हम जीवन में अधिक से अधिक आनंद प्राप्त करना चाहते है। हम चाहते हैं कि हमारा मन हमेशा ही आनंद के रस में सराबोर रहे। हम जीवन में हर रस का पूरा स्वाद चखना चाहते हैं पर हमेशा यह मलाल रहता है कि वह नहीं मिल पा रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि हम यह जानते नहीं है कि आनंद क्या है? हम आनंद को बाह्य रूप से प्रकट देखना चाहते हैं जबकि वह इंद्रियों से अनुभव की जाने वाली किया है। आनंद हाथ में पकड़े जाने वाली चीज नहीं है पर किसी चीज को हाथ में पकड़ने से आनंद की अनुभूति की जा सकती है। आनंद बाहर दिखने वाला कोई दृश्यरूप नहीं है पर किसी दृश्य को देखकर अनुभव किया जा सकता है। यह अनुभूति अपने मन में लिप्तता का भाव त्यागकर की जा सकती है। जब हम किसी वस्तु, विषय या व्यक्ति में मन का भाव लिप्त करते हैं तो वह पीड़ादायक होता है। इसलिये निर्लिप्त भाव रखना चाहिए।
कहने का अभिप्राय यह है कि आंनद अनुभव की जाने वाली क्रिया है। जब तक हम यह नहीं समझेंगे तब तक जीवन भर इस संसार के विषयों के पीछे भागते रहेंगे पर हृदय आनंद कभी नहीं मिलेगा। संसार के पदार्थ भोगने के लिये हैं पर उनमें हृदय लगाना अंततः आंनदरहित तो कभी भारी कष्टकारक होता है। हमें ठंडा पानी पीने के लिये,फ्रिज, हवा के लिये कूलर या वातानुकूलन यंत्र, कहीं अन्यत्र जाने के लिये वाहन और मनोरंजन के लिये दूसरे मनुष्य के द्वंद्व दृश्यों की आवश्यकता पड़ती है। यह उपभोग है। उपभोग कभी आनंद नहीं दे सकता। क्षणिक सुविधा आनंद की पर्याय नहीं बन सकती। उल्टे भौतिक सुख साधनों के खराब या नष्ट होने पर तकलीफ पहुंचती है। इतना ही नहीं जब तक वह ठीक हैं तब तक उनके खराब होने का भय भी होता है। जहां भय है वहां आनंद कहां मिल सकता है।
जहां जहां दिल लगाया
वहां से ही तकलीफों का पैगाम आया,
जिनसे मिलने पर रोज खुश हुए
उन दोस्तों के बिछड़ने का दर्द भी आया।
कहें दीपक बापू
अपने दिल को हम
रंगते हैं अब अपने ही रंग से
इस रंग बदलती दुनियां में
जिस रंग को चाहा
अगले पल ही उसे बदलता पाया।
जब से नज़रे जमाई हैं
अपनी ही अदाओं पर
कोई दूसरा हमारे दिल को बहला नहीं पाया।
वहां से ही तकलीफों का पैगाम आया,
जिनसे मिलने पर रोज खुश हुए
उन दोस्तों के बिछड़ने का दर्द भी आया।
कहें दीपक बापू
अपने दिल को हम
रंगते हैं अब अपने ही रंग से
इस रंग बदलती दुनियां में
जिस रंग को चाहा
अगले पल ही उसे बदलता पाया।
जब से नज़रे जमाई हैं
अपनी ही अदाओं पर
कोई दूसरा हमारे दिल को बहला नहीं पाया।
हमें कोई बाहरी वस्तु आनंद नहीं दे सकती। परमात्मा ने हमें यह देह इस संसार में चमत्कार देखने के लिये नहीं वरन् पैदा करने के लिये दी है। कहा जाता है ‘‘अपनी घोल तो नशा होय’। हमें अपने हाथों से काम करने पर ही आनंद मिल सकता है। वह भी तब जब परमार्थ करने के लिये तत्पर हों। अपने हाथ से अपने मुंह में रोटी डालने में कोई आनंद नहीं मिलता है। जब हम अपने हाथ से दूसरे को खाना खिलायें और उसके चेहरे पर जो संतोष के भाव आयें तब जो अनुभूति हो वही आनंद है! आदमी छोटा हो या बड़ा परेशानी आने पर कहता है कि यह संसार दुःखमय है। यह इस संसार में प्रतिदिन स्वार्थ पूर्ति के लिये होने वाले युद्धों में परास्त योद्धाओं का कथन भर होता है। जब आदमी का मन संसार के पदार्थों से हटकर कहीं दूसरी जगह जाना चाहता है तब उसे एक खालीपन की अनुभूति होती है। जिनके पास संसार के सारे पदार्थ नहीं है वह संघर्ष करते हुए फिर भी थोड़ा बहुत आनंद उठा लेते हैं पर जिनके पास सब है वह थके लगते हैं। किसी वस्तु का न होना दुख लगता है पर होने पर सुख कहां मिलता है? एक वस्तु मिल गयी तो फिर दूसरी वस्तु को पाने का मन में मोह पैदा होता है।
एकांत में आनंद नहीं मिलता तो भीड़ का शोर भी बोर कर देता हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आंनद मिले कैसे?
इसके लिये यह हमें अध्यात्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। एकांत में ध्यान करते हुए अपने शरीर के अंगों और मन पर दृष्टिपात करना चाहिए। धीरे धीरे शून्य में जाकर मस्तिष्क को स्थिर करने पर पता चलता है कि हम वाकई आनंद में है। इसी शून्य की स्थिति आंनद का चरम प्रदान करती है। आनंद भोग में नहीं त्याग में है। जब हम अपना मन और मस्तिष्क शून्य में ले जाते हैं तो सांसरिक विषयों में प्रति भाव का त्याग हो जाता हैं यही त्याग आनंद दे सकता है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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