19 दिसंबर 2011

खास लोगों का फैसला-हिन्दी कविता (khas logon ka faisla-hindi kavita or poemor shayari))

वह चाहते हैं कि
हम सच के घोड़े पर सवारी करें,
स्वयं झूठ के महल में ऐश करते रहें,
जंग में मैदान में हम अपना खून बहायें
वह वातानुकूलित कक्ष में बैठकर
अपने पसीने से बचते रहें।
कहें दीपक बापू
जहान के दस्तूर अपने मतलब के लिये
बार बार बदल जाते है,
चतुर करें राज
सज्जन स्वार्थ की बलि चढ़ जाते हैं,
दौलत मंदों की हुकुमत रोज बढ़ती है,
ओहदेदारों की तकदीर हर कदम चढ़ती है,
इसलिये खास लोगों का फैसला है
आम इंसान हमेशा सस्ता रहे।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

12 दिसंबर 2011

रविवार का दिन अध्यात्म के लिये महत्वपूर्ण-हिन्दी लेख (sanday for religionor adhyatma and music-hindi lekh and article

               इधर टीवी चैनलों ने अन्ना हजारे के एकदिवसीय अनशन को अपने पर्दे पर इस तरह सजा लिया था कि पूरे दिन कुछ नहीं दिखाना है तो मनोरंजन चैनलों ने पुराने कार्यक्रम दोबारा प्रसारित करने की तैयारी कर ली थी। तब हम एक सत्संग कार्यक्रम के लिये रवाना हो रहे थे। हमें पता था कि आज समाचार चैनलों पर सिवाय उसके कुछ दिखने वाला नहीं है। जहां तक मनोंरजन चैनलों की बात है तो वह सोमवार से शुक्रवार तक प्रसारित कार्यक्रमों का शनिवार तथा रविवार को पुनः प्रसारण करते हैं। ऐसे में रविवार और शनिवार टीवी चैनलों के कार्यकर्ताओं को अवकाश मिल जाता होगा पर आम दर्शक के लिये यह अमनोरंजक स्थिति होती है।
         सप्ताह में एक दिन किसी मंदिर या आश्रम में जाना अगले सप्ताह के लिये अपना मानसिक संतुलन बनाये रखने का एक अच्छा माध्यम बन सकता है बशर्ते कि उसकी अनुभूति करना भी आती हो। जिस तरह कहा जाता है कि पैसा कमाया जा सकता है पर सुख नहीं, उसी तरह आप चाहे मंदिर जायें या आश्रम जब तक आपके हृदय में अध्यात्म के प्रति गहरा रुझान नहीं है मन में उसका प्रभाव अनुभव नहीं कर सकते। जिनका अध्यात्म के प्रति झुकाव है वह आश्रमों या मंदिरों में जाकर मत्था टेकते हैं। वहां अगर भजन या प्रवचन सुनते हैं। इससे प्रतिदिन जो बोरियत से भरी दिनचर्या होती है, उससे विरक्त होकर जो सुख मिलता है वह केवल ज्ञानी ही जानते हैं। अज्ञानी लोग इससे ही तृप्त नहीं होते बल्कि वह मंदिरों, आश्रमों या देवस्थानों में कार्यरत महंतों, संतों तथा सेवकों की करीबी भी चाहते हैं। उनको लगता है कि इससे अधिक आत्मिक सुख मिलेगा। हमारा मानना है कि महंत, साधु, संत, या सेवकों का सानिध्य केवल मायावी व्यवहार है उसका अध्यात्म से कोई संबंध नहीं है।
        दानव को तो दूर से ही प्रणाम करना चाहिए पर देवता से भी दूरी रखना चाहिए। अग्नि देवता हैं, पूज्यनीय हैं पर हम उनका उपयोग अपनी वस्तुओं को पकाने के लिये करते हैं न कि उसमें घुसकर अपनी देह पकाते हैं। वायु देवता का सहज स्पर्श होता है पर हम उसे पकड़ते नहीं है। जल देवता है पर हम उसे पेट में डालते हैं न कि हाथ में पकड़कर प्यास बुझाते हैं। नहाते हैं तो फिर पौंछते हैं पानी का चिपका कर नहीं रखते। उसी तरह साधु, संतों, महंतों और सेवकों से भजन और प्रवचन सुनना चाहिए। उनके ज्ञान को धारण करने का प्रयास करें तो बहुत अच्छा, पर उनके निकट रहने का लोभ नहीं करना चाहिए। भजन, प्रवचन या सत्संग से आगे जाना भ्रष्टाचार को आमंत्रण देना है। तब हम भक्त से ग्राहक बन जाते हैं। ऐसे में अपने आपको दोहन के लिये प्रस्तुत करना अज्ञान का प्रमाण है।
            आश्रम से निकलकर हमारे मन में ख्याल आया कि आज मौसम अच्छा है तो कहां जायें? शहर में तानसेन समारोह चल रहा है। हमारे एक संगीतज्ञ मित्र ने हमसे कहा था कि शास्त्रीय संगीत में खूबी यह है कि अगर आप उसके जानकार नहीं है तो वह प्रारंभ में आपको प्रभावित नहीं करेगा पर जब धैर्य से सुनेंगे तो आपके अंदर वह ऐसा प्रभाव छोड़ेगा कि उसके मुरीद हो जायेंगे। तालाब के किनारे हमने वायलिन वादन सुना। आंखें बंदकर ध्यान से सुना। वाकई कुछ देर में अद्भुत आनंद देने लगा। ऐसा लगता था कि मस्तिष्क के अंदर कोई ब्रुश कचड़े की सफाई कर वहां सुंगध फैला रहा है। साजों से आ रही आवाज पूरी देह में एक उत्साह का संचार कर रही थीं। तब यह बात समझ में आयी कि संगीत की अपनी शक्ति है पर फिल्मों के गीतों को सुनते हुए हम लोगों की समझ कम हो गयी है। उसमें बेमतलब के शब्द लिखकर अनेक महान गीतकार हो गये हैं जबकि इसका सारा श्रेष्ठ संगीत को होना चाहिए।
         अभी महान कलाकार देवानंद का देहावसान हो गया। उनकी स्मृति में अनेक गाने टीवी पर देखने को मिले। अधिकतर किशोरकुमार की आवाज में थे। देवानंद साहब ने तो बस होंट भर हिलाये थे। महान गायक किशोरकुमार ने अनेक नायकों के अभिनय को अपनी आवाज से जीवंत बनाया। तय बात है कि अधिकतर फिल्में अपने गीतों की वजह से जानी गयी। उनमें संगीत की प्रधानता थी। अगर अकेले कोई गायक बिना साज के गाये तो आम आदमी जैसी चिल्लपों करते दिखता है।
         हाल ही में मशहुर हुए कोलिवरी डी गाने में क्या है? तमिल और अंग्रेजी के मिलेजुले शब्दों से भरे शब्दों को जो संगीत दिया गया है उसने उसे ऐसी प्रसिद्ध दिलाई कि उसने अनेक भाषाओं में डब किया जा रहा है। संगीत का प्रभाव ऐसा है कि हिन्दी धारावाहिकों में हर वाक्य के बाद संगीता बजता है। उसमें पात्रों के अभिनय और उनके संवादों को प्रभावी बनाने का यह प्रयास इस बात को दर्शाता है कि हमारे कथित निर्देशकों की क्षमतायें बहुत सीमित हैं।
         बहरहाल अध्यात्म और संगीत से रविवार बेहतर हो सकता है और उस समय हम अपनी सप्ताह भर की नियमित दिनचर्या से अलग होकर मन में नवीनता का आभास कर सकते हैं बहरहाल इस रविवार को बस इतना ही ।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

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2 दिसंबर 2011

उस्ताद, शागिर्द, चिमटा और मॉल-लघु हास्य व्यंग्य (ustad, shagird,chimta and mol-short hasya vyangya)

                उस्ताद ने शागिर्द से कहा-’‘चल आज शहर के किसी मशहूर मॉल में घूम कर आयें। हमने बहुत सुना है कि नयी पीढ़ी के लोग मॉल में घूमने और खरीदने जाते हैं। इधर अपनी दरबार यहां शगिर्दों का का अकाल पढ़ गया है। सभी हमारी तरह बूढ़े हो गये हैं। कई तो नौकरी और धंधे से रिटायर होकर खोपड़ी खाने आते हैं। पहले की तरह दान और चंदा मिलता नहीं है। बैठे बैठे बोरियत होने लगी है। अपनी कोशिशों से नयी पीढ़ी के शागिर्द बनायेंगे।
           शागिर्द ने कहा-‘‘ मॉल में जाकर करेंगे क्या? वहां नयी पीढ़ी के लोग खरीदने आते हैं तो बच्चे नये खेल खेलने के लिये माता पिता को साथ लाते हैं। आपको वहां नये चेले कदापि नहंी मिलेंगे। आज की पीढ़ी के लोगों को शहर में इश्क लड़ाने के लिये उद्यान या खाली मैदान मिलते नहीं है। ऐसे सैर के स्थान विकास की भेंट चढ़ गये हैं। इसलिये मॉल में खरीदने के जवान पीढ़ी के लोग बहाने इश्क लड़ाने आते हैं। आप वहां चलेंगे तो अजूबा लगेंगे।’’
           उस्ताद अपना चिमटा तीन चार बार बजाकर बोले-‘‘तू हमारी मजाक उड़ाता है। अरे, हम पहुंचे हुए सिद्ध हैं। वहां जाकर अपने लिये नये चेले तलाश करेंगे। यह चिमटा बजाकर लोगों को अपनी तरफ खीचेंगे। तुम हमारी सिद्धि का बयान करना। हो सकता है कुछ आशिक और माशुकाऐं अपने इश्क की कामयाबी का तरीका पूंछें। हम उनको उपाय बतायेंगे। कुछ का काम बनेगा कुछ का नहीं! जिनका बनेगा वह मनौती पूरी होने के एवज में हम पर चढ़ावा चढ़ायेंगे।
शागिर्द बोला-‘‘महाराज अगर चलना है तो फिर है चिमटा वगैरह छोड़ दीजिये। इस धोती और कुर्ते को छोड़कर जींस और शर्ट पहन लीजिये। अपनी दाढ़ी कटवा लीजिये। इस वेशभूषा में मॉल के प्रहरी अंदर घुसने नहीं देंगे।’’
         उस्ताद ने कहा-‘‘हम यह चिमटा नहीं छोड़ सकते क्योंकि यह हमारी पहचान है। वेशभूषा बदल देंगे, दाढ़ी कटवा देंगें और तुम कहो तो मूंछें भी मुड़वा देंगे। सफेद बालों को भी काला कर लेंगे, पर यह चिमटा नहीं छोड़ सकते। यह तो लेकर चलेंगे ही।
         शागिर्द बोला-‘महाराज, आप अपनी जिद छोड़ दें। यह चिमटा हथियार की तरह लगता है। प्रहरी अंदर नहीं जाने देगा।
           उस्ताद ने कहा-‘‘उसकी यह हिम्मत नहीं हो सकती। हम उसे समझायेंगे कि यह चिमटा है न कि हथियार, तब अंदर जाने देगा। कौनसे मॉल का कौनसा कायदा है कि चिमटा हथियार है जिसे लेकर अंदर नहीं जाया जा सकता।’’
शागिर्द बोला-‘‘नहीं है तो बन जायेगा। मॉल वाले कोई छोटे मोटे लोग नहीं होते। ऐसा कायदा आपके वहीं खड़े खड़े तत्काल बनवा भी देंगे कि चिमटा लेकर अंदर प्रवेश वर्जित है। इन दौलतमंदों के हाथ में सारा जमाना है। चलने, फिरने और उठने बैठने के इतने कायदे बन गये हैं कि आपको पता ही नहीं है। आप क्यों एक नया कायदा बनवाना चाहते हैं कि चिमटा लेकर मॉल में घुसना मना जाये? यह तय है कि चिमटा लेकर अंदर नहीं जाने दिया जायेगा। आप ज़माने पर एक कायदा लदवाने की बुराई अपने सिर क्यों लेना चाहते है? इससे आपके पुराने शगिर्द भी नाराज हो जायेंगे।’’
उस्ताद का चेहरा उतर गया और उन्होंने मॉल जाने का इरादा छोड़ दिया।
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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21 नवंबर 2011

जब उत्तर प्रदेश का नाम गुम हो जायेगा-हिन्दी लेख (divisan aur partision of uttarprades,uttarpradesh ka nam gum jayega-hindi lekh or article)

