14 दिसंबर 2010

भारतीय समाज की धारा स्वायत्त ढंग से बहना चाहिए-हिन्दी लेख (bhartiya samaj ki dhara-hindi lekh

अमेरिका में आठ साल रह चुके एक साफ्टवेयर इंजीनियर ने अपनी ही पत्नी की हत्या कर उसकी लाश के 72 टुकड़े कर फ्रिजर में डाल दिये। वह रोज एक टुकड़ा जंगल में फैंकने जाता था। इधर पत्नी के भाई को ईमेल पर वह बताता रहा कि उसकी बहिन से संबंध अच्छे हैं। उधर भाई को संदेह हुआ तो वह आ धमका। बहिन को न देखकर उसने पुलिस को शिकायत की। आखिर वह हत्या के जुर्म में पकड़ा गया। घटना वीभत्स है पर वहीं तक जहां कत्ल हुआ। लाश के टुकड़े टुकड़े करने में कोई भयानकता नहीं है क्योंकि मिट्टी हो चुकी यह देह संवेदनाओं से रहित हो जाती है। हमारे टीवी चैनल 72 टुकड़ों की बात कहकर सनसनी फैला रहे हैं क्योंकि इन टुकड़ों में उनके विज्ञापनों चलते हैं।
टीवी चैनलों पर मनोविज्ञान विशेषज्ञों को लाया गया। सभी ने अपने तमाम तरह के विचार दिये। इधर किसी अन्य महिला से भी कातिल पति के संबंध की चर्चा सामने आयी है हालांकि इस हत्या में वह एक वज़ह है इसमें संदेह है। कातिल पति ने बंदीगृह में भी टीवी चैनलों को साक्षात्कार दिया। उसकी बातों को अनदेखा करने का मतलब है कि हम अपने सामाजिक स्थिति से मुंह फेर रहे हैं। इसमें कई ऐसे मुद्दे हैं जिनकी चर्चा करना जरूरी है। मुख्य बात यह है कि कातिल पति और मृतक के बीच विवाद घरेलु हिंसा के मुकदमें के रूप में चल चुका था। इसी मामले में उसने पत्नी को बीस हजार रुपये खर्च देने की बात मंजूर की थी।
हत्या के बाद पकड़े जाने के बाद उसके पति ने यह तर्क दिया कि उसकी पत्नी उससे बीस हजार से अधिक खर्च की मांग कर रही थी।
उसने यह भी बताया कि उसकी पत्नी से मारपीट हुई तब धक्का लगा तो उसका सिर फूट गया चूंकि उस पर घरेलु हिंसा का उस पर मुकदमा चल रहा था इसलिये वह डर गया और उसने तत्काल घायल पत्नी के मुंह में रुई ठूंस दी और वह मर गयी। महत्वपूर्ण बात यह कि पत्नी के घायल होने पर वह घबड़ा गया था क्योंकि उस पर घरेलु हिंसा का मुकदमा चल चुका था। यह बात विचारणीय है कि उसने आखिर घायल पत्नी को बचाने की बजाय उसका मुंह बंद करना पंसद किया।
सच क्या है यह तो अभी पता चलना है पर हम यहां एक बात अनुभव करें कि इस तरह दहेज या घरेलु हिंसा के मामलों से हम भारत में जिस सभ्य समाज की आशा कर रहे हैं उनमें कितना दम है? दहेज के मामले में तो यह कानून बना दिया गया है कि आरोपी को अपने आपको ही निर्दोष साबित करना है, जो कि केवल आतंकवाद निरोधक कानून में ही शामिल है। दूसरी बात यह है कि जिन पुरुषों की पारिवारिक या सामाजिक स्थिति कमजोर है अगर उनका ऐसी नारी से पाला पड़ जाये जो आक्रामक प्रवृत्ति की है और वह कानून की आड़ लेने पर आमादा हो जाये तो परेशान कर डालती है। इन कानून के गलत इस्तेमाल की इतनी घटनायें हुई हैं कि बाकायदा पत्नी पीड़ित संगठन बन गये हैं। मुश्किल यह है कि इस कानून की आड़ लेते हुए अनेक महिलाओं ने ऐसे