31 जनवरी 2014

सनसनी पर बहस-हिन्दी व्यंग्य कविता(sasano par bahas-hindi vyangya kavaita)




आम इंसानों के हालत कभी हमें बदलते नहीं दिखते,
भलाई के सौदागर तख्त पर बैठ जाते नये वादे लिखते।
कहें दीपक बापू नया चेहरा पर्दे पर ताजगी ले आता है,
अदायें होती पुरानी वह जल्दी स्वाद में बासी हो जाता है।
गरीब को अमीर बनाने की रोज बनती यहां  नयी योजना,
फिर भी सड़क पर कचड़े में भूखों को रोटी पड़ती है खोजना।
इतिहास पर लिखे गये ढेरों कागज की स्याही में नहाये हैं,
मेहनतकशों के पसीने से बने सोने सफेदपोश लुटेरों ने पाये हैं।
बैखौफ हैं बहशी इंसान पहरेदारों से कर ली यारी,
कसूरवारों चुका रहे हफ्ता नहीं आती फंसने की बारी।
खबरचियों को सनसनी पर बहस में चाहिये रोज मसाला,
ज़माने की भलाई के दावे कमाई के आगे नहीं टिकते।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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25 जनवरी 2014

तमाशों की पर्दे पर खबर-हिन्दी व्यंग्य कविता(tamashon ki parde par khabar-hindi vyangy kavita)



गरीब की लाचारी उधार लेकर वह
भीड़ में अपने चेहरे चमकाते हुए दिखायें,
बेबसी को दूर करने के नुस्खे उनके पासं
ओहदे की चाहत में चेलों को झंडा पकड़ना सिखायें।
कहें दीपक बापू समाज सेवा के व्यापारी बने फरिश्ते,
दाम का मेवा मिलता उनको जोड़कर चंदे से रिश्ते,
ईमानदारी बाज़ार में  महंगे भाव ही बिकती है,
कीमती तिजोरी में सोने की तरह बंद दिखती है,
शब्दों के जादूगर दे रहे काले महलों पर पहरा,
सच सामने पर जांच हो रही मानकर राज गहरा,
मुर्गी पहले हुई या अंडा इस पर बहस जारी ह,
ढूंढ रहे नये नये शब्द गोया भाषा का असर भारी है,
रोज रोज नये तमाशे पर्दे पर खबर बनकर आते हैं
कितने भूले कितने याद रहे कैसे हम गिनायें
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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18 जनवरी 2014

पर्दे पर चल रहे दृश्यों में-हिंदी कविता(parde par chal rahe drishya-hindi kavita)



पर्दे पर चल रहे दृश्यों में
सजे सजाये कमरों को देखकर
आंखें फटी रह जाती हैं,
हैरानी इस बात की
वहां भी अमीरों को
बेचैनी घेरे रहती
नींद उन्हें क्यों सताती है।
कहें दीपक बापू
अक्सर हम सोचते हैं
महलों में क्यों घुस जाते रोग,
नहीं कर पाते धन कमाने वाले सामानों का भोग,
जिनके आशियानों में छेद है
हंसते हुए करते निराशा का सामना,
नहीं करते दुश्मन के लिये भी बुरी कामना,
जिनके पास ज़माने भर का सामान है
रोज अपनी ख्वाहिशों को पूरा करते,
कभी काम करते हुए नहीं थकते,
फिर भी कुछ खो जाने की चिंता
उनके रोज सताती है,
जिन जगहों पर रहकर
जिंदगी के स्वर्ग भोगने का देखते सपना
वहां रहने वालों के लिये वह
नरक क्यों बन जाती है।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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10 जनवरी 2014

राजनीति का सबक कविवर रहीम से सीखा जा सकता है-हिन्दी अध्यात्मिक चिंत्तन(rajniti ka sabak kavivar rahim se seekha ja sakta hai-hindi adhyatmik chinttan,lesson of politics from rami darshan,hindi thought article))