             हमारे देश के राज्य पच्चीस हों या पचास यह महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि यहां समाज कितना मजबूत और आत्मनिर्भर हो। पिछले कुछ समय देश में एक राज्य को दो भागों में बांटकर विकास करने का सपना दिखाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश को तो चार भागों में बांटना प्रस्तावित किया गया है। सवाल यह है कि क्या हमारे देश के किसी प्रदेश का विकास केवल क्या इसी कारण अवरुद्ध हो रहा है यहां राज्य बड़े हैं? एक अर्थशास्त्र का विद्यार्थी शायद ही कभी इस बात को माने। जब हम देश में गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी की समस्यायें देखते हैं तो यह बात समझना चाहिए कि यह अर्थशास्त्र का विषय है। ऐसे में हम जब लोगों को आर्थिक विकास का सपना देख रहे हैं तो यह भी देखना चाहिए कि हमारी देश के संकटों और समस्याओं पर अर्थशास्त्रियों का क्या नजरिया है?
              देश में बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सामाजिक विद्वेष और गरीबी बढ़ रही है। हम यह दावा करते रहते हैं कि भारत में शिक्षा अगर पूर्ण स्तर पहुंच जाये तो विकास सभी जगह परिलक्षित होगा मगर हम देख रहे हैं कि हमारे यहां शिक्षित वर्ग में बेरोजगारी का संकट सबसे अधिक भयावह है। सच से सभी ने मुंह फेर रखा है। अनेक अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री हैं पर चलते है जो विचार तो पश्चिम के सिद्धांतों के आधार पर करते हैं पर जब देश की बात आती है तो उनका नजरिया एकदम जड़ हो जाता है। देश में सबसे बड़ी समस्या गरीबी है और जिसका सीधा संबंध अर्थशास्त्र से है। अगर हम अर्थशास्त्र की दृष्टि से देखें भारत के पिछड़ेपन का मुख्य कारण, अधिक जनसंख्या, खेती और उद्योगों के परंपरागत ढंग से करना, सामाजिक रूढ़िवादिता आर्थिक असमानता के साथ अकुशल प्रबंध है। अगर हम यह चाहते हैं कि हमारा देश सर्वांगीण विकास करे तो हमें इन्हीं समस्याओं से निजात पाना होगा।
            अधिक जनंसख्या, खेती और उद्योगों को परंपरागत ढंग से करना तथा सामाजिक रूढ़िवादिता का संबंध जहां आम जनमानस से है वहीं अकुशल प्रबंध के दायरे में राज्य भी आता है। यह अकुशल प्रबंध लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण है। राज्य चाहे छोटे हों या बड़े अगर उनका आर्थिक और प्रशासनिक प्रबंधन कुशल नहीं है तो चाहे जितना प्रयास किया जाये विकास नहीं हो सकता। उस पर भ्रष्टाचार जहां नस नस में समा गया हो वहां तो कहना ही क्या?
        हम यह भी देखें कि जिन राज्य को विभाजित किया गया तो उनका विकास कितना हुआ? यह सही है कि नवगठित राज्यों की राजधानी बने शहरों में उजाला हो गया पर बाकी हिस्से तो अंधेरे में ही डूबे हुए हैं। एक दिन फिर उन्हीं राज्यों में पुनः विभाजन की मांग उठेगी। तब उसे माना जाता है तो फिर कोई नया शहर राजधानी बनेगा तब वह भी रौशन हो उठेगा मगर बाकी हिस्से में अंधियारा राज्य करेगा। इस तरह तो हर बड़े शहर को राज्य बनाना पड़ेगा। तब हम फिर उसी रियासती युग में पहुंच जायेंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि आजादी के बाद रियासते बनी रहने दी जाती और राजाओं की जगह सरकारी नुमाइंदे रखे जाते या फिर हर राज्य का प्रमुख जनता से चुना जाता है। हालांकि तब भी यह सुनने का अवसर पुराने लोगों से मिलता कि इससे तो राजशाही ठीक थी। आज भी अनेक पुराने लोग अंग्रेज राज्य को श्रेयस्कर मानते हैं।
       कहने का अभिप्राय यह है कि जब तब हम अपने यहां कुशल प्रबंधन का गुण विकसित नहीं करते तब तक देश के किसी भी हिस्से को विकास का सपना दिखाना अपने आप को ही धोखा देना है। हैरानी तब होती है जब आम जनमानस इस तरह सपने दिखाने पर ही खुश हो जाता है। आखिरी बात यह कि उत्तर प्रदेश राजनीतिक रूप से बड़ा प्रदेश रहा है पर जैसा कि राजनीतिक स्थितियां सदैव समान नहीं रहती। अगर उत्तरप्रदेश का बंटावारे वाला प्रस्ताव साकार रूप लेता है तो भारतीय नक्शे से उसका नाम गायब हो जायेगा। उत्तर प्रदेश के करीब करीब सारे शहर बड़े और एतिहासिक हैं-जैसे आगरा, इलाहाबाद, वाराणसी, लखनऊ, गोरखपुर, मथुरा, कानपुर आदि। यह नक्शे में रहेंगे पर उत्तरप्रदेश गायब हो जायेगा। हम इसे अध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो जमीन और लोग वहीं हैं और रहेंगे पर उन पर नियंत्रण करने वाला राजकीय स्वरूप बदल जायेगा। न कहीं से हमला न न क्रांति होगी पर उत्तर प्रदेश शब्द का पतन हो जायेगा। इंसानों के हाथ से बनाये नक्शे बदलते रहते हैं पर मानवीय प्रकृतियां यथावत रहती हैं। इन्हीं प्रकृतियों को जानना और समझना तत्व ज्ञान है। मथुरा के जन्मे और वृंदावन पले भगवान श्रीकृष्ण का तत्वज्ञान आज विश्व भर में फैला है। इस मथुरा और वृंदावन ने कई शासक देखे पर उनका अध्यात्मिक स्वरूप भगवान श्री कृष्ण की जन्म तथा बाललीलाओं के कारण हमेशा बना रहा। उत्तरप्रदेश के अनेक शहरों का भारतीय अध्यात्मिक दृष्टि से महत्व है और रहेगा। भले ही भारतीय नक्शे से उत्तर प्रदेश गायब हो जाये। एक आम लेखक और नागरिक के रूप में राज्य के छोटे या बड़े होने से हमारा कोई सरोकार नहीं है पर इतना जरूर कह सकते हैं कि उत्तरप्रदेश के नाम के पीछे उसके अनेक बड़े शहरों का एतिहासिक तथा अध्यात्मिक स्वरूप दब गया है और संभव है कि विभाजन के बाद उनकी प्रतिष्ठा अधिक बढ़े। यह कहना कठिन है कि यह बंटवारा कब तक होगा पर एक बार प्रस्ताव स्थापित हो गया है तो वह कभी न कभी प्रकट रूप लेगा ऐसी संभावना तो लगती है।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

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15 नवंबर 2011

इंसानों के वादे -हिन्दी शायरी (insano ke vaade-hindi shayari or poem)

आम इंसान हो या खास
चाहे जब वादे कर चले जाते हैं।
सबकी याद्दाश्त सिमटी है अपने मतलब तक,
फरिश्ता बनने कि ख्वाहिशें पाले सभी हैं
अपने पेट भरने के बाद सभी हैं जाते हैं थक,
फिर भी ताकत कोई है इस धरती पर
जो मझधार में फंसे लाचारों की नाव
वादा न करने वाले
अजनबी पार लगा जाते हैं।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

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10 नवंबर 2011

श्रीगुरूनानक जयंती/प्रकाशपर्व की सभी को हार्दिक बधाई-हिन्दी लेख (shri gurunanak jayanti/prakashparva ki badhai-hindi article or lekh

आज पूरे विश्व में श्रीगुरुनानक देव का जन्मदिन मनाया जा रहा है। हालांकि अनेक लोग अब अपनी संकीर्ण मानसिकता के कारण उनको सिख धर्म के प्रवर्तक के रूप में मानते हैं जबकि ज्ञानी लोग उन्हें हिन्दू धर्म की आधुनिक विचाराधारा के प्रवाहक की तरह मान्यता देते हैं। कहा जाता है कि सिख धर्म का प्रादुर्भाव हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये हुआ था। कालांतर में इसे प्रथक माना जाने लगा पर भारतीय अध्यात्म में श्रीगुरुनानक देव को भगवान स्वरूप माना जाता है और प्रत्येक भारतीय उनका नाम सम्मान से लेकर अपना जीवन धन्य समझता है। भारतीय जनमानस की यह धारणा है कि उसके ऊपर चाहे दैहिक संकट हो या मानसिक हर स्थिति में भगवान ही उससे रक्षा करते हैं। श्रीगुरुनानक जी ने उस समय भारतीय अध्यात्म को अपना योगदान दिया जब देश में वैचारिक संकट का ऐसा दौर था जिसमें समाज कुछ स्वेच्छा तो कुछ राजनीतिक दबाव के कारण परिवर्तन की तरफ बढ़ रहा था। एक तरफ भारतीय पौंगा पंडित अपने अंधविश्वासों के साथ भारी व्यय वाले कर्मकांडों का विस्तार कथित रूप से समाज की रक्षा के लिये कर रहे थे तो दूसरी तरफ बाहरी ताकतों से प्रभावित तत्व इस देश पर नियंत्रण करने के लिये विदेशी विचारों को अस्त्र शस्त्र का उपयोग करते हुए जूझ रहे थे। श्रीगुरुनानक जी ने दोनों को ही लक्ष्य कर भारतीय समाज में एक नयी विचाराधारा को प्रवाहित किया।
देखा जाये तो भारतीय दर्शन में यह माना गया है कि निरंकार और साकार भक्ति दोनों ही परमात्मा के प्रति ध्यान स्थापित करने से होती है। इसके अलावा निष्काम कर्म और सकाम कर्म को भी सहजता से स्वीकार किया गया है। इसके बावजूद ज्ञान और हार्दिक भक्ति को ही मनुष्य में श्रेष्ठ गुण स्थापित करने वाला तत्व माना जाता है। अगर हृदय स्वच्छ नहीं है तो फिर सारा धर्म कर्म बेकार है-ऐसा कहा जाता है। भारतीय समाज में ऐसे तत्व भी रहे हैं जो दूसरों को निष्काम रहने का उपदेश देते हैं पर इसके बदले स्वयं सकाम होकर उनसे फल चाहते हैं। गुरुनानक के काल में ऐसे ही गुरुओं का जमघट था। जिनका आशय यह था कि हमने तुंम्हें निष्काम होने का ज्ञान दिया और अब तुम हम पर निष्प्रयोजन दया करो। इस तरह मनुष्य के अंदर स्थित अध्यात्मिक प्रवृत्ति का धर्म के धंधेबाजों ने दोहन करने का हमेशा प्रयास किया है। कई लोग तो बड़ी बेशरमी से कहते हैं कि ‘सुपात्र को दान दो’, और जब आदमी देने के लिये हाथ उठाये तो वह अपना सिर आगे कर कहते हैं कि ‘हमीं सुपात्र हैं’।
ऐसे ही अंधविश्वासों और धार्मिक पाखंडों को श्रीगुरुनानक जी ने लक्ष्य कर उन्हें दूर करने का प्रयास किया उन्होंने मायावी संसार में सत्य की पहचान कराई। यही कारण है कि हमारे यहां अध्यात्मिक महापुरुषों में गुरु शब्द उनके ही नाम से जोड़ा जाता है।
श्री गुरुवाणी में कहा गया है
साहिब मेरा एको है।
एको है भाई एको है।।
‘‘एक औंकार (1ॐ ) शब्द के माध्यम से यह बताया गया है कि सर्वत्र एक ही ईश्वर व्याप्त है।"
आदि सब जुगादि सच।
है भी सच,
नानक होसी भी सच।।
"उसका नाम सत्य है।"
सचु पुराणा हौवे नाही
‘‘हर वस्तु यहां पुरानी हो जाती है पर सत्य पुराना नहीं होता।’’
श्रीगुरुनानक जी ने अपना जीवन मस्तमौला फकीर की तरह बिताया। उनका जन्म एक व्यवसायी परिवार में हुआ पर उन्होंने देश के लिये ऐसी ज्ञान संपत्ति का अर्जन किया जो हमेशा अक्षुण्ण रहेगी। भक्ति के माध्यम से भगवान को प्राप्त करने का जो उन्होंने मार्ग दिखाया वह अनुकरणीय है। ऐसे महापुरुष को हृदय से प्रणाम।
इस अवसर पर समस्त ब्लाग लेखक मित्रों तथा पाठकों को बधाई। इस संदेश के साथ कि वह भगवान श्रीगुरुनानक देव के मार्ग का अनुसरण कर अपना जीवन धन्य करें।
दीपक भारतदीप,लेखक संपादक

लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

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23 अक्तूबर 2011

लीबिया के गद्दाफी के नक्शे कदम पर चले अफगानिस्तान के हामिद करजई-हिन्दी लेख )ligiya ki gaddagi ki raah chale afaganistan ke hamid karjai-hindi lekh)

          गद्दाफी की मौत ने अमेरिका के मित्र राजनयिको को हक्का बक्का कर दिया है। भले ही गद्दाफी वर्तमान समय में अमेरिका का मित्र न रहा हो पर जिस तरह अपने अभियान के माध्यम से राजशाही को समाप्त कर लीबिया के राष्ट्रपति पद पर उसका आगमन हुआ उससे यह साफ लगता है कि विश्व में अपनी लोकतंत्र प्रतिबद्धताओं को दिखाने के लिये उसे पश्चिमी राष्ट्रों ने समर्थन दिया था। ऐसा लगता है कि फ्रांस के ज्यादा वह करीब था यही कारण संक्रमणकाल के दौरान उसके फ्रांस जाने की संभावनाऐं सामने आती थी। संभवत अपनी अकड़ और अति आत्मविश्वास के चलते उसने ऐसा नहीं किया । ऐसा लगता है कि उसका बहुत सारा धन इन पश्चिमी देशों रहा होगा जो अब उनको पच गया है। विश्व की मंदी का सामना कर रहे पश्चिमी देश अब इसी तरह धन का जुगाड़ करेंगे और जिन लोगों ने अपना धन उनके यहां रखा है उनके सामने अब संशय उपस्थित हो गया होगा। प्रत्यक्ष विश्व में कोई अधिक प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दे रही पर इतना तय है कि अमेरिका को लेकर उसके मित्र राजनेताओं के हृदय में अनेक संशय चल रहे होंगे। मूल में वह धन है जो उन्होंने वहां की बैंकों और पूंजीपतियों को दिया है। हम पर्दे पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक दृश्य देखते हैं पर उसके पीछे के खेल पहले तो दिखाई नहीं देते और जब उनका पता लगता है तो उनकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाता है। इन सबके बीच एक बात तय हो गयी है कि अमेरिका से वैर करने वाला कोई राजनयिक अपने देश में आराम से नहंी बैठ सकता। ऐसे में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने अमेरिका और भारत से युद्ध होने पर पाकिस्तान का साथ देने की बात कहकर गद्दाफी के मार्ग पर कदम बढ़ा दिया है। उसका यह कदम इस बात का प्रमाण है कि उसे राजनीतिक ज्ञान नहीं है। वह घबड़ाया हुआ है और ऐसा अफलातूनी बातें कह रहा है जिसके दुष्परिणाम कभी भी उसके सामने आ सकते हैं।
        यह हैरानी की बात है कि जिन देशों के सहयोग से वह इस पद पर बैठा है उन्हें ही अपने शत्रुओ में गिन रहा है। इसका कारण शायद यह है कि अमेरिकी सेना अगले एक दो साल में वहां से हटने वाली है और करजई का वहां कोई जनाधार नहीं है। जब तक अमेरिकी सेना वहां है तब तक ही उसका राष्ट्रपति पद बरकरार है, उसके बाद वह भी नजीबुल्लाह की तरह फांसी  पर लटकाया जा सकता है। उसने किस सनक में आकर पाकिस्तान को मित्र बना लिया है यह तो पता नहीं पर इतना तय है कि वहां  की खुफिया संस्था आईएसआई अपने पुराने बदले निकाले बिना उसे छोड़ेगी नहीं। अगर वह इस तरह का बयान नहीं देता तो यकीनन अमेरिका नहीं तो कम से कम भारत उसकी चिंता अवश्य करता। भारत के रणनीतिकार पश्चिमी राष्ट्रों से अपने संपर्क के सहारे उसे राष्ट्रपति पद से हटने के बाद किसी दूसरे देश में पहुंचवा सकते थे पर लगता है कि पद के मोह ने उसे अंधा कर दिया है। अंततः यह उसके लिये घातक होना है।
         अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से हटेगी पर वैकल्पिक व्यवस्था किये बिना उसकी वापसी होगी ऐसी संभावना नहीं है। इस समय अमेरिका तालिबानियों से बात कर रहा है। इस बातचीत से तालिबानी क्या पायेंगे यह पता नहीं पर अमेरिका धीरे धीरे उसमें से लोग तोड़कर नये तालिबानी बनाकर अपनी चरण पादुकाओं के रूप में अपने लोग स्थापित करने करने के साथ ही किसी न किसी रूप में सैन्य उपस्थिति बनाये रखेगा। अमेरिका दुश्मनों को छोड़ता नहीं है और जब तक स्वार्थ हैं मित्रों को भी नहीं तोड़ता। लगता है कि अमेरिका हामिद करजई का खेल समझ चुका है और उसके दोगलेपन से नाराज हो गया है। जिस पाकिस्तान से वह जुड़ रहा है उसका अपने ही तीन प्रदेशों में शासन नाम मात्र का है और वहां के बाशिंदे अपने ही देश से नफरत करते हैं। फिर जो क्षेत्र अफगानिस्तान से लगे हैं वहां के नागरिक तो अपने को राजनीतिक रूप से पंजाब का गुलाम समझते हैं। अगर पाकिस्तान को निपटाना अमेरिका के हित में रहा और उसने हमला किया तो वहीं के बाशिंदे अमेरिका के साथ हो लेंगे भले ही उनका जातीय समीकरण हामिद करजई से जमता हो। अमेरिका उसकी गीदड़ भभकी से डरेगा यह तो नहीं लगता पर भारत की खामोशी भी उसके लिये खतरनाक है। भारत ने संक्रमण काल में उसकी सहायता की थी। इस धमकी के बाद भारतीय जनमानस की नाखुशी को देखते हुए यहां के रणनीतिकारों के लिये उसे जारी रखना कठिन होगा। ऐसे में अफगानिस्तान में आर्थिक रूप से पैदा होने वाला संकट तथा उसके बाद वहां पैदा होने वाला विद्रोह करजाई को ले डूबेगा। वैसे यह भी लगता है कि पहले ही भारत समर्थक पूर्व राष्ट्राध्यक्षों की जिस तरह अफगानिस्तान में हत्या हुई है उसके चलते भी करजई ने यह बयान दिया हो। खासतौर से नजीबुल्लाह को फांसी देने के बाद भारत की रणनीतिक क्षमताओं पर अफगानिस्तान में संदेह पैदा हुआ है। इसका कारण शायद यह भी है कि भारत को वहां के राजनीतिक शिखर पुरुष केवल आर्थिक दान दाता के रूप में एक सीमित सहयोग देने वाला देश मानते हैं। सामरिक महत्व से भारत उनके लिये महत्वहीन है। इसके लिये यह जरूरी है कि एक बार भारतीय सेना वहां जाये। भारत को अगर सामरिक रूप से शक्तिशाली होना है तो उसे अपने सैन्य अड्डे अमेरिका की तरह दूसरे देशों में स्थापित करना चाहिए। खासतौर से मित्र पड़ौसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को सामरिक उपस्थिति के रूप में विश्वास दिलाना चाहिए कि उनकी रक्षा के लिये हम तत्पर हैं। यह मान लेना कि सेना की उपस्थिति रहना सम्राज्यवाद का विस्तार है गलत होगा। हमारे यहां कुछ विद्वान लोग इराक और अफगानिस्तान में अमेरिकी सुना को उपनिवेशवाद मानते हैं पर वह यह नहीं जानते कि अनेक छोटे राष्ट्र अर्थाभाव और कुप्रबंधन के कारण बाहर के ही नहीं वरन् आंतरिक खतरों से भी निपटने का सामर्थ्य नहीं रखते। वहां के राष्ट्राध्यक्षों को विदेशों पर निर्भर होना पड़ता है। ऐसे में वह विदेशी सहायक के मित्र बन जाते हैं। भारत का विश्व में कहीं कोई निकटस्थ मित्र केवल इसलिये नहीं है क्योंकि यहां की नीति ऐसी है जिसमें सैन्य उपस्थिति सम्राज्य का विस्तार माना जाता है। सच बात तो यह है आर्थिक रूप से शक्तिशाली होने का कोई मतलब नहीं है बल्कि सामरिक रूप से भी यह दिखाना आवश्यक है कि हम दूसरे की मदद कर सकते हैं तभी शायद हमारे लिये खतरे कम होंगे वरना तो हामिद करजई जैसे लोग चाहे जब साथ छोड़कर नंगे भूखे पाकिस्तानी शासकों के कदमों में जाकर बैठेंगे। यह बात अलग बात है कि ऐसे लोग अपना बुरा हश्र स्वयं तय करते हैं।
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

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15 अक्तूबर 2011

भ्रष्टाचार जैसे जीवंत मुद्दे की आड़ में जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह कराने वाले मुर्दा प्रस्ताव उठाने का मतलब-हिन्दी लेख (issu of bhrashtachar or corrupition and janmat sangrah in jammu kashmir-hindi lekh)