लोगो को भी फंसा देती हैं जो रिश्तेदार होते हैं और उनका विवादित परिवार के घर से कोई अधिक संबंध नहंी होता। महिला सहृदय होती हैं पर सभी नहीं! दूसरी बात यह कि अनेक महिलायें दूसरे की बातों में बहुत आसानी से आ जाती हैं। ऐसे में पीड़ित महिला को अगर कोई उकसाये तो वह ऐसे आदमी का भी नाम लेती हैं जो बिचारा कहीं दूर बैठा होता है। इतनी छूट महिलाओं को नहीं दी जाना चाहिए थी। भारत में नारियों को देवी माना जाता है पर सभी नहीं पूजी जातीं। हालांकि अब पुलिस को ऐसे मामलों में ध्यान से मामले दर्ज करने की हिदायतें दी गयी हैं जो कि अच्छी बात है। यह अलग बात है कि चैनल वालों को यह समझ में नहीं आती और कोई मामला सामने आते ही कथित अभियुक्तों की गिरफ्तारी की मांग करने लगते हैं।
अब आतें हैं दूसरी बात पर! इस तरह के कानून ने समाज़ को कमजोर किया है। हम उस कातिल पति और मृतका पत्नी के परिवार की तरफ देखें। दोनों के बीच विवाद चल रहा था पर पति के रिश्तेदार उससे दूर ही थे। आखिर क्यों नहीं वहां से इस मामले को सुलझाने के लिये आया। केवल पत्नी के रिश्तेदार ही इस विषय पर चर्चित क्यों हो रहे हैं?
यह एक प्रेम विवाह था। पति के रिश्तेदार इसे स्वीकार नहीं रहे थे। हमारा मानना है कि समझदारी का परिचय दे रहे थे। वह जानते होंगे कि यह प्रेम विवाह है और कालांतर में परिवार के झगड़े होंगे। ऐसे में दहेज अधिनियम और धरेलु हिंसा के कानूनों की आड़ लेकर उनको भी परेशान किया जा सकता है। पति भी अपने परिवार को अपने घर में शामिल नहीं कर रहा था क्योंकि ऐसी आशंका उसके मन में भी रही होगी। हमारा अनुमान गलत नहीं है तो कातिल पति मनोरोगी कतई नहीं लग रहा था। उसका कहना था कि ‘पत्नी रोज लड़ती थी और वह नहीं चाहता था कि बच्चे इस माहौल में रहें।
वह चाहता था कि बच्चे उसके साथ रहें या मां के साथ! वह अपने बच्चों को अनाथालय में पलते नहीं देखना चाहता था। मतलब यह कि वह इस रिश्ते को अब आगे बढ़ाने को तैयार नहीं था। उसने कत्ल किया तो गलत किया। इससे तो बेहतर होता कि वह तलाक के लिये अदालत चला जाता। मुश्किल यह भी है कि उस स्थिति में भी उसे दहेज और घरेलू हिंसा अधिनियमों से मुक्ति नहीं मिल सकती थी। मुख्य बात यह कि लड़के के परिवार से कोई अन्य आदमी आगे नहीं आ रहा था। संभव है कि नारीवादी विचारक इसे न समझें पर सच्चाई यह है कि इन दोनों कानूनों ने समाज को डरा दिया है। अब तो यह हालत है कि परिवार या रिश्तेदारी में कोई विवाद चल रहा हो तो दूर ही बैठे रहो। कहीं समझाने जाओ तो पता लगा कि हम ही झमेले में पड़ गये। कोई भी महिला जब आक्रामक हो तो वह किसी का भी नाम लिखा सकती है। इससे पारिवारिक विवादों के समाधान का मार्ग बंद होता है और छोटे छोटे विवाद परिवार को तबाह कर देते हैं।
दहेज देना भी जब अपराध है तब आखिर वह लोग कैसे बच जाते हैं जो यह कहते हैं कि हमने दहेज दिया। इस तरह एक व्यक्ति जो स्वयं अपराधी है दूसरे पर मुकदमा कर गवाह कैसे बन सकता है?
