कभी यूं बिखर जाता हूँ कि
अपने को टुकड़े देख सहम जाता हूँ
फैला है चारों तरह जाल
पर कोई मैं अकेला नहीं फंसा
अपने साथ जमाने को फंसा पाता हूँ
लोग टू चलते हैं जालिमों के आगे सिर झुकाए
मेरा जमीर जिंदा है जो लड़ पाता हूँ
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शब्द अर्थ समझें नहीं अभद्र बोलते हैं-दीपकबापूवाणी (shabd arth samajhen
nahin abhardra bolte hain-Deepakbapuwani)
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*एकांत में तस्वीरों से ही दिल बहलायें, भीड़ में तस्वीर जैसा इंसान कहां
पायें।*
*‘दीपकबापू’ जीवन की चाल टेढ़ी कभी सपाट, राह दुर्गम भाग्य जो सुगम पायें।।*
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5 वर्ष पहले
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