           भारत में महात्मा गांधी के चरणचिन्ह पर चल रहे लोगों को यह गलतफहमी कतई नहीं रखना चाहिए कि अहिंसा के हथियार का उपयोग देशी लोगों को तोड़ने के लिये किया जाये। उनको एक बात याद रखना चाहिए कि गांधी जी ने अंिहंसा का प्रयोग देश के लोगों को एकजुट करने के साथ ही विदेशों में भी अपने विषय को चर्चा योग्य बनाने के लिये किया था। उन्होंने अपनी अहिंसा से देश को जोड़ा न कि अलग होने के लिये उकसाया। जम्मू कश्मीर के मसले पर जनमत संग्रह की मांग का समर्थन कर अन्ना हजारे के सहयोगी ने ऐसा ही काम किया है जैसे कि अपनों का जूता देश अपनों की ही सिर। उनके बयान के कारण उनसे मारपीट हुई जिसकी निंदा पूरे देश में कुछ ही घंटे टीवी चैनलों पर चली जबकि उनके बयान के विरोध की बातें करते हुए दो दिन होने जा रहे हैं। अहिंसा की बात निहत्थे लोगों के लिये ठीक है पर जो हथियार लेकर हमला कर रहे उन उग्रवादियों से यह आशा करना बेकार है कि वह गांधीवाद को समझेंगे। फिर जम्मू कश्मीर का मसला अत्यंत संवेदनशील है ऐसे में अन्ना के सहयोगी का बयान अपने प्रायोजकों में अपनी छवि बनाये रखने के लिये जारी किया गया लगता है। अन्ना हजारे को भारत का दूसरा गांधी कहा जाता है पर वह गांधी नहंी है। इसलिये तय बात है कि अन्ना हजारे के किसी सहयोगी को भी अभी गांधीवाद की समझ नहंी है। महात्मा गांधी देश का विभाजन नहीं चाहते यह सर्वज्ञात है। ऐसे में गांधीवादी अन्ना हजारे के किसी सहयोगी का जम्मू कश्मीर के जनमत संग्रह कराने तथा वहां से सेना हटाने का बयान संदेह पैदा करता है। क्या गांधीजी ने कहा था कि अपने देश में कहीं किसी प्रदेश में सेना न रखो।
        बहरहाल कुछ लोगों को अन्ना के सहयोगी का बयान के साथ ही उसका विरोध भी प्रायोजित लग सकता है। अन्ना के सहयोगी के साथ मारपीट हुई यह दुःख का विषय है। प्रचार माध्यमों से पता चला कि आरोपियों की तो जमानत भी हो चुकी है। इसका सीधा मतलब है कि बयान के विरोधियों ने अन्ना के सहयोगी को उनके इसी बयान की वजह से खलनायक बनाने के लिये इस तरह का तरीका अपनाया जिससे उनके शरीर को अधिक क्षति भी न पहुंचे और उनकी छवि भी खराब हो। यह मारपीट भले ही अब हल्का विषय लगता हो पर यकीनन यह अंततः अन्ना के उस सहयोगी के लिये संकट का विषय बनने वाला है।
       भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के वजह से अन्ना हजारे की राष्ट्रीय छवि बनी तो तय था कि उसका लाभ उनके निकटस्थ लोगों को होना ही था। अन्ना के जिस सहयोगी के साथ मारपीट हुई वह उनके साथ उस पांच सदस्यीय दल का सदस्य था जो सरकारी प्रतिनिधियों के साथ जनलोकपाल विधेयक बनाने पर चर्चा करती रहीं। एक तरह से उसकी भी राष्ट्रीय छवि बनती जा रही थी जिससे अपने अन्य प्रतिबद्ध एजेंडों को छिपाने में सफल हो रहे थे। अब वह सामने आ गया है। इंटरनेट के एक दो हिन्दी ब्लॉग लेखकों ने जम्मू कश्मीर के मसले पर प्रथकतावादियों के साथ आयोजित एक कार्यक्रम में उनकी सहभागिता का जिक्र किया था तब हैरानी भी हुई थी। ऐसे में हमें संदेह भी हो रहा था कि अन्ना हजारे साहब की आड़ के कुछ ऐसे तत्व तो नहीं आगे बढ़ रहे जो राष्ट्रीय छवि के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय छवि तो नहीं बनाने का प्रयास कर रहे हैं । ऐसे में अन्ना जी के सहयोगी ने ऐसा बयान इस तरह दे दिया कि जैसे वह आम बयान हो पर उनके विरोधियों के लिये इतना ही काफी था।
        एक बात निश्चित है कि कुछ अदृश्य शक्तियां अन्ना साहब के आंदोलन को बाधित करना चाहती होंगी पर जिस तरह अन्ना के सहयोगी अपने मूल उद्देश्य से अलग हटकर बयान दे रहे हैं उसे देखकर नहीं लगता कि उन्हें  प्रयास करने होंगे क्योंकि यह काम अन्ना के सहयोगी ही कर देंगे। अब एक सवाल हमारे मन में आता है कि अन्ना के सहयोगी ने यह बयान कहीं जानबूझकर तो नहीं दिया कि अन्ना जी का आंदोलन बदनाम हो। वह पेशेवर समाज सेवक हैं ऐसी बातें प्रचार माध्यम ही कहते हैं। अन्नाजी के अनेक सहयोगियों को विदेशों से भी अनुदान मिलता है ऐसा सुनने को मिलता रहता है। तब लगता है कि अन्ना के सहयोगी कहीं अपने प्रायोजकों के ऐजेंडे को बढ़ाने का प्रयास न करें। दूसरी यह भी बात है कि अन्ना साहेब का आंदोलन अभी लंबा चलना है। ऐसे में उनके निकटस्थ सहयोगियों के चेहरे भी बदलते नजर आयेंगे। यह देखकर स्वयं की पदच्युत होने की संभावनाओं के चलते कोई सहयोगी अफलातूनी बयान भी दे सकता है। कहा भी जाता है कि बिल्ली दूध पीयेगी भी तो फैला जरूर देगी।
        बहरहाल अगर अन्ना के सहयोगी का जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का बयान प्रायोजित है तो फिर यह मारपीट भी कम प्रायोजित नहीं लगती। प्रचार माध्यमों के अनुसार 24 या 25 सितम्बर को यह बयान दिया गया जबकि उनके साथ मारपीट 13 अक्टोबर को हुई। अक्सर देखा गया है कि संवेदनशील बयानों पर प्रतिक्रिया एक दो दिन मेें ही होती है पर यहां 18 दिन का अंतर देखा गया। संभव है आरोपियों ने यह घटना भावावेश में आकर की हो पर उनके प्रेरकों ने कहीं न कहीं यह हमला फिक्स किया होगा। उनके पीछे कौनसा समूह है यह कहना कठिन है। पहली बात तो यह अगर यह मारपीट नहीं होती तो बयान को 18 दिन बाद कोई पूछता भी नहीं। अब यह संभव है कि जम्मू कश्मीर के मसले पर भारत में प्रचार बनाये रखने वाले समूह का भी यह काम हो सकता हैं। दूसरा अन्ना के सहयोगी के ऐसे विरोधियों का भी यह काम हो सकता जो उनकी छवि बिगाड़ना चाहते रहे होंगे-यह अलग बात है कि उन्होंने स्वयं ही यह बयान देकर यह अवसर दिया।
आगे क्या होगा कहना कठिन है? इतना तय है कि अन्ना के यह सहयोगी अब जम्मू कश्मीर के मसले पर समर्थन कर भले ही अपने प्रायोजकों को प्रसन्न कर चुके हों पर भारतीय जनमानस उनके प्रति अब वैसे सद्भावना नहीं दिखायेगा। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलनरत श्री अन्ना हजारे की टीम में फिलहाल उनकी जगह बनी हुई है पर विशुद्ध रूप से जनमानस के हार्दिक समर्थन से चल रहे अभियान को आगे चलाते समय उनके रणनीतिकारों के पास अपने विवादास्पद सहयोगी से पीछा छुड़ाने के अलावा कोई चारा नहीं रहने वाला। उनके साथ मारपीट करने वालों का उद्देश्य की उनका खून बहाना नहीं बल्कि छवि खराब करना अधिक लगता है। यह मारपीट अनुचित थी पर जिस लक्ष्य को रखकर की गयी वह भी अन्ना टीम के विरोधियों के हाथ लग सकता है। जनमानस की अनदेखी करना कठिन है। यह सही है कि महंगाई और भ्रष्टाचार देश में भयंकर रूप ले चुके हैं और जनमानस से विवादास्पद बयान भूल जाने की अपेक्षा की जा सकती थी पर यह काम तो अन्ना के वह कथित सहयोगी भी कर सकते थे। वरना संयुक्त राष्ट्रसंघ में धूल खा रहे प्रस्ताव की बात अब करने क्या औचित्य था? भ्रष्टाचार जैसे ज्वलंत मुद्दे में ऐसे मुर्दा सुझाव का कोई मतलब नहीं था।
इस विषय पर कल दूसरे ब्लाग पर लिखा गया यह लेख भी अवश्य पढें।

             अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के लक्ष्यों को लेकर तो उनके विरोधी भी गलत नहीं मानते। इस देश में शायद ही कोई आदमी हो यह नहीं चाहता हो कि देश में भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो। अन्ना हजारे ने जब पहली बार अनशन प्रारंभ किया तो उनको व्यापक समर्थन मिला। किसी आंदोलन या अभियान के लिये किसी संगठन का होना अनिवार्य है मगर अन्ना दिल्ली अकेले ही मैदान में उतर आये तो उनके साथ कुछ स्वयंसेवी संगठन साथ हो गये जिसमें सिविल सोसायटी प्रमुख रूप से थी। इस संगठन के सदस्य केवल समाज सेवा करते हैं ऐसा ही उनका दावा है। इसलिये कथित रूप से जहां समाज सुधार की जरूरत है वहां उनका दखल रहता है। समाज सुधार एक ऐसा विषय हैं जिसमें अनेक उपविषय स्वतः शामिल हो जाते हैं। इसलिये सिविल सोसायटी के सदस्य एक तरह से आलराउंडर बन गये हैं-ऐसा लगता है। यह अलग बात है कि अन्ना के आंदोलन से पहले उनकी कोई राष्ट्रीय छवि नहंी थी। अब अन्ना की छत्रछाया में उनको वह सौभाग्य प्राप्त हुआ है जिसकी कल्पना अनेक आम लोग करते हैं। इसलिये इसके सदस्य अब उस विषय पर बोलने लगे हैं जिससे वह जुड़े हैं। यह अलग बात है कि उनका चिंत्तन छोटे पर्दे पर चमकने तथा समाचार पत्रों में छपने वाले पेशेवर विद्वानों से अलग नहीं है जो हम सुनते हैं।

           बहरहाल बात शुरु करें अन्ना हजारे से जुड़ी सिविल सोसायटी के सदस्य पर हमले से जो कि वास्तव में एक निंदनीय घटना है। कहा जा रहा है कि यह हमला अन्ना के सहयोगी के जम्मू कश्मीर में आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करने पर दिया गया था जो कि विशुद्ध रूप से पाकिस्तान का ऐजंेडा है। दरअसल यह संयुक्त राष्ट्र में पारित उस प्रस्ताव का हिस्सा भी है जो अब धूल खा रहा है और भारत की सामरिक और आर्थिक शक्ति के चलते यह संभव नहीं है कि विश्व का कोई दूसरा देश इस पर अमल की बात करे। ऐसे में कुछ विदेशी प्रयास इस तरह के होना स्वाभाविक है कि भारतीय रणनीतिकारों को यह विषय गाहे बगाहे उठाकर परेशान किया जाये। अन्ना के जिस सहयोगी पर हमला किया गया उन्हें विदेशों से अनुदान मिलता है यह बात प्रचार माध्यमों से पता चलती रहती है। हम यह भी जानते हैं कि विदेशों से अनुदान लेने वाले स्वैच्छिक संगठन कहीं न कहीं अपने दानदाताओं का ऐजेंडा आगे बढ़ाते हैं।
           हमारे देश में लोकतंत्र है और हम इसका प्रतिकार हिंसा की बजाय तर्क से देने का समर्थन करते हैं। कुछ लोगों को यह लगता है कि मारपीट कर प्रतिकार करें तो वह कानून को चुनौती देते हैं। इस प्रसंग में कानून अपना काम करेगा इसमें भी कोई शक नहीं है।
           इधर अन्ना के सहयोगी पर हमले की निंदा का क्रम कुछ देर चला पर अब बात उनके बयान की हो रही है कि उसमें भी बहुत सारे दोष हैं। कहीं न कहीं हमला होने की बात पीछे छूटती जा रही है। एक आम लेखक और नागरिक के रूप में हम अपनी बात कहें तो शायद कुछ लोगों को अजीब लगे। हमने अन्ना के सहयोगी के इस बयान को उन पर हमले के बाद ही सुना। इसका मतलब यह कि यह बयान आने के 15 दिन बाद ही घूल में पड़ा था। कुछ उत्तेजित युवकों ने मारपीट कर उस बयान को पुनः लोकप्रियता दिला दी। इतनी कि अब सारे टीवी चैनल उसे दिखाकर अपना विज्ञापनों का समय पास कर रहे हैं। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि कहीं यह उत्तेजित युवक यह बयान टीवी चैनलों पर दिखाने की कोई ऐसी योजना का अनजाने में हिस्सा तो नहीं बन गये। संभव है उस समय टीवी चैनल किसी अन्य समाचार में इतना व्यस्त हों जिससे यह बयान उनकी नजर से चूक गया हो। यह भी संभव है कि दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई बैंगलौर या अहमदाबाद जैसे महानगरों पर ही भारतीय प्रचार माध्यम ध्यान देते हैं इसलिये अन्य छोटे शहरों में दिये गये बयान उनकी नजर से चूक जाते हैं। इस बयान का बाद में जब उनका महत्व पता चलता है तो कोई विवाद खड़ा कर उसे सामने लाने की कोई योजना बनती हो। हमारे देश में अनेक युवक ऐसे हैं जो अनजाने में जोश के कारण उनकी योजना का हिस्सा बन जाते हैं। यह शायद इसी तरह का प्रकरण हो। हमला करने वाले युवकों ने हथियार के रूप में हाथों का ही उपयोग किया इसलिये लगता है कि उनका उद्देश्य अन्ना के सहयोगी को डराना ही रहा होगा। ऐसे में मारपीट कर उन्होंनें जो किया उसके लिये उनको अब अदालतों का सामना तो उनको करना ही होगा। हैरानी की बात यह है कि हमला करने वाले तीन आरोपियों में से दो मौके से फरार हो गये पर एक पकड़ा गया। जो पकड़ा गया वह अपने कृत्य पर शार्मिंदा नहीं था और जो फरार हो गये वह टीवी चैनलों पर अपने कृत्य का समर्थन कर रहे थे। हैरानी की बात यह कि उन्होंने अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रति समर्थन देकर अपनी छवि बनाने का प्रयास किया। इसका सीधा मतलब यह था कि वह अन्ना की आड़ में उनके सहयोगी के अन्य ऐजेंडों से प्रतिबद्धता को उजागर करना चाहते थे। वह इसमें सफल रहे या नहीं यह कहना कठिन है पर एक बात तय है कि उन्होंने अन्ना के सहयोगी को ऐसे संकट में डाल दिया है जहां उनके अपने अन्य सहयोगियों के सामने अपनी छवि बचाने का बहुत प्रयास करना होगा। संभव है कि धीरे धीरे उनको आंदोलन की रणनीतिक भूमिका से प्रथक किया जाये। कोई खूनखराबा नहीं  हुआ यह बात अच्छी है पर अन्ना के सभी सहयोगियों के सामने अब यह समस्या आने वाली है कि उनकी आलराउंडर छवि उनके लिये संकट का विषय बन सकती है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन निर्विवाद है पर जम्मू कश्मीर, देश की शिक्षा नीति, हिन्दुत्ववाद, धर्मनिरपेक्षता तथा आतंकवाद जैसे संवेदनशील विषयों पर अपनी बात सोच समझकर रखना चाहिए। यह अलग बात है कि लोग चिंत्तन करने की बजाय तात्कालिक लोकप्रियता के लिये बयान देते हैं। यही अन्ना के सहयोगी ने किया। स्थिति यह है कि जिन संगठनों ने उन पर एक दिन पहले उन पर हमले की निंदा की दूसरे दिन अन्ना के सहयोगी के बयान से भी प्रथक होने की बात कह रहे हैं। अन्ना ने कुशल राजनीतिक होने का प्रमाण हमले की निंदा करने के साथ ही यह कहकर भी दिया कि मैं हमले की असली वजह के लिये अपने एक अन्य सहयेागी से पता कर ही आगे कुछ कहूंगा।