किसी को मारना या अपमानित करना तो वैसे ही अन्य कानूनों में है तब यह घरेलू हिंसा या दहेज निरोधक कानून की जरूरत क्या है? हमारे पास आंकड़े नहीं है पर आसपास की घटनाओं का कुल नतीज़ा यही है कि जिन लड़कियों ने इस कानून की आड़ ली उन्होंने न केवल अपनी बल्कि अपने ही परिवार वालों को भी तकलीफ में डाला बल्कि बाद में उनका जीवन भी कोई अधिक सुखद नहीं रहा। इन कानूनों की आड़ में अपने परिवार पर राज करने का आत्मविश्वास जिंदगी में लड़ने के आत्मविश्वास को समाप्त कर देता है।
आखिरी बात यह कि जब हमने पाश्चात्य सभ्यता का मार्ग चुना है तो पति पत्नी का रिश्ता खत्म करने का कानून बहुत आसान बना देना चाहिए। केवल एक दिन में तलाक की व्यवस्था होना चाहिए। मुख्य बात यह है कि नारी पुरुष का रिश्ता प्राकृतिक कारणों से होता है न कि सामाजिक कारणों से! ऐसे में अगर जिसको अलग होना है एक दिन में हो जाये और दूसरे दिन पति पत्नी अपना नया रिश्ता बनायें। कुछ लोगों को समाज़ की चिंता हो, पर यह बेकार है। अमेरिका में शादियां होती हैं पर सभी के तलाक नहीं होते। भारत में भी यही होगा पर ऐसे अधिनियम अगर खत्म हो जायें तो समाज के अन्य लोग परिवार बचाने के लिये भयमुक्त होकर सक्रिय हो सकते हैं। आधुनिक नारीवादियों को यह बात समझ में नहंी आयेगी क्योंकि वह भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में कही गयी बातों को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते। अगर भारतीय समाज की धारा को स्वायत्त ढंग से बहते देना है तो इन कानूनों पर दोबारा विचार होना चाहिए। सामान्य पारिवारिक विवादों में राज्य और कानून का हस्तक्षेप अनेक तरह की समस्याओं का कारण है या नहीं अब इस पर विचार करना चाहिए। वरना तो आगे ऐसी बहुत सारी घटनायें आ सकती हैं जिनकी कल्पना नारीवादियों के बूते तक का नहीं है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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9 दिसंबर 2010

विकिलीक्स के संस्थापक की गिरफ्तारी-हिन्दी लेख (detaining of wikileeas modretor-hindi article)

विकिलीक्स का संस्थापक जूलियन असांजे को अंततः लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया। जैसे ही उसके ब्रिटेन में होने की जानकारी जग जाहिर हुई तभी यह अनुमान लगा कि उसकी आज़ादी अब चंद घंटे की है। वह जिस कथित सम्राज्यवादी अमेरिका से पंगा ले रहा था उसका सहयोगी ब्रिटेन उसे नहीं पकड़ेगा इसकी संभावना तो वैसे भी नगण्य थी पर अगर वह किसी अन्य देश में भी होता तो पता मिलने पर उसे गिरफ्तार होना ही था। मतलब यह कि वह अज्ञातवास में रहकर ही बचा रह सकता था।
इस दुनियां के सारे देश अमेरिका से डरते हैं। एक ही संभावना असांजे की आज़ादी को बचा सकती थी वह यह कि क्यूबा में वह अपना ठिकाना बना लेता। जहां तक अमेरिका की ताकत का सवाल है तो अब कई संदेह होने लगे हैं। कोई भी देश अमेरिका से पंगा नहीं लेना चाहता। अब इसे क्या समझा जाये? सभी उसके उपनिवेश हैं? इसका सहजता से उत्तर दिया जा सकता है कि ‘हां,।’
