30 अगस्त 2009

लहरों की अठखेलियां और तूफान-हिंदी कविता (lahren aur toofan-hindi kavita)

अक्ल रख दी गिरवी
ख्वाब दिखाने वालों के पास
नयी सोच से घबड़ाते है
करते अवतार की आस
ऐसे लोग क्या इशारा समझेंगे।
किनारे पर ही खड़े
जो लहरों की अठखेलियां देख डर रहे हैं
वह मझधार में उनके तूफान से क्या लड़ेंगे।
.............................
मन तो चंचल है
उसे स्वयं ही बहलाओ
नहीं तो कोई दूसरा उसे
बहकाकर ले जायेगा
तुम भी बंधे चले जाओगे।
फिर तरसोगे आजादी के लिये
जिसे केवल सपने में ही देख पाओगे।
............................

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25 अगस्त 2009

चिंतन चितेरा-आलेख (chintan chitera-hindi lekh)

स्थापित प्रचार माध्यमों, लेखक, विद्वान और बुद्धिजीवियो का तिलिस्म टूटने लगा है। अंतर्जाल पर अनेक बार हिंदी और अंग्रेजी में पाठ पढ़कर ऐसा लगता है कि पिछले एक सदी से इस देश में भ्रम को सच कहकर बेचा गया है। यह प्रचार माध्यम, लेखक, विद्वान और बुद्धिजीवी-इनको हम संगठित प्रचारक भी कह सकते हैं- एक तरफ पश्चिमी विकास की तरफ देखते हुए भविष्य के विकास का सपना देखने के लिये प्रेरित करते हैं या फिर अतीत के कुछ चुने हुए मुद्दो पर ही अपनी राय रखते हैं-क्योंकि उनको अपनी संकीर्ण मानसिकता तथा संक्षिप्त बौद्धिक क्षमता के कारण अधिक मुद्दे चयन करने में असुविधा होती है। कभी कभी प्रचार पाने के लिये वह विवादास्पद मुद्दों को ही सामने लाते हैं।
अब यह कहना मुश्किल है कि यह योजनाबद्ध प्रयास है या अनजाने में प्रचार पाने का स्वभाविक मोह जिससे देश के मुख्य मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाया जाता है या उनको यह आम आदमी के लिये संदेश है कि उसकी समस्यायें कोई महत्व नहीं रखती। इधर अंतर्जाल पर जहां कुछ लेखक लीक से हटकर लिखते हुए दिख रहे हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो इन्हीं संगठित प्रचारकों की छाया बन गये हैं।
एक तरफ आप देखें कि सामान्य भारतीय चैतरफा परेशानियों से घिरा है। पहले तो समस्या यह थी कि जेब में पैसा है पर सामान महंगा है पर अब तो यह भी समस्या है कि वह जेब का पैसा असली है या नकली। देश में नकली मुद्रा का प्रचलन फौजी हमले से अधिक खतरनाक है यह बात आज तक किसने लिखी है। आतंकवाद से लड़ना आसान है पर यह नकली मुद्रा उस देश का अस्तित्व ही खतरे में डाल रही है जिस पर हम गर्व करते हैं। इधर सूखे की मार है। देश में बीमारियों की संख्या कम नहीं है पर जंग लड़ी जा रही है केवल ‘स्वाइन फ्लू के खिलाफ!
अंतर्जाल पर कई बार अनेक पाठ संवेदनशील और वैचारिक पाठ पढ़कर मन चिंतन करने को तैयार हो जाता है पर वर्तमान सच्चाईयां बहुत जल्दी सामने खड़ा होकर बेबस करती हैं। लिखने वाले मित्रों के पाठ कभी कभी प्रभावित करते हैं पर बहुत जल्दी उनका प्रभाव समाप्त होने लगता है। कुछ अंतर्जाल लेखक तो संगठित प्रचाकरों द्वारा सुझाये गये उन विषयों को ढो रहे हैं जिनसे समाज का सीधा कोई सरोकार नहीं है।
आज ही एक खबर पढ़ी कि अनेक देशी आतंकवादी संगठनों के नेता बाहर जाने के लिये आसरा ढूंढ रहे हैं ताकि सुरक्षा भी मिले और वह हफ्ता वसूली का पैसा अन्य व्यवसायों में लगा सकें। कितनी अजीब बात है कि गरीबों और मजदूरों की रक्षा के नाम पर आतंक फैलाने वाले यह संगठन अपने उगाहे पैसे को उन्हीं पूंजीपतियों को सौंपना चाहते हैं जिनसे उन्होंने वसूला है। हैरानी की बात है कि प्रचार माध्यमों में उनके समर्थक लेखक उनके सैद्धांतिक आधार बताते हैं और अब अंतर्जाल पर भी यही होने लगा है।

