14 दिसंबर 2010

भारतीय समाज की धारा स्वायत्त ढंग से बहना चाहिए-हिन्दी लेख (bhartiya samaj ki dhara-hindi lekh

अमेरिका में आठ साल रह चुके एक साफ्टवेयर इंजीनियर ने अपनी ही पत्नी की हत्या कर उसकी लाश के 72 टुकड़े कर फ्रिजर में डाल दिये। वह रोज एक टुकड़ा जंगल में फैंकने जाता था। इधर पत्नी के भाई को ईमेल पर वह बताता रहा कि उसकी बहिन से संबंध अच्छे हैं। उधर भाई को संदेह हुआ तो वह आ धमका। बहिन को न देखकर उसने पुलिस को शिकायत की। आखिर वह हत्या के जुर्म में पकड़ा गया। घटना वीभत्स है पर वहीं तक जहां कत्ल हुआ। लाश के टुकड़े टुकड़े करने में कोई भयानकता नहीं है क्योंकि मिट्टी हो चुकी यह देह संवेदनाओं से रहित हो जाती है। हमारे टीवी चैनल 72 टुकड़ों की बात कहकर सनसनी फैला रहे हैं क्योंकि इन टुकड़ों में उनके विज्ञापनों चलते हैं।
टीवी चैनलों पर मनोविज्ञान विशेषज्ञों को लाया गया। सभी ने अपने तमाम तरह के विचार दिये। इधर किसी अन्य महिला से भी कातिल पति के संबंध की चर्चा सामने आयी है हालांकि इस हत्या में वह एक वज़ह है इसमें संदेह है। कातिल पति ने बंदीगृह में भी टीवी चैनलों को साक्षात्कार दिया। उसकी बातों को अनदेखा करने का मतलब है कि हम अपने सामाजिक स्थिति से मुंह फेर रहे हैं। इसमें कई ऐसे मुद्दे हैं जिनकी चर्चा करना जरूरी है। मुख्य बात यह है कि कातिल पति और मृतक के बीच विवाद घरेलु हिंसा के मुकदमें के रूप में चल चुका था। इसी मामले में उसने पत्नी को बीस हजार रुपये खर्च देने की बात मंजूर की थी।
हत्या के बाद पकड़े जाने के बाद उसके पति ने यह तर्क दिया कि उसकी पत्नी उससे बीस हजार से अधिक खर्च की मांग कर रही थी।
उसने यह भी बताया कि उसकी पत्नी से मारपीट हुई तब धक्का लगा तो उसका सिर फूट गया चूंकि उस पर घरेलु हिंसा का उस पर मुकदमा चल रहा था इसलिये वह डर गया और उसने तत्काल घायल पत्नी के मुंह में रुई ठूंस दी और वह मर गयी। महत्वपूर्ण बात यह कि पत्नी के घायल होने पर वह घबड़ा गया था क्योंकि उस पर घरेलु हिंसा का मुकदमा चल चुका था। यह बात विचारणीय है कि उसने आखिर घायल पत्नी को बचाने की बजाय उसका मुंह बंद करना पंसद किया।
सच क्या है यह तो अभी पता चलना है पर हम यहां एक बात अनुभव करें कि इस तरह दहेज या घरेलु हिंसा के मामलों से हम भारत में जिस सभ्य समाज की आशा कर रहे हैं उनमें कितना दम है? दहेज के मामले में तो यह कानून बना दिया गया है कि आरोपी को अपने आपको ही निर्दोष साबित करना है, जो कि केवल आतंकवाद निरोधक कानून में ही शामिल है। दूसरी बात यह है कि जिन पुरुषों की पारिवारिक या सामाजिक स्थिति कमजोर है अगर उनका ऐसी नारी से पाला पड़ जाये जो आक्रामक प्रवृत्ति की है और वह कानून की आड़ लेने पर आमादा हो जाये तो परेशान कर डालती है। इन कानून के गलत इस्तेमाल की इतनी घटनायें हुई हैं कि बाकायदा पत्नी पीड़ित संगठन बन गये हैं। मुश्किल यह है कि इस कानून की आड़ लेते हुए अनेक महिलाओं ने ऐसे लोगो को भी फंसा देती हैं जो रिश्तेदार होते हैं और उनका विवादित परिवार के घर से कोई अधिक संबंध नहंी होता। महिला सहृदय होती हैं पर सभी नहीं! दूसरी बात यह कि अनेक महिलायें दूसरे की बातों में बहुत आसानी से आ जाती हैं। ऐसे में पीड़ित महिला को अगर कोई उकसाये तो वह ऐसे आदमी का भी नाम लेती हैं जो बिचारा कहीं दूर बैठा होता है। इतनी छूट महिलाओं को नहीं दी जाना चाहिए थी। भारत में नारियों को देवी माना जाता है पर सभी नहीं पूजी जातीं। हालांकि अब पुलिस को ऐसे मामलों में ध्यान से मामले दर्ज करने की हिदायतें दी गयी हैं जो कि अच्छी बात है। यह अलग बात है कि चैनल वालों को यह समझ में नहीं आती और कोई मामला सामने आते ही कथित अभियुक्तों की गिरफ्तारी की मांग करने लगते हैं।
अब आतें हैं दूसरी बात पर! इस तरह के कानून ने समाज़ को कमजोर किया है। हम उस कातिल पति और मृतका पत्नी के परिवार की तरफ देखें। दोनों के बीच विवाद चल रहा था पर पति के रिश्तेदार उससे दूर ही थे। आखिर क्यों नहीं वहां से इस मामले को सुलझाने के लिये आया। केवल पत्नी के रिश्तेदार ही इस विषय पर चर्चित क्यों हो रहे हैं?
यह एक प्रेम विवाह था। पति के रिश्तेदार इसे स्वीकार नहीं रहे थे। हमारा मानना है कि समझदारी का परिचय दे रहे थे। वह जानते होंगे कि यह प्रेम विवाह है और कालांतर में परिवार के झगड़े होंगे। ऐसे में दहेज अधिनियम और धरेलु हिंसा के कानूनों की आड़ लेकर उनको भी परेशान किया जा सकता है। पति भी अपने परिवार को अपने घर में शामिल नहीं कर रहा था क्योंकि ऐसी आशंका उसके मन में भी रही होगी। हमारा अनुमान गलत नहीं है तो कातिल पति मनोरोगी कतई नहीं लग रहा था। उसका कहना था कि ‘पत्नी रोज लड़ती थी और वह नहीं चाहता था कि बच्चे इस माहौल में रहें।
वह चाहता था कि बच्चे उसके साथ रहें या मां के साथ! वह अपने बच्चों को अनाथालय में पलते नहीं देखना चाहता था। मतलब यह कि वह इस रिश्ते को अब आगे बढ़ाने को तैयार नहीं था। उसने कत्ल किया तो गलत किया। इससे तो बेहतर होता कि वह तलाक के लिये अदालत चला जाता। मुश्किल यह भी है कि उस स्थिति में भी उसे दहेज और घरेलू हिंसा अधिनियमों से मुक्ति नहीं मिल सकती थी। मुख्य बात यह कि लड़के के परिवार से कोई अन्य आदमी आगे नहीं आ रहा था। संभव है कि नारीवादी विचारक इसे न समझें पर सच्चाई यह है कि इन दोनों कानूनों ने समाज को डरा दिया है। अब तो यह हालत है कि परिवार या रिश्तेदारी में कोई विवाद चल रहा हो तो दूर ही बैठे रहो। कहीं समझाने जाओ तो पता लगा कि हम ही झमेले में पड़ गये। कोई भी महिला जब आक्रामक हो तो वह किसी का भी नाम लिखा सकती है। इससे पारिवारिक विवादों के समाधान का मार्ग बंद होता है और छोटे छोटे विवाद परिवार को तबाह कर देते हैं।
दहेज देना भी जब अपराध है तब आखिर वह लोग कैसे बच जाते हैं जो यह कहते हैं कि हमने दहेज दिया। इस तरह एक व्यक्ति जो स्वयं अपराधी है दूसरे पर मुकदमा कर गवाह कैसे बन सकता है?
किसी को मारना या अपमानित करना तो वैसे ही अन्य कानूनों में है तब यह घरेलू हिंसा या दहेज निरोधक कानून की जरूरत क्या है? हमारे पास आंकड़े नहीं है पर आसपास की घटनाओं का कुल नतीज़ा यही है कि जिन लड़कियों ने इस कानून की आड़ ली उन्होंने न केवल अपनी बल्कि अपने ही परिवार वालों को भी तकलीफ में डाला बल्कि बाद में उनका जीवन भी कोई अधिक सुखद नहीं रहा। इन कानूनों की आड़ में अपने परिवार पर राज करने का आत्मविश्वास जिंदगी में लड़ने के आत्मविश्वास को समाप्त कर देता है।
आखिरी बात यह कि जब हमने पाश्चात्य सभ्यता का मार्ग चुना है तो पति पत्नी का रिश्ता खत्म करने का कानून बहुत आसान बना देना चाहिए। केवल एक दिन में तलाक की व्यवस्था होना चाहिए। मुख्य बात यह है कि नारी पुरुष का रिश्ता प्राकृतिक कारणों से होता है न कि सामाजिक कारणों से! ऐसे में अगर जिसको अलग होना है एक दिन में हो जाये और दूसरे दिन पति पत्नी अपना नया रिश्ता बनायें। कुछ लोगों को समाज़ की चिंता हो, पर यह बेकार है। अमेरिका में शादियां होती हैं पर सभी के तलाक नहीं होते। भारत में भी यही होगा पर ऐसे अधिनियम अगर खत्म हो जायें तो समाज के अन्य लोग परिवार बचाने के लिये भयमुक्त होकर सक्रिय हो सकते हैं। आधुनिक नारीवादियों को यह बात समझ में नहंी आयेगी क्योंकि वह भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में कही गयी बातों को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते। अगर भारतीय समाज की धारा को स्वायत्त ढंग से बहते देना है तो इन कानूनों पर दोबारा विचार होना चाहिए। सामान्य पारिवारिक विवादों में राज्य और कानून का हस्तक्षेप अनेक तरह की समस्याओं का कारण है या नहीं अब इस पर विचार करना चाहिए। वरना तो आगे ऐसी बहुत सारी घटनायें आ सकती हैं जिनकी कल्पना नारीवादियों के बूते तक का नहीं है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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9 दिसंबर 2010

विकिलीक्स के संस्थापक की गिरफ्तारी-हिन्दी लेख (detaining of wikileeas modretor-hindi article)

विकिलीक्स का संस्थापक जूलियन असांजे को अंततः लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया। जैसे ही उसके ब्रिटेन में होने की जानकारी जग जाहिर हुई तभी यह अनुमान लगा कि उसकी आज़ादी अब चंद घंटे की है। वह जिस कथित सम्राज्यवादी अमेरिका से पंगा ले रहा था उसका सहयोगी ब्रिटेन उसे नहीं पकड़ेगा इसकी संभावना तो वैसे भी नगण्य थी पर अगर वह किसी अन्य देश में भी होता तो पता मिलने पर उसे गिरफ्तार होना ही था। मतलब यह कि वह अज्ञातवास में रहकर ही बचा रह सकता था।
इस दुनियां के सारे देश अमेरिका से डरते हैं। एक ही संभावना असांजे की आज़ादी को बचा सकती थी वह यह कि क्यूबा में वह अपना ठिकाना बना लेता। जहां तक अमेरिका की ताकत का सवाल है तो अब कई संदेह होने लगे हैं। कोई भी देश अमेरिका से पंगा नहीं लेना चाहता। अब इसे क्या समझा जाये? सभी उसके उपनिवेश हैं? इसका सहजता से उत्तर दिया जा सकता है कि ‘हां,।’
मगर हम इसे अगर दूसरे ढंग से सोचे तो ऐसा भी लगता है कि अमेरिका स्वयं भी कोई स्वतंत्र देश नहीं है। अमेरिका स्वयं ही दुनियां भर के पूंजीपतियों, अपराधियों तथा कलाकर्मियों (?) का उपनिवेश देश है जो चाहते हैं कि वहां उनकी सपंत्ति, धन तथा परिवार की सुरक्षा होती रहे ताकि वह अपने अपने देशों की प्रजा पर दिल, दिमाग तथा देह पर राज्य कर धन जुटाते रहें। चाहे रूस हो या चीन चाहे फ्रांस हो, कोई भी देश अमेरिकी विरोधी को अपने यहां टिकने नहीं दे सकता। जब ताकतवर और अमीर देशों के यह हाल है तो विकासशील देशों का क्या कहा जा सकता है जिनके शिखर पुरुष पूरी तरह से अमेरिका के आसरे हैं।
वैसे तो कहा जाता है कि अमेरिका मानवतावाद, लोकतंत्र तथा स्वतंत्र अभिव्यक्ति का सबसे ताकतवर ठेकेदार है पर दूसरा यह भी सच है कि दुनियां भर के क्रूरतम शासक उसकी कृपा से अपने पदों पर बैठ सके हैं। ईदी अमीन हो या सद्दाम हुसैन या खुमैनी सभी उसके ऐसे मोहरे रहे हैं जो बाद में उसके विरोधी हो गये। ओसामा बिन लादेन के अमेरिकी संपर्कों की चर्चा कम ही होती है पर कहने वाले तो कहते हैं कि वह पूर्व राष्ट्रपति परिवार का -जो हथियारों कंपनियों से जुड़ा है-व्यवसायिक साझाीदार भी रहा है। शक यूं भी होता है कि उसके मरने या बचने के बारे में कोई आधिकारिक जानकारी अमेरिका नहीं देता यह कहते हुए कि उसके पास नहीं है। जिस तरह अमेरिका की ताकत है उसे देखते हुए यह बात संदेहजनक लगती है कि उसे लादेन का पता नहीं है। स्पष्टतः कहीं न कहीं अपने हथियार नियमित रूप से बेचने के लिये वह उसका नाम जिंदा रखना चाहता है। इस बहाने अपने हथियारों का अफगानिस्तान में गाहे बगाहे प्रयोग कर विश्व बाज़ार में वह अपनी धाक भी जमाता रहता है। उसके कई विमान, टैंक, मिसाइल तथा अन्य हथियारों का नाम वहीं प्रयोग करने पर ही प्रचार में आता है जो अन्य देश बाद में खरीदते हैं।
जूलियन असांजे की विकीलीक्स से जो जानकारियां आईं वह हमारे अनुमानों का पुष्टि करने वाली तो थीं पर नयी नहीं थी। इस पर अनेक लोगों को संदेह था कि यह सब फिक्सिंग की तहत हो रहा है। अब असांजे की गिरफ्तारी से यह तो पुष्टि होती है कि वह स्वतंत्र रूप से सक्रिय था। असांजे मूलतः आस्ट्रेलिया का रहने वाला हैकर है। वह प्रोग्रामिंग में महारथ हासिल कर चुका है मगर जिस तरह उसने विकीलीक्स का संचालन किया उससे एक बात तो तय हो गयी कि आने वाले समय में इंटरनेट अपनी भूमिका व्यापक रूप से निभाएगा। अलबत्ता दुनियां भर में गोपनीयता कानून बने हुए हैं जो उसके लिये संकट होगा। गोपनीयता कानूनों पर बहस होना चाहिए। दरअसल अब गोपनीय कानून भ्रष्ट, मूर्ख, निक्कमे तथा अपराध प्रवृत्ति के राज्य से जुड़े पदाधिकारियों के लिये सुरक्षा कवच का काम कर रहे हैं-ईमानदार अधिकारियों को उसकी जरूरत भी नहीं महसूस होती। फिर आजकल के तकनीकी युग में गोपनीय क्या रह गया है?
मान लीजिये किसी ने ताज़महल की आकाशीय लोकेशन बनाकर सेफ में बंद कर दी। उसे किसी छाप दिया तो कहें कि उसने गोपनीय दस्तावेज चुराया है। आप ही बताईये कि ताज़महल की लोकेशन क्या अब गोपनीय रह गयी है। अजी, छोड़िये अपना घर ही गोपनीय नहीं रहा। हमने गूगल से अपने घर की छत देखी थी। अगर कोई नाराज हो जाये तो तत्काल गूगल से जाकर हमारे घर की लोकेशन उठाकर हमारी छत पर पत्थर-बम लिखते हुए डर लगता है-गिरा सकता है। सीधी सी बात है कि गोपनीयता का मतलब अब वह नहीं रहा जो परंपरागत रूप से लिया जाता है। फिर अमेरिका की विदेश मंत्राणी कह रही हैं कि उसमें हमारी बातचीत देश की रणनीति का हिस्सा नहीं है तब फिर गोपनीयता का प्रश्न ही कहां रहा?
बहरहाल अब देखें आगे क्या होता है? असांजे ने जो कर दिखाया है वह इंटरनेट लेखकों के लिये प्रेरणादायक बन सकता है। सच बात तो यह है कि उसकी लड़ाई केवल अमेरिका से नहीं थी जैसा कि कुछ लोग मानते हैं। दरअसल विश्व उदारीकरण के चलते पूंजी, अपराध तथा अन्य आकर्षक क्षेत्रों के लोग अब समूह बनाकर या गिरोहबंद होकर काम करने लगे हैं। मूर्ख टाईप लोगों को वह बुत बनाकर आगे कर देते हैं और पीछे डोरे की तरह उनको नचाते हैं। अमेरिका के रणनीतिकारों की बातें सुनकर हंसी अधिक आती है। यहां यह भी बता दें कि उनमें से कई बातें पहले ही कहीं न कहीं प्रचार माध्यमों में आती रहीं हैं। ऐसा लगता है कि दुनियां भर के संगठित प्रचार माध्यम जो ताकतवर समूहों के हाथ में है इस भय से ग्रसित हैं कि कहीं इंटरनेट के स्वतंत्र लेखक उनको चुनौती न देने लगें इसलिये ही असांजे जूलियन को सबक सिखाने का निर्णय लिया गया है। यही कारण है कि एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति के मसीहा अमेरिका की शहर पर दूसरे मसीहा ब्रिटेन में उसे गिरफ्तार किया गया। अमेरिका को उसका मोस्ट वांटेड उसे कितनी जल्दी मिल गया यह भी चर्चा का विषय है खास तौर से तब जब उसने एक भी गोली नहीं दागी हो। जहां तक उसके प्रति सदाशयता का प्रश्न है तो भारत के हर विचारधारा का रचनाकार उसके प्रति अपना सद्भाव दिखायेगा-कम से कम अभी तक तो यही लगता है। हमारे जैसे आम और मामूली आदमी के लिये केवल बैठकर तमाशा देखने के कुछ और करने का चारा भी तो नहीं होता।
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4 दिसंबर 2010

