25 सितंबर 2012

उपभोग से नहीं त्याग से मिलता है हृदय में आनंद-हिन्दी लेख चिंत्तन (upbhog se nahin tyag se milta hai hridya mein anand-hindi lekh chittan)

                           हम जीवन में अधिक से अधिक आनंद प्राप्त करना चाहते है। हम चाहते हैं कि हमारा मन हमेशा ही आनंद के रस में सराबोर रहे।  हम जीवन में हर रस का पूरा स्वाद चखना चाहते हैं पर हमेशा यह मलाल रहता है कि वह नहीं मिल पा रहा है।  इसका मुख्य कारण यह है कि हम यह जानते नहीं है कि आनंद क्या है? हम आनंद को बाह्य रूप से प्रकट देखना चाहते हैं जबकि वह इंद्रियों से अनुभव की जाने वाली किया है।  आनंद हाथ में पकड़े जाने वाली चीज नहीं है पर किसी चीज को हाथ में पकड़ने से आनंद की अनुभूति की जा सकती है।  आनंद बाहर दिखने वाला कोई दृश्यरूप नहीं है पर किसी दृश्य को देखकर अनुभव किया जा सकता है।  यह अनुभूति अपने मन में लिप्तता का   भाव त्यागकर की जा सकती है।  जब हम किसी वस्तु, विषय या व्यक्ति में मन का भाव लिप्त करते हैं तो वह पीड़ादायक होता है।  इसलिये निर्लिप्त भाव रखना चाहिए।
               कहने का अभिप्राय यह है कि आंनद अनुभव की जाने वाली क्रिया है। जब तक हम यह नहीं समझेंगे तब तक जीवन भर इस संसार के विषयों के  पीछे भागते रहेंगे पर हृदय आनंद  कभी नहीं मिलेगा।  संसार के पदार्थ भोगने के लिये हैं पर उनमें हृदय लगाना अंततः आंनदरहित तो कभी भारी कष्टकारक  होता है। हमें ठंडा पानी पीने के लिये,फ्रिज, हवा के लिये कूलर या वातानुकूलन यंत्र, कहीं अन्यत्र जाने के लिये वाहन और मनोरंजन के लिये दूसरे मनुष्य के द्वंद्व दृश्यों की आवश्यकता पड़ती है। यह उपभोग है।  उपभोग कभी आनंद नहीं दे सकता।  क्षणिक सुविधा आनंद की पर्याय नहीं बन सकती।  उल्टे भौतिक सुख साधनों के खराब या नष्ट होने पर तकलीफ पहुंचती है।  इतना ही नहीं जब तक वह ठीक हैं तब तक उनके खराब होने का भय भी होता है।  जहां भय है वहां आनंद कहां मिल सकता है।
जहां जहां दिल लगाया
वहां से ही तकलीफों का पैगाम आया,
जिनसे मिलने पर रोज खुश हुए
उन दोस्तों के बिछड़ने का दर्द भी आया।
कहें दीपक बापू
अपने दिल को हम
रंगते हैं अब अपने ही रंग से
इस रंग बदलती दुनियां में
जिस रंग को चाहा
अगले पल ही उसे बदलता पाया।
जब से नज़रे जमाई हैं
अपनी ही अदाओं पर
कोई दूसरा हमारे दिल को बहला नहीं पाया।
            हमें कोई  बाहरी वस्तु आनंद नहीं दे सकती।  परमात्मा ने हमें यह देह इस संसार में चमत्कार देखने के लिये नहीं वरन् पैदा करने के लिये दी है। कहा जाता है ‘‘अपनी घोल तो नशा होय’।  हमें अपने हाथों से काम करने पर ही आनंद मिल सकता है। वह भी तब जब परमार्थ करने के लिये तत्पर हों। अपने हाथ से अपने मुंह में रोटी डालने में कोई आनंद नहीं मिलता है। जब हम अपने हाथ से दूसरे को खाना खिलायें और उसके चेहरे पर जो संतोष के भाव आयें तब जो अनुभूति हो वही  आनंद है! आदमी छोटा हो या बड़ा परेशानी आने पर कहता है कि यह संसार दुःखमय है।  यह इस संसार में प्रतिदिन स्वार्थ पूर्ति के लिये होने वाले युद्धों में परास्त योद्धाओं का कथन भर होता है। जब आदमी का मन संसार के पदार्थों से हटकर कहीं दूसरी जगह जाना चाहता है तब उसे एक खालीपन की अनुभूति होती है।  जिनके पास संसार के सारे पदार्थ नहीं है वह संघर्ष करते हुए फिर भी थोड़ा बहुत आनंद उठा लेते हैं पर जिनके पास सब है वह थके लगते हैं।  किसी वस्तु का न होना दुख लगता है पर होने पर सुख कहां मिलता है? एक वस्तु मिल गयी तो फिर दूसरी वस्तु को पाने का मन में  मोह पैदा होता है।
              एकांत में आनंद नहीं मिलता तो भीड़ का शोर भी बोर कर देता हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आंनद मिले कैसे?
               इसके लिये यह  हमें अध्यात्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।  एकांत में ध्यान करते हुए अपने शरीर के अंगों  और मन पर दृष्टिपात करना चाहिए।  धीरे धीरे शून्य में जाकर मस्तिष्क को स्थिर करने पर पता चलता है कि हम वाकई आनंद में है।  इसी शून्य की स्थिति आंनद का चरम प्रदान करती है। आनंद भोग में नहीं त्याग में है। जब हम अपना मन और मस्तिष्क शून्य में ले जाते हैं तो सांसरिक विषयों में प्रति भाव का त्याग हो जाता हैं यही त्याग आनंद दे सकता है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior




13 सितंबर 2012

हिन्दी दिवस पर लेख-हिन्दी लेखन में चांटाकार और चाटुकारों का वर्चस्व,hindi diwas par lekh-hindi lekhan mein chantakar aur chutakar ka varchasva)

         14 सितम्बर को हिन्दी दिवस है पर  इसके लिये मनाने वालों को तैयारी करने के लिये विषय सामग्री चाहिये इसलिये उनकी इंटरनेट पर उनकी  सक्रियता 11 से 13 सितम्बर तक बढ़ जाती है। इस ब्लॉग ने पहले के वर्षों में अनेक रचनायें हिन्दी दिवस पर लिखी  इसलिये सर्च इंजिनों से उन पर पाठक आते हैे।  13 सितम्बर को करीब करीब सारे ब्लॉग जमकर पाठक जुटाते हैं।  इस बार चार  ब्लॉग राजलेख की हिन्दी पत्रिका,  दीपक बापू कहिन, हिन्दी पत्रिका तथा अभिव्यक्ति पत्रिका ने जमकर पाठक जुटायें हैं। यह चारों शाइनी स्टेटस के साहित्य वर्ग में अंग्रेजी ब्लॉगों को पछाड़कर क्रमशः एक, तीन, छह जैसे  ऊंचे पायदान पर पहुंच गये हैं।  इस लेखक के ब्लॉग अपने जन्मकाल के बाद 13 सितम्बर 2012 को सर्वोच्च स्तर पर हैं।  इन चारों ब्लॉग के अलावा अन्य 16 ब्लॉग भी अपने पुराने कीर्तिमानों से आगे निकले हैं पर यह चारों ब्लॉग उल्लेखनीय हैं।  तीन ब्लॉग तीन हजार तथा दो ब्लॉग दो हजार के पास जाते दिखते रहे हैं।  इस लेखक के बीस ब्लॉगों पर यह संख्या बीस हजार पार सकती है।
      हम जैसे लेखक के लिये यह स्थिति अब आत्ममुग्धता नहीं लाती।  बल्कि कभी नहीं लाती। आज जो लिखा कल उससे बेहतर लिखने का प्रयास होता है।  पिछले लिखा लेखक उसे दिखातें फिरे यह शुद्ध लेखक का स्वभाव नहीं होता। फिर अनुभव के साथ लिखने के लिये विषय, शैली तथा प्रस्तुति के आयाम बदलते हैं।  इतने सारे पाठकों को देखकर अपने मन में निराशा उत्पन्न होती है कि अपनी ही  रचनायें बेदम नजर आ रही है।  ऐसा लगता नहीं है कि हमारी रचनायें पाठकों को प्रभावित कर सकीं। जब लिखा तब पता नहीं था कि अंतर्जाल पर हिन्दी दिवस के अवसर पर इतने सारे पाठक हमारे ब्लॉग पर आयेंगे।  एक शौकिया लेखक होने के नाते व्यवसायिक कौशल न तो जानते है न ही यह प्रयास रहता है कि कोई सम्मान आदि मिले।