मगर हम इसे अगर दूसरे ढंग से सोचे तो ऐसा भी लगता है कि अमेरिका स्वयं भी कोई स्वतंत्र देश नहीं है। अमेरिका स्वयं ही दुनियां भर के पूंजीपतियों, अपराधियों तथा कलाकर्मियों (?) का उपनिवेश देश है जो चाहते हैं कि वहां उनकी सपंत्ति, धन तथा परिवार की सुरक्षा होती रहे ताकि वह अपने अपने देशों की प्रजा पर दिल, दिमाग तथा देह पर राज्य कर धन जुटाते रहें। चाहे रूस हो या चीन चाहे फ्रांस हो, कोई भी देश अमेरिकी विरोधी को अपने यहां टिकने नहीं दे सकता। जब ताकतवर और अमीर देशों के यह हाल है तो विकासशील देशों का क्या कहा जा सकता है जिनके शिखर पुरुष पूरी तरह से अमेरिका के आसरे हैं।
वैसे तो कहा जाता है कि अमेरिका मानवतावाद, लोकतंत्र तथा स्वतंत्र अभिव्यक्ति का सबसे ताकतवर ठेकेदार है पर दूसरा यह भी सच है कि दुनियां भर के क्रूरतम शासक उसकी कृपा से अपने पदों पर बैठ सके हैं। ईदी अमीन हो या सद्दाम हुसैन या खुमैनी सभी उसके ऐसे मोहरे रहे हैं जो बाद में उसके विरोधी हो गये। ओसामा बिन लादेन के अमेरिकी संपर्कों की चर्चा कम ही होती है पर कहने वाले तो कहते हैं कि वह पूर्व राष्ट्रपति परिवार का -जो हथियारों कंपनियों से जुड़ा है-व्यवसायिक साझाीदार भी रहा है। शक यूं भी होता है कि उसके मरने या बचने के बारे में कोई आधिकारिक जानकारी अमेरिका नहीं देता यह कहते हुए कि उसके पास नहीं है। जिस तरह अमेरिका की ताकत है उसे देखते हुए यह बात संदेहजनक लगती है कि उसे लादेन का पता नहीं है। स्पष्टतः कहीं न कहीं अपने हथियार नियमित रूप से बेचने के लिये वह उसका नाम जिंदा रखना चाहता है। इस बहाने अपने हथियारों का अफगानिस्तान में गाहे बगाहे प्रयोग कर विश्व बाज़ार में वह अपनी धाक भी जमाता रहता है। उसके कई विमान, टैंक, मिसाइल तथा अन्य हथियारों का नाम वहीं प्रयोग करने पर ही प्रचार में आता है जो अन्य देश बाद में खरीदते हैं।
जूलियन असांजे की विकीलीक्स से जो जानकारियां आईं वह हमारे अनुमानों का पुष्टि करने वाली तो थीं पर नयी नहीं थी। इस पर अनेक लोगों को संदेह था कि यह सब फिक्सिंग की तहत हो रहा है। अब असांजे की गिरफ्तारी से यह तो पुष्टि होती है कि वह स्वतंत्र रूप से सक्रिय था। असांजे मूलतः आस्ट्रेलिया का रहने वाला हैकर है। वह प्रोग्रामिंग में महारथ हासिल कर चुका है मगर जिस तरह उसने विकीलीक्स का संचालन किया उससे एक बात तो तय हो गयी कि आने वाले समय में इंटरनेट अपनी भूमिका व्यापक रूप से निभाएगा। अलबत्ता दुनियां भर में गोपनीयता कानून बने हुए हैं जो उसके लिये संकट होगा। गोपनीयता कानूनों पर बहस होना चाहिए। दरअसल अब गोपनीय कानून भ्रष्ट, मूर्ख, निक्कमे तथा अपराध प्रवृत्ति के राज्य से जुड़े पदाधिकारियों के लिये सुरक्षा कवच का काम कर रहे हैं-ईमानदार अधिकारियों को उसकी जरूरत भी नहीं महसूस होती। फिर आजकल के तकनीकी युग में गोपनीय क्या रह गया है?