मीडिया तो केवल हल्के प्रसारणों के लिये है-हिन्दी लेख

‘दिल्ली में लड़कियां सुरक्षित नहीं, आज फिर हुई एक कोशिश  गैंग रैप की!’
‘गैंग रैप की घटना को इतने दिन हो गये हैं पर पुलिस अभी भी कुछ नहीं कर पाई है।’
दूरदर्शन चैनलों पर यह विलाप अनेक बाद सुनाई देता है-यहां यह भी उल्लेख कर देते हैं कि इनके मीडिया या प्रचार कर्मियों के लिये देश का मतलब दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई, अहमदाबाद, बैंगलोर तथा कुछ अन्य बड़े शहरों ही हैं, बाकी तो केवल उनके लिये कागजी नक्शा  भर हैं।
वह बार बार पुलिस पर बरसते हैं। अभी एक गैंग रैप के मामले में पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार किया, उनमें से दो तो इस तरह की घटना में दूसरी बार शामिल हुए थे। अब सवाल यह है कि पुलिस क्या करे?
आम तौर से ऐसी अनेक घटनायें होती हैं जब पुलिस के साथ मुठभेड़ में खूंखार आतंकवादी तथा अपराधी मारे जाते हैं तो यही चैनल वहां मानवाधिकारों की दुहाई देते हुए पहुंच जाते हैं। इन आतंकवादियों और अपराधियों पर इतने अधिक मामले दर्ज होते हैं जिनकी संख्या भी डरावनी होती है। मतलब यह कि भारतीय संविधान की परवाह तो ऐसे आतंकवादी और अपराधी कभी नहीं करते। उनका अपराध सामान्य नहीं बल्कि एक युद्ध की तरह होता है। उनका कायदा है कि जब तक वह जिंदा रहेंगे इसी तरह लड़ते हुए चलते रहेंगे। कानून या संविधान के प्रति उनकी कोई आस्था नहीं है। ऐसे युद्धोन्मादी लोगों को मारकर ही समाज को बचाया जा सकता है। पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे गये अनेक अपराधियों तथा आतंकवादियों के परिजन पुलिस पर कानून से बाहर जाने का आरोप लगाते हैं पर अपने शहीद का युद्धोन्माद उनको नज़र नहीं आता। उनको ही क्या बल्कि अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी यह पसंद नहीं आता।
अब संविधान की बात करें तो उसमें आस्था रखना सामान्य इंसान के लिये हितकर है इसमें शक नहीं है। देश के अधिकतर लोग कानून को मानते हैं। इसका प्रमाण है कि एक सौ दस करोड़ वाली जनंसख्या में अधिकतर लोग अपने काम से काम रखते हुए दिन बताते हैं इसलिये ही तो शांति से रहते आज़ाद घूम रहे हैं। मगर जिनकी आस्था नहीं है वह किसी भी तरह अपनी हरकत से बाज़ नहीं आते। अगर उनका अपराध कानून के हिसाब से कम सजा वाला है और वह नियमित अपराधी भी नहीं है तो उनके साथ रियायत की जा सकती है पर जिन अपराधों की सजा मौत या आजीवन कारावास है जबकि अपराधी उस पर निरंतर बढ़ता ही जा रहा है तो उसे मारने के अलावा कोई उपाय बचता है यह समझ में नहीं आता।
इस संसार में हर समाज, वर्ण, धर्म, देश, जाति तथा शहर में अच्छे बुरे लोग होते हैं पर यह भारत में ही संभव है कि उनमें भी जाति और धर्म की पहचान देखी जाती है और प्रचार माध्यम या मीडिया यह काम बड़े चाव से करता है। दिल्ली में धौलकुंआ गैंग रैप में गिरफ्तार अभियुक्तों को पकड़ लिया गया। जब पुलिस उनको पकड़ने गयी तो वहां उसका हल्का विरोध हुआ। अगर विरोध तगड़ा होता तो संभव है कि हिंसा की कोई बड़ी वारदात हो सकती थी। ऐसे में एकाध अभियुक्त मारा जाता तो यह मीडिया क्या करता? एक बात यहां यह भी बता दें कि उस मामले में पुलिस के मददगार भी वहीं के लोग थे। यानि किसी एक समुदाय को अपराधी घोषित नहीं करना चाहिए पर मारे गये अपराधी को समुदाय के आधार पर निरीह कहकर उसे शहीद कहना भी अपराध से कम नहीं है।
चाहे कोई भी समुदाय हो उसका आम इंसान शांति से जीना चाहता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि कोई भी अपराधी या आतंकवादी को पसंद नहीं  करता चाहे उसके समुदाय का हो? ऐसे में समुदाय के आधार पर अपराधियों के प्रति प्रचार माध्यमों को निकम्मा साबित कर रहा है। अभी एक टीवी चैनल के प्रमुख संपादक ने कहा था कि वह कार्पोरेट जगत की वजह से बेबस हैं। क्या इसका आशय यह मानना चाहिये कि है कि यही कार्पोरेट जगत उनको समुदाय विशेष के अपराधियों का महिमा मंडन के लिये बाध्य कर रहा है? क्या उनके विज्ञापनदाताओं का संबंध तथा आर्थिक स्त्रोत विश्व के कट्टर धार्मिक देशो से जुड़े हैं जो आतंकवादियों और अपराधियों को धर्म से जोड़कर देखते हैं?
बहरहाल एक बात निश्चित है कि किसी जघन्य मामले में अधिक लिप्त होने वाले अपराधी को सामान्य प्रवृत्ति का नहीं माना जा सकता बल्कि वह तो एक तरह युद्धोन्मादी की तरह होते हैं जिनके जीवन का नाश ही समाज की रक्षा कर सकता है। दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश में लड़कियों के साथ बदसलूकी घटनायें बढ़ रही हैं। दिल्ली में अनेक लड़कियों को ब्लेड मारकर घायल कर दिया गया है। अगर वह अपराधी कहीं पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारा गया तो मीडिया क्या करेगा?
मुठभेड़ के बाद उसका समुदाय देखेगा फिर इस पर भी उसका ध्यान होगा कि कौनसी लाईन से उसको लाभ होगा। कानून के अनुसार कार्यवाही न होने की बात कहेगा? अगर कहीं ब्लेड मारने वाला जनता के हत्थे चढ़ गया और मर गया तो लोगों के कानून हाथ में लेने पर यही मीडिया विलाप करेगा। ऐसे में लगता है कि टीवी चैनलों पर कथित पत्रकारिता करने वाले लोग किसी घटना पर रोने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते। वह सनसनी या आंसु बेचते हैं। कभी चुटकुले बेचकर हंसी भी चला देते हैं। कोई गंभीरता न तो उनके व्यवसाय में है न ही विचारों में-भले ही कितनी भी बहसें करते हों। इन सबसे डर भी नहीं पर मुश्किल यह है कि देश का संचालन करने वाली एजेंसियों में भी आखिर मनुष्य ही काम करते हैं और इन प्रचार माध्यमों का प्रभाव उन पर पड़ता है। उनको इन प्रचार माध्यमों पर ध्यान नहीं देना चाहिए क्योंकि समाज या देश को लेकर उनके पास कोई गंभीर चिंतन इन प्रचार माध्यमों के पास नहीं है। अतः हर प्रकार के अपराध के प्रति उनको अपने विवेक से काम करना चाहिए क्योंकि इस देश में ईमानदार, बहादुर तथा विवेकवाद प्रशासनिक  अधिकारियों  की ही आवश्यकता है और मीडिया तो केवल हल्के प्रसारणों के लिये है। एक घंटे के कार्यक्रम में पौन घंटा क्रिकेट तथा फिल्मों पर निर्भर रहने वाले इन प्रचार माध्यमों से किसी बौद्धिक सहायता की आशा नहीं करना चाहिए।
अगर एक सवाल किसी मीडिया या प्रचार कर्मी से किया जाये कि‘आखिर आप अपने समाचार या चर्चा से क्या चाहते हैं?’
यकीनन उसका एक ही जवाब होगा-‘हम कुछ नहीं चाहते सिवाय अपने वेतन तथा आर्थिक लाभ के। हमें समाचार या बहस समय पास करने के लिये कुछ न कुछ तो चाहिए ताकि चैनल को विज्ञापन मिलते रहें। बाकी जवान मरे या बूढ़ा, हमें तो हत्या से काम, छोरा भागे या छोरी, हमें तो बस सनसनीखेज खबर से काम।’
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21 नवंबर 2010

ईश निंदा रोकने के कानून से धर्म के ठेकेदारों की रक्षा-हिन्दी लेख (dharma ki ninda aur aur abhivyakti-hindi lekh)