            आखिरी बात जम्मू कश्मीर के बारे में की जाये। भारत में रहकर पाकिस्तान के ऐजेंडे का समर्थन करने से संभव है विदेशों में लोकप्रिय मिल जाये। कुछ लोग गला फाड़कर चिल्लाते हुए रहें तो उसकी परवाह कौन करता है? मगर यह नाजुक विषय है। भारत का बंटवारा कर पाकिस्तान बना है। इधर पेशेवर बुद्धिजीवी विदेशी प्रायोजन के चलते मानवाधिकारों की आड़ में गाहे बगाहे जनमत संग्रह की बात करते हैं। कुछ ज्ञानी बुद्धिजीवी इस बात को जानते हैं कि यह सब केवल पैसे का खेल है इसलिये बोलते नहीं है। फिर बयान के बाद मामला दब जाता है। इसलिये क्या विवाद करना? अलबत्ता इन बुद्धिजीवियों को कथित स्वैच्छिक समाज सेवकों को यह बता दें कि विभाजन के समय सिंध और पंजाब से आये लोग हिन्दी नहीं जानते थे इसलिये अपनी बात न कह पाये न लिख पाये। उन्होंने अपनी पीड़ा अपनी पीढ़ी को सुनाई जो अब हिन्दी लिखती भी है और पढ़ती भी है। यह पेशेवर बुद्धिजीवी अपने उन बुजुर्गों की बतायी राह पर चल रहे हैं जिसका सामना बंटवारा झेलने वाली पीढ़ी से नहीं हुआ मगर इनका होगा। बंटवारे का सच क्या था? वहां रहते हुए और फिर यहां आकर शरणार्थी के रूप में कैसी पीढ़ा झेली इस सच का बयान अभी तक हुआ नहीं है। विभाजन से पूर्व पाकिस्तान में सिंध, बलूचिस्तान और सिंध प्रांतों में क्या जनमत कराया गया था? पाकिस्तान जम्मू कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करता और जनमत संग्रह की मांग करने वाले खुले रूप से उससे हमदर्दी रखते हैं। ऐसे में जनमत संग्रह कराने का मतलब पूरा कश्मीर पाकिस्तान को देना ही है। कुछ राष्ट्रवादियों का यह प्रश्न इन कथित मानवाधिकारियों के सामने संकट खड़ा कर सकता है कि ‘सिंध किसके बाप का था जो पाकिस्तान को दे दिया या किसके बाप का है जो कहता है कि वह पाकिस्तान का हिस्सा है’। जम्मू कश्मीर को अपने साथ मिलाने का सपना पूरा तो तब हो जब वह पहले बलूचिस्तान, सीमा प्रांत और सिंध को आजाद करे जहां की आग उसे जलाये दे रही है। यह तीनों प्रांत केवल पंजाब की गुलामी झेल रहे हैं। इन संकीर्ण बुद्धिजीवियों की नज़र केवल उस नक्शे तक जाती है जो अंग्रेज थमा गये जबकि राष्ट्रवादी इस बात को नहीं भूलते कि यह धोखा था। संभव है कि यह सब पैसे से प्रायोजित होने की वजह से हो रहा हो। इसी कारण इतिहास, भूगोल तथा अपने पारंपरिक समाज से अनभिज्ञ होकर केवल विदेशियों से पैसा देकर कोई भी कैसा भी बयान दे सकता है। यह लोग जम्मू कश्मीर पर बोलते हैं पर उस सिंध पर कुछ नहीं बोलते जो हमारे राष्ट्रगीत में तो है पर नक्शे में नहीं है।

लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

6 अक्तूबर 2011

दशहरे पर तीन हास्य क्षणिकाऐं (three short story on dashahara festival)

रावण का पुतला जहां तहां जला लिया,
यूं ही सभी ने दशहरा खुशी से मना लिया।
रावणत्व जिंदा है आज भी हर दिल मे
बारुद फूंक कर खुद को राम बना लिया।
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वह हर बरस राम रावण युद्ध दिखायेंगे,
बुराई पर अच्छाई की जीत यूंही लिखायेंगे।
किताबों में लिखी बातें करेंगे सभी लोग,
हम कलियुगी है यह भी बच्चों को सिखायेंगे।
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वह रावण का पुतला जला रहे हैं,
दावा यह कि रावण को जला रहे हैं।
भूख और बेकारी हटाने की बात करते
अपने घर सोने के नल चला रहे हैं।
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

21 सितंबर 2011

दिल की दरार-हिन्दी कवितायें (dil ke darar or hurt of heart-hindi kavita or poem)

कितनी बार भी भूख लगी
खाने पर मिट गयी,
कितनी पर प्यास भी लगी
पानी मिलने पर मिट गयी,
मगर पड़ी जो दिल में दरारें
बनी रहीं चाहे पीढ़ी दर पीढ़ी मिट गयी।
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वह लोगों में
धरती पर जन्नत लाने का
सपना सजाते हैं,
वादों को बड़ी खूबसूरती से सजाते हैं,
एक बार जो चढ़ गये सिंहासन की सीढ़ी
फिर महलों से बाहर नहीं आते हैं।
दिल मिलाने की बातें भले ही करते
मगर दरारें चौड़ी ही किये जाते हैं।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

11 सितंबर 2011

हिन्दी भाषा का महत्व उसके अध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण होने के कारण-हिन्दी दिवस पर लेख (hindi ka mahatva or importance and sanskrit-special article on hindi diwas or divas on 14 septembdar)

     संस्कृत देवभाषा कही गयी है जिसमें हमारे अध्यात्म दर्शन का बड़ा भारी खजाना जमा है। यह पता नहीं कि संस्कृत एक कठिन भाषा है इसलिये भारत में इसका विस्तार नहीं हुआ या अपने समय में इसे कुछ खास लोग ही लिखना पढ़ना जानते थे जो बिना इस परवाह किये अपने रचनाकर्म के आगे बढ़ते रहे कि आखिर उनकी बात समाज के पास पहुंच रही है इसलिये उन्होंने अपनी भाषा को आमजन का हिस्सा बनाने का प्रयास नहीं किया। संस्कृत के बारे में इतिहासकार क्या सोचते हैं यह एक अलग बात है पर हमारा मानना है कि किसी समय यह भाषा केवल रचनाकारों के लिये उपयुक्त मानी जाती रही होगी। आमजन की भाषा यह शायद ही कभी रही होगी। जब हम किसी समय के इतिहास को पढ़ते हैं तो उसमें वर्णित पात्रों के इर्दगिर्द ही हमारा ध्यान जाता है। उनसे जुड़े समाज या आमजन की वास्तविक स्थिति का आभास नहीं हो पाता। जब समाज या आमजन की एतिहासिक स्थिति जानना हो तो अपने वर्तमान को देखकर ही अनुमान किया जा सकता है। संस्कृत किस तरह इस देश में अपना स्थान बनाये रख सकी होगी इसका आज की हिन्दी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की स्थिति को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है।
     हिन्दी के बारे में कहा जाता है कि इसकी बोली हर पांच कोस पर बदल जाती है। अनेक भाषायें ऐसी हैं जिनको हिन्दी माना जाता है पर उनका आधार क्षेत्र विशेष है। अगर हम भक्ति काल का हिन्दी साहित्य देखें तो उसमे कहीं भी आधुनिक हिन्दी का बोध नहीं होता पर उनको हिस्सा तो हिन्दी साहित्य का ही माना गया। कहा जाता है कि देश की अनेक भाषायें संस्कृत से निकली हैं। हम हिन्दी को देखकर इसे नहीं मान सकते। उस समय भी संस्कृत ऐसे ही रही होगी जैसी आज हिन्दी! हर पांच कोस पर उसका रूप बदलता होगा। अगर हम आधुनिक हिन्दी की बात करें तो हमारा ग्रामीण समाज वैसी शुद्ध हिन्दी नहीं    बोलता। उसकी बोली में स्थानीय पुट रहता है।
     हमने शैक्षणिक काल के दौरान जिस हिन्दी का अध्ययन किया वैसी समाज में कम भी बोलती दिखी। जब लिखना शुरु किया तो प्रयास यह किया कि बोलचाल से प्रथक रचनाओं में कुछ साहित्यक पुट भाषा में दिखे। सच तो यह है कि जैसी हिन्दी प्रतिदिन बोलते हैं वैसी लिखते नहीं है। लेखक दिखने के लिये कुछ औपचारिकता आ ही जाती है और भाषा में कहीं न साहित्यक पुट स्वतः उत्पन्न होता है। जिन्होंने संस्कृत में रचनाऐं कीं उन्होंने अपने रचनाकर्म में  भाषा की मर्यादा रखी पर यह आवश्यक नहीं है कि वह बोलते भी वैसा ही हों जैसा लिखते थे। शायद इसी कारण ही संस्कृत को देव भाषा कहा गया। संस्कृत से देशी भाषायें निकली हैं यह कहना गलत लगता है पर उस समय यह देश के आमजन की भाषाओं की प्रतिनिधि भाषा रही होगी जैसी आज हिन्दी है। जब वाराणसी में संस्कृत लिखी जाती होगी तो वहां आमजन इसको बोलता होगा यह जरूरी नहीं है। उसी काल में तमिलनाडु या अन्य दक्षिण भारत में भी संस्कृत के वैसे ही विद्वान होंगे पर वहां कभी भाषा ऐसी रही होगी जिसमें स्थानीय भाषा के शब्द भी रहे होंगे। चूंकि पूर्व काल में संस्कृत भाषा को संस्थागत रूप से आगे बढ़ाने का प्रयास नहीं हुआ इसलिये यह आमजन में प्रचलित नहीं हुई। हिन्दी के विकास में संस्थागत प्रयासों ने बहुत कम किया है इसलिये शुद्ध हिन्दी का स्वरूप सभी जगह एक जैसा दिखाई देता है।
       समय के अनुसार भाषाओं के रूप बदले होंगे तो उनमें अन्य भाषाओं के शब्द भी शामिल होकर उसकी शोभा बढ़ाते होंगे। एक बात तय है कि संस्कृत एक समय इस देश की अकेली भाषा नहीं  रही होगी अलबत्ता नेतृत्व उसका रहा होगा। देश की भौगोलिक, सामाजिक, भाषाई, सांस्कृतिक तथा एतिहासिक विविधता को देखते हुए यह बात साफ लगती है कि यहां कोई एक भाषा अस्तित्व बनाये नहीं रख सकती है।
       इसमें कोई शक नहीं है कि हमारे देश का सांस्कृतिक आधार आज भी संस्कृत की रचनायें हैं। हिन्दी उसकी जगह ले सकती थी पर ऐसा नहीं हो सका। इसका कारण न केवल राजनीतिक और सामाजिक है बल्कि हिन्दी भाषी कर्णधारों का कमजोर रचनाकर्म भी है। भक्ति काल की रचनाओं के बाद ऐसी रचनायें नहीं आयी जो समाज को रास्ता दिखाती। हिन्दी रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज की दिशा बदलना चाहते रहे पर वह पाठक या आमजन का नया लक्ष्य नहीं तय कर पाये। समाज को पश्चिम जैसा आधुनिक दिखने का संदेश देते रचनाकर्मी यह नहीं बता सके कि उससे क्या होना था? मुख्य बात यह कि आधुनिक हिन्दी रचनाकर्मी एक बात भूल गये कि भारतीय जनमानस अंततः अध्यात्म की तरफ जाता है। यह उसके खून में है। सबसे बड़ी बात यह कि हिन्दी में बड़ी बड़ी बातें लिखी जाती हैं। अनेक लोग तो तात्कालिक घटनाओं की विवेचना कर स्वनाम धन्य हो जाते हैं तो अनेक समाज की पीड़ा को बाहर लाकर उसके इलाज में लाचारी दिखाते हैं।
         वह स्वयं मुखर होते दिखना चाहते हैं पर भारतीय जानमानस बिना अध्यात्मिक तत्व के प्रभावित नहीं होता।
        ऐसा लगता है कि संस्कृत किसी समय में अध्यात्म की भाषा रही होगी। हिन्दी में महाकवि तुलसी को सबसे ऊंचा स्थान रामकथा के कारण ही मिला जिसे हम आज अपनी अध्यात्मिक धरोहर मानते हैं। इससे यह तो तय हो गया है कि संस्कृत की उतराधिकारिणी हिन्दी ही है। ऐसे में सभी हिन्दी लेखकों से यह अपेक्षा करना ठीक नहीं है कि सभी अध्यात्मिक ज्ञानी हो जायें पर भारतीय जनमानस को बदलना भी संभव नहीं है। संस्कृत से अनुवाद होकर ही भारतीय अध्यात्मिक रचनाऐं आम जनमानस का हिस्सा बनी। इस संबंध में गोरखपुर प्रेस की चर्चा करना आवश्यक है जिन्होंने अकेले ही संस्कृत की विरासत को हिन्दी में स्थापित कर दिया। इससे हिन्दी अध्यात्मिक भाषा ही बन गयी। सांसरिक या कल्पित विषय जनमानस को आज भी अधिक नहीं सुहाते। यही कारण है कि आजकल व्यवसायिक हिन्दी संस्थान, फिल्म और टीवी वाले हिन्दी में अंग्रेजी के शब्द शामिल कर उसे वैश्विक भाषा बनाने में जुटे हैं ताकि वह अपने व्यवसाय के लिये नये आधार बना सकें। इस तरह व्यवसायिक हिन्दी बन रही है। दरअसल जिनको हिन्दी से पैसा कमाना है वह सोचते हैं कि कुछ अंग्रेजी के शब्द शामिल कर आज की युवापीढ़ी को अपना प्रयोक्ता बनाये। वह दावा करते हैं कि इससे हिन्दी का विकास होगा। यह सरासर बेकार बात है।
      हम दोष उनको भी नहीं देते। सभी लोग अध्यात्मिक विषय नहीं बेच सकते। इसलिये वह भाषा को आकर्षक बनाये रखने के लिये ऐसे प्रयास करेंगे। कभी अंग्रेजी तो कभी उर्दू के शब्द शामिल कर उसे चमकायेंगे।
      इसके विपरीत अनेक अध्यात्मिक संस्थान अपनी पत्रिकायें निकाल रहे हैं। वह शुद्ध हिन्दी का उपयेाग कर रहे हैं। इसका कारण यह है कि उनको पाठकों में ग्राहक नहीं बल्कि भक्त ढूंढने होते हैं। ऐसे अध्यात्मिक संस्थान सफल भी हैं जो हिन्दी में पत्रिकायें निकाल रहे हैं। उनको भाषा में तोड़फोड़ करने की आवश्यकता इसलिये भी नही है क्योंकि उनका आधार अध्यात्मिक है जो यहां के जनमानस की मनोरंजन से पहले की पसंद है। शायद ही किसी ने इस बात को रेखांकित किया हो कि जितने बड़े पैमाने पर इन अध्यात्मिक संस्थानों की पत्रिकायें बिक रही हैं उसका मुकाबला शायद ही कोई व्यवसायिक पत्रिका कर पाये। इसलिये जब यह व्यवसायिक पत्रिकायें भाषा की तोड़फोड़ कर रही है तो चिंता नहीं रह जाती क्योंकि अंततः हिन्दी अध्यात्म की भाषा है और अध्यात्मिक संस्थान उसको बचा रहे हैं।
       मूल बात जो हम कह रहे है कि हिन्दी से दूर जाने का आशय होगा अपने आपसे दूर जाना। अंग्रेजी कभी इस देश में मुख्य स्थान नहीं बना पायेगी। फिर अब हमारे देश की स्थिति आज भी दिख रही है उसमें आज भी हमारा आधार ग्रामीण और श्रमशील समाज है। वह अंग्रेजी से दूर है। जिन लोगों को विदेश जाकर नौकरी करनी हो या देश में बड़ा चाटुकार बनना हो उसके लिये अंग्रेजी ठीक है पर जिसे आम जीवन गुजारना है उसकी भाषा हिन्दी वह भी शुद्ध होना जरूर है। अंग्रेजी भाषा जहां बहिर्मुखी और आक्रामक बनाती है वहीं हिन्दी अंतर्मुखी और सहज जीवन जीने में सहायक होती है। अंतर्मुखी और सहज भाव ही मनुष्य की अध्यात्मिक प्रवृत्तियों को बचाये रखने में सहायक होती हैं। जब हम हिन्दी भाषा के अध्यात्मिक होने की बात कह रहे हैं तो हमारा आशय उस भाषा से है जिसमें भले ही क्षेत्रीय भाषाओं को पुट तो हो पर अंग्रेजी और उर्दू के प्रचलित शब्द उसमें कतई शामिल न हों। इन दोनों भाषाओं का मूल भाव हिन्दी जैसा नहीं है यह बात याद रखने लायक हैं।
        संस्कृत को अनेक विद्वान बचाने का प्रयास कर रहे हैं पर चूंकि उसका समग्र साहित्य हिन्दी में आ गया है इसलिये उसे भी वैसा ही सम्मान मिल रहा है। हिन्दी का महत्व अगर बखान करना हो तो केवल एक ही पंक्ति ही पर्याप्त है कि यह भारत की ही नहीं विश्व की अध्यात्मिक भाषा है। अगर अध्यात्मिक ज्ञान का सुख हृदय में प्राप्त करना है तो सिवाय हिन्दी भाषा के मस्तिष्क में धारण किये बिना वह संभव नहीं है।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

