आज अक्षय तृतीया पर भगवान परशुराम की जयंती मनाई जा रही है। प्राचीन ग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम का नाम अवतारों के रूप में लिया जाता है। इनका चरित्र इतना अलौकिक लगता है कि अन्य महान पात्रों पर ध्यान कम ही लोगों का जाता है। इनमें से एक हैं महर्षि परशुराम। उनका वास्तविक नाम तो राम ही था। उनकी वजह से यह भी कहा जाता है कि ‘राम से पहले भी राम हुए हैं’। उनका चरित्र वाकई अद्भुत था और भगवान श्री राम पर लिखे गये ग्रंथों में रचयिताओं ने उनका नाम राम की बजाय परशुराम संभवतः अपनी सुविधा के लिये लिखा ताकि भविष्य के लोग अच्छी तरह से अलग अलग दोनों रामों के चरित्रों को समझ सकें।
परशुराम के बारे में कहा जाता है कि वह उन्होंने अनेक बार यह पृथ्वी क्षत्रियों से विदीर्ण की थी। आजकल हमारे बौद्धिक समाज में उनको इसलिये क्षत्रिय जाति का शत्रु माना जाता है। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति तथा विदेशी ज्ञान को ओढ़े समाज ने आज के जिस जातिवादी स्वरूप को प्राचीनतम होने को आरोप को स्वीकार किया है उसे यह समझाना कठिन है कि क्षत्रिय का मतलब कोई जाति नहीं थी। यह एक कर्म था वह भी युद्ध करने वाला नहीं बल्कि राज्य करने वाला। युद्ध केवल क्षत्रिय जाति के लोग लड़ते थे यह कहीं नहीं लिखा। दूसरा यह भी कि संभव है उस समय सेना के उच्च पदों पर तैनात लोगों को ही क्षत्रिय कहा जाता हो। जहां तक युद्ध में लड़ने का सवाल है तो यह आज के समाज को देखते हुए यह संभव नहीं लगता कि प्राचीन समय के राज्यों सेना में केवल उच्च जाति के लोग ही रहते हों। आज के पिछड़े तथा दलित वर्ग के लोगों को बिना भी प्रसिद्ध प्राचीनतम राज्यों सेना पूर्णता प्राप्त प्राप्त करती होगी यह संभावना नहीं दिखती।
कहने का आशय यह है कि उस समय क्षत्रिय शब्द का संबोधन संभवतः राज्य करने वाले शासकों के लिये प्रयुक्त होता होगा जो संभवत उस समय अनुशासन हीन थे-इनमें रावण तो एक था वरना उस समय अनेक राजा अपनी प्रजा ही नहीं वरन् अन्य कमजोर राजाओं की प्रजा तथा परिवार को अपनी बपौती समझते थे और चाहे जो महिला या वस्तु कहीं से उठा लेते थे। अगर उस समय शक्तिशाली वर्ग के धनी या बाहूबली भी ऐसा करते होंगे तो बिना राज्य की सहमति के यह संभव नहीं रहा होगा। कहने का अभिप्राय यह है कि क्षत्रिय का अर्थ राजकाज कर्म था और उस समय धार्मिक और सामाजिक नियमों की अवहेलना शक्तिशाली वर्ग द्वारा ही की जाती होग। भगवान श्रीराम ने इसलिये ही मर्यादित रहकर सारे समाज में जाग्रति लाने का प्रयास किया उससे तो यही सिद्ध होता है। आम आदमी तो उस समय भी आज की तरह असहाय रहा होगा-वरना क्यों उस समय अवतार की प्रतीक्षा होती थी। परशुराम ने फरसा शायद इसलिये ही उठाया था और शक्तिशाली वर्ग की पहचान रखने वाले क्षत्रियों का संहार किया-इस महर्षि का चरित्र ऐसा है कि आम आदमी पर उनका हमला हुआ हो या उन्होंने निहत्थे को मारा हो इसका प्रमाण नहीं मिलता।