पाकिस्तान में एक ईसाई महिला ने राष्ट्रपति से क्षमादान की अपील की है। उस पर ईश निंदा के तहत मामला दर्ज था और जाहिर है सजा मौत से कम क्या हो सकती है? उस पर तरस आया क्योंकि उसकी स्थिति इस दुनियां के शर्म की बात है? आखिर यह ईश निंदा का मामला क्या है? पाकिस्तान तो मज़हबी राष्ट्र होने के कारण बदनाम है पर दुनियां के सभ्य देश भी धार्मिक आलोचना को लेकर असंवेदनशील है। जब अपने देश में देखता हूं तब यह सोचता हूं कि किसी भी धर्म की आलोचना किसी को भी करने की छूट होना चाहिए! अगर किसी धर्म की आलोचना या व्यंग्य से बवाल फैलता है तो रचनाकार पर नहीं बल्कि उपद्रव करने वालों पर कार्यवाही करना चाहिए। कुछ लोग शायद इसका विरोध करें कि अभिव्यक्ति की सुविधा का लाभ इस तरह नहीं उठाना चाहिए कि दूसरे की धाार्मिक आस्था आहत हो।
जिन लोगों ने इस लेखक के ब्लाग पढ़े हैं उनको पता होगा कि उन पर हिन्दू धर्म से संबंधित बहुत सारी सामग्री है। महापुरुषों के संदेश वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या सहित अनेक पाठ प्रकाशित हैं! सामान्य भाषा में कहें कि यह लेखन धार्मिक प्रवृत्ति का है और आस्था इतनी मज़बूत है कि इंटरनेट पर हिन्दू धर्म की निंदा पढ़कर भी विचलित नहीं होती। वजह साफ है कि अपने धर्म के मूल तत्व मालुम है और यह भी कि आलोचक तो छोड़िये धर्म के प्रशंसक भी उनको नहीं समझ पाते। आलोचक भारतीय धर्मग्रंथों के वही किस्से सुनाकर बदनाम कर रहे है जिनको पढ़ते सुनते भी तीस बरस हो गये हैं। मुख्य बात तत्व ज्ञान की है जिसे भारतीय क्या विदेशी तक भागते नज़र आते हैं।
ईश या धर्म निंदा पर हमला या कार्यवाही करना इस बात का प्रमाण है कि हमारी आधुनिक सभ्यता पहले से कहीं अधिक असहिष्णु हुई है। अगर आज कबीरदास जी होते तो पता नहीं उन पर कितने मुकदमे चलते और शायद ही उनको कोई वकील मुकदमा लड़ने के लिये नहीं मिलता। स्थिति यह है कि हम उनके कई दोहे इसलिये नहीं लिखते क्योंकि असहिष्णुता से भरे समाज में ऐसी लड़ाई अकेले लड़ना चाणक्य नीति की दृष्टि से वर्जित है।
आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है? दरअसल आधुनिक लोकतंत्र में धर्म के ठेकेदारों के माध्यम से समाज को नियंत्रित किया जा रहा है। वह समाज की बजाय राज्य से अधिक निकट हैं और उसकी वजह से उनको अपना नियंत्रण करना आसान लगता है। सर्वशक्तिमान के किसी भी स्वरूप के नाम का दरबार बना लो, चंदा आयेगा, राज्य भी सहायता देगा और जरूरत पड़ी तो बागी पर ईश निंदा का आरोप लगा दो। सच बात तो यह है कि महापुरुषों के नाम पर धर्म चलाने वाले ठेकेदार अपनी राजनीति कर रहे हैं। आखिर ईश निंदा को खौफ किसे है? हमें तो नहीं है। मनुस्मृति पर इतनी गालियां लिखी जाती हैं पर इस लेखक ने उनके बहुत सारे संदेशों को पढ़ा है जो आज भी प्रासांगिक है उनको छांटकर व्याख्या सहित प्रकाशित किया जाता है। मनुस्मृति के समर्थकों का कहना है कि उसमें वह सब बातें बाद में जोड़ी गयी हैं जिनकी आलोचना होती है। इसका मतलब साफ है कि किसी समय में राज्य की रक्षा की खातिर ही विद्वानों से वह सामग्री बढ़ाई गयी होगी।
यह आश्चर्य की बात है कि जो पश्चिमी देश पाकिस्तान के खैरख्वाह हैं वह उसे इस कानून को हटाने का आग्रह नहीं करते क्योंकि उनको भी कहीं न कहीं उसके धर्म की सहायता की आवश्यकता है। उसके सहधर्मी देशों में तेल के कुऐं हैं जो इस तरह के कानूनों के हामी है और पश्चिमी देशों के तेल तथा धन संपदा के मामले में सहायक भी हैं। इतना ही नहीं पश्चिमी देश भी अपने ही धर्म की आलोचना सहन नहीं  कर पाते। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि वह आधुनिक सभ्यता के निर्माण के बहाने अपना धर्म बाज़ार के माध्यम से ला रहे हैं।
आखिर धर्म के ठेकेदार ऐसा क्यों करते हैं? अपने धर्म की जानकारी किसी ठेकेदार को नहीं है। समयानुसार वह अपनी व्याख्या करते हैं। अगर बागी कोई माफिया, नेता या दौलत वाला हुआ तो उसके आगे नतमस्तक हो जाते हैं पर आम आदमी हुआ तो उस राज्य का दंडा चलवाते हैं। यह अलग बात है कि आज समाज के शिखर पुरुष अप्रत्यक्ष रूप से उन्हीं धर्म के ठेकेदारों को समाज पर लादते हैं जो उनके हितैषी हैं। दूसरी बात यह भी है कि भारतीय अध्यात्म को छोड़ दें तो विश्व की अधिकतर विचाराधारायें नये संदर्भों के अप्रसांगिक होती जा रही हैं। भारतीय अध्यात्म में श्रीमद्भागवत गीता ही एक ऐसा ग्रंथ है जो आज भी निर्विवाद है। उसके बाद आता है पतंजलि योग दर्शन का नंबर। रामायण, वेद, उपनिषद, पुराण, रामचरित मानस तथा अन्य बहुत सारे ग्रंथ हैं पर अपने रचनाकाल के परिप्रेक्ष्य में उनकी संपूर्ण सामग्री भले ही श्रेष्ठ रही हो पर कालांतर में समाज के बदलते स्वरूप में उनमें वर्णित कई घटनायें तथा दर्शन अजीब लगता है। संभव है कि रचना के बाद कुछ ग्रंथों में बदलाव हुआ हो या फिर उनका भाव वैसा न हो जैसा हम समझते हैं, पर उनकी आलोचना होती है। होना चाहिए और इसका उत्तर देना आना चाहिए। वेदों की आलोचना पर तो इस लेखक का स्पष्ट कहना है कि श्रीमद्भागवत गीता में सभी ग्रंथों का उचित सार शामिल हो गया है इसलिये उसके आधार पर वेदों का अध्ययन किया जाये। मज़े की बात यह है कि हिन्दू धर्म का कोई भी आलोचक श्रीमद्भागवत गीता को नहीं पढ़ता जिसमें भेदात्म्क बुद्धि को अज्ञान का प्रतीक माना गया है। मतलब मनुष्य में जाति, धर्म, लिंग, भाषा, धन तथा शिक्षा के आधार पर भेद करना और देखना ही तामस बुद्धि का प्रमाण है।
भारत में ऐसे सारे कानूनों पर भी विचार होना चाहिए जो धार्मिक आलोचना को रोकते हैं। यह जरूरी भी नहीं है कि किसी धर्म की आलोचना उस धर्म का ही आदमी करे दूसरे को भी इसका अधिकार होना चाहिए। दंगे फैलने की आशंका का मतलब यह है कि कहींे न कहीं हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि राज्य ऐसे झगड़ों से निपटने के लिये तैयार नहीं है। धार्मिक ठेकेदार धर्म के नाम पर मलाई तो खाते हैं पर आलोचना का प्रतिकार करने की क्षमता उनमेें नहीं है। इस समय देश में जो वातावरण है वह दमघोंटु बना दिया गया है। कहीं किसी को तस्वीर से एतराज है तो कहीं किसी को निबंध से चिढ़ होती है। जो दावा करते हैं कि हमारा समाज नयापन और खुलापन ले रहा है वह इस बात को भूल जाते हैं कि संत कबीर और रहीम ने बहुत पहले ही सभी धर्मो और उनके ठेकेदारों पर उंगली उठाई है। आज की पीढ़ी खुलेपन वाली है तो फिर यह धार्मिक आलोचना पर रोक लगाने का काम क्यों और कौन कर रहा है? हमारा मानना है कि जो धार्मिक ठेकेदार मलाई खा रहे हैं उनको इन आलोचनाओं के सामने खड़ा कर उसका मुकाबला करने के लिये प्रेरित या बाध्य करो। यह क्या हुआ कि शंाति भंग की आशंका से ऐसे मामलों में कार्टूनिस्टों, लेखकों और पत्रकारों पर कार्यवाही की जाये?
भारत के बुद्धिजीवी पाकिस्तान की कार्यप्रणाली पर टिप्पणियां तो करते हैं पर अपने देश की स्थिति को नहीं देखते जहां धर्म के नाम पर आलोचना रोककर अभिव्यक्ति को आतंकित किया जा रहा है। पाकिस्तान में तो यह आम हो गया है। अगर समाचार पत्रों में छपी विभिन्न खबरों को देखें तो ऐसा लगता है कि लोग अपनी धार्मिक किताब को कबाड़ी के यहां बेच देंगे। उसमें अगर अपने धर्म का आदमी सेव बेचे तो कोई बात नहीं अगर दूसरा बेचे तो लगा दो ईश निंदा का आरोप। मज़े की बात यह कि यह खबर भारत में पढ़ी है पर उसमें ईश निंदा लिखी है पर यह नहीं बताया कि वह किस तरह की है। स्पष्टतः डर की वजह से यह छिपाया गया है। यह खौफ खुलेपन के दावे की पोल खोलकर रख देता है। क्या यह माना जाये कि इस देश में दो तरह के लोग रहते हैं एक असहिष्णु और दूसरे डरपोक।
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5 नवंबर 2010

बाज़ार का शिखर सम्मेलन-हिन्दी हास्य व्यंग्य (bazar ka shikhar sammelan-hindi hasya vyangya)

दो इंसानी बुत शिखर पर बैठे थे। नीचे तलहटी में बाज़ार चल रहा था। छोटे और बड़े व्यापारियों के बीच जगह को लेकर खींचतान तेज हो गयी थी। बड़े व्यापारियों के एक प्रतिनिधि ने छोटे व्यापारियो के प्रतिनिधि से कहा कि ‘देखो उधर शिखर पर बैठे दो महान लोग इसी विषय पर चर्चा कर रहे हैं और जब कोई समझौता हो जायेगा तब इस बाज़ार में तुम्हें कहां जगह दी जाये इसका फैसला होगा।’
छोटे व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘पर यह दोनों बूढ़े महानुभाव कौन है? हम तो इनको जानते भी नहीं।
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘यह बाज़ार दो हिस्सों में बंटा है। दोनों हीे अपने अपने हिस्से के मालिक हैं। वह दोनों चर्चा कर रहे हैं कि बड़े और छोटे व्यापारियों में कैसे जगह का बंटवारा हो।’
छोटे व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘यह बाज़ार तो सार्वजनिक है। इसके मालिक कहां से आ गये। लगता है कि तुम बड़े व्यापारियों की सोची समझी साजिश है! यह कोई छद्म मालिक हैं जो तुमने बनवाये हैं। छोटे व्यापारियों को निपटाने की तुम्हारी योजना हम सफल नहीं होने देंगे!
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘बकवास बंद करो। यह दोनों बाज़ार के सदस्यों के वोट से बने हैं। यहां आने वाले ग्राहकों, सौदागरों, और दलालों ने इनको बनाया है।’
छोटे व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘हम भी तो यहां आते हैं, पर हमने वोट नहीं दिया।’
बड़े व्यापारियों ने कहा-‘यह तुम जानो! तुमने वोटर लिस्ट में नाम नहीं लिखाया होगा। वैसे भी तुम सात दिन में एक बार यहां आते हो, पर हम तो यहां रोज चक्कर लगा जाते हैं कि कहीं बाज़ार पर किसी ने कब्जा तो नहंी कर लिया। कई बार बाहरी लोग भी आकर यहां जमने का प्रयास करते हैं हम ही उनको भगाते हैं। अब अधिक विवाद न करो, वरना तुम्हें भी बाहरी घोषित कर देंगे। अशांति फैलाने और अतिक्रमण के आरोप में बंद करवा सकते हैं। हां, तुम अपने साथियों से अलग होकर कोई फायदा लेना चाहो तो इसके लिये हम तैयार हैं। उन सबको तो तलहटी में भी दूर नाले के पास जगह देंगे। तुम्हें जरूर अच्छी जगह सहयोग देने पर प्रदान कर सकते हैं।
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने छोटे व्यापारियों के प्रतिनिधि को कुछ धमकाया और कुछ समझाया। वह वापस लौट आया।
उसने वापस आकर अपने साथियों को अपनी बात अपने तरीके से समझाई। अलबत्ता अपने फायदे वाली बात वह छिपा गया। अब छोटे व्यापारी शिखर की तरफ देखने लगे। कुछ तो शिखर पर चढ़कर यह देखने चले गये कि दोनों कर क्या कर रहे हैं? कुछ को ख्याल आया कि चलकर उनसे सीधी बात कर लें।
वहां जाकर देखा तो दोनों चाय पी रहे थे। वहां खड़े सुरक्षा कर्मियों ने उनको घेर रखा था। इसलिये छोटे व्यापारी उनके पास जा नहीं सकते थे। अलबत्ता दूर से उनको कुछ दिखाई और सुनाई दे रहा था।
एक इंसानी बुत कह रहा था ‘यार, चाय तो हमारे घर के नीचे होटल वाला बनाता है। मैं तो उससे मंगवाकर पीता हूं। समोसा तो तुम्हारे वाले हिस्से में एक हलवाई बनाता है और मेरा सारा परिवार उसका प्रशंसक है।’’
दूसरा बोलने लगा-‘अच्छा! वैसे तुम्हारे हिस्से में एक कचौड़ी वाला भी है जो इतनी खस्ता बनाता है कि जब तक मेरी पत्नी सुबह मंगवाकर खाती नहीं है तब तक उसको चैन नहीं पड़ता। मेरी बेटी भी उसकी फैन है।’
वह तमाम तरह की बातें कर रहे थे, पर नहीं हो रही थी तो छोटे व्यापारियों की जगह की बात! बहुत सारी इधर उधर की बातें करने के बाद दोनों  उस मार्ग से निकल गये जहां लोगों की उपस्थित नगण्य थी।
इधर छोटे व्यापारी लौटकर आये तो बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने उनको बताया कि समझौता हो गया है और जल्दी घोषित हो जायेगा।
छोटे व्यापारियों ने कहा-‘यह तो बताओ, समझौता हुआ कब! हमने तो दोनों की बातें सुनी थी। दोनों यहां के बूढ़े बाशिंदे हैं जो अभी बहुत दिन बाहर रहने के बाद यहां लौटे हैं और बाज़ार के मालिक कैसे बन गये हमें पता नहीं! अलबत्ता दोनों के बीच बाज़ार के बारे में नहीं बल्कि दुकानों पर मिलने वाले सामान की चर्चा हुई।
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘देखो, अधिक बकवास मत करो। दोनों महान हैं! इसलिये ही तो शिखर पर बैठ कर बात करते हैं। तुम्हारी तरह नहीं कि चाहे जहां बकवास करने लगे।’’
छोटे व्यापारियों में से एक ने कहा-‘तुम चाहे कुछ भी करो, हम तो बाज़ार के मुख्य द्वार पर ही दुकानें लगायेंगे जैसे कि पहले लगाते थे।’
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा कि ‘ज्यादा गलतफहमी नहीं पालना! यहां के रखवाले भी हमारे से चंदा पाते हैं इसलिये उनका लट्ठ भी तुम पर ही चलेगा। वह इंसानी बुत हमारे कहने से शिखर पर चढ़े थे और उतर गये। तुम इस शिखर सम्मेलन का मतलब तब समझोगे जब इसका नतीजा सुनने को मिलेगा।’
इतने में छोटे व्यापारियों का प्रतिनिधि भी वहां आया और बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि के गले मिला। दोनों के बीच में दो नये लोग थे जो शायद प्रवक्ता थे। उन दोनों ने घोषणा की कि ‘शिखर सम्मेलन में समझौते के अनुसार छोटे व्यापारियों को एकदम पीछे जगह दी जायेगी। सबसे पहले बड़े व्यापारी, फिर उनके मातहतों तथा उसके बाद उनके ही दलालों को दुकान लगाने की अनुमति मिलेगी। इसके बाद जो जगह सबसे पीछे बचेगी वह छोटे व्यापारियों को देने का अनुग्रह स्वीकार कर लिया गया है और यह इस सम्मेलन की उपलब्धि है।’
बड़े व्यापारियो, उनके मातहतों तथा दलालों ने जोरदार तालियां बजाई। छोटे व्यापारी चिल्लाने लगे कि ‘हम आग्रह नहीं हक मांग रहे थे। वैसे भी यह बाज़ार सार्वजनिक है और इस सभी का हक है। हम नहीं मानेंगे इस समझौते को!’
छोटे व्यापारियों का प्रतिनिधि अपने साथियों ने बोला-‘देखो भई, भागते भूत की लंगोटी ही सही। अगर इस बाज़ार में बने रहना है तो कोई भी जगह ले लो वरना बड़े व्यापारी उसे भी हड़प लेंगे।’
छोटे व्यापारियों का गुस्सा अपने प्रतिनिधि पर फूट पड़ा। वह उसे मारने के लिये पिल पड़े तो बड़े व्यापारियों के लट्ठधारी रक्षकों ने उसको बचाया। बाहर से पहरेदार भी आ गये। तब छोटे व्यापारी सहम गये। उस समय सारा माज़रा देख रहे एक बुद्धिमान ने छोटे व्यापारियों से कहा-‘तुम लोगों ने इस बाज़ार को बसाया पर अब इसे बड़े व्यापारियों ने हथिया लिया है। तुम तो जानते ही हो कि इस संसार में बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। यही हाल है। यह तो तुम मगरमच्छ बन जाओ या घास की तरह झुकने सीख लो।’
एक छोटे व्यापारी ने उससे पूछा-‘यह शिखर सम्मेलन क्या हुआ? हम तो कुछ समझे ही नहीं। वहां हमने इंसानी बुतों को कोई समझौता करते हुए नहीं देखा। एक बोलता तो दूसरा सोता था और दूसरा बोलता तो पहला सोता था।’
बुद्धिमान ने कहा-‘मित्र, वह इंसानी बुत इन बड़े व्यापारियों ने ही वहां भेजे थे। जो इन्होंने तय किया उसमें उनकी दिलचस्पी नहीं थी! वह तो इस बारे में कुछ नहीं  जानते थे। मालिक तो वह नाम के हैं, वास्तव में तो वह इन बड़े व्यापारियों के प्रायोजित इंसानी बुत थे।
एक छोटे व्यापारी ने कहा-‘पर इन दोनों की मुलाकात को शिखर सम्मेलन क्यों कहा गया।’
बुद्धिमान ने कहा-‘बड़े लोगों की आदत है कि वह महान होते नहीं  पर दिखना चाहते हैं। तलहटी में भी जिनको कोई नहीं पूछता उनको शिखर पर बैठकर ही इज्ज़तदार बनाकर लाभ उठाया जा सकता है। लोगों से दूरी उनको बड़ा बनाती है और शिखर पर बैठने से उनकी बात में वज़न बढ़ जाता है भले ही फैसले सड़कछाप लोग सड़क पर प्रायोजित कर लेते हैं।’
छोटे व्यापारियों के पास कोई मार्ग नहीं था। शिखर सम्मेलन ने उनको तलहटी में भी बहुत नीचे दूर नाले के पास पहुंचा दिया था।
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31 अक्तूबर 2010