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28 अगस्त 2011

अन्ना हजारे (अण्णा हज़ारे) का अनशन समाप्त होना स्वागतयोग्य-हिन्दी लेख (end of anna hazare fast and agitation-hindi lekh or article)

                 महाराष्ट्र के समाज सेवी अन्ना हजारे आज पूरे देश के जनमानस में ‘महानायक’ बन गये हैं। वजह साफ है कि देश में जन समस्यायें विकराल रूप ले चुकी हैं और इससे उपजा असंतोष उनके आंदोलन के लिये ऊर्जा का काम कर रहा है। पहले अप्रैल में उन्होंने अनशन किया और फिर अगस्त माह में उन्होंने अपने अनशन की घटना को दोहराया। जब अप्रेल   में उन्होंने अनशन आश्वासन समाप्त किया तब उनका मजाक उड़ाया गया था कि वह तो केवल प्रायोजित आंदोलन चला रहे हैं। अब की बार उन्होंने 12 दिन तक अनशन किया। इस अनशन से भारत ही नहीं बल्कि विश्व जनमानस पर पड़े प्रभावों का अध्ययन अभी किया जाना है क्योंकि इस प्रचार विदेशों तक हुआ है। फिर जिन लक्ष्यों को लेकर यह अनशन किया गया उनके पूरे होने की स्थिति अभी दूर दिखाई देती है मगर देश के चिंतकों के लिये इस समय उनकी उपेक्षा करना ही ठीक है। अन्ना हजारे के अनशन आंदोलित पूरे देश के लोगों ने उसकी समाप्ति पर विजयोन्माद का प्रदर्शन किया पर महानायक ने कहा‘‘यह जीत अभी अधूरी है और अभी मैंने अनशन स्थगित किया है समाप्त नहीं।’ इस बयान से एक बात तो समझ में आती है कि अन्ना साहेब में राजनीतिक चातुर्य कूट कूटकर भरा है।
              अन्ना साहेब के बारह दिनों तक चले अनशन में तमाम उतार चढ़ाव आये और अगर उनका उसे छोड़ना ही सफलता माना जाये तो कोई बुरी बात नहीं है। साथ ही लक्ष्य से संबंधित परिणामों पर दृष्टिपात न करना भी ठीक है। पूरे देश का जनमानस ही नहीं जनप्रतिनिधियों के मन में जो भारी तनाव इस दौरान दिखा वह चौंकाने वाला था। इसका कारण यह था कि हिन्दी प्रचार माध्यम निरंतर इससे जुड़े छोटे से छोटे से घटनाक्रम का प्रचार क्रिकेट मैच की तरह कर रहे थे गोया कि देश में अन्य कोई खबर नहीं हो।
            अगर हम तकनीकी दृष्टि से बात करें तो अन्ना साहेब के प्रस्तावित जनलोकपाल ने अभी एक इंच कदम ही बढ़ाया होगा पर अन्ना साहेब की गिरते स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से यह भारी सफलता है। हम तत्काल इस आंदोलन के परिणामों पर विचार कर सकते हैं पर ऐसे में हमारा चिंत्तन इसके दूरगामी प्रभावों को देख नहीं पायेगा।  इस आंदोलन के लेकर अनेक विवाद हैं पर यह तो इसके विरोधी भी स्वीकारते हैं कि इसके प्रभावों का अनदेखा करना ठीक नहीं है।
         प्रधानमंत्री श्रीमनमोहन सिंह की चिट्ठी मिलने के बाद श्री अन्ना साहेब न अनशन तोड़ा। अपने पत्र में प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने यह अच्छी बात कही है कि ‘संसद ने अपनी इच्छा व्यक्त कर दी है जो कि देश के लोगों की भी है।’’
           उनकी इस बात में कोई संदेह नहीं है और इस विषय पर संसद के शनिवार को अवकाश के दिन विशेष सत्र में सांसदों ने जिस तरह सोच समझ के साथ ही दलगत राजनीति से ऊपर उठकर अपने विचार जिस तरह दिये वह इसका प्रमाण भी है। संभव है विशेषाधिकार के कारण कुछ सांसदों के मन में अहंकार का भाव रहता हो पर कल सभी के चेहरे और वाणी से यही भाव दिखाई देता कि किस भी भी तरह इस 74 वर्षीय व्यक्ति का अनशन टूट जाये जो कि इस देश के जनमानस का ही भाव है। सच बात तो यह है कि इस बहस में आंदोलन से जुड़े संबंधित सभी तत्वों का सार दिखाई देता है। यही कारण है कि प्रचार माध्यमों के सहारे इस आंदोलन की सफलता की बात कही गयी। अनेक सांसदों ने इस आंदोलन के उन देशी विदेशी पूंजीपतियों से प्रायोजित होने की बात भी कही जो भारत की संसदीय प्रणाली पर नियंत्रण करना चाहते हैं। इसके बावजूद सभी ने श्री अन्ना हजारे के प्रति न केवल सभी ने सहानुभूति दिखाई बल्कि उनके चरित्र की महानता को स्वीकार भी किया। देश के जनमानस का अब ध्यान करना होगा यह बात कमोबेश सभी सांसदों  ने स्वीकार की और इस आंदोलन के अच्छे परिणाम के रूप में इसे माना जा सकता है।
           देश के जिन रणनीतिकारों ने इस विषय पर संसद का विशेष सत्र आयोजित करने की योजना बनाई हो वह बधाई के पात्र हैं क्योंकि श्री अन्ना साहेब की वजह से देश के युवा वर्ग ने उसे देखा और यकीनन उसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था में रुचि बढ़ेगी। देश के संासदों में अनेक ऐसे हैं जिन्होंने इस बात को अनुभव किया कि अन्ना साहेब की देश में एक महानायक की छवि है और उन पर आक्षेप करने का मतलब होगा देश की आंदोलित युवा पीढ़ी के दिमाग में अपने लिये खराब विचार करना इसलिये शब्दों के चयन में सभी ने गंभीरता दिखाई। बहरहाल कुछ सांसदों ने प्रचार माध्यमों पर आंदोलन को अनावश्यक प्रचार का आरोप लगाया पर उन्हें यह भी याद रखना होगा इसी विषय पर हुए विशेष सत्र के बहाने उन्होंने पूरे देश को संबोधित करने का अवसर पाया जिसे इन्हीं प्रचार माध्यमों ने अपने समाचारों में स्थान दिया। यह अलग बात है कि इस दौरान उनके विज्ञापन भी अपना काम करते रहे। वैसे तो संसद की कार्यवाही चलती रहेगी पर इस तरह पूरे राष्ट्र को संबोधित करने का अवसर सांसदों के पास बहुत समय बाद आया। उनको इस बात पर भी प्रसन्न होने चाहिए कि अभी तक प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र को संबोधित न करने के कारण जनप्रतिनिधियों पर देश के जनमानस की उपेक्षा का आरोप लगता है वह इस अवसर के कारण धुल गया क्योंकि उन्होंने देश की इच्छा को ही व्यक्त किया।
         हम जैसे आम लेखकों के पास इंटरनेट और प्रचार माध्यम ही है जिसके माध्यम से विचारणीय सामग्री मिलती है यह अलग बात है कि उसे छांटना पड़ता है। होता यह है कि समाचार पत्र और टीवी चैनल अपनी रोचकता का स्तर बनाये रखने के लिये किसी एक घटना में बहुत सारे पैंच बना देते हैं और फिर अलग अलग प्रस्तुति करने लगते हैं। सामग्री में दोहराव होता है और जब पाठकों और दर्शकों के अधिक जुड़ने की संभावना होती है तो उनके विज्ञापन भी बढ़ जाते हैं। समस्त प्रचार माध्यम धनपतियों के हाथ में और यही कारण है कि अन्ना साहेब के आंदोलन के प्रायोजन की शंका अनेक बुद्धिमान लोगों के दिमाग में आती है। इसमें कुछ अंश सच हो सकता है पर एक बात यह है अन्ना साहेब एक सशक्त चरित्र के स्वामी हैं।
             आखिरी बात यह है कि भोगी कितना भी बड़ा पद पा जाये वह बड़ा नहीं कहा जा सकता। बड़ा तो त्यागी ही कहलायेगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि अन्ना साहेब ने अन्न का त्याग किया था। पूरे 12 दिन तक अन्न का त्याग करना आसान काम नहीं है। हम जैसे लोग तो कुछ ही घंटों में वायु विकार का शिकार हो जाते हैं। अन्ना साहेब ने एक ऐसे भारत की कल्पना लोगों के सामने प्रस्तुत की है जो अभी स्वप्न ही लगता है पर सबसे बड़ी बात वह अभी अपने प्रयास जारी रखने की बात भी कह रहे हैं। मुश्किल यह है कि वह अनशन शुरु कर देते हैं तब आदमी का हृदय कांपने लगता है। यही कारण है कि उनका अनशन टूटना भी ही लोगों में विजयोन्माद पैदा कर रहा है। उन्होंने जिस तरह आज की युवा पीढ़ी को वैचारिक रूप से सशक्त बनाया उसकी प्रशंसा तो की ही जाना चाहिए जो कि अंततः हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के वाहक हैं।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

