24 जुलाई 2017

खुद से बेजार ज़माने की चिंता करते हैं-दीपकबापूवाणी (Khue se Bezar Zamane ki chinta karate hain-DeepakBapuwani)

ऊंचे पायदान से गिरने के बहुत खतरे हैं, फिर भी चढ़े जो लोग उनके बहुत नखरे हैं।
‘दीपकबापू’ आम कभी आकाश नहीं छूते, खासों ने मासूम मन के पर बहुत कतरे हैं।।
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कपास से की परहेज रबड़ के वस्त्र पहने हैं, विकसित नये रूप में लोहे के गहने हैं।
‘दीपकबापू’ बिना चिंत्तन नारे ही निष्कर्ष कहें, बेकार बहस में अभद्र शब्द सहने हैं।।
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व्यस्तता का दिखावा फुर्सत के यार करने लगे, लुट के दीवाने अब व्यापार करने लगे।
विश्वास से पहले धोखे की तेयारी जरूरी, ‘दीपकबापू’ दिल सुखाकर प्यार करने लगे।।
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वह युद्ध का शंख बजायें डरना नहीं, उनके खूंखार चेहरे पर ध्यान धरना नहीं है।
‘दीपकबापू’ हंसोड़ों के हाथ हथौड़े देखें, पेट के लिये जूड़ते उन्हें अभी मरना नहीं है।।
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अपने मुख से ही करते भलाई का बखान, परमार्थ का दिखावा स्वार्थ की होते खान।
‘दीपकबापू’ नैतिकता के जोरदार नारे लगाते, बेईमानों के हाथ में पकड़ाये अपना कान।।
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बाज़ार के सौदागर ढूंढते अपने फायदे, मुनाफे लुटने के भी बना देते ढेर कायदे।
‘दीपकबापू’ दौलत के गुलाम बने बादशाह बुत, लाचार पर लुटाते बेहिसाब वायदे।।
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खुद से बेजार ज़माने की चिंता करते हैं, सोच से लाचार कागजों पर राय भरते हैं।
मिलावट खाकर ठग बन गये अक्लमंद, चालाकी के चित्र में भलाई का रंग भरते हैं।।
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अपनी कमी छिपाकर सीना तान सभी खड़े हैं, वरना तो लाचारियों से भरे सभी घड़े हैं।
‘दीपकबापू’ विज्ञापन से बन गये वीर नायक, पर्दे पर चमके पर जमीन पर नहीं कभी लड़े है।।
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कमजोर शख्स पर ज़माना तंज कसता है, जहरीला शब्द हर जुबान पर बसता है।
‘दीपकबापू’ चाहतों में बंधक रखी जिंदगी, आवारगी का शौक दिल को डसता है।।
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