27 सितंबर 2008

समझने और समझाने का अभियान-व्यंग्य आलेख

बहुत दिन से हमारे दिमाग में यह बात नहीं आ रही कि आखिर कौन किसको क्या और क्यों समझा रहा है? कब समझा रहा है यह तो समझ में आ रहा है क्योंकि चाहे जब कोई किसी को समझाने लगता है? मगर माजरा हमारी समझ में नहीं आ रहा है। कहीं छपा हुआ पढ़ते हैं या कोई दिखा रहा है तो उसे पढ़ते हैं, मगर समझ में कुछ नहीं आ रहा है।

देश में अनेक जगह पर बम फटे उसमें अनेक लोग हताहत हुए और कई परिवारों पर संकट टूट पड़ा। सब जगह तफशीश चल रही है पर इधर बुद्धिजीवियों ने देश में बहस शुरू कर दी है। अमुक धर्म देश तोड़ता है और अमुक तो प्रेम का संदेश देता है। जाति, भाषा और धर्म के लोग बहस किये जा रहे हैं। किसी से पूछो कि भई क्या बात है? आखिर यह बहस चल किस रही है।’

जवाब मिलता है कि ‘क्या करें विषयों की कमी है।’

जवाब सुनकर हैरानी होती है। फिर सोचते हैं कि ‘जिनको वाद और नारों पर चलने की आदत हो गयी है कि उनके लिये यह कठिनाई तो है कि जो विषय अखबार और टीवी पर दिखता हो उसके अलावा वह लिखें किस बात पर? फिर आजकल लो आलेख और व्यंग्य तात्कालिक मुद्दों पर लिखने के सभी अभ्यस्त हैं। वाद और नारों जमीन पर खड़े लेखक लोग समाज की थोड़ी हलचल पर ही अपनी प्रतिक्रिया देना प्रारंभ कर देते हैं। आदमी का नाम पूछा और शुरू हो गये धर्म, जाति और भाषा के नाम पर एकता का नारा लेकर। अगर अपराधी है तो उसकी जाति,भाषा और धर्म की सफाई की बात करते हुए एकता की बात करते हैं। हमारे एक सवाल का जवाब कोई नहीं देता कि क्या ‘आतंकी हिंसा अपराध शास्त्र से बाहर का विषय है?’

अगर आजकल के बुद्धिजीवियों की बातें पढ़ें और सुने तो लगता है कि यह अपराध शास्त्र से बाहर है क्योंकि इसमें हर कोई ऐसा व्यक्ति अपना दखल देकर विचार व्यक्त करता है जैसे कि वह स्वयं ही विशेषज्ञ हो। व्यवसायिक अपराध विशेषज्ञों की तो कोई बात ही नहीं सुनता। अपराध के तीन कारण होते हैं-जड़ (धन),जोरु (स्त्री) और जमीन। मगर भाई लोग इसके साथ जबरन धर्म, जाति और भाषा का विवाद जोड़ने में लगे हैं। यानि उनके लिये यह अपराध शास्त्र से बाहर का विषय है।

हम तो ठहरे लकीर के फकीर! जो पढ़ा है उस पर ही सोचते हैं। कभी सोचते हैं कि अपराध शास्त्र के लोग अपने पाठ्यक्रम का विस्तार करें तो ही ठीक रहेगा। अब इन तीनों चीजों के अलावा तीन और चीजें भी अपराध के लिये उत्तरदायी माने-धर्म,जाति और भाषा।’