मान लीजिये किसी ने ताज़महल की आकाशीय लोकेशन बनाकर सेफ में बंद कर दी। उसे किसी छाप दिया तो कहें कि उसने गोपनीय दस्तावेज चुराया है। आप ही बताईये कि ताज़महल की लोकेशन क्या अब गोपनीय रह गयी है। अजी, छोड़िये अपना घर ही गोपनीय नहीं रहा। हमने गूगल से अपने घर की छत देखी थी। अगर कोई नाराज हो जाये तो तत्काल गूगल से जाकर हमारे घर की लोकेशन उठाकर हमारी छत पर पत्थर-बम लिखते हुए डर लगता है-गिरा सकता है। सीधी सी बात है कि गोपनीयता का मतलब अब वह नहीं रहा जो परंपरागत रूप से लिया जाता है। फिर अमेरिका की विदेश मंत्राणी कह रही हैं कि उसमें हमारी बातचीत देश की रणनीति का हिस्सा नहीं है तब फिर गोपनीयता का प्रश्न ही कहां रहा?
बहरहाल अब देखें आगे क्या होता है? असांजे ने जो कर दिखाया है वह इंटरनेट लेखकों के लिये प्रेरणादायक बन सकता है। सच बात तो यह है कि उसकी लड़ाई केवल अमेरिका से नहीं थी जैसा कि कुछ लोग मानते हैं। दरअसल विश्व उदारीकरण के चलते पूंजी, अपराध तथा अन्य आकर्षक क्षेत्रों के लोग अब समूह बनाकर या गिरोहबंद होकर काम करने लगे हैं। मूर्ख टाईप लोगों को वह बुत बनाकर आगे कर देते हैं और पीछे डोरे की तरह उनको नचाते हैं। अमेरिका के रणनीतिकारों की बातें सुनकर हंसी अधिक आती है। यहां यह भी बता दें कि उनमें से कई बातें पहले ही कहीं न कहीं प्रचार माध्यमों में आती रहीं हैं। ऐसा लगता है कि दुनियां भर के संगठित प्रचार माध्यम जो ताकतवर समूहों के हाथ में है इस भय से ग्रसित हैं कि कहीं इंटरनेट के स्वतंत्र लेखक उनको चुनौती न देने लगें इसलिये ही असांजे जूलियन को सबक सिखाने का निर्णय लिया गया है। यही कारण है कि एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति के मसीहा अमेरिका की शहर पर दूसरे मसीहा ब्रिटेन में उसे गिरफ्तार किया गया। अमेरिका को उसका मोस्ट वांटेड उसे कितनी जल्दी मिल गया यह भी चर्चा का विषय है खास तौर से तब जब उसने एक भी गोली नहीं दागी हो। जहां तक उसके प्रति सदाशयता का प्रश्न है तो भारत के हर विचारधारा का रचनाकार उसके प्रति अपना सद्भाव दिखायेगा-कम से कम अभी तक तो यही लगता है। हमारे जैसे आम और मामूली आदमी के लिये केवल बैठकर तमाशा देखने के कुछ और करने का चारा भी तो नहीं होता।
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4 दिसंबर 2010

मीडिया तो केवल हल्के प्रसारणों के लिये है-हिन्दी लेख

‘दिल्ली में लड़कियां सुरक्षित नहीं, आज फिर हुई एक कोशिश  गैंग रैप की!’
