12 जनवरी 2012

मौसम में परिवर्तन और मनुष्य का मन-हिन्दी लेख (mausam mein parivartan-hindi lekh or article)

              अगर मौसम का बदलना न हो तो शायद जीवन इस धरती पर विचरने वाले सभी जीवों का बदरंग हो जाये। मनुष्य का मन तो वैसे भी बहुत शीघ्र एकरसता से ऊब जाता है और मौसम का बदलाव ही उसे वह लाभ देता है जिससे वह एक समय के बाद स्वतः तरोताजा हो जाता है। हमारे देश को समशीतोष्ण जलवायु वाला भूभाग माना जाता है। जब तक विश्व में मौसम की विविधता रही तब तक यहां तेज गर्मी और सर्दी का अहसास किया हमेशा जाता रहा है। उत्तर भारत में पहाड़ों की वजह से गर्मी में धूप की तेजी और सर्दी में ठंडी हवाओं का प्रकोप इस कदर रहता है कि सामान्य आदमी कांपने लगता है। इसलिये यहां सावन तथा बसंत मौसम सबसे अधिक लोकप्रिय रहा है जिसमें लोगों को रहता वाली वायु मिलती है। यह अलग बात है कि श्रमजीवी समाज के लिये ऐसे अवसर पर भी दर्दनाक स्थितियों का सामना करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता।
          मध्यम वर्गीय कार्यशील समाज गर्मी में सुबह शाम और सर्दी की दोपहर में गतिशील होकर अपने को बचाता है। उच्च वर्ग के लिये तो अब वातानुकूलित भवनों तथा वाहनों का जमावड़ा हो गया है इसलिये वह मौसम की मार से दूर है यह अलग बात है कि इसी वर्ग के कई लोग हमारे समाज के भाग्यनियंता हैं और उन्हें देश की समस्याओं पर विदेशी ढंग से सोचने की आदत हो गयी है।
       अब पूरी दुनियां में मौसम बदला है। रहन सहन और खान पान के साथ मनोरंजन के साधन भी बदले हैं। हालांकि इस बदलाव को कुछ लोग देखते है उनमें से बहुत उसे शब्दों में व्यक्त भी करते हैं। जो देखकर कुछ नहीं बोलते या निजी बातचीत में कहीं व्यक्त करते हैं तो वह निजता के दायरे में रहता है पर कोई लेखक या वाचक व्यक्त करता हैं तो वह सार्वजनिक विचार बन जाता है। ऐसे में अभिव्यक्त होने वालों की सोच पर भी विचार होता है। संसार के बदलाव को व्यक्त करने वालों की सोच का दायरा भी अब सिकुड़ गया है। विश्व में फैले प्रदूषण ने बुद्धिजीवियों की सोच को कलुषित या संकुचित नहीं किया हो यह संभव कैसे हो सकता है? वह केवल अपनी सीमा में ही सोचते हैं। संसार में आये बदलाव ने मनुष्य को दैहिक रूप से गतिशील बनाया है पर मानसिक रूप से जड़ की तरह खड़ा भी कर दिया है। जिनमें चेतना है उनकी सोच का दायरा भी इतना ंसकीर्ण हैं कि वह ‘मैं और मेरे’ की नीति से आगे नहीं जा पाते।
      हम मौसम के बदलाव को देखने के साथ उसे परिभाषित होते भी देख रहे हैं मगर लगता है जैसे कि वह अपूर्ण है। उसमें अभी अधिक जानने की आवश्यकता है। सवाल यह है कि उसे व्यक्त कौन करे? बुद्धिजीवी मौसम के बदलाव को मनुष्य तथा अन्य जीवों पर पड़ने वाले दैहिक प्रभावों का अध्ययन कर सकते हैं पर मानसिक प्रभावों का अध्ययन नहीं कर पाते। पश्चिम में ऐसी कोई विद्या नहीं है जिसमें दैहिक तथा मानसिक प्रभावों का एक साथ अध्ययन किया जा सके। वहां शारीरिक विज्ञान और मनोविज्ञान को अलग अलग विषय माना जाता है। यही कारण है कि मौसम के बदलाव को मनुष्य की दैहिक स्थिति पर ही दृष्टिपात किया जाता है।