15 अगस्त 2011

मजबूरी और बदलाव-हिन्दी शायरियां (mazboori aur badlav-hindi shayriyan)

जमाना बदल जाये
इस ख्वाहिश में
पूरी जिंदगी बीत जायेगी,
अगर खुद को बदल सको
बेहतर रहेगा,
नजरिया बदला तो
दुनियां बदली नजर आयेगी।
-------
तूफानों की ताकत बहुत है
मगर वह पेड़ उजाड़ते हैं
लगा नहीं सकते,
जिनके पास ताकत है जमाना बदलने की
पहले खुद बदलकर दिखाते हैं,
जिनमें कुब्बत नहीं है
वह मजबूरियों के नाम लिखाते हैं,
कमजोर लोग खाली शोर मचाकर नहीं थकते।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

8 अगस्त 2011

जहां अमेरिका का नाम है-हिन्दी काव्य रचना

भारत आजाद देश
पर अर्थव्यवस्था गुलाम है,
कांपता है अमेरिका का डॉलर
बिगड़ता अपने रुपये का काम है,
जिनके हाथों में है दौलत की ताकत
उनकी आंखें ताक रहीं न्यूयार्क की तरफ
वाशिंगटन का बसा
उनके दिल में नाम है।
कहें दीपक बापू
अपनी आजादी अब भ्रम लगती है
जब धरती देती अन्न सोने की तरह,
आकाश बिखेरता जल मोती की तरह,
फिर भी गरीब और भूख मिटी नहीं
लॉस एंजिल्स के पर्दे पर
ऑस्कर लेकर भी पिटी नहीं,
भर गयी तिजोरियां
गरीबों की मदद करने वालों की
रुपया चेहरा बदलकर डॉलर हो गया,
रोटी से भरे पेट है जिनके
उनके हाथ में ही रहते व्हिस्की के जाम हैं,
सिगरेट के धूंए सरीखी हो गयी है
उनकी देशभक्ति,
देह यहां
पर बाहर बसी आसक्ति,
जुबान पर भारत का नाम
दिल की उड़ती दुआऐं बहती उस तरफ
जहां अमेरिका का नाम है।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

7 अगस्त 2011

दोस्त और दोस्ती-हिन्दी शायरी (dost aur dosti-hindi shayari)

सुबह से शाम तक भटके शहर में 
कोई दोस्त न मिला,
मिले जो लोग 
उनको  अपना कहना मुश्किल था 
जिनसे कर आये थे वह वफ़ा का वादा 
कर रहे थे हमारे सामने उनकी गिला 
---------------------------
दोस्त बहुत हैं 
मगर दोस्ती का मतलब समझ में न आया,
भीड़ में अजनबी भी अपना कहने लगे 
पर जब सहारे के लिए ताका इधर उधर
अपने को अकेला पाया

2 अगस्त 2011

स्वदेशी चिराग-हिन्दी कविता (swadeshi chirag-hindi kavita)

तरक्की के रास्ते पर
बस कार ही चलती है,
दूध की नदिया बहती थी जहां
पेट्रोल की धारा वहाँ मचलती है।
कहें दीपकबापू
विदेशी पेट्रोल की चाहत में
दूध, दही और खोवा हो गया नकली
अब स्वदेशी चिराग में
देश प्रेम की लौ मंद जलती है।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

22 जुलाई 2011

तृप्त मन का आनंद-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन (trupt man ka anand-hindi vyangya chinttan)

       वर्षा ऋतु में मनुष्य मन को एक स्वाभाविक सुखद अनुभूति होती है। इस पर सावन का महीना हो तो कहना ही क्या? अनेक ऋषियों और कवियों ने सावन के महीने के सौंदर्य का वर्णन किया है। अनेक कवियों ने काल्पनिक प्रेयसी को लेकर अनेक रचनायें भी की जिनको गीत और संगीत से इस तरह सजाया गया कि उनको आज भी गुनगुनाया जाता है । इनमें कुछ प्रेयसियां तो अपने श्रीमुख से सावन के महीने में पियत्तम के विरह में ऐसी ऐसी कवितायें कहती हुई दिखाई देती हैं कि श्रृ्रंगार और करुण रस के अनुपम उदाहरण बन जाती हैं।
     उस दिन रविवार का दिन था हम सुबह चाय पीकर घर से बाहर निकले। साइकिल चलाते हुए कुछ दूर पहुंचे तो पास से ही एक सज्जन स्कूटर चलाते हुए निकले और हमसे बोले ‘‘आज पिकनिक चलोगे।’ यहां से आठ किलोमीटर दूर एक तालाब के किनारे हमने पिकनिक का आयोजन किया है। वैसे तो हमने अन्य लोगां से प्रति सदस्य डेढ़ सौ रुपये लिये हैं। तुम्हारे साथ रियायत कर देते हैं। एक सौ चालीस रुपये दे देना पर तुम्हें आना अपने वाहन से ही पड़गा।
            हमने कहा-‘‘न! वैसे हम इस साइकिल पर पिकनिक मनाने ही निकले हैं। यहां से तीन किलोमीटर दूर एक एक मंदिर और पार्क है वहां जाकर पिकनिक मनायेंगे। ’’
         वह सज्जन रुक गये। हमें भी साइकिल से उतरना पड़ा। यह शिष्टाचार दिखाना जरूरी था भले ही मन अपने निर्धारित लक्ष्य पर विलंब से पहुंचने की संभावना से कसमसा रहा था। वह हमार चेहरे को देखने के बाद साइकल पर टंगे झोले की तरफ ताकते हुए बोले-‘इस झोले में खाने का सामान रखा है?’’
         हमने झोले की तरफ हाथ बढ़ाकर उसे साइकिल से निकालकर हाथ में पकड़ लिया और कहा-‘‘ नहीं, इसमें पानी पीने वाली बोतल और शतरंज खेलने का सामान है।’’
      वह सज्जन बोले-‘केवल पानी पीकर पिकनिक मनाओगे? यह तो मजाक लगता है! यह शतरंज किससे खेलोगे। यहां तो तुम अकेल दिख रहे हो।’
     हमने कहा-‘वहां हमारा एक मित्र जिसका नाम फालतु नंदन आने वाला है। उसी ने कहा था कि शतरंज लेते आना।’’
      वह सज्जन हैरान हो गये और कहने लगे कि‘-‘‘वह तुम्हारा दोस्त वहां कैसे आयेगा उसके पास तो स्कूटर या कार होगी?’
     हमने कहा-‘स्कूटर तक तो ठीक, कार वाले भला हमें क्यों घास डालने लगे। वह बैलगाड़ी से आयेगा।’
वह सज्जन चौंके-‘‘ बैलगाड़ी से पिकनिक मनाने आयेगा?’’
      हमने कहा-‘नहीं, वह अपने किसी बीमार रिश्तेदार का देखने पास के गांव गया था। बरसात से वहां का रास्ता खराब होने की वजह से वह बैलगाड़ी से गया है। उसने मोबाइल पर कहा था कि वह सुबह दस बजे पार्क में पहुंच जायेगा और हमसे शतरंज खेलने के बाद ही घर जायेगा। ’’
     वह सज्जन बोले-‘मगर यह तो रुटीन घूमना फिरना हुआ! इसमें खानापीना कहां है जो पिकनिक में होता है?’’
     हमने कहा-‘‘खाने का तो यह है कि पार्क के बाहर चने वाला बैठता है वह खा लेंगे और पीने के लिये वह कुछ ले आयेगा।’’
     वह हमारी आंखों में आंखें डालते हुए पूछा-‘‘मतलब शराब लायेगा! यह तो वास्तव में जोरदार पिकनिक होगी।’
    हमने कहा-‘‘नहीं, वह नीबू की शिकंजी पीने का सामान अपने साथ लेकर निकलता है। गांव से ताजा नीबू लायेगा तो हम वहां दो तीन बार शिकंजी पी लेंगे। हो सकता है वह गांव से कुछ खाने का दूसरा सामान भी लाये।’ अलबत्ता हम तो चने खाकर कम चलायेंगे।’’
   वह सज्जन बोले-‘‘अब आपको क्या समझायें? पिकनिक मनाने का भी एक तरीका होता है। आदमी घर से खाने पीने का सामान लेकर किसी पिकनिक स्पॉट पर जाये। वहां जाकर एन्जॉय (आनंद) करे। यह कैसी पिकनिक है, जिसमें खाने पीने के लिये केवल चने और नीबू की शिकंजी और एन्जॉयमेंट (आनंद)के नाम पर शतरंज। पिकनिक में चार आदमी मिलकर खाना खायें, तालाब में नहायें गीत संगीत सुने और ताश वगैरह खेलें तब होता है एन्जॉयमेंट!’’
       हमने कहा-‘‘मगर साहब, हम तो वहां पिकनिक जैसा ही एन्जॉयमेंट करते हैं।’’
उन सज्जन से अपना सिर धुन लिया और चले गये। अगले दिन फिर शाम को मिले। हमने पिकनिक के बारे में पूछा तो बोले-‘यार, थकवाट हो गयी। लोग पिकनिक तो मनाने आते हैं पर काम बिल्कुल नहीं करते। पैसा देकर ऐसे पेश आते हैं जैसे कि सारा जिम्मा हमारा ही है। सभी के लिये खाना बनवाओ। बर्तन एकत्रित करो। पानी का प्रबंध करो।’ अपना एन्जॉयमेंट तो गया तेल लेने दूसरे भी खुश नहीं हो पाते। व्यवस्था को लेकर मीनमेख निकालने से बाज नहीं आते।’’
     हमने कहा-‘‘पर कल हमने खूब एन्जॉय मेंट किया। वहां एक नहीं चार शतरंज के खिलाड़ी मिल गये। बड़ा मजा आया।’’
    वैसे हमने अनेक बार अनेक समूहों में पिकनिक की है पर लगता है कि व्यर्थ ही समय गंवाया। आनंद या एन्जॉयमेंट करने के हजार तरीके हैं आजमा लीजिये पर अनुभूति के लिये संवदेनशीलता भी होना जरूरी है। सतं रविदास ने कहा था कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। यह कोई साधारण बात नहीं है। आदमी अपनी नियमित दिनचर्या से उकता जाता है इसलिये वह किसी नये स्थान पर जाना चाहता है। ऐसे में नदिया तालाब और उद्यान उसके लिये मनोरंजन का स्थान बन जाते हैं। खासतौर से वर्षा ऋतु में नदियों में पानी का बहाव बढ़ता है तो सूखे तालाब भी लुभावने हो जाते हैं। ऐसे में दूर के ढोल सुहावने की भावना के वशीभूत जलस्तोत्रों की तरफ आदमी भागता है यह जाने बगैर कि वर्षा ऋतु में पानी खतरनाक रूप भी दिखाता है।
         मुख्य बात यह है कि हम अपने कामों में इस तरह लिप्त हो जाते हैं कहीं ध्यान जाता नहीं है। हम जहां काम करते हैं और जिस मार्ग पर प्रतिदिन चलते हैं वहीं अगर मजेदार दृश्यों को देखें तो शायद मनोरंजन पूरा हो जाये। ऐसा हम करते नहीं है बल्कि अपनी नियमित दिनचर्या तथा परिवहन के मार्ग को सामान्य मानकर उनमें उदासीन भाव से संलिप्त होते हैं।
         एक दिन एक सज्जन हमारे घर आये और बोले-‘यार, तुम कहीं घूमने चलो। कार्यक्रम बनाते है।’’
उस समय बरसात का सुहाना मौसम था। हमने उसे घर के बाहर पोर्च में आकर बाहर का दृश्य देखने को कहा। वह बोला -‘‘यहां क्या है?’’
        हमने उससे कहा-‘देखो हमारे घर के बाहर ही पेड़ लगा है। सामने भी फूलों की डालियां झूल रही हैं। । आगे देखो नीम का पेड़ खडा है। यहां पोर्च में खड़े होकर ही इतनी हरियाली दिख रही है। शीतल हवा का स्पर्श तन मन को आनंदित किये दे रहा है। अब बताओ ऐसा ही इससे अधिक शुद्ध हवा कहां मिलेगी। फिर अगर इससे मन विरक्त हो जायेगा तो शाम को पार्क चले जायेंगे। तब वहां भी अच्छा लगेगा। हमारी दिक्कत यह है कि बाहर हमें ऐसा देखने को मिलेगा या नहीं इसमें संशय लगता है। फिर इसी दिनचर्या में मन तृप्त हो जाता है तब बाहर कहां आनंद ढूंढने चलें। केवल शरीर को कष्ट देने में ही आनंद मिल सकता है तो वह भी हम रोज कर ही रहे हैं।’’
       हम पिछले साल उज्जैन गये थे। यात्रा ठीकठाक रही पर वहां दिन की गर्मी ने जमकर तपा दिया शाम को बरसात हुई और तब हम बस से घर वापस लौटने वाले थे। सारे दिन पसीने से नहाये। अपने शहर वापस लौटने के बाद एक रविवार हम जल्दी उठकर योगाभ्यास, स्नान और नाश्ता करने के बाद अपने शहर के मंदिरों में गये। एक नहीं पांच छह मंदिरों में गये तो ऐसा लगा कि किसी धार्मिक पर्यटन केंद्र में हों। एक शिव मंदिर पर हमारी एक पुराने मित्र से मुलाकात हुई। जब पता लगा कि वह वहां रोज आता है तो हमने पूछा कि‘यार, बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति के हो कहीं तीर्थ वगैरह पर भी जाते हो।’
       वह हंसकर बोला-‘यार, मेरे लिये तो यह मंदिर ही सबसे बड़ा तीर्थ है। यहीं आकर रोज मन तृप्त हो जाता है।’
      अनेक बार ऐसा लगता है कि जिन लोगों को अपने शहर में ही धूमने की आदत नहीं है या वह जानते ही नहीं कि उनका शहर भी अनेक तरह के रोमांचक केंद्र धारण किये हुए वही दूसरे शहरों में घूमने को लालायित रहते हैं। यह दूर के ढोल सुहावने वाली बात लगती है। मन भटकाता है। अगर वह चंगा नहीं है तो गंगा भी तृप्त नहीं कर सकती और मन चंगा है तो अपने घर के पानी से नहाने पर भी वह शीतलता मिलती है जो पवित्र होने के साथ ही दिन भरी के संघर्ष के लिये प्रेरणादायक भी होती है। अपने अपने अनुभव है और अपनी अपनी बात है। हमें तो हर मौसम में लिखने में मजा आता है पर क्योंकि उससे मन शीतल हो जाता है।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