इस प्रसंग में एक टिप्पणीकर्ता की याद आ रही है। प्रसंग था श्रीलंका में एक उग्रवादी नेता के मारे जाने का था। उस पर इस लेखक ने एक पाठ लिखा था। उस पर एक प्रतिक्रिया आयी कि ‘इस खेल को भारत के लोग समझ नहीं रहे। दरअसल चीन ने श्रीलंका ने को हथियार तथा सैनिक दिये हैं और श्रीलंका में उग्रवादियों के गुटों के सफाये के साथ ही भारत के दुश्मन चीन ने हिन्द महासागर में अपने पांव फैला दिये हैं।’
कुछ संगठित प्रचारकों ने भी यही विचार व्यक्त किया। उस दिन अखबार में पढ़ने को मिला कि श्रीलंका को आधुनिक हथियार ब्रिटेन ने दिये थे और अब उनको वापस मांग रहा है। सच क्या है यह पता नहीं पर ब्रिटेन और चीन एक साथ किसी मोर्च पर काम नहीं कर सकते और दूसरा यह कि चीन का तो केवल हौव्वा है जबकि उसके हथियारों की श्रेष्ठता उसके सामानों की तरह प्रमाणिक नहीं है।
कहने का तात्पर्य यह है कि तयशुदा मुद्दों में चीन भी शामिल है जिसका हौव्वा खड़ा किया जाता है। हम जब केवल अंतर्राष्ट्रीय खतरों की बात करते हैं तब आंतरिक खतरों की बात से मूंह छिपा रहे होते हैं। क्या अपना यह इतिहास भूल गये हैं कि इस देश को आक्रांतों ने कम अपने ही गद्दारों ने अधिक त्रस्त किया। नकली नोट, घी, दूध, तथा खून की बातें केवल समाचार का विषय नहीं है बल्कि उन पर आंतकवाद से अधिक विचार कर उसका मुकाबला करने की आवश्यकता है। देश की समस्याओं पर चाहे जिस धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र के आदमी का समर्थन चाहिए मिल जायेगा पर लगता है कि इसकी किसी को जरूरत नहीं है। सब एक विषय पर समर्थन देंगे तो एक समाज बन जायेंगे जबकि आतंकवाद के आधार पर उसमें विभाजन कर उस पर दैहिक और बौद्धिक रूप से शासन किया जा सकता है-यही प्रवृत्ति संगठित प्रचारकों की नजर आती है।
बड़े लेखक, बुद्धिजीवी और विद्वान देश की एकता, अखंडता और स्वतंत्रता पर वाद और नारों के साथ बोलकर अपनी प्रसिद्धि हासिल कर रहे हैं पर उनका लाभ क्या है कोई नहीं बोलता? नकली मुद्रा उस देश को नष्ट करने जा रही है जिसकी स्वतंत्रता का दावा हम करते हैं और नकली घी, दूध, खून और खाद्य सामग्री इस देश के उन इंसानों के को संक्रमित करती जा रही है जिसको हम गौरवान्वित करना चाहते हैं। फिर यह गौरव और सम्मान का बखन किसलिये?
ऐसे में हिंदी ब्लाग पर ऐसे लेख देखकर तसल्ली होती है कि संगठित प्रचारकों के सतही विषयों से अधिक चिंतन क्षमता उनके लेखकों में है। वह संख्या में कम हैं। उनको पढ़ने वाले कम हैं। उनका नाम कोई नहीं जानता पर इससे क्या? जिनकी संख्या अधिक है, पढ़े भी अधिक जाते है। उनके नाम भी आकाश पर चमक रहे हैं पर उनका लिखा न तो समाज के किसी मतलब का है न ही भविष्य की पीढ़ी के लिये किसी काम का है। यह लेखक भी क्या करे? इधर इतिहास, साहित्य, और अन्य विषयों पर बिना मतलब का लेखन पढ़कर और उधर समाज की सच्चाईयां देखकर जो दूरी दिखाई देती है उसके बीच में जब चिंतन चितेरा फंस जाता है तब यह तय करना कठिन होता है कि हम किस पर लिखें?
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22 अगस्त 2009

