25 फ़रवरी 2011

पाखंड ने सत्य सुझाया-हिन्दी व्यंग्य कविता (pakhand ne satya sujhaya-hindi vyangya kavita)

हम सब भोले हैं या मूर्ख, हृदय ने प्रश्न उठाया।
पर तय है हमारे अज्ञान ने ज्ञान का सूरज उगाया।।
सभी जानते हैं कि शरीर नश्वर है जीव का,
मगर यम के हमले ने फिर भी हर बार सभी को रुलाया,
विश्व समाज के एक समान होने का सपना देखते,
जबकि तीन तरह के होंगे इंसान, श्रीगीता ने सुझाया।
खाने के लिये मरे जाते हैं सभी लोग हर समय,
भूख ने सहज योग से असहजता की तरफ बुलाया।
नये ताजे और स्वादिष्ट से पकवानों से सजाते पेट,
फिर भी ‘दिल मांगे मोर’,हर नयी चीज ने लुभाया।।
कांटों में खिलता गुलाब, कीचड़ में खिलता कमल,
यूं ही मूर्खों की करतूतों ने ज्ञानियो को सत्य सुझाया।
पाखंड, लालच और अहंकार से भरे अपने यहां के लोग
फिर भी प्रशंसनीय है, देश को विश्व गुरु जो बनाया।।
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लेखक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
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17 फ़रवरी 2011

