हमारे देश के राज्य पच्चीस हों या पचास यह महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि यहां समाज कितना मजबूत और आत्मनिर्भर हो। पिछले कुछ समय देश में एक राज्य को दो भागों में बांटकर विकास करने का सपना दिखाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश को तो चार भागों में बांटना प्रस्तावित किया गया है। सवाल यह है कि क्या हमारे देश के किसी प्रदेश का विकास केवल क्या इसी कारण अवरुद्ध हो रहा है यहां राज्य बड़े हैं? एक अर्थशास्त्र का विद्यार्थी शायद ही कभी इस बात को माने। जब हम देश में गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी की समस्यायें देखते हैं तो यह बात समझना चाहिए कि यह अर्थशास्त्र का विषय है। ऐसे में हम जब लोगों को आर्थिक विकास का सपना देख रहे हैं तो यह भी देखना चाहिए कि हमारी देश के संकटों और समस्याओं पर अर्थशास्त्रियों का क्या नजरिया है?
देश में बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सामाजिक विद्वेष और गरीबी बढ़ रही है। हम यह दावा करते रहते हैं कि भारत में शिक्षा अगर पूर्ण स्तर पहुंच जाये तो विकास सभी जगह परिलक्षित होगा मगर हम देख रहे हैं कि हमारे यहां शिक्षित वर्ग में बेरोजगारी का संकट सबसे अधिक भयावह है। सच से सभी ने मुंह फेर रखा है। अनेक अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री हैं पर चलते है जो विचार तो पश्चिम के सिद्धांतों के आधार पर करते हैं पर जब देश की बात आती है तो उनका नजरिया एकदम जड़ हो जाता है। देश में सबसे बड़ी समस्या गरीबी है और जिसका सीधा संबंध अर्थशास्त्र से है। अगर हम अर्थशास्त्र की दृष्टि से देखें भारत के पिछड़ेपन का मुख्य कारण, अधिक जनसंख्या, खेती और उद्योगों के परंपरागत ढंग से करना, सामाजिक रूढ़िवादिता आर्थिक असमानता के साथ अकुशल प्रबंध है। अगर हम यह चाहते हैं कि हमारा देश सर्वांगीण विकास करे तो हमें इन्हीं समस्याओं से निजात पाना होगा।
अधिक जनंसख्या, खेती और उद्योगों को परंपरागत ढंग से करना तथा सामाजिक रूढ़िवादिता का संबंध जहां आम जनमानस से है वहीं अकुशल प्रबंध के दायरे में राज्य भी आता है। यह अकुशल प्रबंध लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण है। राज्य चाहे छोटे हों या बड़े अगर उनका आर्थिक और प्रशासनिक प्रबंधन कुशल नहीं है तो चाहे जितना प्रयास किया जाये विकास नहीं हो सकता। उस पर भ्रष्टाचार जहां नस नस में समा गया हो वहां तो कहना ही क्या?
हम यह भी देखें कि जिन राज्य को विभाजित किया गया तो उनका विकास कितना हुआ? यह सही है कि नवगठित राज्यों की राजधानी बने शहरों में उजाला हो गया पर बाकी हिस्से तो अंधेरे में ही डूबे हुए हैं। एक दिन फिर उन्हीं राज्यों में पुनः विभाजन की मांग उठेगी। तब उसे माना जाता है तो फिर कोई नया शहर राजधानी बनेगा तब वह भी रौशन हो उठेगा मगर बाकी हिस्से में अंधियारा राज्य करेगा। इस तरह तो हर बड़े शहर को राज्य बनाना पड़ेगा। तब हम फिर उसी रियासती युग में पहुंच जायेंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि आजादी के बाद रियासते बनी रहने दी जाती और राजाओं की जगह सरकारी नुमाइंदे रखे जाते या फिर हर राज्य का प्रमुख जनता से चुना जाता है। हालांकि तब भी यह सुनने का अवसर पुराने लोगों से मिलता कि इससे तो राजशाही ठीक थी। आज भी अनेक पुराने लोग अंग्रेज राज्य को श्रेयस्कर मानते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि जब तब हम अपने यहां कुशल प्रबंधन का गुण विकसित नहीं करते तब तक देश के किसी भी हिस्से को विकास का सपना दिखाना अपने आप को ही धोखा देना है। हैरानी तब होती है जब आम जनमानस इस तरह सपने दिखाने पर ही खुश हो जाता है। आखिरी बात यह कि उत्तर प्रदेश राजनीतिक रूप से बड़ा प्रदेश रहा है पर जैसा कि राजनीतिक स्थितियां सदैव समान नहीं रहती। अगर उत्तरप्रदेश का बंटावारे वाला प्रस्ताव साकार रूप लेता है तो भारतीय नक्शे से उसका नाम गायब हो जायेगा। उत्तर प्रदेश के करीब करीब सारे शहर बड़े और एतिहासिक हैं-जैसे आगरा, इलाहाबाद, वाराणसी, लखनऊ, गोरखपुर, मथुरा, कानपुर आदि। यह नक्शे में रहेंगे पर उत्तरप्रदेश गायब हो जायेगा। हम इसे अध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो जमीन और लोग वहीं हैं और रहेंगे पर उन पर नियंत्रण करने वाला राजकीय स्वरूप बदल जायेगा। न कहीं से हमला न न क्रांति होगी पर उत्तर प्रदेश शब्द का पतन हो जायेगा। इंसानों के हाथ से बनाये नक्शे बदलते रहते हैं पर मानवीय प्रकृतियां यथावत रहती हैं। इन्हीं प्रकृतियों को जानना और समझना तत्व ज्ञान है। मथुरा के जन्मे और वृंदावन पले भगवान श्रीकृष्ण का तत्वज्ञान आज विश्व भर में फैला है। इस मथुरा और वृंदावन ने कई शासक देखे पर उनका अध्यात्मिक स्वरूप भगवान श्री कृष्ण की जन्म तथा बाललीलाओं के कारण हमेशा बना रहा। उत्तरप्रदेश के अनेक शहरों का भारतीय अध्यात्मिक दृष्टि से महत्व है और रहेगा। भले ही भारतीय नक्शे से उत्तर प्रदेश गायब हो जाये। एक आम लेखक और नागरिक के रूप में राज्य के छोटे या बड़े होने से हमारा कोई सरोकार नहीं है पर इतना जरूर कह सकते हैं कि उत्तरप्रदेश के नाम के पीछे उसके अनेक बड़े शहरों का एतिहासिक तथा अध्यात्मिक स्वरूप दब गया है और संभव है कि विभाजन के बाद उनकी प्रतिष्ठा अधिक बढ़े। यह कहना कठिन है कि यह बंटवारा कब तक होगा पर एक बार प्रस्ताव स्थापित हो गया है तो वह कभी न कभी प्रकट रूप लेगा ऐसी संभावना तो लगती है।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior
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