जाता। हालांकि इस सौदेबाजी के तरीके के दीर्घकालीन परिणामों का अपने हित में रहने के बारे में अमेरिकी रणनीतिकार आश्वस्त हो सकते हैं पर इसमें इतनी अनिश्चतायें हैं कि हो सकता है कि उल्टा पास पड़ जाये। इसलिये यहां उनकी अदूरदर्शिता साफ दिखाई देती है। खासतौर से पाकिस्तान और अफगानिस्तान को लेकर अमेरिकी रणनीति विफलता की तरफ बढ़ती दिख रही है।
दरअसल अमेरिका विष्व भर के आतंक, अपराध तथा अन्य गैरकानूनी गतिविधियों को अपने हित के नजरिये से देखता है। विष्व में आर्थिक उदारीकरण का प्रवर्तक होने के नाते अमेरिका को यह समझ लेना चाहिये कि अगर रुपये या डालर को अगर राष्ट्र की सीमाओं को बांधा नहीं जा सकता क्योंकि बडे पूंजीपतियों को आपने वैष्विक वृत्ति का मान लिया है पर उनकी छत्रछाया में ही ऐसे अनेक कृत्य होते हैं जिनको गैरकानूनी माना जाता है और उनके सहारे पलने वाले असामजिक तत्व किसी के सगे नहीं होते। यह तो अमेरिकी भी मानते हैं कि आतंकवादियों को अंततः बड़े पैसे वालों द्वारा ही आर्थिक सहायता दी जाती है। ऐसे में पूंजीपतियों को वैष्विक मानना और आतंकवादियों को अपने तथा अन्य देषों के हितों की दृष्टि में बांटना अपने आपको धोखा देने के अलावा और क्या हो सकता है?
वैसे तो आतंकवाद की लड़ाई का कथित नेता होने का दावा करने वाला अमेरिका स्वयं ही संदेहों के दायरे में है। 9/11 के जिम्मेदार उसके प्रसिद्ध अपराधी पाकिस्तान में पनाह लिये हुए हैं। वह उन पर रोज बमबारी करता है पर नतीजा सिफर! कभी कभी तो लगता है कि उसक यहा प्रायोजित कार्यक्रम है ताकि उसके सहारे
वह अपने नयी तकनीकी से सुसज्जित ड्रान विमानों का परीक्षण कर सके-याद रखने वाली बात यह है कि अमेरिकी विरोधी उस पर भी आरोप लगाते हैं कि वह अपने हथियारों के परीक्षण के लिये ऐसे युद्ध जारी रखता है।
यहां बार बार सवाल आता है कि आखिर अमेरिकाष्षत्रु इतने अजेय कैसे हो गये है जिनको मारने के लिये उसे दस वर्ष भी कम पड़ते हैं? फिर वह भारत के पाकिस्तान में रह रहे अपराधियों के प्रष्न को अनदेखा कर देता हैं विभिन्न माध्यमों से मिलने वाले समाचारों पर यकीन करें तो पाकिस्तान के भारत में रह रहे अपराधी कहीं न कहंी अमेरिका पर मेहरबान है इसलिये वह इस विषय पर चुप्पी साध लेता है।
दरअसल अमेरिका अब दो नावों की सवारी करना चाहता है। अपने आर्थिक लाभ के लिये वह भारत को भी अपने पाले में रखना चाहता है तो पाकिस्तान उसके लिये सामरिक महत्व का है जिसे वह छोड़ना नहीं चाहता। कभी कभी तो लगता है कि अमेरिकी रणनीतिकार आत्म्मुग्धता के शिकार हैं क्योंकि उनको लगता है कि वही राजनीतिक जुआ खेलना जानते हैं और बाकी सभी अनाड़ी हैं। बाकी जगह तो पता नहीं पर पाकिस्तान और अफगानिस्तान को लेकर उनको बहुत सारे भ्रम हैं। पाकिस्तान में चीन के साथ खाड़ी देश भी अपने ढंग से सक्रिय हैं तो अफगानिस्तान में भी रूस की सक्रियता है। वैसे कुछ लोगों को लगता है कि कूटनीतिक रूप से पाकिस्तान कोई सफल देश है तो उन्हें यह भ्रम नहीं रखना चाहिए। भले ही वह अमेरिका को अपने मुताबिक फैसले करने को बाध्य करता है पर इसका कारण यह है कि खाड़ी देशों तथा चीन की वजह से उसकी शक्ति बढ़ी हुई है। खाड़ी देश तथा चीन पहले भारत के विरुद्ध उपयोग उसका प्रभाव अपने यहां पड़ने से रोकने के लिये करते थे और आजकल ब्रिटेन और अमेरिका को दुविधा में डालने के लिये भी वही कर रहे हैं।
अमेरिका पहले अमेरिका तथा खाड़ी देशों का उपनिवेश था तो अब चीन भी उसका माईबाप हो गया है। देश के कुछ बुद्धिजीवी अक्सर यह कहते हैं कि आखिर पाकिस्तान भारत विरोध क्यों नहीं छोड़ता? उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि खाड़ी देशों के साथ ही उसे अमेरिका और चीन से आर्थिक सहायता केवल भारत विरोध के कारण ही मिलती है। वह चाहे तो भारत से भी ले सकता है पर जितना माल उसे इन तीन क्षेत्रों से मिलती है वह उस पैमाने पर नहीं मिल सकता। सच तो यह है कि खाड़ी देशों ने धर्म तो चीन ने अर्थ के आधार पर पाकिस्तान को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। उसके पास पैसा खूब आ रहा है इसलिये अमेरिका उसे हथियार बेचकर अपने बाज़ार को लाभ पहुंचाना चाहता है। मुश्किल यह है कि आतंकवाद एक ऐसा विषय है जिस पर किसी को आश्वस्त होकर नहीं बैठना चाहिऐ। मगर अमेरिकी रणनीतिकार जिस तरह आतंकवाद में भेद करते हैं उससे देखकर तो लगता है कि एक दिन उनको इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
बहरहाल अमेरिकी रणनीतिकारों ने अपनी पाकपरस्ती के कारण भारतीय जनता की सहानुभूति पूरी तरह से खो दी है और कालांतर में उसका दुष्परिणाम उसके सामने यह भी आ सकता है कि आतंकवाद के विरुद्ध कथित संयुक्त अभियान में भारतीय रणनीतिकार जन दबाव के अभाव में उसका साथ वैसे न दें जैसी की वह अपेक्षा करता है। दूसरी बात यह है कि उसके हथियार बेचने की रणनीति से आतंकवाद को जोड़ने वाली बातें अब कभी कभी लोगों को सच लगती है इसलिये वैश्विक रूप से कोई बड़ा अभियान चलाना उसके लिये संभव नहीं रहा है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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