जिन्न, भिन्न और खिन्न-हास्य कविताएँ (jinna, bhinna aur khinna-hasya kavitaen)

लिखो कोई किताब
नायक बनाओ कोई जिन्न।
चाहे जो भाषा हो
चाहे जैसे शब्द हों
मतलब से परे हो सारी सामग्री
पर दिखना चाहिए कुछ भिन्न।
किसी के जख्म सहलाना
या दर्दनाक गीत गाना
अब हिट होने का फार्मूला नहीं रहा
जीत लो दुनियां अपने शब्दों से
करके लोगों का मन खिन्न।
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गढ़े हुए मुर्दे जमीन में खाक हो गये
कुछ जलकर राख हो गये
मगर फिर भी उनके नाम की
पट्टिका अपनी किताब पर लगाओ।
जिंदा आदमी पर लिखे शब्दों के लिये
आज का जमाना प्रमाण मांगता है
जिस पर लिखो
वह भी अपनी हांकता है
मरे हुए लोगों के नाम
अपने शब्दों में सजाकर सफल लेखक कहलाओ।
मुर्दे बोलते नहीं हैं
जज्बाती लोग भी उनका चरित्र तोलते नहीं है
इसलिये कोई मुर्दा नायक बनाओ।

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9 अगस्त 2009

मसला भेदभाव का-आलेख (bhedbhav ka masla-hindi article)