सवालकर्ताओं का स्तर भी चर्चा का विषय बनता है-हिन्दी लेख

एक प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री ने टीवी चैनल के संपादकों के साथ बातचीत करते हुए जो कहा उस पर तमाम तरह की टिप्पणियां और विचार देखने को मिले। उनके उत्तरों की विवेचना करने वाले अनेक बुद्धिमान अपने अपने हिसाब से टिप्पणियां दे रहे हैं पर हम उनसे किये गये सवालों पर दृष्टिपात करना चाहेंगे।
श्री वेद प्रकाश वैदिक ने प्रधानमंत्री से किये गये सवालों पर सवाल उठाये हैं जो दिलचस्प हैं। उन्होंने सबसे पहला सवाल यह किया कि क्या सवाल करने के लिये भ्रष्टाचार का मुद्दा ही था? नेपाल, अफगानिस्तान और पाकिस्तान को लेकर इन संपादकों पत्रकारों के दिमाग में कोई विचार नहीं क्यों नहीं आया जबकि उनसे जुड़े मुद्दे भी अहम थे। यह सही है कि भ्रष्टाचार का मुद्दा इस देश के आमजन में चर्चित है पर पत्रकार या संपादक आम आदमी से कुछ ऊंचे स्तर के बौद्धिक स्तर के माने जाते हैं। अगर वह केवल इसीलिये इस मुद्दे पर अटके रहे क्योंकि दर्शक इसी में ही भटक रहे हैं तो फिर हमें कुछ नहीं कहना है पर उनको यह पता नहीं हेाना चाहिए कि उनके समाचार चैनलों के दर्शक तो आम आदमी के रूप में हम जैसे निठल्ले ही हैं जो समाचार देखने में रुचि रखने के साथ ही संपादकों और पत्रकारों के विश्लेषणों को सुनकर अपना समय गंवाते हैं।
एक बात तय रही है कि इस देश में लेखन, संपादन तथा समाचार संकलन की कला में दक्ष होने से कोई पत्रकार या संपादक नहीं बनता क्योंकि यहां व्यक्तिगत संबंध और व्यवसायिक जुगाड़ का होना आवश्यक है। जुगाड़ से कोई बन जाये तो उसे अपनी विधा में पारंगत होने की भी कोई आवश्कयता नहीं है। बस, जनता के बीच पहले किसी विषय की चर्चा अपने माध्यमों से कराई जाये फिर उस पर ही बोला और पूछा जाये। ऐसा करते हुए अनेक महान पत्रकार बन गये हैं। पहले समाचार पत्र पत्रिकाओं में जलवे पेल रहे थे अब टीवी पर भी प्रकट होने लगे हैं। श्री वेद प्रकाश वैदिक अंग्रेजी की पीटीआई तथा हिन्दी की भाषा समाचार एजेंसी जुड़े रहे हैं और शायद पत्रकारिता के लिए एक ऐसे स्तंभ हैं जिनसे सीखा जा सकता है पर उनकी तरह नेपथ्य में बैठकर अध्ययन और ंिचतन करने की इच्छा और अभ्यास होना आवश्यक है। वह भी पर्दे पर दिखते हैं पर इसके लिये लालायित नहंी दिखते। न ही उनकी बात सुनकर ऐसा लगता है कि कोई पुरानी बात कह रहे हैं। यही कारण है कि कभी कभी ही उनके दर्शन टीवी पर हो जाते हैं। मगर जिनको अपना चेहरा रोज दिखाना है उनके लिए चिंतन, अध्ययन और मनन करना एक फालतू का विषय है। इसलिये इधर उधर से सुनकर अपनी बात कर वाह वाह करवा लेते हैं।
प्रधानमंत्री से पूछा गया कि ‘भारत में विश्व कप क्रिकेट कप हो रहा है, आप अपने देश की टीम को शुभकामनाऐ देना चाहेंगे।’
अब बताईये कोई प्रधानमंत्री इसका क्या जवाब क्या ना में देगा।
दूसरा सवाल यह कि आप का पसंदीदा खिलाड़ी कौन है?
सवालकर्ता भद्र महिला शायद यह आशा कर रही थीं कि वह टीवी चैनलों की तरह कुछ खिलाड़ियों को महानायक बनाकर विज्ञापनदाताओं का अपना काम सिद्ध कर देंगी।
मगर प्रधानमंत्री ने हंसकर इस सवाल को टालते हुए कहा कि किसी एक दो खिलाड़ी का नाम लेना ठीक नहीं है।
एक महान देश के प्रधानमंत्री से ऐसे ही चतुराईपूर्ण उत्तर की आशा करना चाहिए। वह पूरे देश के प्रधानमंत्री हैं और किसी एक खिलाड़ी का नाम लेने का अर्थ था कि बाकी खिलाड़ियों को दुःख देना। मगर यहां सवालकर्ता के स्तर पर विचार करना पड़ता है। क्रिकेट पर प्रधानमंत्री से इतनी महत्वपूर्ण सभा में सवाल करना इस बात को दर्शाता है कि लोकप्रिय विषयों के आसपास ही हमारे प्रचार समूहों के बौद्धिक चिंतक घूम रहे हैं। कहते हैं कि आत्ममुग्धता की स्थिति बहुत खराब है। क्रिकेट का प्रचार माध्यम चाहे कितना भी करते हों पर अब यह इतने महत्व का विषय नहीं रहा कि भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों की समक्ष इसे रख जा सके। इसकी जगह उनसे किसी विदेशी विषय पर ऐसा सवाल भी किया जा सकता था जिसे सुनकर देश के लोग कुछ चिंतन कर सकते। यह सवाल एक महिला पत्रकार ने किया था। ऐसे में नारीवादियों को आपत्ति करना चाहिए कि क्या महिला पत्रकार होने का मतलब क्या केवल यही है कि केवल हल्के और मनोरंजन विषय उठाकर दायित्व निभाने की पुरानी परंपरा निभाया जाये। क्या किसी महिला पत्रकार के लिये कोई बंधन है कि वह राजनीतिक विषय नहीं उठा सकती।
प्रधानमंत्री इस प्रेस कांफ्रेंस में बहुत संजीदगी से पेश आये पर टीवी चैनलों के संपादकों और पत्रकारों ने इसे एक प्रायोजित सभा बना दिया। विज्ञापनों के कारण शायद उनको आदत हो गयी है कि वह हर जगह प्रायोजित ढंग से पेश आते हैं। एक औपाचारिक प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने प्रधानमंत्री जैसे उच्च पर बैठे व्यक्ति से जिस तरह उन्होंने सवाल किये उससे तो ऐसा लगा जैसे कि वह अपने स्टूडियो में बैठे हों। इतना बड़ा देश और इतने व्यापक विषय होते हुए भी केवल दो मुद्दों उसमें भी एक क्रिकैट का फालतू सवाल शामिल हो तो फिर क्या कहा जा सकता है। भारत में लोग गरीब हैं पर प्रचार माध्यमों के स्वामी और कार्यकर्ता तो अच्छा खासा कमा रहे हैं। उनसे तो अन्य देशों के लोग ईर्ष्या करते होंगे, खासतौर से यह देखकर उनसे कमतर भारतीय प्रचार स्वामी और और कार्यकर्ता कहीं अधिक धनी हैं।
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लेखक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
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8 फ़रवरी 2011

बाज़ार और प्रचारकों को वनडे मातरम् तो कहना ही था-हिन्दी व्यंग्य (oneday matram and bazar'd prachar)

