अमेरिका में आठ साल रह चुके एक साफ्टवेयर इंजीनियर ने अपनी ही पत्नी की हत्या कर उसकी लाश के 72 टुकड़े कर फ्रिजर में डाल दिये। वह रोज एक टुकड़ा जंगल में फैंकने जाता था। इधर पत्नी के भाई को ईमेल पर वह बताता रहा कि उसकी बहिन से संबंध अच्छे हैं। उधर भाई को संदेह हुआ तो वह आ धमका। बहिन को न देखकर उसने पुलिस को शिकायत की। आखिर वह हत्या के जुर्म में पकड़ा गया। घटना वीभत्स है पर वहीं तक जहां कत्ल हुआ। लाश के टुकड़े टुकड़े करने में कोई भयानकता नहीं है क्योंकि मिट्टी हो चुकी यह देह संवेदनाओं से रहित हो जाती है। हमारे टीवी चैनल 72 टुकड़ों की बात कहकर सनसनी फैला रहे हैं क्योंकि इन टुकड़ों में उनके विज्ञापनों चलते हैं।
टीवी चैनलों पर मनोविज्ञान विशेषज्ञों को लाया गया। सभी ने अपने तमाम तरह के विचार दिये। इधर किसी अन्य महिला से भी कातिल पति के संबंध की चर्चा सामने आयी है हालांकि इस हत्या में वह एक वज़ह है इसमें संदेह है। कातिल पति ने बंदीगृह में भी टीवी चैनलों को साक्षात्कार दिया। उसकी बातों को अनदेखा करने का मतलब है कि हम अपने सामाजिक स्थिति से मुंह फेर रहे हैं। इसमें कई ऐसे मुद्दे हैं जिनकी चर्चा करना जरूरी है। मुख्य बात यह है कि कातिल पति और मृतक के बीच विवाद घरेलु हिंसा के मुकदमें के रूप में चल चुका था। इसी मामले में उसने पत्नी को बीस हजार रुपये खर्च देने की बात मंजूर की थी।
हत्या के बाद पकड़े जाने के बाद उसके पति ने यह तर्क दिया कि उसकी पत्नी उससे बीस हजार से अधिक खर्च की मांग कर रही थी।
उसने यह भी बताया कि उसकी पत्नी से मारपीट हुई तब धक्का लगा तो उसका सिर फूट गया चूंकि उस पर घरेलु हिंसा का उस पर मुकदमा चल रहा था इसलिये वह डर गया और उसने तत्काल घायल पत्नी के मुंह में रुई ठूंस दी और वह मर गयी। महत्वपूर्ण बात यह कि पत्नी के घायल होने पर वह घबड़ा गया था क्योंकि उस पर घरेलु हिंसा का मुकदमा चल चुका था। यह बात विचारणीय है कि उसने आखिर घायल पत्नी को बचाने की बजाय उसका मुंह बंद करना पंसद किया।
सच क्या है यह तो अभी पता चलना है पर हम यहां एक बात अनुभव करें कि इस तरह दहेज या घरेलु हिंसा के मामलों से हम भारत में जिस सभ्य समाज की आशा कर रहे हैं उनमें कितना दम है? दहेज के मामले में तो यह कानून बना दिया गया है कि आरोपी को अपने आपको ही निर्दोष साबित करना है, जो कि केवल आतंकवाद निरोधक कानून में ही शामिल है। दूसरी बात यह है कि जिन पुरुषों की पारिवारिक या सामाजिक स्थिति कमजोर है अगर उनका ऐसी नारी से पाला पड़ जाये जो आक्रामक प्रवृत्ति की है और वह कानून की आड़ लेने पर आमादा हो जाये तो परेशान कर डालती है। इन कानून के गलत इस्तेमाल की इतनी घटनायें हुई हैं कि बाकायदा पत्नी पीड़ित संगठन बन गये हैं। मुश्किल यह है कि इस कानून की आड़ लेते हुए अनेक महिलाओं ने ऐसे लोगो को भी फंसा देती हैं जो रिश्तेदार होते हैं और उनका विवादित परिवार के घर से कोई अधिक संबंध नहंी होता। महिला सहृदय होती हैं पर सभी नहीं! दूसरी बात यह कि अनेक महिलायें दूसरे की बातों में बहुत आसानी से आ जाती हैं। ऐसे में पीड़ित महिला को अगर कोई उकसाये तो वह ऐसे आदमी का भी नाम लेती हैं जो बिचारा कहीं दूर बैठा होता है। इतनी छूट महिलाओं को नहीं दी जाना चाहिए थी। भारत में नारियों को देवी माना जाता है पर सभी नहीं पूजी जातीं। हालांकि अब पुलिस को ऐसे मामलों में ध्यान से मामले दर्ज करने की हिदायतें दी गयी हैं जो कि अच्छी बात है। यह अलग बात है कि चैनल वालों को यह समझ में नहीं आती और कोई मामला सामने आते ही कथित अभियुक्तों की गिरफ्तारी की मांग करने लगते हैं।
अब आतें हैं दूसरी बात पर! इस तरह के कानून ने समाज़ को कमजोर किया है। हम उस कातिल पति और मृतका पत्नी के परिवार की तरफ देखें। दोनों के बीच विवाद चल रहा था पर पति के रिश्तेदार उससे दूर ही थे। आखिर क्यों नहीं वहां से इस मामले को सुलझाने के लिये आया। केवल पत्नी के रिश्तेदार ही इस विषय पर चर्चित क्यों हो रहे हैं?