बग़ावत के दोहे-हिन्दी कविता (bagawat ke dohe-hindi kavita)

पैसा देकर उन्हें दायें चलाओ, दिखाओ चाहे वामपंथ,
कौड़ी पायें योगी को पुकारें नट, कार्ल मार्क्स को संत।।
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सत्संग छोड़कर करें चर्चा,जंगी विद्वान चलाते हैं बहस,
जन कल्याण का दिखावा,करते बस अपनी पूरी हवस।।
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उनके नारों में क्रांति की चमक, वादों में जोरदार विद्रोह दिखता है,
सबसे लड़ें नकली जंग, शोषण के छोर में भ्रष्टाचार यूं ही छिपता है।।
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सब शोर मचा रहे हैं, देश के मज़दूर और गरीबों की भलाई का,
छद्म है उनकी जंग, लक्ष्य है लूटना कल्याण में मिली मलाई का।।
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एक अक्लमंद ने लूट लिया ज़माने का सामान, भलाई का नाम लेकर,
दूसरे ने देखा पर मुंह फेर लिया, छोड़ी बगावत मलाई का दाम लेकर।।
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23 अक्तूबर 2010

ज़माने को हंसता पाया-हिन्दी शायरी (zamane ka hansna-hindi sher)

अपनी बहादुरी पर
कुछ इतना इतराये कि
ज़माने का बोझ अपने कंधे पर उठाया,
जो दबकर गिरे ज़मीन पर
घायल होकर
अपने दर्द पर रोये
ज़माने को ऊपर खड़े हंसता पाया।
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उस्तादों के शेर चुराकर
वह लोगों को सुनाते हुए
शायर कहलाने लगे,
पकड़े गये तो शागिर्द होने का हक़ जताने लगे।
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10 अक्तूबर 2010

हमदर्दी के लिये सभी प्यासे-हिन्दी शायरी (hamdardi ke liye sabhi pyase-hindi shayri)

अपनी तन्हाई दूर करने के लिये
कई दरवाजे हमने खटखटाये,
बांटने चले थे अपने ग़म हम जिनके साथ
उनके दर्द अपने साथ और ले आये।
दिल को बहलाने के सामानों में
लोग हो गये मशगूल
शिकायत करो तो
खिलौने खरीदने पर
अपनी चुकाई कीमतों के पैमाने बताते हैं,
मुलाकाती ढूंढते हैं रुतवा दिखने के लिये
भले ही अकेलेपन के अहसास उनको भी सताते हैं,
जहां भी जज़्बातों का समंदर ढूंढा हमने
तन्हा लगा पूरा ज़माना
हमदर्दी के लिये सभी प्यासे नज़र आये।
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2 अक्तूबर 2010

शोहदे हो गये अमन पसंद-हिन्दी व्यंग्य कविता (shohe hogaye aman pasand-hindi satire poem)

शहर में अमन देखकर
कुछ हैरान हैं
कुछ लोग परेशान हैं
बंद हैं दुकान
छिपाये हुए हैं इंसानों को मकान
जबकि आयोजित नहीं है ‘शहर बंद’।
सच यह है कि
सारे शोहदे हो गये हैं दौलतमंद,
सर्वशक्तिमान के नाम पर
चंदा बटोरने का व्यापार कर कहलाये अक्लमंद,
सब खुश हैं
फिर भी अमन के मसीहा
लोगों को समझा रहे हैं,
खतरों की पहेली बुझा रहे हैं,
कुछ काम तो उनको भी चाहिये
वरना कौन उनको पहचानेगा,
शोहदों पर अपना कब्जा
नहीं दिखायेंगे तो
हर कोई उन पर हथियार तानेगा,
लोग भी खुश है यह सोचकर कि
उनके रास्ते खुले रहेंगे
भले ही सिक्कों में तुलकर ही
शोहदे हो गये हैं अमन पसंद।
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26 सितंबर 2010

क़ातिलों को इतिहास करेगा महानायकों की तरह दर्ज-हास्य कविता (qatil itihas mein mahanaya jaise darj honge-hindi hasya kavita)

कातिल मिला कातिल से करके लंबे हाथ,
बहुत दिनों बाद हुआ यूं उनका साथ,
एक बोला दूसरे से
‘’यार, अब अपने धंधे में मज़ा नहीं आ रहा है
पैसा बहुत है पर नाम अमीरों की तरह नही चमक पा रहा है,
अपने से अधिक तो यह टीवी चैनल वाले तेज हैं,
देश के नये अंग्रेज हैं,
हम कत्ल कर आते हैं
यह उस पर सनसनी पकाते हैं,
फिल्मों में खलनायकों को भी नायकों जैसा देखते हैं
पर समाज में हम कातिल अपनी छबि नायक जैसी नहीं बना पाते हैं।’’

दूसरा बोला
‘’चिंता मत करो
अपने लोग सभी जगह आ गये हैं,
सभी रंग में सभी जगह छा गये हैं,
हमारे प्रायोजक सौदागर
कई जगह अपना रुतवा दिखाते हैं
कैसे कातिलों को नायक बनायें
प्रचारकों को यह सिखाते हैं
कुछ अक्लमंद उन्होंने रख लिये हैं अपने पास
उनकी बहसों से पूरी होगी अपनी नायक बनने की आस,
हम तो बस कत्ल करेंगे,
वह उसमें धर्म, जाति, भाषा और विचार के रंग भरेंगे,
एक कत्ल पर कहीं विरोध हो जायेगा,
तो कातिल के मरने पर
उसका नायक जैसा शोध हो जायेगा,
गुलाम होगा सारा ज़माना हम कातिलों का
आज़ादी के लिये कहीं धर्म, जाति, भाषा क्षेत्र का
नारा गूंजेगा तो
कहीं माओ का नाम लिया जायेगा,
भरोसा रखो
अक्लमंदों की बहस में दम हुआ तो
हम क़ातिलों को इतिहास करेगा
महानायकों की तरह दर्ज
अभी भी तो अपना पूरा पैसा वैसे ही पाते हैं।
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19 सितंबर 2010

अयोध्या के राम मंदिर या वन में नहीं खो गये-हिन्दी कविता ( ayodhya ke ram mandiy ya van men nahin kho gaye-hindi poem)

एक राम वह हैं जो
भक्तों की भक्ति से प्रसन्न हो
उनको दिख जाते हैं,
एक राम वह भी हैं जो
आस्था के दलालों के हाथ
बाज़ार में बिक जाते हैं।’
पर हे राम! आप धन्य हो
केवल नाम लेने से ही रावण हो गया अमर
मगर जिन पर आपकी कृपा हो
वही बाल्मीकी और तुलसी जैसा
आपका चरित्र लिख पाते हैं।
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अयोध्या के राम
सभी के हो गये,
जगह जगह पर बने राम मंदिर
उनमें कभी न भटके
न कभी वन में खो गये।
सर्वशक्तिमान के रूप और अलग अलग नामों पर
बने हैं दरबार
भक्त लुटाते
दलाल भरते घरबार
मगर राम को हृदय से जिसने स्मरण किया
वह उसी के हो गये।
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12 सितंबर 2010

धीरे चलो-हिन्दी शायरी (dhire chalo-hindi shayari)

धीरे चलो
सड़क पर गड्ढे ज्यादा हैं,
गिर गये तो
घायल होकर तड़पते रहोगे
उस राह से गुजरता हर इंसान
तुम्हें चूहा समझकर आगे बढ़ जायेगा।
खौफजदा है पूरा शहर
अपने अंदेशों में
भला कौन तुम्हारी मदद को आयेगा।
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30 अगस्त 2010

क्रिकेट मैच में हारने की कसम-हिन्दी व्यंग्य (cricket match men harne ki kasam-hindi vyangya)

पाकिस्तान के सात खिलाड़ी मैच फिक्सिंग के आरोपों में फंस गये हैं। फंसे भी क्रिकेट के जनक इंग्लैंड में हैं जहां पाकिस्तानी पहले से बदनाम हैं। यह खबरें तो उन्हीं प्रचार माध्यमों से ही मिल रही हैं जो उस बाज़ार के ही भौंपू हैं जिसके अनेक शिखर सौदागरों पर भूमिगत माफिया से संबंध रखने का आरोप है। कभी कभी ऐसी खबरें देखकर हैरानी होती है कि आखिर यह क्रिकेट जो इन प्रचार समाचार माध्यमों के रोजगार का आधार है क्योंकि इससे उनको प्रतिदिन आधे घंटे की सामग्री मिलती है तो कैसे उसे बदनाम करने पर तुल जाते हैं।
पहली बार पता चला कि नोबॉल भी फिक्स होती है। पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ियों ने गेंद फैंकते समय अपना पांव लाईन से इतना बाहर रखा था कि अंपायर के लिये यह संभव नहीं था कि वह उसकी अनदेखी करे। जब खिलाड़ी फिक्स हैं तो अंपायर भी फिक्स हो सकता है पर पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने इतना पांव निकाला कि नोबॉल न देने के लिये फिक्स करने वाला अंपायर भी कैमरें की वजह से उसे संदेह का लाभ नहीं दे सकता था।
आरोप लगे हैं कि पाकिस्तानी खिलाड़ी औरतों, पैसे तथा मस्ती करने के शौकीन हैं। पाकिस्तानी खिलाड़ियों का चरित्र तो वहीं के लोग बयान करते हैं। कुछ पर तो मादक द्रव्य पदार्थों की तस्करी का भी आरोप है। जब पाकिस्तानी खिलाड़ी पकड़े जाते हैं तो उनकी एकाध प्रेमिका भी सामने आती है जो उनकी काली करतूतों का बयान करती है। एक चैनल के मुताबिक पाकिस्तान का एक गेंदबाज की प्रेमिका के अनुसार वह तो बिल्कुल अपराध प्रवृत्ति का और यह भी उसी ने बताया था कि ‘2010 में पाकिस्तानी कोई मैच जीतने वाला नहीं है, ऐसा तय कर लिया गया है। पिछले 82 मैचों से फिक्सिंग चल रही है। वगैरह वगैरह।
जिस बात पर हमारी नज़र अटकी वह थी कि ‘पाकिस्तान खिलाड़ियों ने 2010 में मैच न जीतने की कसम खा रखी है। संभवत आजकल उनको हारने के पैसे मिल रहे हैं। हां, यह क्रिकेट में होता है। श्रीलंका में हुए एक मैच में आस्ट्रेलिया और पाकिस्तान दोनों की टीमें मैच हारना चाहती थीं क्योंकि पर्दे के पीछे उनको अधिक पैसा मिलने वाला था। यानि जो जीतता वह कम पैसे पाता तोे बताईये पैसे के लिऐ खेलने वाले खिलाड़ी क्यों जीतना चाहेंगे। ऐसे आरोप टीवी चैनलों ने लगाये थे। बहरहाल पाकिस्तान टीम के खिलाड़ी अपनी आक्रामक छबि भुनाते हैं। उनके हाव भाव ऐसे हैं जैसे कि तूफान हो और इसलिये उनकी जीत पर अधिक पैसा लग जाता है। सट्टेबाज उसके हारने पर ही कमाते होंगे इसलिये ही शायद वह उनको हारने के लिये पैसा देते होंगे।
इधर अपने देश की बीसीसीआई की टीम भी लगातर जीतने में विश्वास नहंीं रखती। यकीनन इस टीम के कर्णधारों को पाकिस्तानी खिलाड़ियों की इस कसम का पता लगा होगा कि वह 2010 में जीतेंगे नहीं इसलिये उसके साथ न खेलने का फैसला किया होगा ।
बात अगर पाकिस्तान की हो तो अपने देश के सामाजिक, आर्थिक, खेल तथा कला जगत के शिखर पुरुषों के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। अगर संबंध अच्छे रखने हों तो कहना पड़ता है कि ‘इंसान सब कर सकता है पर पड़ौसी नहीं बदल सकता‘ या फिर ‘आम आदमी के आदमी से संपर्क करना चाहिऐ।’
अगर संबंध खराब करने हों तो आतंकवाद का मुद्दा एक पहले से ही तय हथियार है कहा जाता है कि ‘पहले पाकिस्तान अपने यहां आतंकवादी का खत्मा करे।
पिछली बार आईपीएल में पाकिस्तान के खिलाड़ियों को नहीं खरीदा गया था तो देश के तमाम लोगों ने भारी विलाप किया था। यहां तक कि इस विलाप में वह लोग भी शामिल थे जो प्रत्यक्षः इन टीमों के मालिक माने जाते हैं-इसका सीधा मतलब यही था कि यह मालिक तो मुखौटे हैं जबकि उनके पीछे अदृश्य आर्थिक शक्तियां हैं जो इस खेल का अपनी तरीके से संचालन करती हैं।
बाद में आईपीएल में फिक्सिंग के आरोप लगे थे। उसमें पाकिस्तान के खिलाड़ियों का न होना इस बात का प्रमाण था कि अकेले पाकिस्तानी ही ऐसा खेल नहीं खेलते बल्कि हर देश के कुछ खिलाड़ी शक के दायरे में हैं। यह अलग बात है कि पाकिस्तान बदनाम हैं तो उसके खिलाड़ियों को चाहे जब पकड़ कर यह दिखाया जाता है कि देखो बाकी जगह साफ काम चल रहा है। किसी अन्य देश का नाम नहीं आने दिया जाता क्योंकि उसकी बदनामी से मामला बिगड़ सकता है। पाकिस्तान के बारे में तो कोई भी कह देगा कि ‘वह तो देश ही ऐसा है।’ इससे प्रचार में मामला हल्का हो जाता है और प्रचार माध्यमों के लिये भी सनसनीखेज सामग्री बन जाती है।
पाकिस्तानी या तो चालाक नहीं है या लापरवाह हैं जो पकड़े जाते हैं। संभव है वह कमाई के लिये हल्के सूत्रों का इस्तेमाल करते हों। भारतीय प्रचार माध्यमों को तो सभी जानते हैं। निष्पक्ष दिखने के नाम पर तब इन खिलाड़ियों के कारनामों की चर्चा से बचते हैं जब यह भारत आते हैं। अभी पाकिस्तानी के एक खिलाड़ी ने एक भारतीय महिला खिलाड़ी से शादी की। वह भारत आया तो उसके लोगों ने ही उस पर आरोप लगाया था कि ‘वह तो फिक्सर है।’ मगर भारत की एक अन्य महिला ने जब उसी पाकिस्तानी खिलाड़ी से विवाह होने की बात कही और बिना तलाक दिये दूसरी शादी का विरोध किया तो यह प्रचार माध्यम एक बूढ़े अभिनेता को पाकिस्तानी खिलाड़ी के समर्थन में लाये। मामला सुलट गया और भारतीय खिलाड़िन से उस खिलाड़ी का विवाह हुआ। वह बूढ़े अभिनेता भी उस शादी में गया। आज तक एक बात समझ में नहीं आयी कि इन फिल्म वालों से क्रिकेट वालों रिश्ते बनते कैसे हैं। संभवत कहीं न कहीं धन के स्त्रोत एक जैसे ही होंगे।
इस देश में क्रिकेट खेल का आकर्षण अब उतना नहीं रहा जितना टीवी चैनल और अखबार दिखा रहे हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि उनके पास मज़बूरी है क्योंकि इसके अलावा वह कुछ नया कर ही नहीं सकते।
एक दो नहीं पूरे सात पाकिस्तनी खिलाड़ी ब्रिटेन से मैच हारना चाहते थे। हारे भी! इससे उनके धार्मिक लोग नाराज़ हो गये हैं। इसलिये नहीं कि पैसा खाकर हारे बल्कि धर्म का नाम नीचा किया। कट्टर लोग धमकियां दे रहे हैं। कोरी धमकियां ही हैं क्योंकि इन कट्टर धार्मिक लोगों को पैसा भी उन लोगों से मिलता है जो क्रिकेट में मैदान के बाहर से इशारों में खिलाड़ियों को नचाते हैं और फिर उनको रैम्प पर भी नाचने का अवसर प्रदान करते हैं।
बहरहाल पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने 2010 में हारने की कसम खाई है। यह आरोपी सात खिलाड़ी हटे तो दूसरे नये लोग आकर भी उस कसम को निभायेंगे। इधर बीसीसीआई की टीम भी तब तक नहीं उनके साथ खेलेगी जब तक उनकी कसम खत्म की अवधि नहीं होती। आखिर बीसीसीआई के खिलाड़ी जीत कर थक जायेंगे तो उनको तो हराकर कर विश्राम कौन देगा। पाकिस्तानी खिलाड़ी यह अवसर देने को तैयार नहीं लगते। यही कारण है कि आतंक का मुद्दे की वजह से दोनों नहीं ख्ेाल रहे अब यह बात बड़े लोग कहते हैं तो माननी पड़ती है। 2011 में फिर मित्रता का नारा लगेगा क्योंकि तब पाकिस्तानी खिलाड़ियों की कसम की अवधि खत्म हो जायेगी। इधर आईपीएल की तैयारी भी चल रही है। लगता नहीं है कि पाकिस्तानी खिलाड़ियों को इस बार भी मौका मिलेगा। कहीं किसी क्लब को जीतने का आदेश हो और उसमें अपनी कसम से बंधे एक दो पाकिस्तानी खिलाड़ी हारने के लिए खेले तो.......अब तो उनके लिये 2011 में ही दरवाजे खुल सकते हैं।
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23 अगस्त 2010