जहां तक नस्ल, जाति, भाषा और धर्म के आधार पर भेदभाव का प्रश्न है तो यह एक विश्वव्यापी समस्या है। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि यह एक मानवीय स्वभाव है कि मनुष्य समय पड़ने पर अपनी नस्ल, जाति, भाषा और धर्म से अलग व्यक्ति पर प्रतिकूल टिप्पणी करता है और काम पड़े तो उससे निकलवाता भी है। भारत के बाहर नस्लवाद एक बहुत गंभीर समस्या माना जाता है पर जाति, भाषा और धर्म के आधार पर यहां भेदभाव होता है-इससे इंकार नहीं किया जा सकता। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि किसी भी व्यक्ति के साथ यह भेदभाव सामयिक होता है और इसका शिकार कोई भी हो सकता है। मुश्किल यह है कि इस देश में अग्रेजों ने जो विभाजन के बीज बोये वह अब अधिक फलीभूत हो गये हैं। फिर स्वतंत्रता के बाद भी जाति, धर्म और भाषा के नाम पर विवाद चलाये गये ताकि लोगों का ध्यान उनमें लगा रहे-यह इस लेखक के सोचने का अपना यह तरीका हो सकता है। इसके साथ ही बुद्धिजीवियों का एक वर्ग विकास का पथिक तो दूसरा वर्ग परंपरारक्षक बन गया। दोनों वर्ग कभी गुलामी की मानसिकता से उबर नहीं पाये और जमीन वास्तविकताओं से परे होकर केवल नारे और वाद के सहारे चलते रहे। प्रचार माध्यमों में भी यही बुद्धिजीवी हैं जिनके पास जब कोई काम या खबर नहीं होता तो कुछ खबरें वह फिलर तत्वों से बनाते हैं। फिलर यानि जब कहीं अखबार में खबर न हो तो कोई फोटो या कार्टून छाप दो। इनमें एक जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव का भी है।
अभी एक अभिनेता ने शिकायत की थी कि उसको धर्म के कारण मकान नहीं मिल पा रहा। सच तो वही जाने पर उसकी बात पर शुरु से ही हंसी आयी। यकीन नहीं था कि ऐसा हो सकता है-इसके बहुत सारे तर्क हैं पर उनकी चर्चा करना व्यर्थ है।
आज से 22 वर्ष पूर्व जब हम अपना मकान छोड़कर किराये के मकान में गये तो यह सोचकर परेशान थे कि समय कैसे निकलेगा? बहरहाल दो साल उस किराये के मकान में गुजारे। फिर एक दिन मकान मालिक से एक रात झगड़ा हुआ। हमने घोषणा कर दी कि परसों शाम तक मकान खाली कर देंगे।
हमने यह घोषणा की थी झगड़ा टालने के लिये पर मकान मालिक ने कहा कि-‘ अगर नहीं किया तो..............’’
हमने मकान ढूंढ लिया। हम मकान देखने गये वहां मालकिन से बात हुई। जातिगत या कहें कि भाषाई दृष्टि से अलग होने के बावजूद एक समानता थी कि दोनों के पूर्वज विभाजन के समय इधर आये थे-भारत पाकिस्तान विभाजन पर हमारी राय कुछ अलग है उस पर फिर कभी। यह हमारी किस्मत कहें कि मकान मिल गया। अगले दिन हम मकान खाली कर सामान गाड़ी से लेकर उस मकान में पहुंचे। सामान उतारने से पहले हमने उस मकान का दरवाजा खटखटाया तो मकान मालिक बाहर निकले। हमने कहा-‘ हम सामान ले आयें हैं।’
पीछे मकान मालकिन भी आ गयी थी। उसका चेहरा उतरा हुआ लग रहा था। मकान मालिक ने कहा-‘भाई साहब हम आपको जानते नहीं है। इसलिये.....’’
इसी बीच एक अन्य सज्जन भी बाहर आये और मुझे देखकर बोले-’’अरे, तुम यहां कैसे? अरे, भई यह तो बहुत बढ़िया लड़का है।’
वह उस मकान मालिक के बहनोई थे और व्यापारिक रिश्तों की वजह से हमें जानते थे। यह अलग बात है कि तब हम व्यापार से अलग हो चुके थे।
बहरहाल हम मकान के अंदर पहुंच गये। माजरा कुछ समझ में नहीं आया।