     हमारा मानना है कि अंतर्जाल पर हिन्दी दिवस के अवसर पर इससे ज्यादा बेहतर लिखा जा सकता था।  मुश्किल यह है कि जिन लोगों को अंतर्जाल से आर्थिक लाभ है उनके पास प्रबंधन नहीं है।  यह अकुशल प्रबंधन अर्थशास्त्र की दृष्टि से हमारे देश की बहुत बड़ी समस्या है और हिन्दी लेखन इससे अछूता नहीं है। हमारे देश में कमाने वाले बहुत लोग हैं पर व्यवसायिक प्रवत्तियों का उनमें अभाव है जो कि अकुशल प्रबंधन की समस्या  बने रहने का कारण है।  हिन्दी लेखन में  स्वतंत्रता पूर्वक लिखना एकाकी यात्रा का कारण बनता है हालांकि उच्च कोटि की रचनायें ऐसे ही वातावरण में उत्पन्न  होती हैं।  हिन्दी प्रकाशन संस्थायें, प्रतिष्ठान और समितियां सरकारी पैसे के अनुदान की अपेक्षा करती हैं पर जहां देने की बात आती है वहां चाटुकार लेखक उनके लिये प्रिय होते हैं।  जहां चाटुकारिता है वहां रचनायें व्यक्ति से प्रतिबद्ध हो जाती हैं उस समय लेखक के दृष्टिपथ से आम पाठक गायब हो जाता है।  कुल मिलाकर हिन्दी लेखन जगत चांटाकार और चाटुकार जमात का बंधुआ हो गया है।  चांटाकार से सीधा आशय यह है कि जिसके पास पैसे, पद और प्रतिष्ठा का शिखर है वह किसी को भी लेखक को अपना चाटुकार बनाकर उसे सम्मनित करता है और जो उपेक्षा करे उसे अपमान या उपेक्षा का चांटा मारता है।  समस्या दूसरी यह है कि शुद्ध हिन्दी लेखक अध्यात्मिक रूप से परिपक्व होता है और वह किसी भी शिखर पुरुष का चाटुकार बनने की बजाय उस देव को पूजता है जो सबका दाता है।
       अक्सर लोग इस लेखक से सवाल पूछते हैं कि ‘तुम क्यों लिखते हो? इसका तुम्हें पैसा नहीं मिलता तो क्यों हाथ घिसते हो?
        इसके उत्तर में हम श्रीमद्भागवत गीता का  यह संदेश बताते हैं कि हमारा स्वभाव इसमें हमें लगाये रहता है। हम यह भी कहते हैं कि ‘‘शराब पीने से क्या मिलता है? सिगरेट का धुंआ उड़ाने से क्या मिलता है।  हम व्यसन नहीं पालते इसलिये कुछ न कुछ तो करना ही है। लिखने से बढ़िया और कौनसा ऐसा फालतु काम है जिसमें न पैसा खर्च हो न देह बीमार हो।’’
           इस हिन्दी दिवस पर अनेक बातें मन में आयीं पर उनको लिखने का अवसर तथा समय नहीं मिला।  इसका अफसोस है।  कमबख्त एक बात हमारे दिमाग में आती जाती है कि आखिर हिन्दी का क्या महत्व है इसे कैसे समझायें।  अनेक टिप्पणीकारों ने ‘‘समाज को हिन्दी का महत्व समझना चाहिये’’ इस शीर्षक में लिखी गयी विषय सामग्री से अंसतुष्ट हैं।  वह कहते हैं कि आपने महत्व तो बताया ही नहीं।  एक हास्य कविता पर एक टिप्पणीकार तो लिख गया कि यह बोरियत भरी है।  इन सब पर हमारा आश्वासन है कि अवसर मिला तो अगले हिन्दी दिवस पर कुछ अच्छा लिख कर बतायेंगे।  