हकीक़त से अनजाना-हिन्दी (hakikat se anjana-hindi shayari)

दूसरे की आस्था को कभी न आजमाना,
शक करता है तुम पर भी यह ज़माना।
अपना यकीन दिल में रहे तो ठीक,
बाहर लाकर उसे सस्ता न बनाना।
हर कोई लगा है दिखाने की इबादत में
फिर दुनियां हैरान क्यों, जरा बताना।
सिर आकाश में तो पांव जमीन पर हैं,
हद में रहकर, अपने को गिरने से बचाना।।
अपनी राय बघारने में कुशल है सभी लोग,
जिंदगी की हकीकत से हर कोई अनजाना।
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16 अगस्त 2010

दिखाने के लिये दोस्ताना जंग-हास्य व्यंग्य (dikhane ki liye dostana-hasya vyangya)

दृश्यव्य एवं श्रव्य प्रचार माध्यमों के सीधे प्रसारणों पर कोई हास्य व्यंगात्मक चित्रांकन किया गया-अक्सर टीवी चैनल हादसों रोमांचों का सीधा प्रसारण करते हैं जिन पर बनी इस फिल्म का नाम शायद............ लाईव है। यह फिल्म न देखी है न इरादा है। इसकी कहानी कहीं पढ़ी। इस पर हम भी अनेक हास्य कवितायें और व्यंगय लिख चुके हैं। हमने तो ‘टूट रही खबर’ पर भी बहुत लिखा है संभव है कोई उन पाठों को लेकर कोई काल्पनिक कहानी लिख कर फिल्म बना ले।
उस दिन हमारे एक मित्र कह रहे थे कि ‘यार, देश में इतना भ्रष्टाचार है उस पर कुछ जोरदार लिखो।’
हमने कहा-‘हम लिखते हैं तुम पढ़ोगे कहां? इंटरनेट पर तुम जाते नहीं और जिन प्रकाशनों के काग़जों पर सुबह तुम आंखें गढ़ा कर पूरा दिन खराब करने की तैयारी करते हो वह हमें घास भी नहीं डालते।’
उसने कहा-‘हां, यह तो है! तुम कुछ जोरदार लिखो तो वह घास जरूर डालेेंगे।’
हमने कहा-‘अब जोरदार कैसे लिखें! यह भी बता दो। जो छप जाये वही जोरदार हो जाता है जो न छपे वह वैसे ही कूंड़ा है।’
तब उसने कहा-‘नहीं, यह तो नहीं कह सकता कि तुम कूड़ा लिखते हो, अलबत्ता तुम्हें अपनी रचनाओं को मैनेज नहीं करना आता होगा। वरना यह सभी तो तुम्हारी रचनाओं के पीछे पड़ जायें और तुम्हारे हर बयान पर अपनी कृपादृष्टि डालें।’
यह मैनेज करना एक बहुत बड़ी समस्या है। फिर क्या मैनेज करें! यह भी समझ में नहीं आता! अगर कोई संत या फिल्मी नायक होते या समाज सेवक के रूप में ख्याति मिली होती तो यकीनन हमारा लिखा भी लोग पढ़ते। यह अलग बात है कि वह सब लिखवाने के लिये या तो चेले रखने पड़ते या फिर किराये पर लोग बुलाने पड़ते। कुछ लोग फिल्मी गीतकारों के लिये यह बात भी कहते हैं कि उनमें से अधिकतर केवल नाम के लिये हैं वरना गाने तो वह अपने किराये के लोगों से ही लिखवाते रहे हैं। पता नहंी इसमें कितना सच है या झूठ, इतना तय है कि लिखना और सामाजिक सक्रियता एक साथ रखना कठिन काम है। सामाजिक सक्रियता से ही संबंध बनते हैं जिससे पद और प्रचार मिलता है और ऐसे में रचनाऐं और बयान स्वयं ही अमरत्व पाते जाते है।
अगर आजकल हम दृष्टिपात करें तो यह पता लगता है कि प्रचार माध्यमों ने धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक शिखरों पर विराजमान प्रतिमाओं का चयन कर रखा है जिनको समय समय पर वह सीधे प्रसारण या टूट रही खबर में दिखा देते हैं।
एक संत है जो लोक संत माने जाते हैं। वैसे तो उनको संत भी प्रचार माध्यमों ने ही बनाया है पर आजकल उनकी वक्रदृष्टि का शिकार हो गये हैं। कभी अपने प्रवचनों में ही विदेशी महिला से ‘आई लव यू कहला देते हैं’, तो कभी प्रसाद बांटते हुए भी आगंतुकों से लड़ पड़ते हैं। उन पर ही अपने आश्रम में बच्चों की बलि देने का आरोप भी इन प्रचार माध्यमों ने लगाये। जिस ढंग से संत ने प्रतिकार किया है उससे लगता है कि कम से कम इस आरोप में सच्चाई नहंी है। अलबत्ता कभी किन्नरों की तरह नाचकर तो कभी अनर्गल बयान देकर प्रचार माध्यमों को उस समय सामग्री देतेे हैं जब वह किसी सनसनीखेज रोमांच के लिये तरसते हैं। तब संदेह होता है कि कहीं यह प्रसारण प्रचार माध्यमों और उन संत की दोस्ताना जंग का प्रमाण तो नहीं है।
एक तो बड़ी धार्मिक संस्था है। वह आये दिन अपनी विचारधारा से जुड़े लोगों के लिये अनर्गल फतवे जारी करती है। सच तो यह है कि इस देश में कोई एक व्यक्ति, समूह या संस्था ऐसी नहंी है जिसका यह दावा स्वीकार किया जाये कि वह अपने धर्म की अकेले मालिक है मगर उस संस्था का प्रचार यही संचार माध्यम इस तरह करते हैं कि उस धर्म के आम लोग कोई भेड़ या बकरी हैं और उस संस्था के फतवे पर चलना उसकी मज़बूरी है। वह संस्था अपने धर्म से जुड़े आम इंसान के लिये कोई रोटी, कपड़े या मकान का इंतजाम नहंी करती और उत्तर प्रदेश के एक क्षेत्र तक ही उसका काम सीमित है पर दावा यह है कि सारे देश में उसकी चलती है। उसके उस दावे को प्रचार माध्यम हवा देते हैं। उसके फतवों पर बहस होती है! वहां से दो तीन तयशुदा विद्वान आते हैं और अपनी धार्मिक पुस्तक का हवाला देकर चले जाते हैं। जब हम फतवों और चर्चाओं का अध्ययन करते हैं तो संदेह होता है कि कहीं यह दोस्ताना जंग तो नहीं है।
एक स्वर्गीय शिखर पुरुष का बेटा प्रतिदिन कोई न कोई हरकत करता है और प्रचार माध्यम उसे उठाये फिरते हैं। वह है क्या? कोई अभिनेता, लेखक, चित्रकार या व्यवसायी! नहीं, वह तो कुछ भी नहीं है सिवाय अपने पिता की दौलत और घर के मालिक होने के सिवाय।’ शायद वह देश का पहला ऐसा हीरो है जिसने किसी फिल्म में काम नहीं किया पर रुतवा वैसा ही पा रहा है।
लब्बोलुआब यह है कि प्रचार माध्यमों के इस तरह के प्रसारणों में हास्य व्यंग्य की बात है तो केवल इसलिये नहीं कि वह रोमांच का सीधा प्रसारण करते हैं बल्कि वह पूर्वनिर्धारित लगते हैं-ऐसा लगता है कि जैसे उसकी पटकथा पहले लिखी गयी हों हादसों के तयशुदा होने की बात कहना कठिन है क्योंकि अपने देश के प्रचार कर्मी आस्ट्रेलिया के उस टीवी पत्रकार की तरह नहीं कर सकते जिसने अपनी खबरों के लिये पांच कत्ल किये-इस बात का पक्का विश्वास है पर रोमांच में उन पर संदेह होता है।
ऐसे में अपने को लेकर कोई भ्रम नहीं रहता इसलिये लिखते हुए अपने विषय ही अधिक चुनने पर विश्वास करते हैं। रहा भ्रष्टाचार पर लिखने का सवाल! इस पर क्या लिखें! इतने सारे किस्से सामने आते हैं पर उनका असर नहीं दिखता! लोगों की मति ऐसी मर गयी है कि उसके जिंदा होने के आसार अगले कई बरस तक नहीं है। लोग दूसरे के भ्रष्टाचार पर एकदम उछल जाते हैं पर खुद करते हैं वह दिखाई नहीं देता। यकीन मानिए जो भ्रष्टाचारी पकड़े गये हैं उनमें से कुछ इतने उच्च पदों पर रहे हैं कि एक दो बार नहीं बल्कि पचास बार स्वाधीनता दिवस, गणतंत्र, गांधी जयंती या नव वर्ष पर उन्होंने कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि की भूमिका का निर्वाह करते हुए ‘भ्रष्टाचार’ को देश की समस्या बताकर उससे मुक्ति की बात कही होगी। उस समय तालियां भी बजी होंगी। मगर जब पकड़े गये होंगे तब उनको याद आया होगा कि उनके कारनामे भी भ्रष्टाचार की परिधि में आते है।
कहने का अभिप्राय यह है कि लोगों को अपनी कथनी और करनी का अंतर सहजता पूर्वक कर लेते हैं। जब कहा जाये तो जवाब मिलता है कि ‘आजकल इस संसार में बेईमानी के बिना काम नहीं चलता।’
जब धर लिये जाते हैं तो सारी हेकड़ी निकल जाती है पर उससे दूसरे सबक लेते हों यह नहीं लगता। क्योंकि ऊपरी कमाई करने वाले सभी शख्स अधिकार के साथ यह करते हैं और उनको लगता है कि वह तो ‘ईमानदार है’ क्योंकि पकड़े आदमी से कम ही पैसा ले रहे हैं।’ अलबत्ता प्रचार माध्यमों में ऐसे प्रसारणों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह दोस्ताना जंग है। यह अलग बात है कि कोई बड़ा मगरमच्छ अपने से छोटे मगरमच्छ को फंसाकर प्रचार माध्यमों के लिये सामग्री तैयार करवाता  हो या जिसको हिस्सा न मिलता हो वह जाल बिछाता हो । वैसे अपने देश में जितने भी आन्दोलन हैं भ्रष्टाचार के विरुद्ध नहीं बल्कि उसके बंटवारे के लिए होते हैं । इस पर अंत में प्रस्तुत है एक क्षणिका।
एक दिन उन्होंने भ्रष्टाचार पर भाषण दिया
दूसरे दिन रिश्वत लेते पकड़े गये,
तब बोले
‘मैं तो पैसा नहीं ले रहा था,
वह जबरदस्ती दे रहा था,
नोट असली है या नकली
मैं तो पकड़ कर देख रहा था।’

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13 अगस्त 2010

इज्ज़त और महंगाई-हिन्दी हास्य कविता (izzat aur mahanga par hindi hasya kavita)

वह महंगाई पर कुछ यूं बोले
‘यह तो महंगाई अधिक बढ़ेगी,
तभी हमारी विकास की तस्वीर
विश्व के मानस पटल पर चढ़ेगी,
हमारा लक्ष्य पूरे समाज को
पांच सौ और हजार का नोट
उपयोग करने लायक बनाना है,
आखिर उनको भी तो ठिकाने लगाना है,
यह क्या बात हुई
पचास से सौ रुपये किलो सब्जी बिक रही है,
चाय की कीमत भी चार रुपये दिख रही है,
भरी जाती है एक रुपये में साइकिल में हवा,
पांच रुपये में भी मिल जाती है बीमारी की दवा,
हो जायेंगी सभी चीजें महंगी,
खत्म हो जायेगी पैसे की तंगी,
बड़े नोट होंगे तो
कोई अपने को गरीब नहीं कह पायेगा,
हमारा देश अमीरों की सूची में आ जायेगा,
देश का नाम बढ़ाने के लिये
त्याग तो करना होगा,
भले ही एक समय रोटी खाना पड़े
देश का नाम विकसित सूची में तो भरा होगा,
तभी अपनी इज्जत दुनियां में बढ़ेगी।’’
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9 अगस्त 2010

> जंग और सुविधा-हिन्दी व्यंग्य कविता (jang aur suvidha-hindi vyangya kavitaq)

भ्रष्टाचार, गरीबी, और शोषण के खिलाफ
जंग करने के नारे सभी लगा रहे हैं,
मिलकर समाज को जगा रहे हैं।
बैठे बैठे सभी चीखकर
छेड़ रहे है जाग्रति अभियान
सुविधाभोगी बुद्धिमान बनकर
ढूंढ रहे सम्मान,
कोशिश यही है कि कोई
दूसरा वीर बनकर गर्दन कटाये,
हम क्रांतिकारी प्रसिद्ध हो, बिना पसीना बहाये,
परायी औलादों को झौंक रहे मैदान में
अपनी को सुविधा संचय के लिये भगा रहे हैं।
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4 अगस्त 2010

एक शब्द से हिल जाते हैं-व्यंग्य चिंतन (ek shabd se hil jate hain-hindi vyangya chinttan)