14 जुलाई 2011

गुरू पूर्णिमा पर विशेष हिन्दी लेख-गुरु अगर द्रोणाचार्य जैसा न मिले पर एकलव्य जैसा शिष्य तो बना जा सकता है (guru purnima par vishesh hindi lekh-dronacharya and eklavya)

        गुरू पूर्णिमा का दिन भारत में धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में गुरु की सेवा का महत्व प्रतिपादित किया है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के ज्ञान का व्यवसायिक रूप से प्रवचन करने वाले अनेक गुरु इस संदेश का महत्व अपने अपने ढंग से बयान करते हुए अपनी छवि गुरु जैसी बना लेते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में गुरू के स्वरूप की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं है इसलिये इसका उपयोग चाहे जैसे किया जा सकता है पर जो लोग श्रीमद्भागवत के अक्षरक्षः पालन करने के समर्थक हैं वह गुरू के अधिक व्यापक स्वरूप की बजाय उसके सूक्ष्म अर्थ पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। उनका स्पष्टतः मानना है कि असली गुरु वही है जो अपने शिष्य को तत्वज्ञान से अवगत कराने के साथ ही उसमें धारित या स्थापित करने का सामर्थ्य रखता हो।
          श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान केवल उसके अध्ययन से सभी को नहीं हो सकता और उनको इसके लिये किसी न किसी गुरु की आवश्यकता होगी यह बात श्रीकृष्ण अच्छी तरह से जानते थे। देश में जो आज की शैक्षणिक स्थिति है उससे अधिक बदतर तो महाभारत काल में थी। सभी लोग अक्षर ज्ञान से अवगत नहीं थे और उनको धार्मिक और अध्यात्मिक ज्ञान में वर्णित सामग्री के लिये भाषा ज्ञान रखने वाले लोगों पर निर्भर रहना पड़ता था तब दैहिक गुरु की आवश्यकता बताई गयी। इसी कारण से श्रीमद्भागवत गीता में गुरु के स्वरूप के महत्व बताया गया। महभारत युद्ध में श्रीमद्भागवत गीता का संदेश देते भगवान श्रीकृष्ण के उस समय श्री अर्जुन के सखा न होकर गुरु बन गये थे।
       श्रीमद्भागवत गीता एक अनमोल ग्रंथ है। ऐसा कोई भी पेशेवर या गैर पेशेवर अध्यात्मवेता नहीं है जो उसके स्वर्णिम भंडार रूपी तत्वज्ञान से अपना मोह दूर रख सके। यह अलग बात है कि पेशेवर संत गुरु का अर्थ अत्ंयत व्यापक कर जाते हैं। वह उसमें माता पिता, दादा दादी और नाना नानी भी जोड़ देते हैं ताकि वह अपने शिष्यों के साथ उनके परिवार में भी पैठ बना सकें। जबकि श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों से ऐसा आभास नहीं होता। वहां गुरु से आशय केवल तत्वज्ञान देने वाले परिवार से बाहर के गुरु से ही है। उसकी सेवा की बात करना स्वाभाविक भी हैै। वह भी उस समय जब उससे शिक्षा प्राप्त की जा रही हो। उस समय गुरुकुलोंु में शिक्षा होती थी और सेवा एक आवश्यकता थी। न कि गुरुजी के दिये ज्ञान को धारण किये बिना हर वर्ष उसके यहां मत्था टेककर अपना जीवन धन्य समझना।
         कुछ पेशेवर संत माता पिता की सेवा का उपदेश देकर भीड़ की वाहवाही लूटते हैं क्योंकि उनके भक्तों में अनेक माता पिता भी होते हैं। ऐसे में कुछ लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि क्या श्रीमद्भागवत गीता में माता पिता के सेवा के लिये कोई स्पष्टतः उल्लेख नहीं हैं तो उन्हें बता दें कि भगवान श्रीकृष्ण ने तो गृहस्थ जीवन का त्याग करने की बजाय उसे निभाने की बात कही है। हमारे माता पिता हमारी गृहस्थी का ही भाग होते हैं न कि उनसे अलग हमारा और हमसे अलग उनका कोई अस्तित्व होता है। हम उनकी गृहस्थी का विस्तार हैं तो वह हमारी गृहस्थी के शीर्ष होते हैं। जो व्यक्ति गृहस्थ धर्म का पालन करता है वह अपनी गृहस्थी में शामिल हर सदस्य के प्रति अपना कर्तव्य निभाता है। इस दैहिक संसार में कोई भी आदमी अपने गृहस्थ कर्म से विमुख नहीं हो सकता इसलिये गुरु के स्वरूप का विस्तार करने की आवश्यकता नहीं है।
          माता पिता तो अपनी संतान के संसार का ही ज्ञान देते हैं जबकि गुरु इस प्रकृति के रहस्यों को उद्घाटित करने वाला ज्ञान देकर अपने शिष्य को इस जीवन को जीने का तरीका सिखाता है जिसके आगे सांसरिक ज्ञान तुच्छ साबित होता है। इसके विपरीत हम देख रहे है कि धर्म से जुड़े पेशेवर और गैरपेशेवर प्रवचन कर्ता अपने श्रोताओं और शिष्यों को सांसरिकता का पाठ ही अवश्य पढ़ाते हैं। उनका लक्ष्य समाज में चेतना लाने की बजाय उसे बौद्धिक विलासी बनाकर उसका दोहन करना होता है। स्थिति यह है कि इनमें से कई शिखर पर पहुंच कर अपने शिष्य और श्रोता समुदाय की संख्या का प्रभाव दिखाने की कोशिश सार्वजनिक रूप से करते हैं। ऐसे लोग श्रीमद्भागवत गीता जिसमें जिसमें निष्काम कर्म तथा निष्प्रयोजन दया का पाठ पढ़ाया है उसका वाचन कर लोगों में विषयों के प्रति आसक्ति को तीव्रतर करने के लिये करते हैं।
        इसका छोटा उदाहरण यह है कि श्रीमद्भागवत गीता के पहले अध्याय में अर्जुन ने युद्ध से विरक्त होकर जब हथियार डाले और श्रीकृष्ण को भविष्य के दुष्परिणामों के बारे में बताया तो उसमें उसने यह भी कहा था कि जब दोनों तरफ के योद्धा अपने परिवार के समस्य पुरुष सदस्यों के साथ मारे जायेंगे तो फिर उनका श्राद्ध और तर्पण कौन करेगा? उन्होंने अन्य आसन्न संकटों की भी चर्चा की। भगवान श्री कृष्ण ने दूसरे अध्याय में उसके इस तरह के सारे संकटों को वहम बताया। वहां भगवान श्रीकृष्ण ने उसे बताया कि यह सारे ढकोसले हैं। श्रीमद्भागवत गीता में किसी भी कर्मकांड का समर्थन नहीं किया गया। इसी श्रीगीता के आधार पर बोलने वाले गुरु अपने शिष्यों को श्राद्ध तथा पितृपक्ष का महत्व बताते हुए उसे निभाने की बात करते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण और भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र की यह विशेषता है कि दोनेां ही गुरु महिमा का बखान करते हैं पर एक बार वह अपने कर्मक्षेत्र में उतरे तो पलट कर अपने गुरु के पास नहीं गये। स्पष्टतः उनका आशय केवल शिक्षा के दौरान ही गुरु की सेवा से रहा है। उनके गुरुओं ने भी कभी उनका संपूर्ण जीवन तक दोहन नहीं किया। तत्वज्ञान देने वाला गुरु पूर्ण रूप से शिष्य को शिक्षित कर फिर उससे भी विरक्त हो जाता है। न वह शिष्य में मोह रखता है न वह उससे ऐसी अपेक्षा करता है। यही त्याग गुरु की सबसे बड़ी शक्ति है और आज हम अपने अध्यात्मिक ज्ञान के विश्व में सबसे अधिक संपन्न देखते हैं तो वह केवल इन्हीं गुरुओं की तपस्या का परिणाम है।
      लोग अक्सर कहते हैं कि सच्चे गुरु मिलते ही कहां है़? दरअसल वह इस बात को नहीं समझते कि पुराने समय में शिक्षा के अभाव में गुरुओं की आवकश्यता थी पर आजकल तो अक्षर ज्ञान तो करीब करीब सभी के पास है। जीवन में गुरु होना चाहिए पर न हो तो फिर श्रीमद्भागवत गीता को ही गुरू मानकर शिष्य भाव से उसका अध्ययन करना चाहिये जो अब सभी भाषाओं में उपलबध है। भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानकर श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन किया जाये तो ज्ञान चक्षु स्वतः खुल जायेंगे। फिर कहीं सत्संग और चर्चा करें तो अपने ज्ञान को प्रमाणिक भी बना सकते हैं। मुख्य बात संकल्प की है। हमारा स्वय का संसार हमारे सामने अपने ही संकल्प से वैसे ही स्थित होता है जैसे परमात्मा के संकल्प से स्थित है। अगर द्रोणाचार्य जैसे गुरु नहीं मिलते तो एकलव्य जैसा शिष्य तो बना ही जा सकता है।
इस अवसर पर अपने ब्लाग लेख्कों और पाठकों को बधाई।

 
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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