बाद में मकान मालिक ने बताया कि ‘आपको तो हमारे पति वापस भेजने वाले थे। वह तो हमारे ननदोई जी ने आपको अच्छी तरह पहचान लिया इसलिये इन्होंने नहीं रोका। यह आपके आने से चिंतित थे इसलिये अपने बहनोई को बुला लिया था कि किसी तरह आपको वापस भेज दें। हमारे पति कह रहे थे कि ‘उनकी जाति/भाषा वाले लोग झगड़ालू होते हैं।’
हम उनके मकान में दो किश्तों में चार साल रहे। पहले वह मकान खाली किया और फिर लौटकर आये। वह मकान मालिक मुझे आज भी अपना छोटा भाई समझते हैं। मान लीजिये उस दिन उनके बहनोई नहीं आते या पहचान के नहीं निकलते तो...................हमें उस मकान से बाहर कर दिया जाता। तब हम कौनसे और क्या शिकायत करते।
अपने मकान के बाद फिर अपने मकान पहुंचने में हमें बारह बरस लगे। चार मकान खाली किये। चार मकान देखे। कुछ मकान मालिकों ने प्याज खाने की वजह से तो कुछ लोगों ने जाति की वजह से मकान देने से मना किया। हर हाल में रहे हम लेखक ही। जानते थे कि यह सब झेलने वाले हम न पहले हैं न आखिरी! हमारा जीवन संघर्ष हमारा है और वह हमें लड़ना है।
हो सकता है कई लोग मेरी इस बात से नाराज हो जायें कि हमने बचपन से बकवास बहुत सुनी है जैसे जनकल्याण, प्रगति, सामाजिक धार्मिक एकता, संस्कार और संस्कृति की रक्षा, समाज का विकास और भी बहुत से नारे जो सपनों की तरह बिकते हैं। इस देश में आम आदमी का संघर्ष हमेशा उसकी व्यक्तिगत आधार पर निर्भर होता है। अपने जीवन संघर्ष में हमने या तो अपनी भाषा और जाति से बाहर के मित्रों से सहयोग पाया या फिर अपने दम पर युद्ध जीता। एक जाति के आदमी ने सहयोग नहीं दिया पर उसी जाति के दूसरे आदमी ने किया। सभी प्रकार की जातियों और अलग अलग प्रदेशों के लोगों से मित्रता है-इस लेखक जैसे इतने विविध संपर्क वाले लोग इस देश में ही बहुत कम लोग होंगे भले ही विविधता वाला यह देश है। लेखक होने के नाते सभी से सम्मान पाया। जिस तरह धर्म और भक्ति एकदम निजी विषय हैं वैसे ही किसी व्यक्ति का व्यवहार! आप एक व्यक्ति के व्यवहार के संदर्भ में पूरे समाज पर उंगली उठाते हैं तो हमारी नजर में आप झूठ बोल रहे हैं या निराशा ने आपको भ्रमित कर दिया है।
मुश्किल यही है कि बुद्धिजीवियों का एक तबका इसी भेदभाव को मिटाने की यात्रा पर निकलकर देश में प्रसिद्ध होता रहा है तो बाकी उनकी राह पर चलकर यही बात कहते जाते हैं। इधर विश्व स्तर पर कुछ ऐसे लेखक पुरस्कृत हुए हैं तो फिर कहना ही क्या? आप ऐसे विषयों पर रखी बातें इस लेखक के सामने रख दीजिये तो बता देगा कि उसमें कितना झूठ है। पांचों उंगलियां कभी बराबर नहीं होती। एक परिवार में नहीं होती तो समाज में कैसे हो जायेंगी? फिर एक बात है कि सामाजिक कार्य में निष्क्रिय लोगों की संख्या अधिक हो सकती है पर मूर्खों और दुर्जनों की नहीं। भेदभाव करने वाले इतने नहीं है जितना समभाव रखने वाले।
अभी एक ब्लाग लेखक ने लिखा कि एक हिन्दू ने मूंह फेरा तो दूसरे ने मदद की। अब उसका लिखना तो केवल मूंह फेरने वाले पर ही था। वह उसी परिप्रेक्ष्य में भेदभाव वाली बात कहता गया। हम आखिर तक यही सोचते रहे कि उस मदद करने वाले की मदद कोई काम नहीं आयी। यह नकारात्मक सोच है जो कि अधिकतर बुद्धिजीवियों में पायी जाती है। हमने सकारात्मक सोच अपनाया है इसलिये यही कहते हैं कि सभी एक जैसे नहीं है। हां, अगर लिखने से नाम मिलता है तो लिखे जाओ। हम भी तो अपनी बात लिख ही रहे हैं।
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8 अगस्त 2009