अकादमिक हिन्दी लेखक, आलोचक और विद्वानों की स्थिति भाषा की दृष्टि से बहुत रोचक है। पहली बात तो यह है कि अकादमिक हिन्दी वाले भाषा के शिखर संगठनों, समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा टीवी चैनलों पर इस तरह कब्जा किये बैठे हैं कि जैसे हिन्दी भाषा की कल्पना उनके बिना नहीं की जा सकती। दूसरी बात यह है कि आम हिन्दी भाषी पाठकों में कोई उनका नाम भी नहीं जानता। इस लेखक ने अनेक नाम तो अब जाकर अंतर्जाल पर पढ़कर सुने हैं। इससे पहले भी कुछ लेखकों का नाम समाचार पत्र पत्रिकाओं में पढ़ा पर उनकी रचनायें पढ़ने को नहीं मिली। ऐसे लेखकों ने खूब किताबें लिखी। कुछ को शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में भी जगह मिली, पर वह आम दुकानों में उनके दर्शन नहीं हुए। सरकार द्वारा संपोषित लाईब्रेरियों के अलावा अन्य कहीं भी उनको पाना कठिन है।
हम इधर आम पाठक को देखते हैं तो वह बाज़ार, रेल्वे स्टेशन और बस स्टैंडों पर जो किताबें खरीदता है वह इनका नाम तक नहीं जानता। दिलचस्प बात यह है कि अकादमिक लेखक उसे महत्व भी नहीं देते। कई तो कह देते हैं कि ‘लोगों को पढ़ने की तमीज़ नहीं है।’
कहने का अभिप्राय यह है कि अकादमिक हिन्दी और आम हिन्दी में बहुत अंतर है। अकादमिक हिन्दी वालों को यह भ्रम पता नहीं कैसे रहता है कि वह हिन्दी का विकास कर रहे हैं। यह लोग अखबार में छपते जरूर है पर उसे स्वयं पढ़ते नहीं। अगर पढ़ते होते तो पता चलता कि आजकल अखबारों के शीर्षकों में धड़ल्ले से देवनागरी लिपि में अंग्रेजी शब्दों का उपयोग करें-यथा‘ अपने फिगर मेन्टेन करें’, ‘बरसात का एंजोयमेंट‘ और ‘अपना होम स्वीट बनायें’, आदि आदि।
इसका मतलब साफ है कि हिन्दी के अकादमिक लेखक, विद्वान तथा आलोचक हिन्दी को साफ सुथरी भाषा के रूप में बनाये रखने में नाकाम रहे हैं जैसा कि वह उनके चेले दावा करते हैं। इससे ज्यादा बुरी बात क्या हो सकती है कि अधिकतर बड़े अखबार अंग्रेजी लेखकों के आलेख अपने हिन्दी संस्करणों में छापकर कृतकृत्य हो रहे हैं। मतलब यह कि हिन्दी में तो सामयिक लेखक पैदा होना ही बंद हो गये हैं भले ही अखबार, टीवी चैनल और प्रकाशन संस्थानों की कृपा पाने हिन्दी लेखकों की कमी नहीं है। कहते हैं हिन्दी में पाठक नहीं मिलते क्योंकि सभी मस्तराम और सविता भाभी जैसा साहित्य चाहते हैं। इससे बड़ा झूठ कुछ नहीं हो सकता क्योंकि आज भी श्रीबाल्मीकि रामायण, श्रीमद्भागवत तथा अन्य पौराणिक ग्रंथ लोग बड़े चाव से पढ़ते हैं।
कभी कभी तो लगता है कि इस देश के आर्थिक, सामाजिक तथा संस्कृति पुरुषों ने मिलकर यही प्रयास किया है कि अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का साहित्य जनमानस से विस्मृत किया जाये मगर भला हो धार्मिक प्रकाशनों का जिन्होंने ऐसा नहीं होने दिया। अभिप्राय यह है कि एक तरफ मस्तराम तथा सविताभाभी नुमा साहित्य आधुनिक बाज़ार ने लिखवाया तो वहीं क्लिष्ट शब्दों तथा निरर्थक संदेशों वाली ऐसी सामग्री को तैयार करवाया जिससे हिन्दी का आम पाठक समझ ही न सके।
यहां अकादमिक लेखकों से आशय भी स्पष्ट कर दिया जाये तो ठीक है। वह लेखक जो सरकार से सहायता प्राप्त संस्थाओं, प्रतिबद्ध वैचारिक संगठनों अथवा निजी प्रकाशकों की कृपा से किताबें छपवाते हैं वह अकादमिक लेखकों की श्रेणी में आते हैं। जो लेखक अपने निजी पैसे से किताबें छपवाते हैं या उनके लिये यह कार्य दृष्कर है वह आम लेखक हैं। इस आम लेखक की स्थिति तो बड़ी दयनीय है। अकादमिक लेखक उनको भीड़ की भेड़ की तरह अपने कार्यक्रमों में बुलाते हैं। चाहे कितनी भी रचनायें आम लेखक लिख चुका हो वह उसे लेखक नहीं मानते। अगर किसी ने निजी सहारे से किताब छपवाई है तो पूछा जाता है-‘इसकी कुछ प्रतियां बिकी हैं क्या?’
अगर छपवाई और सरकारी संस्था या निजी प्रकाशन से समर्थन नहीं मिला तो उसका लेखक कुछ भी नहीं है। जिसने नहीं छपवाई उसे तो लेखक ही नहीं माना जाता। चलिऐ यह सब ठीक है मगर अब पता चला है कि अकादमिक लेखक, विद्वान और आलोचक लिखते चाहें कितना भी हों, आपस में एक दूसरे की प्रशंसा करते हों पर सच यह है कि वह पढ़ते बिल्कुल नहीं हैं। पांच सौ शब्दों में एक शब्द ही उनकी हालत खराब कर देता है।
‘‘यह शब्द क्यों लिखा या कहा है?’’
एक शब्द को समूची मानव सभ्यता से जोड़ देते हैं।
किसी अकादमिक लेखक ने कह दिया कि
‘आज के कुछ लड़के छिछोरे या आवारा हैं।’
बस मच गया बवाल! समूची मानव सभ्यता पर खतरा और हमला! यहां यह भी स्पष्ट कर दें कि ऐसे बयान अकादमिक लेखकों में भी विकासवादियों, नारीवादियों, जनकल्याण वादियों के ही छपते हैं। ऐसे में आम लेखक और पाठक किंकर्तव्यमूढ़ होकर देखता और पढ़ता है। अब वह पहले किसी का विवादास्पद लेखक या बयान पढ़े या उसमें लिखे गये अप्रिय शब्द को लेकर लग रहे नारों को देखे।
‘कुछ’ पर की गयी टिप्पणी को पूरी मानव जाति से जोड़ लिया। आम पाठक क्या कहे? आम लेखक तो लिखने से भी डरता है क्योंकि कई खेमों में बंटे इन अकादमिक लेखकों में उसकी कोई पहचान नहीं होती। अपनी अकादमिक पहचान रखने वाले इन महिला तथा पुरुष लेखकों का पूरी मानव सभ्यता ही क्या बल्कि अपने ही देश के हिन्दी समुदाय का प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता। इनकी संख्या चाहे कितनी भी हो पर उनसे हजार गुणा संख्या तो उन स्वतंत्र लेखकों की है जिनको इन अकादमिक लेखकों की वजह से अपने लिखा छपवाने से वंचित हो जाना पड़ता है।
ऐसे ही अकादमिक पुरुषों तथा महिलाओं के बीच झगड़ा चल पड़ा है। एक अकादमिक पुरुष ने कह दिया कि ‘कुछ महिला लेखिकाओं के लेखन का स्तर बहुत खराब है और उनमें बुरे सा बुरा दिखने की होड़ लगी है।’
अकादमिक न होने के कारण हमने उस शब्द का उपयोग नहीं किया जो उस हिन्दी के महापुरुष ने कहा है। अब चूंकि वह हिन्दी के महान विद्वानों का आपसी विवाद है-क्योंकि किताबें छपवाना कोई आसान काम नहीं है चाहे महिला हो या पुरुष-अतः कहना कठिन है कि आगे क्या होगा? वैसे वह बयान पढ़ने से पता चलता है कि इसमें प्रचार पाने के लिये फिक्सिंग भी हो सकती है क्योंकि जहां उस महापुरुष को खूब प्रचार मिला वहीं अनेक अकादमिक महिला लेखिकाओं ने भी इसका लाभ उठाया।
मजे की बात यह है कि हिन्दी की एक बहुत बड़ी अकादमी की पत्रिका में यह साक्षात्कार छपा। अंक का नाम बताया गया है ‘बेवफाई-भाग 2’। यह हिन्दी के सर्वौच्च पुरस्कार भी बांटती है। जिन स्वतंत्र और मौलिक लेखकों के दिमाग में कभी ऐसे पुरस्कार पाने की ख्वाहिश हो वह इस बात पर ध्यान दें कि कि वह महापुरुष एक कुलपति होने के साथ इस संस्था की प्रवर समिति में भी हैं। इतनी बड़ी अकादमिक संस्था ‘बेवफाई’ जैसे शब्द का उपयोग करती है और उसी से जुड़ा महापुरुष महिलाओं के लिये घटिया शब्द का इस्तेमाल करता है तब उससे सामान्य हिन्दी भाषियों का हितैषी कैसे माना जा सकता है। वह इन अकादमिक लेखकों के एक समूह के पितृपुरुष हैं और अब उसी के लोगों से उनकी ठन भी गयी है। यह लड़ाई एकदम निजी है पर जैसा कि अकादमिक लेखकों की प्रवृत्ति है वह समूची मानव सभ्यता को इससे जोड़ रह हैं।
आखिरी बात यह है कि उन कथित विद्वान ने एक जगह कुछ महिला लेखिकाओं की ओर इंगित करते हुए कहा है कि उनकी किताबों के शीर्षक का नाम ‘कितने बिस्तर में कितनी बार’ होना चाहिए। संभव है कि कोई अकादमिक लेखक इस शीर्षक की किताब लिख डालें क्योंकि उनके संगठन बहुत प्रभावशाली है। मुश्किल यह होगी कि इन लेखकों के लिखे हुए को आम आदमी पढ़ता नहीं और पाठकीय दृष्टि से यह लेखक स्वयं भी कोई उच्च स्तरीय नहीं है। उनके बयान का मतलब तो वही जाने या उनके समूह के लोग, पर उनके कथन में उस शब्द के अलावा भी अन्य शब्द भी हैं। हालांकि उन्होंने बुरे शब्द का उपयोग किया पर संदर्भ को देखें तो उसकी जगह दूसरा बुरा शब्द भी हो सकता था। मगर मुश्किल वही कि अकादमिक लेखकों को एक ही शब्द हिला देता है और दूसरी बात यह कि किसी अकादमिक लेखक या लेखिका पर उंगली उठाना उनको गवारा नहीं-आम लेखिका और लेखक तो उनके लिये भीड़ की भेड़ की तरह है। हमें क्या? देखते हैं कौन लिखता है ‘कितने बिस्तर में कितनी बार’।
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27 जुलाई 2010

हमराह-हिन्दी शायरी (hamrah-hindi shayri

दोस्ती जैसा कोई रिश्ता नहीं,
मिल सकती है बस वफा यहीं।
तुम प्यार भरी बातें यूं ही करते रहो
हम सबूत ढूंढने नहीं जायेंगे कहीं।
कभी मौके पर खरे उतरो या मुंह फेर लो
कभी मतलब तुममें फंसाकर आजमायेंगे नहीं।
देखा है वक्त बदल देता है इंसानों को
तुम बदलोंगे तो कभी शिकायत करेंगे नहीं।
दोस्त के पराये होने पर क्या रोयेंगे
जब दगा भी किसी का सगा हुआ नहीं।
बेवफाईयां भी हमारी जिंदगी डुबो नहीं सकीं
वफा कर गये अनजाने लोग, जो मिले न थे कहीं।
कभी उठे आकाश में, कभी गिरे जमीन पर
चले अपने आसरे, मिले या न हमराह कहीं।

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22 जुलाई 2010

प्रसिद्ध होने का भय-हास्य कविता (mashahoor hone ka bhay-hasya kavita)

आशिक ने माशुका से कहा
‘एक टीवी चैनल वाले ने अपने कार्यक्रम में
मेरे को स्वयंवर का प्रस्ताव दिया है,
मैंने भी उससे तुम्हें ही चुनने का
पक्का वादा लिया है,
चलो इस बहाने देश में लोकप्रिय हो जायेंगे
अपना ‘फिक्स स्वयंवर’ रचायेंगे।’
माशुका बोली
‘क्या पगला गये हो,
यह टीवी और फिल्म वाले
भले ही हिन्दी का खाते हैं
शब्द सुनते जरूर पर अर्थ नहीं समझ पाते हैं,
बन गये हैं सभी उनके दीवाने,
इसलिये भाषा से हो गये वीराने,
स्वयंवर में वधु चुनती है वर,
और स्वयंवधु की कोई प्रथा नहीं है मगर,
फिर कहीं मिल गया कोई क्रिकेटर
या भा गया कोई एक्टर
तब तुम्हें भूल जायेंगे,
बिना पैसे मिले प्रचार की वजह से
हम यूं ही बदनाम हो जायेंगे,
वैसे भी लगता है तुम झांसा दे रहे हो,
मेरा इम्तहान ले रहे हो,
क्योंकि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं,
विवाह तुमसे करूंगी यह आस नहीं है,
इसलिये शायद मुझे फंसा रहे हो,
दिखाने के लिये हंसा रहे हो
यह बाज़ार और प्रचार है जुड़वां भाई,
मेल इनका ऐसा ही है जैसे फरसा और कसाई
हम जैसे लाखों हैं आशिक माशुकाऐं,
मिले टीवी पर मौका तो
बदल दें सभी अपनी आज की आस्थाऐं,
झूठा है तो ठीक
पर अगर सच्चा है तुम्हारा दावा
होगा दोनों को पछतावा
प्रसिद्ध हो जाने पर हम कभी
साथ नहीं चल पायेंगे।’
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19 जुलाई 2010

धर्मार्थ कर-लघु हास्य व्यंग्य (dharmarth kar-laghu hasya vynagya)

सुबह घर से निकलते समय पत्नी ने अपने पति से कहा-‘मैं सर्वशक्तिमान के दरबार के निर्माण कार्य के लिये चंदा देने का वादा करके आयी हूं। अब तो आपकी तनख्वाह बहुत अच्छी है इसलिये कुछ पैसे देना तो मैं वहां दे आऊंगी।’
पति ने कहा-‘कितनी बात कहा है कि तनख्वाह की बात मत किया करो। अपना घर तो ऊपरी कमाई से ही चलता है। आजकल प्रचार माध्यम बहुत ताकतवर हो गये हैं इसलिये ऊपरी कमाई आसान नहीं रही है। इधर तुम धर्मार्थ काम के लिये पैसा मांगने लगी हो। आज इस दरबार में तो कल उस दरबार में चंदा देना बंद कर दो।
पत्नी ने कहा-‘कैसी बात करते हो? सर्वशक्तिमान की कृपा से इतनी अच्छी तनख्वाह हो गयी है...................’’
पति ने कहा-‘फिर वही बात! सर्वशक्तिमान की कृपा से तनख्वाह नहीं मिलती। वह तो अपनी मेहनत का फल है। उसकी कृपा से तो बस ऊपरी कमाई हो सकती है, जिसमें आजकल कमी हो गयी है फिर दफ्तर में अब नज़र भी रखी जाने लगी है। खतरा बढ़ गया है।
पत्नी उदास हो गयी तो पति ने कहा-‘ठीक है! देखता हूं आज कोई मुर्गा फंसा तो उससे अपनी कमाई के साथ ही सर्वशक्तिमान के नाम पर धर्मार्थ कर भी मांग लूंगा। अगर तुम इसी तरह धर्म का काम करती रही तो मुझे पता नहीं कितने लोगों से यह धर्मार्थ कर मांगना पड़ेगा। अब मैं चलता हूं और सर्वशक्तिमान से प्रार्थना करो कि आज ऊपरी कमाई के साथ धर्मार्थ कर भी वसूल हो जाये।’
पत्नी खुश हो गयी और बोली-‘अच्छा! आप जाओ मैं सर्वशक्तिमान से प्रार्थना करती हूं कि आज आपको कोई धर्मार्थ कर देने वाला मिल जाये।’
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15 जुलाई 2010

महंगाई, पीतल और सोना-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (mahangai,peetal aur sona-hindi vyangya kavitaen)