      वर्ष 2014 के लोकसभा के आमचुनाव निकट आ रहे हैं। अगर हम भारतीय इतिहास पर दृष्टिपात करें तो पायेंगे कि भारत में शासन करने को लेकर अनेक संघर्ष हो चुके हैं, जिनमें भारी खूनखराबा हुआ। कोई राजा जीता तो कोई हारा पर हारने वाले राज्य की प्रजा का बुरा हाल ही होता रहा। अब लोकतंत्र के आधार पर चुनाव प्रणाली है जिसमें आमजन अपना प्रतिनिधि चुनते हैं जो राज्यकर्म का निरीक्षण ही कर सकता है, उसके पास न तो प्रत्यक्ष कर्म करने का दायित्व होता है न ही दंड देने का अधिकार उसे मिलता है।  अलबत्ता चुनाव आने पर मतदाताओं को प्रभावित करने के लिये तमाम तरह के स्वांग रचे जाते है।  एकबार चुने जाने पर अधिकतर जनप्रतिनिधि अपने मतदाओं  से विमुख हो जाते हैं। बहुत कम ऐसे होते हैं जो चुनाव के बाद भी जनता से संपर्क बनाये रखते हैं।  यही कारण है कि हमारे देश में लोकतंत्र होने के बावजूद लोगों का अपने मतदान करने के प्रति रुचि का अभाव देखा जाता है। यह अलग बात है कि चुनाव आने पर तमाम तरह की नाटकीयता के प्रभाव में आकर कुछ लोग मतदान अवश्य करते हैं पर वह भी उन लोगों कोग अपना प्रतिनिधि चुनते हैं जो प्रचार माध्यमों में प्रचारित हो या वह स्वयं ही घर घर जाकर अपनी जानकारी दे।  इस तरह की क्रिया पर चुनाव लड़ने वाले का पैसा खर्च आता है जिसके लिये उसे थैलीशाहों पर ही निर्भर होना पड़ता है।  चुनाव बाद यही थैलीशाह जनप्रतिनिधियों पर अपना प्रभाव जमाकर खर्च धन से कई गुना वसूल करते हैं।  यही कारण है कि हमारे देश के अनेक बुद्धिमान लोग लोकतंत्र का उपहास उड़ाते हैं हालांकि वह भी इस तरह की व्यवस्था के विकल्प पर अपनी कोई राय नहीं दे पाते।
कविवर रहीम कहते हैं कि
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रहिमन राज सराहिए, ससि सम सुखद जो होय।
कहा बायुरी भानु है, तप तरैयन खोय।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-उसी राज्य की सराहना करना चाहिये जहां सभी प्रकार के लोगों का हित हो। जहां कर्मठ व्यक्ति को चमकने का अवसर मिले तथा समाज तनाव मुक्त बना रहे।
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहां काम आवै, सुई, कहा करै तलवारि।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-बड़े लोगों की उपस्थिति मं छोटे लोगों का महत्व कम नहीं करना चाहिए। जहां सुई काम आ सकती है वह तलवार काम नहीं कर पाते, यह कभी नहीं भूलना चाहिए।
      चूंकि जनप्रतिनिधि पद पर आने के बाद आमजन की परवाह नहीं करते इसकी वजह से उन्हें फिर चुनाव में पराजय भी झेलनी पड़ती है। यह अलग बात है कि जनता की याद्दाश्त कमजोर होने का लाभ उन्हें एक बार हारने के बाद फिर जीत के रूप में मिलता है। इस तरह यह क्रम चलता है और देश की खराब हालात बुद्धिमानों की चिंता का विषय बने रहते हैं।
      आजकल देश के राजनीतिक परिदृश्य में एक ऐसे दल का उदय हुआ है जिसके लोग एक प्रदेश विधानसभा चुनाव में सफलता के  बाद भी जनता के प्रति चिंता का भाव दिखाते हुए प्रचार कर रहे हैं। उनका मुख्य लक्ष्य 2014 के लोकसभा चुनाव में विजय प्राप्त कर संपूर्ण देश में शासन की जिम्मेदारी प्राप्त करना है। कुछ विद्वान लोगों को उनके प्रयास नाटकबाजी लगती है तो कुछ उन्हें नये राजनीतिक स्वरूप का संवाहक मान रहे हैं।  अभी उनके विधानसभा चुनाव जीते एक महीना भी नहीं हुआ है और लोकसभा चुनाव निकट हों।  इसलिये यह कहना कठिन है कि यह नाटकबाजी है या उस दल के लोग अथक प्रयास आगे भी जारी रखेंगे। इसका पता तो लोकसभा चुनाव के कम से कम दो महीने बाद ही चल सकेगा।  एक बात तय है कि जिन लोगो को राज्य करना है उन्हें सभी वर्गों के लोगों के प्रति समभाव रखते हुए प्रजाहित के काम करने चाहिए वरना समाज में जो विद्रोही भाव हैं उसे लंबे समय तक धोखे में नहीं रखना चाहिए।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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5 जनवरी 2014

चाणक्य नीति-पंच तत्वों की श्रेष्ठता से राष्ट्र की स्थिरता संभव(chankya neeti-panch tatvaon ki shreshthta se rashtra ki sthirta sambhav)