इधर कंप्यूटर कर रखरखाव और इंटरनेट का खर्च अब असहनीय होता जा रहा है। ऐसे में यह संकट हमारे सामने हैं कि कैसे एक ब्लॉग लेखक के रूप में अपना असितत्व बचायें।  लोग कहते है कि लेपटॉप खरीद लो।  अब इतनी बड़ी रकम इस पुराने शौक पर खर्च कर नहीं सकते।  एक बात तय रही कि अगर हमने ब्लॉग लिखना बंद किया तो सब डीलिट कर देंगे। हम अपना पैसा और श्रम खर्च कर इंटरनेट कंपनियों के ग्राहकों को अपनी मुफ्त सामग्री दे रहे हैं। यह सब टीवी पर विज्ञापनों और कार्यक्रमों पर इतना खर्च कर सकती हैं पर उन हिन्दी लेखकों के लिये उनके पास कुछ नहीं है जो अंततः उनके ग्राहकों को पठनीय सामग्री प्रदान करते हैं।
   फिलहाल हमारी लेखन जारी रखने की योजना है।  अपने प्रायोजक स्वयं हैं।  आगे प्रयास करेंगे कि बेहतर रचनायें हों।  इस हिन्दी दिवस पर समस्त पाठकों को बधाई।  कम से कम उन्होंने आज यह साबित कर दी है कि उनके अंदर भी अपनी मातृभाषा के लिये उमंग हैं यह अलग बात है कि उनके दिल की बात कोई समझा नहीं।  हम जैसे लेखक के लिये एक दिन में बीस हजार से अधिक पाठक कम नहीं होते।  बड़ी बड़ी वेबसाईटें इस आंकड़े को तरसती होंगी। यह अलग बात है कि प्रायोजित वेबसाईटें किसी न किसी तरह से अपने लिये पाठक जुटा लेती हैं पर उनके लिये भी यह आंकड़ा कोई आसान नहीं रहता होगा।  हिन्दी के पाठकों ने हिन्दी दिवस के अवसर पर हमें उनके समकक्ष खड़ा कर दिया यह हमारी नहीं हिन्दी भाषा की ताकत है।  एक दृष्टा होने के नाते हमें यह खेल देखने में भी मजा आता है। यह संदेश भी नोट कर लें कि हिन्दी का महत्व इसलिये है क्योकि इसमें लिखने में मजा आता है। जय श्रीराम जय श्रीकृष्ण।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh

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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior




2 सितंबर 2012

भीड़ में दर्द सुनाना-हिंदी कविता

भीड़ में जाकर
अपना दर्द कहना
अब  हमें नहीं सुहाता है,
अपने गमों से हारे
चीखते चिल्लाते लोग
कानों से सुनते नहीं
अपनी जुबां से
उनको अपना हाल  बयान करना ही  आता है।
कहें दीपक बापू
सर्वशक्तिमान का शुक्रिया
अपने दर्द और खुशी पर
कविता या गीत लिखने की कला दी है
दिल हर नजारे पर
यूं ही कुछ लफ्ज गुनागुनाता है।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeepk"
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior




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