यह एक प्रेम विवाह था। पति के रिश्तेदार इसे स्वीकार नहीं रहे थे। हमारा मानना है कि समझदारी का परिचय दे रहे थे। वह जानते होंगे कि यह प्रेम विवाह है और कालांतर में परिवार के झगड़े होंगे। ऐसे में दहेज अधिनियम और धरेलु हिंसा के कानूनों की आड़ लेकर उनको भी परेशान किया जा सकता है। पति भी अपने परिवार को अपने घर में शामिल नहीं कर रहा था क्योंकि ऐसी आशंका उसके मन में भी रही होगी। हमारा अनुमान गलत नहीं है तो कातिल पति मनोरोगी कतई नहीं लग रहा था। उसका कहना था कि ‘पत्नी रोज लड़ती थी और वह नहीं चाहता था कि बच्चे इस माहौल में रहें।
वह चाहता था कि बच्चे उसके साथ रहें या मां के साथ! वह अपने बच्चों को अनाथालय में पलते नहीं देखना चाहता था। मतलब यह कि वह इस रिश्ते को अब आगे बढ़ाने को तैयार नहीं था। उसने कत्ल किया तो गलत किया। इससे तो बेहतर होता कि वह तलाक के लिये अदालत चला जाता। मुश्किल यह भी है कि उस स्थिति में भी उसे दहेज और घरेलू हिंसा अधिनियमों से मुक्ति नहीं मिल सकती थी। मुख्य बात यह कि लड़के के परिवार से कोई अन्य आदमी आगे नहीं आ रहा था। संभव है कि नारीवादी विचारक इसे न समझें पर सच्चाई यह है कि इन दोनों कानूनों ने समाज को डरा दिया है। अब तो यह हालत है कि परिवार या रिश्तेदारी में कोई विवाद चल रहा हो तो दूर ही बैठे रहो। कहीं समझाने जाओ तो पता लगा कि हम ही झमेले में पड़ गये। कोई भी महिला जब आक्रामक हो तो वह किसी का भी नाम लिखा सकती है। इससे पारिवारिक विवादों के समाधान का मार्ग बंद होता है और छोटे छोटे विवाद परिवार को तबाह कर देते हैं।
दहेज देना भी जब अपराध है तब आखिर वह लोग कैसे बच जाते हैं जो यह कहते हैं कि हमने दहेज दिया। इस तरह एक व्यक्ति जो स्वयं अपराधी है दूसरे पर मुकदमा कर गवाह कैसे बन सकता है?
किसी को मारना या अपमानित करना तो वैसे ही अन्य कानूनों में है तब यह घरेलू हिंसा या दहेज निरोधक कानून की जरूरत क्या है? हमारे पास आंकड़े नहीं है पर आसपास की घटनाओं का कुल नतीज़ा यही है कि जिन लड़कियों ने इस कानून की आड़ ली उन्होंने न केवल अपनी बल्कि अपने ही परिवार वालों को भी तकलीफ में डाला बल्कि बाद में उनका जीवन भी कोई अधिक सुखद नहीं रहा। इन कानूनों की आड़ में अपने परिवार पर राज करने का आत्मविश्वास जिंदगी में लड़ने के आत्मविश्वास को समाप्त कर देता है।
आखिरी बात यह कि जब हमने पाश्चात्य सभ्यता का मार्ग चुना है तो पति पत्नी का रिश्ता खत्म करने का कानून बहुत आसान बना देना चाहिए। केवल एक दिन में तलाक की व्यवस्था होना चाहिए। मुख्य बात यह है कि नारी पुरुष का रिश्ता प्राकृतिक कारणों से होता है न कि सामाजिक कारणों से! ऐसे में अगर जिसको अलग होना है एक दिन में हो जाये और दूसरे दिन पति पत्नी अपना नया रिश्ता बनायें। कुछ लोगों को समाज़ की चिंता हो, पर यह बेकार है। अमेरिका में शादियां होती हैं पर सभी के तलाक नहीं होते। भारत में भी यही होगा पर ऐसे अधिनियम अगर खत्म हो जायें तो समाज के अन्य लोग परिवार बचाने के लिये भयमुक्त होकर सक्रिय हो सकते हैं। आधुनिक नारीवादियों को यह बात समझ में नहंी आयेगी क्योंकि वह भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में कही गयी बातों को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते। अगर भारतीय समाज की धारा को स्वायत्त ढंग से बहते देना है तो इन कानूनों पर दोबारा विचार होना चाहिए। सामान्य पारिवारिक विवादों में राज्य और कानून का हस्तक्षेप अनेक तरह की समस्याओं का कारण है या नहीं अब इस पर विचार करना चाहिए। वरना तो आगे ऐसी बहुत सारी घटनायें आ सकती हैं जिनकी कल्पना नारीवादियों के बूते तक का नहीं है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियरhttp://anant-shabd.blogspot.com
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