हमारे यहां श्रीमद्भागवत गीता के साधक दोनों ही प्रभावों का अध्ययन करते हैं पर उनकी अभिव्यक्ति को वैज्ञानिक नहीं माना जाता है। श्रीमद्भागवत गीता को एक धार्मिक ग्रंथ माना जाता है। गीता साधक जानते हैं कि यह ज्ञान और विज्ञान से सुजज्जित ऐसी पुस्तक है जिसकी मिसाल अन्यत्र नहीं मिलती। इंद्रिया ही इंद्रियों में बरत रही है और गुण ही गुणों में बरत रहे हैं यह ऐसे वैज्ञानिक सूत्र हैं जिनका आधुनिक चिकित्सा शास्त्री विश्लेषण नहीं कर सकते और जो ज्ञानी करते हैं उनके पास आधुनिक चिकित्सा शास्त्र की कोई उपाधि नहीं है। श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित विज्ञान तत्व पर  गेरुए या धवल वस्त्रधारी धार्मिक प्रवचनकर्ता अपनी अभिव्यक्ति  उस ढंग से नहीं करते जिससे उसकी आधुनिक समय में नई सोच पैदा हो। 
          जब मौसम का प्रभाव देह पर पड़ता है तो मन कैसे बच सकता है। अगर कोई व्यक्ति गर्मी में तप रहा है तो आप उसे यह आशा कैसे कर सकते हैं कि वह आपको शीतलता प्रदान करे। जिसका कंठ सूखा है वह कैसे दूसरे की प्यास बुझा सकता है। उसी तरह जिसका निवास दलदल में है या नाले आदि के पास वह रहता है तो वहां आ रही दुर्गंध उसके देह में प्रवेश करती है। मच्छर या मक्खियों के काटने से वह बीमार पड़ता है। इससे उसकी देह हमेशा कष्ट में रहती है पर दुर्गंध से जो उसका मन विषाक्त होता है उसे कौन समझ सकता है। यह तो रहन सहन का नकारात्मक पक्ष पर इससे मन में जो ग्लानि आती है उसे कोई देखना नहीं चाहता। ऐसे में मौसम के बदलाव ने मनुष्य की मनस्थिति बदली है इस पर कोई विचार नहंीे रक सकता। देखा जाये तो प्राकृतिक रूप से सारे मौसम मौलिक है पर उनके प्रभाव परिवर्तित हुए हैं। उसी तरह मनुष्य की प्रकृति में भी बदलाव नहीं हो सकता पर भले वह मौसम में बदलाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती। 
      आखिर यह हमने सब किसलिये लिखा? दरअसल श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों की आज भी प्रासांगिकता है यह बताने के लिये हम यह लिख रहे है कि उसके संदेश इस संसार की मूल प्रकृतियों का विज्ञान बताते हैं जिनमें बदलाव संभव नहीं है। एक समय हमारे देश में सात्विक प्रवृत्ति के लोगों का प्रभाव था पर आज हम देख रहे हैं कि तामसिक लोग प्रभावी होकर समाज के शीर्ष पर बैठे हैं। लोग भले ही कहे कि हम इसके लिये जिम्मेदार नहीं है पर यह अपने आपको धोखा देना है। हम अपने योग और गीता के विज्ञान को भूल गये है इसलिये हमारी सभी इंद्रियों की सक्रियता सीमित हो गयी है। वातावरण में प्रदूषण ने हमें इतना विषाक्त बना दिया है कि हमारी बुद्धि, मुख, तथा आंखें जहर को अमृत समझने लगी हैं। उसका अध्ययन श्रद्धा के साथ ही ज्ञान प्राप्त करने के लिये करें तो उसके संदेश आज भी हमें ज्ञान के साथ संतोष प्रदान कर सकते हैं है। मूल बात यह है कि हमें इसके लये अपना दृष्टिकोण बदलना होगा अपने अध्यात्म ग्रंथों को आधुनिक संदर्भों में देखना होगा।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

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