यहां यह स्पष्ट कर दें कि हमने अपराध शास्त्र नहीं पढ़ा उनका एक नियम हमने रट रखा है कि अपराध केवल जड़,जोरु और जमीन के कारण ही होता है। अगर अपराध शास्त्री उसमें तीन से छह कारण जोड़ लें तो हम भी अपनी स्मृतियों में बदलाव करेंगे। अपने दिमागी कंप्यूटर में तीन से छह कारण अपराध के फीड कर देंगे। बाकी जो अन्य विद्वान है उनसे तो हम इसलिये सहमत नहीं हो सकते क्योंकि हम भी अपने को कम विद्वान नहीं समझते। एक विद्वान दूसरे विद्वान से सहमत नहीं होता यह भी हमने कहीं पढ़ा तब से चाहते हुए भी असहमति व्यक्त कर देते हैं ताकि मर्यादा बनी रहे। हां, कोई अपराध शास्त्री कहेगा तो उसे मान जायेंगे। इतना तो हम भी जानते हैं कि अपने से अधिक सयानों की बात मान लेनी चाहिये।


सभी आतंकी हिंसा की घटनाओं की चर्चा करते हैंं। हताहतों के परिवारों पर जो संकट आया उसका जिक्र करने की बजाय लोग उन मामलों में संदिग्ध लोगों पर चर्चा कर रहे हैं। उनके धर्म और जाति पर बहस छेड़े हुए हैं। अब समझाने वालों के जरा हाल देखिये।

एक तरफ कहते हैं कि दहशत की वारदात को किसी धर्म,जाति या भाषा से मत जोडि़ये। दूसरी तरफ जब वह उस पर चर्चा करते हैं तो फिर अपराधियों की जाति, भाषा और धर्म को लेकर बहस करते हैं। वह धर्म ऐसा नहीं है, वह जाति तो बहुत सौम्य है और भाषा तो सबकी महान होती है। अब समझ में नहीं आता कि वह कि हिंसक घटना से धर्म, जाति और भाषा से अलग कर रहे हैं या जोड़ रहे हैं। यह हास्याप्रद स्थिति देखकर कोई भी हैरान हो सकता है।

फिर कहते हैं कि संविधान और कानून का सम्मान होना चाहिये। मगर बहसों में संदिग्ध लोगों की तरफ से सफाई देने लगते हैं। एक तरफ कहते हैं कि अदालतों में यकीन है पर दूसरी तरफ बहस करते हुए किसी के दोषी या निर्दोष होने का प्रमाण पत्र चिपकाने लगते हैं। इतना ही नहीं समुदायों का नाम लेकर उनके युवकों से सही राह पर चलने का आग्रह करने लगते हैं। हम जैसे लोग जो इन वारदातों को वैसा अपराध मानते हैं जैसे अन्य और किसी समुदाय से जोड़ने की सोच भी नहीं सकते उनका ध्यान भी ऐसे लोगों की वजह से चला जाता है।

इस उहापोह में यही सोचते हैं कि आखिर लिखें तो किस विषय पर लिखें। अपराध पर या अपराधी के समुदाय पर। अपराध की सजा तो अदालत ही दे सकती है पर अपराधी की वजह से जाति,धर्म, और भाषा के नाम पर बने भ्रामक समूहों की चर्चा करना हमें पसंद नहीं है। ऐसे में सोचते हैं कि नहीं लिखें तो बहुत अच्छा। जिन लोगों ने इन वारदातों में अपनी जान गंवाई है उनके तो बस जमीन पर बिखरे खून का फोटो दिखाकर उनकी भूमिका की इतिश्री हो जाती है और उनके त्रस्त परिवार की एक दो दिन चर्चा रहती है पर फिर शुरू हो जाता है अपराधियों के नाम का प्रचार। हादसे से पीडि़त परिवारों की पीड़ा को इस तरह अनदेखा कर देने वाले बुद्धिजीवियों को देखकर उनके संवेदनशील होने पर संदेह होता है।

फिर शुरू होता है समझने और समझाने का अभियान। इस समय सभी जगह यह समझने और समझाने का अभियान चल रहा है। हम बार बार इधर उधर दृष्टिपात करते हैं पर आज तक यह समझ में नहीं आया कि कौन किसको क्या और क्यों समझा रहा है? समझाने वाला तो कहीं लिखता तो कहीं बोलता दिखता है पर वह समझा किसको रहा है यह दिखाई नहीं देता।
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