परशुराम भगवान श्रीराम से परास्त नहीं हुए थे जैसे कि कुछ लोगों द्वारा व्याख्या की जाती है। बाल्मीकी रामायण के अनुसार जब भगवान श्रीराम विवाह कर अयोध्या लौट रहे थे तब उनका सामना परशुराम से हुआ था। शिवजी का धनुष टूटने का खबर सुनकर परशुराम दूसरा धनुष लेकर इसलिये आये थे ताकि खबर की सत्यता का पता लग सके। राजा जनक ने यह प्रतिज्ञा की थी कि जब तक कोई शिवजी के उस धनुष पर जब कोई बाण का अनुसंधान कर लेगा तब अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर देंगे। लंबे समय तक वह निराश बैठे रहे। परशुराम यह देखेने आये थे कि कहीं इस प्रतिज्ञा को पूर्ण होने का छल तो नहीं किया गया-आज के संदर्भ में कहें कि
कोई फिक्सिंग तो नहीं हुई।
लक्ष्मण जी से परशुराम का वाद विवाद हुआ पर बाद में भगवान श्रीराम ने उनके धनुष पर बाण का संधान किया। उस समय हाहाकार मच गया। ब्राह्मण को अकारण मारने का अपराध भगवान श्रीराम करना नहीं चाहते थे तब उन्होंने महर्षि परशुराम से ही निशाना पूछा। परशुराम ने उनको बताया तब वह बाण उन्होंने छोड़ा। भगवान श्रीराम ने उनके पुण्य लोक तो हर लिये पर गमन शक्ति नष्ट की क्योंकि परशुराम दिन ही मे धरती का दौरा कर ं अपने ठिकाने लौट जाते थे। वहां से परशुराम महेंद्र पर्वत चले गये। इस विश्वास के साथ कि उनके द्वारा अन्याय के विरुद्ध युद्ध को श्रीराम जारी रखेंगे।
मगर यहीं उनकी कहानी खत्म नहीं होती। महाभारत काल का योद्धा कर्ण उनसे धनुर्विधा सीखने गया। परशुराम यह कला केवल ब्राह्मणों को ही सिखाते थे-मतलब केवल कथावाचन या प्रवचन करना ही ब्राहमणत्व का प्रमाण नहीं है और अगर था तो भी उसे परशुराम समाप्त करना चाहते थे। कर्ण ने अपना परिचय एक ब्राह्मण के रूप में देकर उनसे शिक्षा प्राप्त करना प्रारंभ की। एक दिन परशुराम कर्ण की जांघ पर पांव रखकर सो रहे थे तब इंद्र महाराज ने-उस समय के ऐसे राजा जो अपने राज्य की प्रजा की रक्षा के लिये गाहे बगाहे अन्य राज्यों में गड़बड़ी फैलाते रहते थे-कीड़ा बनकर कर्ण की उसी जांघ पर काट लिया।
कर्ण की जांघ से रक्त निकलने लगा पर गुरुजी की नींद न टूटे इसलिये चुप रहा। बाद में जब परशुराम की नींद टूटी तब उन्होंने कर्ण की जंघा पर बहता खून देखा। उनको सारी बात समझ में आ गयी। उन्होंने कर्ण से कहा ‘सच बता तू कौन है? इतनी सहने की क्षमता किसी ब्राह्मण में नहीं होती।’
कर्ण ने सच बताया तो उन्होंने उसे शाप दिया कि ‘समय पड़ने पर तू मेरी सिखाई युद्ध विद्या भूल जायेगा।’
अर्जुन के साथ युद्ध में यही कर्ण के सामने यही शाप प्रकट हुआ। भूत, भविष्य और वर्तमान के ज्ञाता परशुराम अगर क्षत्रिय विरोधी होते तो कभी भी कर्ण को ऐसा शाप नहीं देते। मगर वह अन्याय के विरुद्ध न्याय की जीत देखना चाहते थे और इसी कारण अपना पूरा जीवन अविवाहित व्यतीत किया। अगर जाति मोह होता तो विवाह अवश्य करते। कहीं कोई राज्य नहीं किया। कभी व्यसनों में मोह नहीं रखा। किसी की स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली। ऐसे व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति या समूह के संहार से मतलब हो सकता है तो केवल वह आम इंसान के लिये तकलीफदेह है। ऐसे महर्षि परशुराम को हार्दिक नमन! इस अक्षय तृतीया के अवसर पर इस इस लेखक के ब्लाग लेखक मित्रों तथा पाठकों को बधाई।
---------------कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com
-----------------------------
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें