31 मई 2008

गांधीवाद,गांधीगिरी और गांधीमार्ग-आलेख

गांधीगिरी, गांधीवाद और गांधी मार्ग या विचारधारा तीनों शब्दों का अर्थ भले ही एक जैसे लगते है पर मेरी दृष्टि में में इनका भावार्थ एक नहीं है। हो सकता है कि कुछ लोग मुझे रूढ़ समझें पर विशुद्ध रूप से हिन्दी क्षेत्र का होने के कारण हर शब्द का अर्थ और भाव मेरे स्मृति पटल में इस तरह अंकित है कि हिन्दी भाषा के हर शब्द का अर्थ और भाव मेरे लिये सहज हो गया और मुझे किसी भी शब्द का भावार्थ समझने में कठिनाई नहीं होती ।

जब भी हिन्दी भाषा में किसी संज्ञा के साथ गिरी शब्द जुड़ता है तो वह उसके अर्थ के साथ उसके भाव और महत्त्व को कम करता है। दूसरे शब्दों में कहें कि यह उसे निम्नकोटि का भावार्थ प्रदान करता है। मैं किसी काम को लघु नहीं मानता क्योंकि अपने पेट के लिये रोजगार अर्जित करने के लिये कोई निम्न व्यसाय करने से निम्न नहीं होता है और हमारे देश में तो कई ऐसे संत हुए हैं जिन्होंने इन्हीं निम्न व्यसायों से जुडे होने के बावजूद देश के आध्यात्म को ऐसी दिशा दी जिसके कारण देश आज विश्व्गुरु कहलाता है-पांडवों को भी अपने अज्ञातवास के दौरान निम्नकोटि के काम करना पड़े थे।

यहां इस चर्चा का उद्देश्य केवल भाषा और भाव का है। गिरी शब्द महत्वहीन व्यवसायों और संज्ञाओं में जोडा जाता है और कभी-कभी तो किसी नकारात्मक शब्द को प्रभावी बनाने के लिए भी इसका इस्तेमाल होता है-जैसे उठाईगिरी, दादागिरी और गुंडागिरी। आजकल दो शब्द बहुत शब्द प्रचलित हैं जैसे चमचागिरी और नेतागिरी और इनका उच्चारण कोई उनका महत्व प्रतिपादित करना नहीं होता बल्कि किसी का मजाक उडाने के लिए भी किया जाता है। आपने कभी शिक्षकगिरी , चिकित्सकगिरी , व्यापारीगिरी और अधिकारीगिरी जैसे शब्द नहीं सुने होंगे। तात्पर्य यह है कि यह केवल किसी संज्ञा के मह्त्व को कम प्रदर्शित करता है। ऐसे में गांधी जी के आदर्शों को मानने वाला मुझ जैसा हिन्दीभाषी क्षेत्र का शख्स अपने आपको असहज अनुभव करता है।

अब गांधीवाद शब्द की चर्चा करें। वाद या नारे तो केवल लोगों को यह बताने के लिये हैं कि हम उनके अनुगामी हैं और उनके बारे में हम अधिक जानते हैं इसलिए हम जो कहते हैं वही मानो। अगर आप किसी भी वाद या नारे पर चलने वाले बुद्धिजीवी से उसका स्वरूप पूछें तो सब केवल रटे-रटाए नारे लगाने वाली बात कहेंगे। गरीबों और शोषितों को उठाना, महिलाओं को सम्मान दिलाना और जन कल्याण करना। सो इस पर बात अधिक क्या कहें । इन नारों और वाद पर मैं पहले भी बहुत कुछ लिख चुका हूं।
गांधी विचार या गांधी दर्शन शब्द से मेरा मन प्रुफ़ुल्लित हो जाता है। इस शब्द का प्रयोग जो व्यक्ति करता है उसके बारे में यही सोच हमारे मन में आता है यह वाकई उनके बारे में जानता है। गांधी जी ने ऐसा चरित्र जिया है जिस पर जितना भी लिख जाये कम है। उन्होने कोई अभिनय नहीं किया और न कोई ऐसा अभिनेता इस देश में हुआ कि उनके चरित्र को जी सके। हमारे देश के कुछ लोग वालीवुड का बहुत शोर मचाते हैं पर गांधीजी पर फ़िल्म बनाने वाला और उनका चरित्र निभाने वाला दोनों विदेशी थे। मतलब साफ़ है कि इस देश में उनके वाद पर बहुत चले पर दर्शन किसी ने नहीं अपनाया और ऐसा करते तो तब जब समझ में आता।