महंगाई यूं बड़ी तो
पीतल सोने के भाव बिक जायेगा।
चांदी के भाव लोहा लिख जायेगा,
मोटे पेट वाले सेठ
कपड़े की गांठों पर बैठे रहेंगे,
गरीब हर जगह नंगा दिख जायेगा।
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पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी पर
देश भक्ति के गीत गाना
हास्यास्पद दिखता है,
जिन्होंने हथिया लिये दौलत और शौहरत के शिखर
वह हर शख्स
दौलत भक्ति करता दिखता है,
बातें कर चाहे कोई भी कितनी आदर्श की
मौका पड़े तो वह शख्स
देश को बेचने का सौदा भी लिखता है।
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महंगाई न केवल कमर तोड़ गयी
बल्कि पांव में पत्थर भी जोड़ गयी,
जिंदा रहना तो मुश्किल हो गया
मौत भी इंसान से मुंह मोड़ गयी।
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10 जुलाई 2010

कागज पर सड़क-हिन्दी हास्य कविताएँ kagaz par sadak-hindi comic poems)

देशभक्ति और गरीब की भलाई तो बस नारे हैं
जो लोकतंत्र के बाज़ार में
हमेशा बिक जाते हैं।
अमीर जताते दिखावे की मज़दूरों से हमदर्दी
भलमानस कहलाते, चाहे लूटने में दिखाते बेदर्दी
तो गद्दार भी नारे लगाकर
यहां वफादार का सम्मान पाते हैं।
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घोषणा है तो सड़क बन ही जायेगी,
तय बजट में से कुछ तो जरूर खायेगी।
लोग चल पायें या नहीं,
मगर कागज पर सड़क चकाचक नज़र आयेगी।

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4 जुलाई 2010

हंसी सूखकर कंकाल हो गयी-हिन्दी नज़्म (hansi sookhkar kakal ho gayi-hindi nazma)

आमदनी बढ़ाने की फिक्र में, जिंदगी बदहाल हो गयी,
पैसों से रिश्ते निभते हैं, संस्कृति एक बवाल हो गयी।
सुबह से शाम तक ताक रहे मतलब निकालने के रास्ते,
उतरे फ़र्ज तो चढ़े कर्ज, कौड़ी में भी महंगी इंसानी खाल हो गयी।
पसीना बहाकर अमीर होने के ख्वाब कोई नहीं देखता,
ईमान बेचकर दौलतमंद होना, हर इंसान की चाल हो गयी।
कहें दीपक बापू, रोने से बचने के लिये लोग ढूंढ रहे बहाने
दिल के जज़्बात मर गये, हंसी सूखकर कंकाल हो गयी।
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21 जून 2010

नफरत और अमन के सौदागर-हिन्दी क्षणिका (nafrat aur aman-hindi shayari)

ज़माने में नफरत पैदा करने का सौदा
उन लोगों ने किया
जिनके जिम्मे अमन लाने का काम था।
अगर ऐसा नहीं करते
तो खाली हाथ बैठे रहने के इल्जाम में फंसते
इसलिये कातिलों को बुला लिया
मरने वालों के घर के बाहर मजमा लगा लिया
खबरों में हमदर्द के रूप में इसलिये उनका ही नाम था।
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31 मई 2010

आस्था बिचारी-हिन्दी शायरियां (astha bichari-hindi shayriyan)

जोगिया रंग ओढ़कर जोगी नहीं हो जाते,
नीयत का साफ होना जरूरी है,
सच्चे संत कभी भोगी नहीं हो पाते।
हाथ में किताब है धर्म की,
नहीं जानते जीवन रहस्य के मर्म की,
धरती की गर्म हवा से विचलित हो जाते,
दौलत की ख्वाहिश वाले कभी निरोगी नहीं हो पाते।
भीड़ जुटा ली अपने चाहने वालों
धर्म का कर रहे सरे राह सौदा,
सर्वशक्तिमान की भक्ति का बनाते रोज नया मसौदा,
एक कंकड़ भी उछल कर सामने आ जाये
तो आकाश से गिरे परिंदे की तरह घबड़ाते।
हमदर्दी बटोरने के लिये रचते नित नये नाटक
ज़माने से खोया विश्वास पाने के लिये
कभी कभी भक्ति के शिकारी
खुद शिकार बनने दिखते
फिर हमदर्दी के लिये हाथ फैलाते।
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साहुकार हो गये लापता
अब संत ही हो गये व्यापारी,
माया की जंग में होती ही है मारामारी।
कहीं कंकर पत्थर उछलते
कहीं चलते अस्त्र शस्त्र
आस्था पर संकट क्या आयेगा
वह तो है बिचारी।
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27 मई 2010

उनका लक्ष्य हिन्दी ब्लाग जगत की आलोचना करना ही है-हिन्दी संपादकीय (critism of hindi blog)

गजरौला टाईम्स में छपी इस ब्लाग लेखक को अपनी कविता एक ब्लाग पर पढ़ने को मिली। एक पाठक की तरह उसे पढ़ा तो मुंह से अपनी तारीफ स्वयं ही निकल गयी कि ‘क्या गज़ब लिखते हो यार!’
अपनी पीठ थपथपाना बुरा माना जाता है पर जब आप कंप्यूटर पर अकेले बैठे हों तो अपना मनोबल बढ़ाने का यह एक अच्छा उपाय है।
पिलानी के एक विद्यालय ने अपनी एक पत्रिका के लिये इस ब्लाग लेखक की कहानी प्रकाशित करने की स्वीकृति मांगी जो उसे सहर्ष दी गयी। अनुमति मांगने वाले संपादक ने यह बताया था कि ‘यह कहानी जस की तस छपेगी।’ जब इस लेखक ने स्वयं कहानी पढ़ी तो उसमें ढेर सारे शब्द अशुद्ध थे। तब उसमें सुधार कर उसे फिर से तैयार किया गया। वह कहानी पिलानी के उस विद्यालय के संपादक को भेजने के बाद यह लेखक सोच रहा था कि बाकी के ब्लाग पर पढ़ने लायक रह क्या गया? एक बेहतर कहानी थी वह भीे हाथ से निकल कर दूसरे के पास पहुंच गयी।
अपने लिखे पर अपनी राय करना व्यर्थ का श्रम है। उससे ज्यादा बुरी बात यह है कि अपने लिखे पर स्वयं ही फूलना-ऐसी आत्ममुग्धता वाले अधिक समय तक नहीं लिख पाते। अपनी लेखकीय जिम्मेदारी पूरी कर सारे संकट पाठकों के लिये छोड़ देना चाहिये। जब अधिक लिखेंगे तो उच्च, मध्यम तथा निम्न तीनों श्रेणियों का ही लेखन होगा। संभव है कि आप अपना लिखा जिसे बेहतर समझें उसके लिये पाठक निम्न कोटि का तय करें और जिसे आप निम्न कोटि का पाठ समझें वह पाठक दर पाठक जुटाता जाये-कम से कम इस लेखक का अनुभव तो यही कहता है।
यही स्थिति पढ़ने की है। आप किसी के पढ़े को निकृष्ट समझें पर अधिकतर लोग उसे सराहें, ऐसी संभावना रहती है। ऐसे में किसी दूसरे के लिखे पर अधिक टिप्पणियां नहीं करना चाहिये क्योंकि अगर आपको किसी ने चुनौती दी कि ऐसा लिखकर तो बताओ’, तब आपकी हवा भी खिसक सकती है। अगर आप लेखक नहीं है तो लिखने की बात सुनकर मैदान छोड़कर भागना पड़ेगा और लेखक हैं तो भी लिख नहीं पायेंगे क्योंकि ऐसी चुनोतियां में लिखना सहज काम नहीं है। लेखकीय कर्म एकांत में शांति से ही किया जा सकता है।
हिन्दी ब्लाग जगत पर लिखने वालों की सही संख्या का किसी को अनुमान नहीं है। स्वतंत्र और मौलिक लेखकों के लिये यहां श्रम साधना केवल एक विलासिता जैसा है। ऐसे में उनकी प्रतिबद्धतायें केवल स्वांत सुखाय भाव तक सिमटी हैं। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि संगठित प्रचार माध्यमों से -टीवी चैनल, समाचार पत्र पत्रिकायें तथा व्यवसायिक संस्थाऐं- अधिक क्षमतावान लेखक यहां हैं। कुछ लेखक तो ऐसे हैं कि स्थापित प्रसिद्ध लेखक कर्मियों से कहंी बेहतर लिखते हैं। सच बात तो यह है कि अंतर्जाल पर आकर ही यह जानकारी इस लेखक को मिली है कि स्थापित और प्रसिद्ध लेखक कर्मी अपने लेखन से अधिक अपनी प्रबंधन शैली की वजह से शिखर पर हैं। शक्तिशाली वर्ग ने हिन्दी में अपने चाटुकारों या चरण सेवकों के साथ ही अपने व्यवसायों के लिये मध्यस्थ का काम करने वाले लोगों को लेखन में स्थापित किया है। परंपरागत विद्याओं से अलग हटकर ब्लाग पर लिखने वालों में अनेक ऐसे हैं जिनको अगर संगठित प्रचार माध्यमों में जगह मिले तो शायद पाठकों के लिये बेहतर पठन सामग्री उपलब्ध हो सकती है मगर रूढ और जड़ हो चुके समाज में अब यह संभावना नगण्य है। ऐसे में समाचार पत्र पत्रिकाऐं यहां हिन्दी ब्लाग जगत पर जब बुरे लेखन की बात करते हैं तो लगता है कि उनकी मानसिकता संकीर्ण और पठन पाठन दृष्टि सीमित है। यह सही है कि इस लेखक के पाठक अधिक नहीं है। कुल बीस ब्लाग पर प्रतिदिन 2200 से 2500 के लगभग पाठक आते हैं। महीने में 70 से 75 हजार पाठक संख्या कोई मायने नहीं रखती। यही कारण है कि अपने पाठों की चोरी की बात लिखने से कोई फायदा भी नहीं होता। बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि एक स्तंभकार ने एक अखबार में अपना पूरा पाठ ही इस लेखक के तीन लेखों के पैराग्राफ से सजाया था। एक अखबार तो अध्यात्म विषयों पर लिखी गयी सामग्री बड़ी चालाकी से इस्तेमाल करता है। शिकायत की कोई लाभ नहीं हुआ। संपादक का जवाब भी अद्भुत था कि ‘आपको तो खुश होना चाहिए कि आपकी बात आम लोगों तक पहुंच रही है।’
उस संपादक ने इस लेखक को अपने हिन्दी लेखक होने की जो औकात बताई उसे भूलना कठिन है। किसी लेखक को केवल लेखन की वजह से प्रसिद्ध न होने देना-यह हिन्दी व्यवसायिक जगत की नीति है और ऐसे में ब्लाग जगत की आलोचना करने वाले सारे ब्लाग पढ़कर नहीं लिखते। इसकी उनको जरूरत भी नहीं है क्योंकि उनका उद्देश्य तो अपने पाठकों को यह बताना है कि हिन्दी ब्लाग पर मत जाओ वहां सब बेकार है। इंटरनेट पर भी उसका रोग लग चुका है। इसके बावजूद यह सच है कि जो स्वयंसेवी हिन्दी लेखक ब्लाग पर दृढ़ता से लिखेंगे उनकी प्रसिद्धि रोकना कठिन है। अलबत्ता आर्थिक उपलब्धियां एक मुश्किल काम है पर पुरस्कार वगैरह मिल जाते हैं पर उसमें पुरानी परंपराओं का बोलबाला है-उसमें वही नीति है जो निकट है वही विकट है।
हिन्दी ब्लाग जगत पर कूड़ा लिखने वालों के लिये को एक ही जवाब है कि भई, समाचार पत्र पत्रिकाओं में क्या लिखा जा रहा है? ओबामा और ओसामा पर कितना लिखोगे। क्या वही यहां पर लिखें? ओबामा का जादू और ओसामा की जंग पर पढ़ते पढ़ते हम तो बोर हो गये हैं। इससे तो अच्छा है कि हिन्दी ब्लाग जगत के छद्म शाब्दिक युद्ध पढ़े जो हर रोज नये रूप में प्रस्तुत होता है। कभी कभी तो लगता है कि आज से दस बीस साल ऐसे पाठों पर कामेडी धारावाहिक बनेंगे क्योंकि संगठित प्रचार माध्यमों द्वारा तय किये गये नायक तथा खलनायकों का कोई अंत नहीं है और लोग उनसे बोर हो गए हैं। स्थिति यह है कि नायक की जगह उसका बेटा लायें तो ठीक बल्कि वह तो  खलनायक के मरने से पहले ही उसके बेटे का प्रशस्ति गान शुरु कर देते हैं ताकि उनके लिए भविष्य में सनसनी वाली सामग्री उपलब्ध होती रहे। कम से कम हिन्दी ब्लाग जगत में नाम, धर्म, तथा जाति बदलकर तो ब्लाग लेखक आते हैं ताकि उनके छद्मयुद्ध में नवीनता बनी रहे। हालांकि हिन्दी ब्लाग जगत के अधिकतर लेखक ऐसे छद्म युद्धों से दूर हैं पर समाचार पत्र पत्रिकाओं के स्तंभकार अपनी लेखनी में उनकी  वजह से ही   समूचे हिन्दी ब्लाग जगत को बुरा बताते हैं। दूसरे विषयों पर नज़र नहीं डालते। ब्लाग दिखाने वाले फोरमों के हाशिए पर (side bar) हिट दिखाये जा रहे इन ब्लाग को देखकर अपनी राय कायम करते हैं। बाकी ब्लाग देखने के लिए उनके पास न समय हा न इच्छा । देखें भी क्यों? उनका लक्ष्य तो आलोचना करना ही है!
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24 मई 2010

नज़र-हिन्दी शायरी (nazar-hindi shaayri)

रास्ते पर खींचता हुआ
सरियों से लदा ठेला,
पसीने से अंग अंग जिसका नहा रहा है,
कई जगह फटे हुए कपड़ों से
झांक रहा है उसका काला पड़ चुका बदन,
मगर उस मजदूर की तस्वीर
बाज़ार में बिकती नहीं है,
इसलिये प्रचार में दिखती नहीं है।

सफेद चमचमाता हुआ वस्त्र पहने,
वातानुकूलित वाहनों में चलते हुए,
गर्म हो या शीतल हवा भी
जिसका स्पर्श नहीं कर सकती,
काले शीशे की पीछे छिपा जिसका चेहरा
कोई आसानी से देख नहीं सकता
वही टीवी के पर्दे पर लहरा रहा है,
क्योंकि मुश्किल से दिखता    है
इसलिये बिक रहा है महंगे भाव
सभी की नज़र ज़मी वहीं है।
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16 मई 2010

आज परशुराम जयंती तथा अक्षय तृतीया-हिन्दी लेख (today parshuram jayanti and akshay tratiya-hindi lekh

