4 जुलाई 2010

हंसी सूखकर कंकाल हो गयी-हिन्दी नज़्म (hansi sookhkar kakal ho gayi-hindi nazma)

आमदनी बढ़ाने की फिक्र में, जिंदगी बदहाल हो गयी,
पैसों से रिश्ते निभते हैं, संस्कृति एक बवाल हो गयी।
सुबह से शाम तक ताक रहे मतलब निकालने के रास्ते,
उतरे फ़र्ज तो चढ़े कर्ज, कौड़ी में भी महंगी इंसानी खाल हो गयी।
पसीना बहाकर अमीर होने के ख्वाब कोई नहीं देखता,
ईमान बेचकर दौलतमंद होना, हर इंसान की चाल हो गयी।
कहें दीपक बापू, रोने से बचने के लिये लोग ढूंढ रहे बहाने
दिल के जज़्बात मर गये, हंसी सूखकर कंकाल हो गयी।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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