बड़ा अजीब लगता है जब एक टीवी चैनल में वनडे मातरम् शब्द देखकर हैरानी होती है। देश के स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने अपने अभियान में जमकर गया होगा ‘वंदे मातरम्’! भारत का राष्ट्रगान भी वंदेमातरम् शब्द से शोभायमान है। सच तो यह है कि वंदेमातरम् शब्द का उच्चारण ही मन ही मन में राष्ट्र के प्रति जान न्यौछावर करने वाले शहीदों की याद दिलाता है। देश के शहीदों को हार्दिक श्रद्धांजलि देते हुंए मन भर जाता है और मन गुनगुनाता है ‘वंदे मातरम्’!
आम मनुष्य और उसकी भावनाओं के दोहन करने के लिये उत्पाद करना बाज़ार और उनको खरीदने के लिये प्रेरित करना उसके प्रचार का काम है। अभी तक हम सुनते थे कि अमुक समाज के इष्ट का नाम बाज़ार ने अपने उत्पाद के लिये प्रयोग मेें किया तो विरोध हो गया या किसी पत्रिका ने किसी के धार्मिक संकेतक का व्यवसायिक उपयोग किया तो उस प्रतिबंध लग गया। अनेक प्रकार के जूते, जींस, तथा पत्रिकायें इस तरह के विरोध का सामना कर चुके हैं। धर्म, जाति, तथा भाषा के नाम पर समूह बनते हैं इसके लिये उसके प्रतीकों या इष्ट के नाम या नारे का उपयेाग बाज़ार के लिये अपने उत्पाद तथा प्रचार के लिये उपभोक्ता को क्रय करने के लिये प्रयुक्त करना कठिन होता है। मगर हमारे राष्ट्र का कोई अलग से समूह नहीं है बल्कि उपशीर्षकों में बंटे समाज उसकी पहचान हैं जिसे कुछ लोग गर्व से विभिन्न फूलों का गुलदस्ता कहते हुए गर्व से सीना फुला देते हैं।
यही कारण है कि वंदे मातरम अब बाज़ार के प्रचारकों के लिये वनडे मातरम् हो गया है। अगला विश्व क्रिकेट भारत में होना है। उसके लिये प्रचारकों ने-टीवी, रेडियो, तथा अखबार-ने अपना काम शुरु कर दिया है। कोई टीवी चैनल बल्ले बल्ले कर रहा है तो कोई वनडे मातरम् गा रहा है। इस श्रृंखला में वह लोग बीसीसीआई की टीम के विश्व कप के लिये चुनी गयी टीम के सदस्यों को महानायक बनाने पर तुले हैं। मैच में अधिक से अधिक लोग मैदान पर आयें यही काफी नहीं है बल्कि टीवी के सामने बैठकर आंखें फोड़ते हुए बाज़ार के उत्पादों का विज्ञापन प्रचार देखें इसके लिये जरूरी है कि लगातार उनका ध्यान विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता की तरफ बनाये रखा जायें, इस उद्देश्य से बाज़ार तथा प्रचार प्रबंधक सक्रिय हैं।
प्रचारकों को पैसा चाहिये तो बाज़ार उत्पादकों को अपने उत्पाद के लिये उपभोक्ता। दोनों मिलकर भारतीय समाज में एक नया समाज बनाना चाहते हैं जिसमें क्रिकेट और फिल्म का शोर हो। लोग एक नंबर में देखें और दो नंबर में सट्टा खेलें। मज़़े की बात यह है कि प्रचार माध्यमों में युवाओं को प्रोत्साहन देने की बात की जाती है ताकि वह भ्रमित रहे होकर उनके बताये मार्ग का अनुकरण करते हुए केवल मनोरंजन में उलझे रहें या महानायक बनने का सपना देखते हुए अपना जीवन नष्ट कर लें।
वनडे मातरम् यानि एक दिवसीय क्रिकेट मैच उनके लिये माता समान तो क्रिकेट खिलाड़ी पिता समान हो गये हैं क्योंकि वह उनके लिये धनार्जन का एक मात्र साधन हैं। इनसे फुरसत हो तो फिल्म अभिनेता तो गॉडफादर यानि धर्मपिता की भूमिका निभाते हैं। इसका उदाहरण एक टीवी चैनल पर देखने को मिला।
एक तेजगेंदबाज को घायल होने के बावजूद टीम में शामिल किया गया पर जब उसके अनफिट होने का चिकित्सीय प्रमाण पत्र मिला तो एक अन्य तेज गेंदबाज-जिसे केरल एक्सप्रेस कहा जाता है-को शामिल किया गया। केरल एक्सप्रेस को जब पहले टीम में शामिल से बाहर रखा गया तो उसके लिये सहानुभूति गीत गाये थे। अब जब उसे शामिल किया गया तो उसकी खबर और फोटो के साथ एक फिल्म अभिनेता के फोटो के साथ ही उसकी एक फिल्म का वाक्य‘जब अब हम किसी को बहुत चाहते हो तो कायनात उसके साथ हमें मिला ही देती है’, चलाया गया। दोनों में कोई तारतम्य नहीं है। ऐसे बहुत सारी फिल्मों में डायलाग मिल जायेंगे। ढेर सारे अभिनेताओं ने बोले होंगे मगर वह अभिनेता तो प्रचार माध्यमों का धर्म पिता है और जैसा कि स्पष्ट है कि विश्व कप तक क्रिकेट खिलाड़ी पिता हो गये हैं। दोनों को मिला कर बन गया बढ़िया कार्यक्रम।
इसलिये जब वनडे मातरम् नारा सुनते हैं तो कहना ही पड़ता है क्रिकेटर पितृम। मजा आता है जब नारों के जवाब में ऐसे नारे अपने दिमाग़ में आते हैं यह अलग बात है कि उनको नारे लगाने के पैसे मिलते हैं पर हमें फोकटिया लिखना होता है और मेहनत भी पड़ती है। न लिखें तो लगता है कि अपना मनोरंजन नहीं किया।
लेखक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
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