            हमारे देश में आधुनिक व्यवस्था करीब करीब ऐसी चरमर्राई अवस्था में है न तो हम अपनी स्थिति को खुशहाल कह सकते हैं न दर्दनाक होने का रोना रो सकते हैं। देश में पाश्चात्य संस्कृति के घालमेल, असमंजस्यपूर्ण शिक्षा पद्धति तथा कथित अव्यवस्थित विकास ने पूरे समाज को अस्त व्यस्त कर दिया है। शहरों में आलीशान मकान बन गये हैं पर सड़कें जर्जर हैं।  जनसंख्या बढ़ी है पर रास्ते पर जाम कारों की वजह से लगता है।  सबसे बड़ी बात यह है कि रोजगार क्षेत्र में अनिश्चितता और अस्थिरता के वातावरण ने लोगों को मानसिक रूप से तनावग्रस्त कर दिया है।  स्थिति यह है कि विभिन्न विद्वानों के भाषणों, कवियों की कविताओं और फिल्मों के कथानकों में धनवानों को क्रूर बताया जाता है पर अंततः सक्रिय लोग इन्हीं के दरबार में मत्था टेकते हैं।
            हमारे देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था के सिद्धांत अपनाये गये हैं। उसमें करप्रणाली इस तरह रही कि अमीरों से अधिक कर वसूला जा सके।  इसका प्रभाव यह हुआ कि छोटे तथा मध्यम वर्ग धनिक कभी अधिक धन नहीं बन सके पर जो अधिक धन हैं वह अपनी शक्ति के बल पर करचोरी कर अपना स्तर बनाये रखने में सफल रहे। स्थिति यह है कि देश में गरीब और अमीर के बीच खाई अधिक चौड़ी हो गयी है। देश की सामाजिक, आर्थिक, कला, पत्रकारिता, खेल तथा सभी सार्वजनिक संस्थाओं पर धनिक लोगों ने अपने शिखर पुरुष स्थापित कर दिये हैं। जहां भ्रष्टाचार और व्याभिचार की घटनायें होना आम हो गया है।  एक तरह से धनिक लोग अब  केवल व्यापारी नहीं रहे वरन् राज्य से अधिक शक्तिशाली दिखते हैं।  ऐसे में गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों में निराशाजनक का भाव व्याप्त हो गया है।
            देश की प्राकृतिक संपदा का दोहन अमीरों के पक्ष में हो रहा है। गंगा और यमुना जैसी नदियां कारखानों के साथ ही शहरों की गंदगी का बोझ ढोते ढोते अशुद्ध हो गयी हैं। इतना ही नहीं अनेक शीतल पेय उत्पाद कारखानों ने तो जमीन के जल को भी सोखने के साथ ही विषाक्त भी कर दियया है।  जिनसे बीमारियां फैलती है।  उसके बाद चिकित्सा यह हाल है कि गरीब आदमी के लिये राजकीय चिकित्सालयों में वैसी सुविधायें नहीं है जैसी कि अमीरों के निजी चिकित्सालयों में है। चिकित्सक अब भगवान नहीं व्यवसायी हो गये हैं।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसं वसेत्।।
            हिन्दी में भावार्थ- धनवान, विद्वान, राजा, नदी और वैद्य यह पांच लोग अपने क्षेत्र को प्रसन्न रखते हैं।  जहां यह विद्यमान न हो वहां एक दिन भी नहीं रुकना चाहिये।
लोकयात्रा भयं लज्जा दक्षिण्यं त्यागशीलता।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात् तत्र सिंस्थतिम्।।
            हिन्दी में भावार्थ-जहां भौतिक उपलब्धियां, भय, लज्जा, दान तथा त्याग का भाव न हो वहां रहने का प्रयास नहीं करना चाहिये।
            सबसे हैरानी इस बात की है कि समाज कल्याण का विषय राजकीय बना दिया गया है।  राजसी मद में डूबे आर्थिक शिखर पुरुषों ने समाज की स्थितियों  से एकदम मुंह मोड़ लिया है।  दान दक्षिणा जैसी बातें अब केवल कर्मकांड तक ही सीमित रह गये हैं।  ऐसा नहीं है कि निष्काम दया करने वाले इस देश में कम हैं पर जनसंख्या जिस अनुपता में बड़ी है उस अनुपात में दानदाता नहीं बढ़े। इसका कारण यह है कि राज्य जब समाज कल्याण करता दिखता है तो सात्विक धनिक लोग भी यह मानकर मुंह फेर लेते हैं कि सब ठीक चल रहा है।  इधर अपराध इतनी तेजी बढ़े हैं कि लगता है कि जिनके पास धन, बल, और पद है उनके लिये एक कानून और आम इंसान के लिये दूसरे हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि हम देश की छवि को उज्जवल रखने वाले तत्वों पर विचार करें तो निराशा हाथ लगती है।  इसके लिये राजसी कर्म में लगे लोगों को इस बात पर विचार करना चाहिये कि देश की व्यवस्था को किस तरह आदर्श मार्ग पर ले जाया जाये।

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