‘गैंग रैप की घटना को इतने दिन हो गये हैं पर पुलिस अभी भी कुछ नहीं कर पाई है।’
दूरदर्शन चैनलों पर यह विलाप अनेक बाद सुनाई देता है-यहां यह भी उल्लेख कर देते हैं कि इनके मीडिया या प्रचार कर्मियों के लिये देश का मतलब दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई, अहमदाबाद, बैंगलोर तथा कुछ अन्य बड़े शहरों ही हैं, बाकी तो केवल उनके लिये कागजी नक्शा  भर हैं।
वह बार बार पुलिस पर बरसते हैं। अभी एक गैंग रैप के मामले में पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार किया, उनमें से दो तो इस तरह की घटना में दूसरी बार शामिल हुए थे। अब सवाल यह है कि पुलिस क्या करे?
आम तौर से ऐसी अनेक घटनायें होती हैं जब पुलिस के साथ मुठभेड़ में खूंखार आतंकवादी तथा अपराधी मारे जाते हैं तो यही चैनल वहां मानवाधिकारों की दुहाई देते हुए पहुंच जाते हैं। इन आतंकवादियों और अपराधियों पर इतने अधिक मामले दर्ज होते हैं जिनकी संख्या भी डरावनी होती है। मतलब यह कि भारतीय संविधान की परवाह तो ऐसे आतंकवादी और अपराधी कभी नहीं करते। उनका अपराध सामान्य नहीं बल्कि एक युद्ध की तरह होता है। उनका कायदा है कि जब तक वह जिंदा रहेंगे इसी तरह लड़ते हुए चलते रहेंगे। कानून या संविधान के प्रति उनकी कोई आस्था नहीं है। ऐसे युद्धोन्मादी लोगों को मारकर ही समाज को बचाया जा सकता है। पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे गये अनेक अपराधियों तथा आतंकवादियों के परिजन पुलिस पर कानून से बाहर जाने का आरोप लगाते हैं पर अपने शहीद का युद्धोन्माद उनको नज़र नहीं आता। उनको ही क्या बल्कि अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी यह पसंद नहीं आता।
अब संविधान की बात करें तो उसमें आस्था रखना सामान्य इंसान के लिये हितकर है इसमें शक नहीं है। देश के अधिकतर लोग कानून को मानते हैं। इसका प्रमाण है कि एक सौ दस करोड़ वाली जनंसख्या में अधिकतर लोग अपने काम से काम रखते हुए दिन बताते हैं इसलिये ही तो शांति से रहते आज़ाद घूम रहे हैं। मगर जिनकी आस्था नहीं है वह किसी भी तरह अपनी हरकत से बाज़ नहीं आते। अगर उनका अपराध कानून के हिसाब से कम सजा वाला है और वह नियमित अपराधी भी नहीं है तो उनके साथ रियायत की जा सकती है पर जिन अपराधों की सजा मौत या आजीवन कारावास है जबकि अपराधी उस पर निरंतर बढ़ता ही जा रहा है तो उसे मारने के अलावा कोई उपाय बचता है यह समझ में नहीं आता।
इस संसार में हर समाज, वर्ण, धर्म, देश, जाति तथा शहर में अच्छे बुरे लोग होते हैं पर यह भारत में ही संभव है कि उनमें भी जाति और धर्म की पहचान देखी जाती है और प्रचार माध्यम या मीडिया यह काम बड़े चाव से करता है। दिल्ली में धौलकुंआ गैंग रैप में गिरफ्तार अभियुक्तों को पकड़ लिया गया। जब पुलिस उनको पकड़ने गयी तो वहां उसका हल्का विरोध हुआ। अगर विरोध तगड़ा होता तो संभव है कि हिंसा की कोई बड़ी वारदात हो सकती थी। ऐसे में एकाध अभियुक्त मारा जाता तो यह मीडिया क्या करता? एक बात यहां यह भी बता दें कि उस मामले में पुलिस के मददगार भी वहीं के लोग थे। यानि किसी एक समुदाय को अपराधी घोषित नहीं करना चाहिए पर मारे गये अपराधी को समुदाय के आधार पर निरीह कहकर उसे शहीद कहना भी अपराध से कम नहीं है।
चाहे कोई भी समुदाय हो उसका आम इंसान शांति से जीना चाहता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि कोई भी अपराधी या आतंकवादी को पसंद नहीं  करता चाहे उसके समुदाय का हो? ऐसे में समुदाय के आधार पर अपराधियों के प्रति प्रचार माध्यमों को निकम्मा साबित कर रहा है। अभी एक टीवी चैनल के प्रमुख संपादक ने कहा था कि वह कार्पोरेट जगत की वजह से बेबस हैं। क्या इसका आशय यह मानना चाहिये कि है कि यही कार्पोरेट जगत उनको समुदाय विशेष के अपराधियों का महिमा मंडन के लिये बाध्य कर रहा है? क्या उनके विज्ञापनदाताओं का संबंध तथा आर्थिक स्त्रोत विश्व के कट्टर धार्मिक देशो से जुड़े हैं जो आतंकवादियों और अपराधियों को धर्म से जोड़कर देखते हैं?
