सभाकक्ष से बाहर निकलते ही
फंदेबाज जोर से चिल्लाया
‘‘दीपक बापू, तुम्हें तो
मैं बहुत भला आदमी समझा था
पर तुम तो निकले एकदम चालू
अपने मजदूरों के वेतन और बोनस
बढ़ाने के लिये प्रबंधकों का पास तुम्हें लाया
मै उनका अध्यक्ष हूं और तुम मित्र
ढंग से हमारी बात कहोगे
यही सोच तुम्हें बुलाया
पर तुमने कंपनी से अपने ठेके के रेट बढ़ाये
मेरे लिये भी कुछ लाभ जुटाये
पर जिन मजदूरों की बात करने गये थे
उस पर तो हम बोल ही न पाये
बताओं अब क्या मूंह लेकर
साथियों के पास जाऊं
यह तुमने केसा हमको फंसाया ’’
गला खंखार कर मुस्कराते हुए बोले
‘‘चलो चलते हैं पहले वहां होटल में
जहां खाने की पर्ची तुम्हारे प्रबंधन ने दी है
फिर समझाते हैं तुम्हें माजरा
राजनीति करने चले हो या
खरीदने ज्वार बाजरा
हम न तीन में न तेरह में
न अटे में न फटे में
हम तो तुम्हारे वफादार हैं
मजदूरों के हिमायती है हम भी
पर राजनीति तो तुम्हारी चमकानी है
कमरे के अंदर
बाहर होती है राजनीति अलग-अलग
एक समझना बात बचकानी है
हमार ठेके के रेट तो वैसे ही बढ़ते
पर तुम कभी राजनीति की सीढ़ी नहीं चढ़ते
अरे, जाकर मजदूरों को
आश्वासन मिलने की बात बता देना
वहां कर रहे थे हम दोनों हुजूर-हुजूर प्रबंधन की
पर मजदूरों में हाय-हाय करा देना
कुछ तालियां हमारे नाम की बजवा देना
अपने दो-चार चमचों को भी
प्रमोशन दिलवा देना
पर असली हक की लड़ाई कभी न लड़ना
तुम्हारे बूते का नहीं है यह सब
निकल गया हाथ से मामला तो
फिर मुश्किल होगा पकड़ना
वाद और नारों पर चलना सालों साल
भरना अपने घर में माल
हमारी तरह गहरा चिंतन न करना
हम तो हैं सब जगह फ्लाप
और अब तो हिट की फिक्र छोड़ दी है
पर राजनीति में तुम्हें हिट होने के लिये
ऐसा ही मायाजाल है रचना
कमरे के बाहर हाय-हाय
अंदर उनको हुजूर-हुजूर करना
अब सब जगह ऐसा ही वक्त आया
कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा
पूरा जमाना इसी रास्त चलता आया
...............................................
सूचना-यह काल्पनिक हास्य व्यंग्य रचना है और किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई मेल नहीं है अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।
कमरे के अंदर-बाहर की राजनीति होती हैं अलग-अलग-हास्य कविता
शब्द अर्थ समझें नहीं अभद्र बोलते हैं-दीपकबापूवाणी (shabd arth samajhen
nahin abhardra bolte hain-Deepakbapuwani)
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*एकांत में तस्वीरों से ही दिल बहलायें, भीड़ में तस्वीर जैसा इंसान कहां
पायें।*
*‘दीपकबापू’ जीवन की चाल टेढ़ी कभी सपाट, राह दुर्गम भाग्य जो सुगम पायें।।*
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5 वर्ष पहले
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