देशभक्ति को सस्ता मत बनाओ-आलेख (deshbhakti & google-hindi lekh)

हम बचपन में 15 अगस्त और 26 जनवरी पर स्कूल में जाते थे तब पहले रेडियो पर तथा बाद में राह चलते हुए दुकानों पर देशभक्ति के गीत सुनते हुए मन में एक जोश पैदा होता था। स्कूल में झंडावदन करते हुए मन में देश के लिये जो जज्बा पैदा होता था वह आज भी है। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि हम यह मान लें कि यह हमारे अंदर ही है और इसलिये बाकी सभी में जगाते फिरें। वैसे भी आपातकाल में देश धर्म, जाति, भाषा या और क्षेत्रीय समूहों का मोह छोड़कर देशभक्ति दिखाते हैं। इसलिये सामान्य समय में होने वाले झगड़ों को देखकर यह भ्रम नहीं पालना चाहिये कि देश की एकता को खतरा है। इन्हीं सामान्य समयों में हल्के फुल्के अंतराष्ट्रीय वाद विवादों पर यह भी नहीं करना चाहिये कि देश के लोगों से उनको देशभक्ति का भाव जाग्रत करने का अभियाना बिना किसी योजना के प्रारंभ कर दें। इस देश को हर नागरिक संकट के समय बचाने आयेगा-भले ही वह अपनी रक्षा के स्वार्थ का भाव रखे या निष्काम भाव-इस पर विश्वास रखना चाहिए।

