समाज को बांटकर विकास करने का सिद्धांत मुझे कभी नहीं सुहाता। मुझे उकताहट होती है जब कोई आदमी अपनी जाति, भाषा, धर्म, प्रदेश और या कुल के नाम अपना परिचय देकर अहंकार या कुंठा प्रदर्शित करते हैं। मेरा मानना है कि यह सब उन लोगों को कहना पड़ता है जो अपने अंदर केवल कमाने और खाने के अलावा कोई योग्यता नहीं रखते। वैसे कोई आदमी किसी का सगा नहीं होता। यहां तक कि जब अपने परिवार पर संकट होता है तो पहले अपने को बचाने का प्रयास करता है। अगर वह किसी समूह या वर्ग के होने का दावा करता है तो इसका आशय यह है कि उसका लाभ उठाना चाहता है अगर कहीं से उसे लगता है कि उसके वर्ग या समूह की हानि से उसे भी परेशानी होगी तो वह उसके साथ हो जाता है। इसके विपरीत अगर उसे लगता है कि मदद नहीं करने से व्यक्तिगत हानि होगी तो वह दूर भागता है और अगर हानि लाभ की संभावना से परे हो तो वह मूंह भी फेर लेता है।
मतलब यह कि व्यक्तियों द्वारा समूहों और वर्गों के जुड़े होना भी एक भ्रम है। मै किसी प्रकार के नारों और वाद पर चर्चा नहीं करता क्योंकि उनमें कोई को गहन विचार नहीं होता। कुछ अनुमान और कल्पनाएं दिखाकर ऐसे नारे और वाद प्रतिपादित किये जाते हैं जिनका प्रयोजन उन समूहों और वर्गो के लोगों को एकत्रित कर अपने लिये आर्थिक और सामाजिक श्रीवृद्धि के साधन जुटायें जायें। हर समूह या वर्ग के शीर्षस्थ लोग कथित रूप से बड़े होने का स्वांग कर कल्याण और विकास का नारा देते हैं। मैंने कई बार देखा है और कई बार ठगा जाता हूं। कई बार तो ऐसा भी लगा है कि जिस समूह या वर्ग से जुड़ा बताकर कोई बड़ा आदमी मेरे कल्याण की बात कर मुझे अपने साथ जुड़ने को प्रेरित कर रहा है तो यह जानते हुए भी कि वह ढोंग कर रहा है तब भी उसकी बात दिखाने के लिये मान लेता हूं। सोचता हूं कि यार, आदमी को समूह या वर्ग से जुड़ा होना चाहिए क्योंकि सब लोग एसा ही करते हैं। मनुष्य ही सामजिक प्राणी है और असामाजिक भी। ऐसे में अपने समूह या वर्ग से अलग किसी समूह या वर्ग के व्यक्ति से कोई वाद-विवाद हुआ तो उसमें मेरे लोग ही मेरे काम आयेंगे-यही भ्रम पालकर खामोश हो जाता हूं। भरोसा नहीं है कि मेरे समूह या वर्ग के बड़े लोग मेरे किसी काम आयेंगे इसलिये किसी से वाद-विवाद भी नही करता पर फिर भी सच नहीं कहता और भीड़ में भेड़ की तरह शामिल हो जाता हूं।
यह मेरा अकेले का सच नहीं है बल्कि सब लोग यही कर रहे हैं। अपने अंदर एक अनजाना खौफ है जो शुरू से आदमी में जाति,भाषा,धर्म और क्षेत्र के नाम पर बने समूहों और वर्गों में उसे बने रहने के लिये प्रेरित करता है जो सामान्य लोगों के सहयोग से कुछ कथित लोगों को बड़ा आदमी बना देते हैं और उनका जीवन भर उनका शोषण करते हैं। इस देश में पहले भी ऐसा ही हुआ अब भी हो रहा है। सत्य सब जानते हैं कि कोई भी किसी का नहीं है पर फिर भी भ्रम का साथ देते हैं।
शब्द अर्थ समझें नहीं अभद्र बोलते हैं-दीपकबापूवाणी (shabd arth samajhen
nahin abhardra bolte hain-Deepakbapuwani)
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*एकांत में तस्वीरों से ही दिल बहलायें, भीड़ में तस्वीर जैसा इंसान कहां
पायें।*
*‘दीपकबापू’ जीवन की चाल टेढ़ी कभी सपाट, राह दुर्गम भाग्य जो सुगम पायें।।*
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5 वर्ष पहले
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