आज अक्षय तृतीया पर भगवान परशुराम की जयंती मनाई जा रही है। प्राचीन ग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम का नाम अवतारों के रूप में लिया जाता है। इनका चरित्र इतना अलौकिक लगता है कि अन्य महान पात्रों पर ध्यान कम ही लोगों का जाता है। इनमें से एक हैं महर्षि परशुराम। उनका वास्तविक नाम तो राम ही था। उनकी वजह से यह भी कहा जाता है कि ‘राम से पहले भी राम हुए हैं’। उनका चरित्र वाकई अद्भुत था और भगवान श्री राम पर लिखे गये ग्रंथों में रचयिताओं ने उनका नाम राम की बजाय परशुराम संभवतः अपनी सुविधा के लिये लिखा ताकि भविष्य के लोग अच्छी तरह से अलग अलग दोनों रामों के चरित्रों को समझ सकें।
परशुराम के बारे में कहा जाता है कि वह उन्होंने अनेक बार यह पृथ्वी क्षत्रियों से विदीर्ण की थी। आजकल हमारे बौद्धिक समाज में उनको इसलिये क्षत्रिय जाति का शत्रु माना जाता है। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति तथा विदेशी ज्ञान को ओढ़े समाज ने आज के जिस जातिवादी स्वरूप को प्राचीनतम होने को आरोप को स्वीकार किया है उसे यह समझाना कठिन है कि क्षत्रिय का मतलब कोई जाति नहीं थी। यह एक कर्म था वह भी युद्ध करने वाला नहीं बल्कि राज्य करने वाला। युद्ध केवल क्षत्रिय जाति के लोग लड़ते थे यह कहीं नहीं लिखा। दूसरा यह भी कि संभव है उस समय सेना के उच्च पदों पर तैनात लोगों को ही क्षत्रिय कहा जाता हो। जहां तक युद्ध में लड़ने का सवाल है तो यह आज के समाज को देखते हुए यह संभव नहीं लगता कि प्राचीन समय के राज्यों सेना में केवल उच्च जाति के लोग ही रहते हों। आज के पिछड़े तथा दलित वर्ग के लोगों को बिना भी प्रसिद्ध प्राचीनतम राज्यों सेना पूर्णता प्राप्त प्राप्त करती होगी यह संभावना नहीं दिखती।
कहने का आशय यह है कि उस समय क्षत्रिय शब्द का संबोधन संभवतः राज्य करने वाले शासकों के लिये प्रयुक्त होता होगा जो संभवत उस समय अनुशासन हीन थे-इनमें रावण तो एक था वरना उस समय अनेक राजा अपनी प्रजा ही नहीं वरन् अन्य कमजोर राजाओं की प्रजा तथा परिवार को अपनी बपौती समझते थे और चाहे जो महिला या वस्तु कहीं से उठा लेते थे। अगर उस समय शक्तिशाली वर्ग के धनी या बाहूबली भी ऐसा करते होंगे तो बिना राज्य की सहमति के यह संभव नहीं रहा होगा। कहने का अभिप्राय यह है कि क्षत्रिय का अर्थ राजकाज कर्म था और उस समय धार्मिक और सामाजिक नियमों की अवहेलना शक्तिशाली वर्ग द्वारा ही की जाती होग। भगवान श्रीराम ने इसलिये ही मर्यादित रहकर सारे समाज में जाग्रति लाने का प्रयास किया उससे तो यही सिद्ध होता है। आम आदमी तो उस समय भी आज की तरह असहाय रहा होगा-वरना क्यों उस समय अवतार की प्रतीक्षा होती थी। परशुराम ने फरसा शायद इसलिये ही उठाया था और शक्तिशाली वर्ग की पहचान रखने वाले क्षत्रियों का संहार किया-इस महर्षि का चरित्र ऐसा है कि आम आदमी पर उनका हमला हुआ हो या उन्होंने निहत्थे को मारा हो इसका प्रमाण नहीं मिलता।
परशुराम भगवान श्रीराम से परास्त नहीं हुए थे जैसे कि कुछ लोगों द्वारा व्याख्या की जाती है। बाल्मीकी रामायण के अनुसार जब भगवान श्रीराम विवाह कर अयोध्या लौट रहे थे तब उनका सामना परशुराम से हुआ था। शिवजी का धनुष टूटने का खबर सुनकर परशुराम दूसरा धनुष लेकर इसलिये आये थे ताकि खबर की सत्यता का पता लग सके। राजा जनक ने यह प्रतिज्ञा की थी कि जब तक कोई शिवजी के उस धनुष पर जब कोई बाण का अनुसंधान कर लेगा तब अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर देंगे। लंबे समय तक वह निराश बैठे रहे। परशुराम यह देखेने आये थे कि कहीं इस प्रतिज्ञा को पूर्ण होने का छल तो नहीं किया गया-आज के संदर्भ में कहें कि
कोई फिक्सिंग तो नहीं हुई।
लक्ष्मण जी से परशुराम का वाद विवाद हुआ पर बाद में भगवान श्रीराम ने उनके धनुष पर बाण का संधान किया। उस समय हाहाकार मच गया। ब्राह्मण को अकारण मारने का अपराध भगवान श्रीराम करना नहीं चाहते थे तब उन्होंने महर्षि परशुराम से ही निशाना पूछा। परशुराम ने उनको बताया तब वह बाण उन्होंने छोड़ा। भगवान श्रीराम ने उनके पुण्य लोक तो हर लिये पर गमन शक्ति नष्ट की क्योंकि परशुराम दिन ही मे धरती का दौरा कर ं अपने ठिकाने लौट जाते थे। वहां से परशुराम महेंद्र पर्वत चले गये। इस विश्वास के साथ कि उनके द्वारा अन्याय के विरुद्ध युद्ध को श्रीराम जारी रखेंगे।
मगर यहीं उनकी कहानी खत्म नहीं होती। महाभारत काल का योद्धा कर्ण उनसे धनुर्विधा सीखने गया। परशुराम यह कला केवल ब्राह्मणों को ही सिखाते थे-मतलब केवल कथावाचन या प्रवचन करना ही ब्राहमणत्व का प्रमाण नहीं है और अगर था तो भी उसे परशुराम समाप्त करना चाहते थे। कर्ण ने अपना परिचय एक ब्राह्मण के रूप में देकर उनसे शिक्षा प्राप्त करना प्रारंभ की। एक दिन परशुराम कर्ण की जांघ पर पांव रखकर सो रहे थे तब इंद्र महाराज ने-उस समय के ऐसे राजा जो अपने राज्य की प्रजा की रक्षा के लिये गाहे बगाहे अन्य राज्यों में गड़बड़ी फैलाते रहते थे-कीड़ा बनकर कर्ण की उसी जांघ पर काट लिया।
कर्ण की जांघ से रक्त निकलने लगा पर गुरुजी की नींद न टूटे इसलिये चुप रहा। बाद में जब परशुराम की नींद टूटी तब उन्होंने कर्ण की जंघा पर बहता खून देखा। उनको सारी बात समझ में आ गयी। उन्होंने कर्ण से कहा ‘सच बता तू कौन है? इतनी सहने की क्षमता किसी ब्राह्मण में नहीं होती।’
कर्ण ने सच बताया तो उन्होंने उसे शाप दिया कि ‘समय पड़ने पर तू मेरी सिखाई युद्ध विद्या भूल जायेगा।’
अर्जुन के साथ युद्ध में यही कर्ण के सामने यही शाप प्रकट हुआ। भूत, भविष्य और वर्तमान के ज्ञाता परशुराम अगर क्षत्रिय विरोधी होते तो कभी भी कर्ण को ऐसा शाप नहीं देते। मगर वह अन्याय के विरुद्ध न्याय की जीत देखना चाहते थे और इसी कारण अपना पूरा जीवन अविवाहित व्यतीत किया। अगर जाति मोह होता तो विवाह अवश्य करते। कहीं कोई राज्य नहीं किया। कभी व्यसनों में मोह नहीं रखा। किसी की स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली। ऐसे व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति या समूह के संहार से मतलब हो सकता है तो केवल वह आम इंसान के लिये तकलीफदेह है। ऐसे महर्षि परशुराम को हार्दिक नमन! इस अक्षय तृतीया के अवसर पर इस इस लेखक के ब्लाग लेखक मित्रों तथा पाठकों को बधाई।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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12 मई 2010

अमेरिका कभी पाकिस्तान पर गर्माता है कभी शर्माता है-हिन्दी लेख (relation between pakistan and america-hindi article)

अमेरिका की विदेश मंत्री हेनरी क्लिंटन ने कहा था अगर टाईम्स स्कवायर पर बम मिलने की घटना के तार पाकिस्तान से जुड़े पाये गये तो उसे गंभीर परिणाम भोगने पड़ेंगे। इससे पहले कि पाकिस्तान की तरफ से कोई औपचारिक विरोध दर्ज होता अमेरिका के रणनीतिकार ऐसी धमकी देने से ही इंकार करने लगे। इस तरह यह बात जाहिर हो गया है कि अमेरिका अब लगातार रणनीतिक गलतियां करता जा रहा है और सामरिक दृष्टि से विश्व का शक्तिशाली देश होने के बावजूद उनका आत्मविश्वास डांवाडोल हो रहा है।
ऐसा लगता है कि अमेरिकी रणीनीतिकार अपनी कार्य तथा विचार षैली में समय के अनुसार बदलाव नहीं लाना चाहते इसलिये नये लक्ष्यों को प्राप्त करने में अपने पुराने पूर्वाग्रह नहीं छोड़ते जिससे उनको असफलता मिल रही है। इसका सीधा आषय अमेरिकी रणनीतिकारों की बौद्धिक क्षमता पर संदेह उठाना भी लग सकता है। पर अगर यह प्रमाणित हो जाये कि वह लक्ष्य प्राप्त ही नहीं करना चाहते ताकि लंबे अभियानों से वह विष्व समुदाय को भ्रमित कर अपने हथियार तथा तकनीकी बेची जा सके तो फिर कोई प्रष्न नहीं रह जाता। हालांकि इस सौदेबाजी के तरीके के दीर्घकालीन परिणामों का अपने हित में रहने के बारे में अमेरिकी रणनीतिकार आश्वस्त हो सकते हैं पर इसमें इतनी अनिश्चतायें हैं कि हो सकता है कि उल्टा पास पड़ जाये। इसलिये यहां उनकी अदूरदर्शिता साफ दिखाई देती है। खासतौर से पाकिस्तान और अफगानिस्तान को लेकर अमेरिकी रणनीति विफलता की तरफ बढ़ती दिख रही है।
दरअसल अमेरिका विष्व भर के आतंक, अपराध तथा अन्य गैरकानूनी गतिविधियों को अपने हित के नजरिये से देखता है। विष्व में आर्थिक उदारीकरण का प्रवर्तक होने के नाते अमेरिका को यह समझ लेना चाहिये कि अगर रुपये या डालर को अगर राष्ट्र की सीमाओं को बांधा नहीं जा सकता क्योंकि बडे पूंजीपतियों को आपने वैष्विक वृत्ति का मान लिया है पर उनकी छत्रछाया में ही ऐसे अनेक कृत्य होते हैं जिनको गैरकानूनी माना जाता है और उनके सहारे पलने वाले असामजिक तत्व किसी के सगे नहीं होते। यह तो अमेरिकी भी मानते हैं कि आतंकवादियों को अंततः बड़े पैसे वालों द्वारा ही आर्थिक सहायता दी जाती है। ऐसे में पूंजीपतियों को वैष्विक मानना और आतंकवादियों को अपने तथा अन्य देषों के हितों की दृष्टि में बांटना अपने आपको धोखा देने के अलावा और क्या हो सकता है?
वैसे तो आतंकवाद की लड़ाई का कथित नेता होने का दावा करने वाला अमेरिका स्वयं ही संदेहों के दायरे में है। 9/11 के जिम्मेदार उसके प्रसिद्ध अपराधी पाकिस्तान में पनाह लिये हुए हैं। वह उन पर रोज बमबारी करता है पर नतीजा सिफर! कभी कभी तो लगता है कि उसक यहा प्रायोजित कार्यक्रम है ताकि उसके सहारे
वह अपने नयी तकनीकी से सुसज्जित ड्रान विमानों का परीक्षण कर सके-याद रखने वाली बात यह है कि अमेरिकी विरोधी उस पर भी आरोप लगाते हैं कि वह अपने हथियारों के परीक्षण के लिये ऐसे युद्ध जारी रखता है।
यहां बार बार सवाल आता है कि आखिर अमेरिकाष्षत्रु इतने अजेय कैसे हो गये है जिनको मारने के लिये उसे दस वर्ष भी कम पड़ते हैं? फिर वह भारत के पाकिस्तान में रह रहे अपराधियों के प्रष्न को अनदेखा कर देता हैं विभिन्न माध्यमों से मिलने वाले समाचारों पर यकीन करें तो पाकिस्तान के भारत में रह रहे अपराधी कहीं न कहंी अमेरिका पर मेहरबान है इसलिये वह इस विषय पर चुप्पी साध लेता है।
दरअसल अमेरिका अब दो नावों की सवारी करना चाहता है। अपने आर्थिक लाभ के लिये वह भारत को भी अपने पाले में रखना चाहता है तो पाकिस्तान उसके लिये सामरिक महत्व का है जिसे वह छोड़ना नहीं चाहता। कभी कभी तो लगता है कि अमेरिकी रणनीतिकार आत्म्मुग्धता के शिकार हैं क्योंकि उनको लगता है कि वही राजनीतिक जुआ खेलना जानते हैं और बाकी सभी अनाड़ी हैं। बाकी जगह तो पता नहीं पर पाकिस्तान और अफगानिस्तान को लेकर उनको बहुत सारे भ्रम हैं। पाकिस्तान में चीन के साथ खाड़ी देश भी अपने ढंग से सक्रिय हैं तो अफगानिस्तान में भी रूस की सक्रियता है। वैसे कुछ लोगों को लगता है कि कूटनीतिक रूप से पाकिस्तान कोई सफल देश है तो उन्हें यह भ्रम नहीं रखना चाहिए। भले ही वह अमेरिका को अपने मुताबिक फैसले करने को बाध्य करता है पर इसका कारण यह है कि खाड़ी देशों तथा चीन की वजह से उसकी शक्ति बढ़ी हुई है। खाड़ी देश तथा चीन पहले भारत के विरुद्ध उपयोग उसका प्रभाव अपने यहां पड़ने से रोकने के लिये करते थे और आजकल ब्रिटेन और अमेरिका को दुविधा में डालने के लिये भी वही कर रहे हैं।
अमेरिका पहले अमेरिका तथा खाड़ी देशों का उपनिवेश था तो अब चीन भी उसका माईबाप हो गया है। देश के कुछ बुद्धिजीवी अक्सर यह कहते हैं कि आखिर पाकिस्तान भारत विरोध क्यों नहीं छोड़ता? उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि खाड़ी देशों के साथ ही उसे अमेरिका और चीन से आर्थिक सहायता केवल भारत विरोध के कारण ही मिलती है। वह चाहे तो भारत से भी ले सकता है पर जितना माल उसे इन तीन क्षेत्रों से मिलती है वह उस पैमाने पर नहीं मिल सकता। सच तो यह है कि खाड़ी देशों ने धर्म तो चीन ने अर्थ के आधार पर पाकिस्तान को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। उसके पास पैसा खूब आ रहा है इसलिये अमेरिका उसे हथियार बेचकर अपने बाज़ार को लाभ पहुंचाना चाहता है। मुश्किल यह है कि आतंकवाद एक ऐसा विषय है जिस पर किसी को आश्वस्त होकर नहीं बैठना चाहिऐ। मगर अमेरिकी रणनीतिकार जिस तरह आतंकवाद में भेद करते हैं उससे देखकर तो लगता है कि एक दिन उनको इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
बहरहाल अमेरिकी रणनीतिकारों ने अपनी पाकपरस्ती के कारण भारतीय जनता की सहानुभूति पूरी तरह से खो दी है और कालांतर में उसका दुष्परिणाम उसके सामने यह भी आ सकता है कि आतंकवाद के विरुद्ध कथित संयुक्त अभियान में भारतीय रणनीतिकार जन दबाव के अभाव में उसका साथ वैसे न दें जैसी की वह अपेक्षा करता है। दूसरी बात यह है कि उसके हथियार बेचने की रणनीति से आतंकवाद को जोड़ने वाली बातें अब कभी कभी लोगों को सच लगती है इसलिये वैश्विक रूप से कोई बड़ा अभियान चलाना उसके लिये संभव नहीं  रहा है।
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