मगर कुछ लोगों के मन में देशभक्ति का भाव कुछ अधिक ही रहता है। उनकी प्रशंसा करना चाहिये। मगर जब सामान्य समय में वह हर छोटे मोटे विवाद पर देश में देशभक्ति का भाव दिखाते हुए दूसरे से भी तत्काल ऐसी आशा करते हैं कि वह भी ऐसी प्रतिक्रिया दे तब थोड़ा अजीब लगता है। अंतर्जाल पर हमारे ही एक मित्र ब्लाग लेखक ने भी ऐसा उतावलापन दिखाया। हमें हैरानी हुई। मामला है गूगल द्वारा अपने मानचित्र में भारत के अधिकार क्षेत्र को चीन में दिखाये जाने का! यह खबर हमने आज एक होटल में चाय पीते हुए जी न्यूज में भी देखी थी। बाद में पता लगा कि इस पर हमारे मित्र ने बहुत जल्दी अपनी प्रतिक्रिया दे दी। गूगल के ओरकुट से अपना परिचय हटा लिया। ब्लागर से ब्लाग उड़ा दिये। बोल दिया गूगल नमस्कार!
उन्होंने ऐसा नहीं कहा कि सभी ऐसा करें पर उनकी प्रतिष्ठता और वरिष्ठता का प्रभाव यह है कि अनेक ब्लाग लेखकों ने अपनी तलवारें निकाल ली-आशय यह है कि अपनी टिप्पणियों में देशभक्ति का भाव दिखाते हुए आगे ऐसा करने की घोषणा कर डाली।
एक ब्लागर ने असहमति दिखाई। इसी पाठ में ब्लाग लेखक के मित्र भ्राताश्री ने ही यह जानकारी भी दी कि गूगल के प्रवक्ता ने अपनी गलती मानी है और वह इसे सुधारेगा। समय सीमा नहीं दी।’
अब यह पता नहीं है कि आगे दोनों भ्राता क्या करने वाले हैं? मगर हिंदी ब्लाग आंदोलन को जारी रखने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है और इसी कारण लोग उन्हें अपनी मुखिया भी मानते हैं इसलिये उनके इस तरह के प्रयासों का ब्लाग जगत पर प्रभाव पड़ता है। मुख्य बात यह है कि इस तरह देशभक्ति का सस्ता बनाने का प्रयास लगता है।
इस तरह के अनेक विवादास्पद नक्शे आते रहते हैं और सरकारी तौर पर उसका विरोध होने पर बदलाव भी होता है। ऐसे में गूगल के विरुद्ध इस तरह का अभियान छेड़ने का का आव्हान थोड़ा भारी कदम लगता है खासतौर से तब जब आपने अभी कहीं औपचारिक विरोध भी दर्ज न कराया हो।
इन पंक्तियेां के लेखक को ब्लाग लिखने से कोई आर्थिक लाभ नहीं है। गूगल का विज्ञापन खाता तो अगले दस साल तक भी एक पैसा नहीं दे सकता। उसके विज्ञापन इसलिये लगा रखे हैं कि चलो उसकी सेवाओं का उपयेाग कर रहे हैं कि तो उसे ही कुछ फायदा हो जाये। सबसे बड़ी बात यह है कि आजादी के बाद हिंदी की विकास यात्रा व्यवसायिक और अकादमिक मठाधीशों के कब्जे में रही है। देश में शायद चालीस से पचास प्रसिद्ध लेखक ऐसे हैं जिनको संरक्षण देकर चलाया गया। बजाय हिंदी लेखकों को उभारने के अन्य भाषाओं से अनुवाद कर हिंदी के मूल लेखन की धारा को बहने ही नहीं दिया गया। आज भी अनेक हिंदी अखबारों में ऐसे बड़े लेखक ही छपते हैं जो अंग्रेजी में लिखने की वजह से मशहूर हुए पर हिंदी में नाम बना रहे इसलिये अपने अनुवाद हिंदी में छपवाते हैं।
व्यवसायिक प्रकाशनों में हिंदी लेखक से लिपिक की तरह काम लिया गया। आज इस देश में एक भी ऐसा लेखक नहीं है जो केवल लिखे के दम ही आगे बढ़ा हो। ऐसे में अंतर्जाल पर गूगल ने ही वह सुविधा दी है जिससे आम लेखक को आगे बढ़ने का अवसर मिल सकता है। हम जैसे लेखकों के लिये तो इतना ही बहुत है कि लिख पा रहे हैं। ऐसे अनेक लेखक हैं जो बहुत समय से लिख रहे हैं पर देश में उनकी पहचान नहीं है और वह अंतर्जाल पर आ रहे हैं।
गूगल का प्रतिद्वंद्वी याहू हिंदी के लिये किसी भी तरह उपयोगी भी नहीं है जबकि भारत का आम आदमी उसी पर ही अधिक सक्रिय है। न वह लिखने में सहायक है न पाठक देने में। गूगल के मुकाबले याहू का प्रचार भी कम बुरा नहीं है वह भी ऐसे मामले में जिसके निराकरण का प्रयास अभी शुरु भी नहीं हुए। हमें याहू के प्रचार पर ही भारी आपत्ति है क्योंकि वह किसी देशभक्ति का प्रतीक नहीं है। इधर समाचारों में यह पता भी लगा कि आधिकारिक रूप से नक्शे का विरोध दर्ज कराया जायेगा-उसके बाद की प्रतिक्रिया का इंतजार करना होगा। उसके बाद भी ब्लाग लेखकों से ऐसे आव्हान करने से पहले अन्य बड़े व्यवसायिक तथा प्रतिष्ठित लोगों से भी ऐसी कार्यवाही करवानी होगी। अपना पैसा खर्च कर ब्लाग लिखने वाले ब्लाग लेखकों में यह देशभक्ति का भाव दिखाने का खौफ तभी पैदा करें जब उसे विज्ञापन देने वाले बड़े संस्थान पहले उसके पीछे से हट जायें। अपने कुछ पल लिखने में आनंद से गुजारने वाले ब्लाग लेखक यह अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके देशभक्ति दिखाने का वक्त कौनसा है? हालांकि यह जानकारी मित्र ब्लाग लेखक पर दर्ज है कि गूगल अपनी गलती स्वीकार कर चुका है।
वैसे मान लीजिये यह गलती अभी स्वीकार नहीं गयी होती तो भी तत्काल इस तरह के आव्हान करना ठीक नहीं है। यह देशभक्ति को सस्ता बनाने जैसा है। हम ब्लाग लेखक भले ही गूगल के समर्थक हैं पर आम प्रयोक्ता वैसे ही याहू समर्थक है। गूगल को भारत में अभी बहुत सफर तय करना है और उसे यह नक्शा बदलना ही होगा। यह लेखक अपने मिलने वालों से यही कहता है कि गूगल का उपयोग करो। आप यकीन करिये जिन लोगों ने गूगल का उपयोग हिंदी के लिये शुरु किया तो भले ही सभी ब्लाग लेखक नहीं बने पर वह उसका उपयोग करते हैं और याहू से फिर वास्ता नहीं रखते। सर्च इंजिन में हिंदी के विषय जिस तरह गूगल में दिखते हैं वह हिंदी के लिये आगे बहुत लाभप्रद होगा।
इस तरह के विवाद जिन पर हमारा निजी रूप से बस नहीं है उनके लिये इस तरह के आव्हान करना अतिआत्मविश्वास का परिचायक है। जब सभी लोग आपको बिना विवाद के अपना मुखिया मानते हैं तब आपको सोच समझकर ही कोई बात कहना चाहिये- खासतौर से जब देशभक्ति जैसा संवेदनशील विषय हो। इधर चीन का डर पैदा करने का प्रयास चल रहा है। आप भारतीय सेना की ताकत जानते हैं। भारत की एक इंच जमीन लेना भी अब आसान उसके लिये नहीं है। ऐसे कागजी नक्शे तो बनते बिगड़ते रहते हैं उनसे विचलित होना शोभा नहीं देता-खासतौर से जब आप लेखक हों और ऐसी कई घटनाओं पर लिख चुके हों।
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6 अगस्त 2009