बहरहाल एक बात निश्चित है कि किसी जघन्य मामले में अधिक लिप्त होने वाले अपराधी को सामान्य प्रवृत्ति का नहीं माना जा सकता बल्कि वह तो एक तरह युद्धोन्मादी की तरह होते हैं जिनके जीवन का नाश ही समाज की रक्षा कर सकता है। दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश में लड़कियों के साथ बदसलूकी घटनायें बढ़ रही हैं। दिल्ली में अनेक लड़कियों को ब्लेड मारकर घायल कर दिया गया है। अगर वह अपराधी कहीं पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारा गया तो मीडिया क्या करेगा?
मुठभेड़ के बाद उसका समुदाय देखेगा फिर इस पर भी उसका ध्यान होगा कि कौनसी लाईन से उसको लाभ होगा। कानून के अनुसार कार्यवाही न होने की बात कहेगा? अगर कहीं ब्लेड मारने वाला जनता के हत्थे चढ़ गया और मर गया तो लोगों के कानून हाथ में लेने पर यही मीडिया विलाप करेगा। ऐसे में लगता है कि टीवी चैनलों पर कथित पत्रकारिता करने वाले लोग किसी घटना पर रोने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते। वह सनसनी या आंसु बेचते हैं। कभी चुटकुले बेचकर हंसी भी चला देते हैं। कोई गंभीरता न तो उनके व्यवसाय में है न ही विचारों में-भले ही कितनी भी बहसें करते हों। इन सबसे डर भी नहीं पर मुश्किल यह है कि देश का संचालन करने वाली एजेंसियों में भी आखिर मनुष्य ही काम करते हैं और इन प्रचार माध्यमों का प्रभाव उन पर पड़ता है। उनको इन प्रचार माध्यमों पर ध्यान नहीं देना चाहिए क्योंकि समाज या देश को लेकर उनके पास कोई गंभीर चिंतन इन प्रचार माध्यमों के पास नहीं है। अतः हर प्रकार के अपराध के प्रति उनको अपने विवेक से काम करना चाहिए क्योंकि इस देश में ईमानदार, बहादुर तथा विवेकवाद प्रशासनिक  अधिकारियों  की ही आवश्यकता है और मीडिया तो केवल हल्के प्रसारणों के लिये है। एक घंटे के कार्यक्रम में पौन घंटा क्रिकेट तथा फिल्मों पर निर्भर रहने वाले इन प्रचार माध्यमों से किसी बौद्धिक सहायता की आशा नहीं करना चाहिए।
अगर एक सवाल किसी मीडिया या प्रचार कर्मी से किया जाये कि‘आखिर आप अपने समाचार या चर्चा से क्या चाहते हैं?’
यकीनन उसका एक ही जवाब होगा-‘हम कुछ नहीं चाहते सिवाय अपने वेतन तथा आर्थिक लाभ के। हमें समाचार या बहस समय पास करने के लिये कुछ न कुछ तो चाहिए ताकि चैनल को विज्ञापन मिलते रहें। बाकी जवान मरे या बूढ़ा, हमें तो हत्या से काम, छोरा भागे या छोरी, हमें तो बस सनसनीखेज खबर से काम।’
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