23 अक्तूबर 2011

लीबिया के गद्दाफी के नक्शे कदम पर चले अफगानिस्तान के हामिद करजई-हिन्दी लेख )ligiya ki gaddagi ki raah chale afaganistan ke hamid karjai-hindi lekh)

          गद्दाफी की मौत ने अमेरिका के मित्र राजनयिको को हक्का बक्का कर दिया है। भले ही गद्दाफी वर्तमान समय में अमेरिका का मित्र न रहा हो पर जिस तरह अपने अभियान के माध्यम से राजशाही को समाप्त कर लीबिया के राष्ट्रपति पद पर उसका आगमन हुआ उससे यह साफ लगता है कि विश्व में अपनी लोकतंत्र प्रतिबद्धताओं को दिखाने के लिये उसे पश्चिमी राष्ट्रों ने समर्थन दिया था। ऐसा लगता है कि फ्रांस के ज्यादा वह करीब था यही कारण संक्रमणकाल के दौरान उसके फ्रांस जाने की संभावनाऐं सामने आती थी। संभवत अपनी अकड़ और अति आत्मविश्वास के चलते उसने ऐसा नहीं किया । ऐसा लगता है कि उसका बहुत सारा धन इन पश्चिमी देशों रहा होगा जो अब उनको पच गया है। विश्व की मंदी का सामना कर रहे पश्चिमी देश अब इसी तरह धन का जुगाड़ करेंगे और जिन लोगों ने अपना धन उनके यहां रखा है उनके सामने अब संशय उपस्थित हो गया होगा। प्रत्यक्ष विश्व में कोई अधिक प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दे रही पर इतना तय है कि अमेरिका को लेकर उसके मित्र राजनेताओं के हृदय में अनेक संशय चल रहे होंगे। मूल में वह धन है जो उन्होंने वहां की बैंकों और पूंजीपतियों को दिया है। हम पर्दे पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक दृश्य देखते हैं पर उसके पीछे के खेल पहले तो दिखाई नहीं देते और जब उनका पता लगता है तो उनकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाता है। इन सबके बीच एक बात तय हो गयी है कि अमेरिका से वैर करने वाला कोई राजनयिक अपने देश में आराम से नहंी बैठ सकता। ऐसे में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने अमेरिका और भारत से युद्ध होने पर पाकिस्तान का साथ देने की बात कहकर गद्दाफी के मार्ग पर कदम बढ़ा दिया है। उसका यह कदम इस बात का प्रमाण है कि उसे राजनीतिक ज्ञान नहीं है। वह घबड़ाया हुआ है और ऐसा अफलातूनी बातें कह रहा है जिसके दुष्परिणाम कभी भी उसके सामने आ सकते हैं।
        यह हैरानी की बात है कि जिन देशों के सहयोग से वह इस पद पर बैठा है उन्हें ही अपने शत्रुओ में गिन रहा है। इसका कारण शायद यह है कि अमेरिकी सेना अगले एक दो साल में वहां से हटने वाली है और करजई का वहां कोई जनाधार नहीं है। जब तक अमेरिकी सेना वहां है तब तक ही उसका राष्ट्रपति पद बरकरार है, उसके बाद वह भी नजीबुल्लाह की तरह फांसी  पर लटकाया जा सकता है। उसने किस सनक में आकर पाकिस्तान को मित्र बना लिया है यह तो पता नहीं पर इतना तय है कि वहां  की खुफिया संस्था आईएसआई अपने पुराने बदले निकाले बिना उसे छोड़ेगी नहीं। अगर वह इस तरह का बयान नहीं देता तो यकीनन अमेरिका नहीं तो कम से कम भारत उसकी चिंता अवश्य करता। भारत के रणनीतिकार पश्चिमी राष्ट्रों से अपने संपर्क के सहारे उसे राष्ट्रपति पद से हटने के बाद किसी दूसरे देश में पहुंचवा सकते थे पर लगता है कि पद के मोह ने उसे अंधा कर दिया है। अंततः यह उसके लिये घातक होना है।
         अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से हटेगी पर वैकल्पिक व्यवस्था किये बिना उसकी वापसी होगी ऐसी संभावना नहीं है। इस समय अमेरिका तालिबानियों से बात कर रहा है। इस बातचीत से तालिबानी क्या पायेंगे यह पता नहीं पर अमेरिका धीरे धीरे उसमें से लोग तोड़कर नये तालिबानी बनाकर अपनी चरण पादुकाओं के रूप में अपने लोग स्थापित करने करने के साथ ही किसी न किसी रूप में सैन्य उपस्थिति बनाये रखेगा। अमेरिका दुश्मनों को छोड़ता नहीं है और जब तक स्वार्थ हैं मित्रों को भी नहीं तोड़ता। लगता है कि अमेरिका हामिद करजई का खेल समझ चुका है और उसके दोगलेपन से नाराज हो गया है। जिस पाकिस्तान से वह जुड़ रहा है उसका अपने ही तीन प्रदेशों में शासन नाम मात्र का है और वहां के बाशिंदे अपने ही देश से नफरत करते हैं। फिर जो क्षेत्र अफगानिस्तान से लगे हैं वहां के नागरिक तो अपने को राजनीतिक रूप से पंजाब का गुलाम समझते हैं। अगर पाकिस्तान को निपटाना अमेरिका के हित में रहा और उसने हमला किया तो वहीं के बाशिंदे अमेरिका के साथ हो लेंगे भले ही उनका जातीय समीकरण हामिद करजई से जमता हो। अमेरिका उसकी गीदड़ भभकी से डरेगा यह तो नहीं लगता पर भारत की खामोशी भी उसके लिये खतरनाक है। भारत ने संक्रमण काल में उसकी सहायता की थी। इस धमकी के बाद भारतीय जनमानस की नाखुशी को देखते हुए यहां के रणनीतिकारों के लिये उसे जारी रखना कठिन होगा। ऐसे में अफगानिस्तान में आर्थिक रूप से पैदा होने वाला संकट तथा उसके बाद वहां पैदा होने वाला विद्रोह करजाई को ले डूबेगा। वैसे यह भी लगता है कि पहले ही भारत समर्थक पूर्व राष्ट्राध्यक्षों की जिस तरह अफगानिस्तान में हत्या हुई है उसके चलते भी करजई ने यह बयान दिया हो। खासतौर से नजीबुल्लाह को फांसी देने के बाद भारत की रणनीतिक क्षमताओं पर अफगानिस्तान में संदेह पैदा हुआ है। इसका कारण शायद यह भी है कि भारत को वहां के राजनीतिक शिखर पुरुष केवल आर्थिक दान दाता के रूप में एक सीमित सहयोग देने वाला देश मानते हैं। सामरिक महत्व से भारत उनके लिये महत्वहीन है। इसके लिये यह जरूरी है कि एक बार भारतीय सेना वहां जाये। भारत को अगर सामरिक रूप से शक्तिशाली होना है तो उसे अपने सैन्य अड्डे अमेरिका की तरह दूसरे देशों में स्थापित करना चाहिए। खासतौर से मित्र पड़ौसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को सामरिक उपस्थिति के रूप में विश्वास दिलाना चाहिए कि उनकी रक्षा के लिये हम तत्पर हैं। यह मान लेना कि सेना की उपस्थिति रहना सम्राज्यवाद का विस्तार है गलत होगा। हमारे यहां कुछ विद्वान लोग इराक और अफगानिस्तान में अमेरिकी सुना को उपनिवेशवाद मानते हैं पर वह यह नहीं जानते कि अनेक छोटे राष्ट्र अर्थाभाव और कुप्रबंधन के कारण बाहर के ही नहीं वरन् आंतरिक खतरों से भी निपटने का सामर्थ्य नहीं रखते। वहां के राष्ट्राध्यक्षों को विदेशों पर निर्भर होना पड़ता है। ऐसे में वह विदेशी सहायक के मित्र बन जाते हैं। भारत का विश्व में कहीं कोई निकटस्थ मित्र केवल इसलिये नहीं है क्योंकि यहां की नीति ऐसी है जिसमें सैन्य उपस्थिति सम्राज्य का विस्तार माना जाता है। सच बात तो यह है आर्थिक रूप से शक्तिशाली होने का कोई मतलब नहीं है बल्कि सामरिक रूप से भी यह दिखाना आवश्यक है कि हम दूसरे की मदद कर सकते हैं तभी शायद हमारे लिये खतरे कम होंगे वरना तो हामिद करजई जैसे लोग चाहे जब साथ छोड़कर नंगे भूखे पाकिस्तानी शासकों के कदमों में जाकर बैठेंगे। यह बात अलग बात है कि ऐसे लोग अपना बुरा हश्र स्वयं तय करते हैं।
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

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