इश्क गुरु की सलाह काम न आई-हास्य कविता (ishq guru aur chela-hasya kavita)

आशिक शिष्य ने अपने इश्क गुरु से कहा
‘‘आदरणीय
फिर एक माशुका मेरी जिंदगी में आई
पर उसने मेरा इश्क का मामला
मंजूर करने से पहले
सच बोलने वाली मशीन के सामने
साक्षात्कार की शर्त लगाई।
आपसे सलाह लेकर अपने इश्क के मसले
सुलझाने में पहले भी
मदद नहीं मिली
इसलिये इस बार इरादा नहीं था
आपके पास आने का
पर क्या करता जो यह
एकदम नई समस्या आई।’’

इश्क गुरु ने कहा
‘‘कमबख्त! हर बार पाठ पढ़ जाता है
नाकाम होकर फिर लौट आता है
मेरे कितने चेले इश्क में इतिहास बना चुके हैं
पर केवल तेरी वजह से
मुझे असफल इश्क गुरु कहा जाता है
इस बार तुम घबड़ाना नहीं
सच का सामना करने के लिये
मैदान पर उतर जा
रख दे माशुका से भी
सच का सामना करने की शर्त
उसकी असलियत की भी उधड़ेगी पर्त
वह घबड़ा जायेगी
अपनी शर्त भूल जायेगी
तुम्हारी अक्लमंदी देखकर कर लेगी
जल्दी सगाई।’’

कुछ दिन लौटकर चेला
गुरु के सामने आया
चेहरे से ऐसा लगा जैसे पूरे जमाने ने
उस अकेले को सताया
बोला दण्डवत होकर
‘’गुरु जी, आपका पाठ इस बार भी
काम न आया
माशुका सुनकर मेरा प्रस्ताव
कुछ न बोली
बाद में उसने यह संदेश भिजवाया कि
‘भले ही न करना था
सच की मशीन का सामना
कोई बात नहीं थी
पर मुझ पर मेरी शर्त थोपकर
तुमने मेरा विश्वास गंवाया
इसलिये तय किया कि
किसी दूसरे से सच का सामना
करने के लिये नहीं कहूंगी
पर तुमने शर्त नहीं मानी
इसलिये आगे तुम्हारे इश्क को
अब दर्द की तरह नहीं सहूंगी
कर ली मैंने
अपने माता पिता के चुने लड़के से ही सगाई’
अफसोस! इस बार भी गुरु की सलाह
काम न आई’’

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2 अगस्त 2009

किश्तों में मिला सुख-हिंदी व्यंग्य कविताएँ (kisht men mila sukh-hindi sahitya kavita)

आंधी चलकर फिर रुक जाती है
धरती हिलती नहीं भले कांपती नजर आती है।
मौसम रोज बदलते हैं
उससे तेज भागते हैं, आदमी के इरादे
पर सांसें उसकी भी
कभी न कभी उखड़ जाती हैं
फिर भी जिंदगी वहीं खड़ी रहती है
भले अपना घर और दरवाजे बदलती जाती है।
...........................
उधार के आसरे जीने की
ख्वाहिशें अपनी ही दुश्मन बन जाती हैं।
किश्तों में मिला सुख
भला कब तक साथ निभायेगा
किश्तें ही उसे बहा ले जाती हैं।

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1 अगस्त 2009

जैसे डाक्टर पीछे आया-हास्य कविता (hasya kavita in hindi)

एक आदमी ने सुबह-सुबह
दौड़ लगाने का कार्यक्रम बनाया
और अगले दिन ही घर से बाहर आया।
उसने अपने घर से ही
दौड़ लगाना शुरू की
आसपास के लड़के बडे हैरान हुए
वह भी उनके पीछे भागे
और भागने का कारण पूछा
तो वह बोला
"मैंने कल टीवी पर सुना
मोटापा बहुत खतरनाक है
कई बीमारियों का बाप है
आजकल अस्पताल और डाक्टरों के हाल
देखकर डर लगता है
जाओ इलाज कराने और
लाश बनकर लौटो
इसलिये मैने दौड़ने का मन बनाया।"

लड़कों ने हैरान होकर पूछा
" आप इस उम्र में दौडैंगे कैसे
आपकी हालत देखकर हमें डर समाया।
उसने जवाब दिया
"जब मेरी उम्र पर आओगे तो सब समझ जाओगे
लोग भगवान् का ध्यान करते हुए
योग साधना करते हैं
मैं यही ध्यान कर दौड़ता हूँ कि
जैसे कोई मुझे डाक्टर पकड़ने आया
अपनी स्पीड बढाता हूँ ताकि
उसकी न पड़े मुझे पर छाया।"

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