हाल में एक फ़िल्म बनी जिसमें एक अभिनेता ने गांधीगिरी की और गांधीजी के कुछ भक्त बहुत प्रसन्न हो गये। भाई लोगों को पता नहीं कि भाषा का शब्द, अर्थ और उसका भाव बहुत महत्वपूर्ण होता है। गांधीगिरी शब्द का भाव पहले समझो। इस देश की अधिकतर जनता गांव में रह्ती है वह कभी इसे उस भाव से नहीं लेगी जो तथाकथित गांधीवादी समझ रहे हैं। उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि हिन्दी क्षेत्रों में गिरी शब्द उसका महत्व कम करने के साथ उसको हास्याभिव्यक्ति भी प्रदान करता है। फ़िर मुंबई को छोड़कर आप किसी भी हिन्दी भाषी क्षेत्र में चले जायें वहां हिन्दी ऐसी नहीं है जैसी वालीवुड की है। उनके फ़िल्मों से हिन्दी का प्रचार तो हो सकता है पर लोग वैसी बोलते नहीं है जैसी उसमें देखते और सुनते हैं।फिल्मों ने देश के चरित्र पर दुष्प्रभाव डाला है पर भाषा अभी बची हुई है। अगर इसी तरह बंबईया फिल्मों की भाषा को आम बोलचाल में अपनाते रहे तो उसे भी हानि पहुंचा सकते हैं.
इस सबके विश्लेषण के साथ मेरा तो यही कहना है कि मैं हमेशा गांधी मार्ग या उनके दर्शन पर चलने के लिये ही कहूंगा क्योंकि गांधिगिरी शब्द मुझे असहज कर देता है और अपने जीवन में कभी भी उसका उच्चारण नहीं कर सकता। हो सकता है मैं गलत हूं पर क्या करूं मैने हिन्दी को जिस रूप में पढा है उसके आधार पर मेरी यह समझ बनी है हालांकि मैं यह दावा भी नहीं करता की मैं एक दम सही हूँ। हिन्दी भाषा में इतनी विशेषज्ञता नहीं है कि ऐसा दावा कर सकूं

लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप

11 मई 2008

नारद और चिट्ठजगत वालों ज़रा ब्लोगवाणी चेक करें,

आज अनिल रघुराज की एक पोस्ट ^एक हिंदुस्तानी की डायरी में^ अनिल रघुराज पर मैंने एक कमेंट लगाई। यह कमेंट दूसरे नंबर पर लगायी थी। अभी शाम को मैं जब ब्लागवाणी चेक कर रहा था तो अनिल रधुराज जी की पोस्ट पर चार कमेंट चमक रहे थे। इसमे सबसे ऊपर कोई एक महिला ब्लाग लेखिका का नाम था और सबसे आखिरी एक ब्लाग लेखक का। मैंने पुनः ब्लाग खोलकर देखा तो ब्लाग लेखक ने सातवें और आठवें नंबर पर था।

मैं अपना नाम देखकर यह सोच रहा था कि यह नीचे से ऊपर के क्रम में होंगे पर जब ब्लाग खोलकर देखा तो मुझे हैरानी हुई। आखिर यह क्या माजरा है? एक तरफ कुछ लोग कहते फिर रहे है कि टिप्पणियां करो और दूसरी तरफ ऐसा? अब यह कैसे संभव है। अभी जब यह पोस्ट मैं लिख रहा था तब लाईट चली गयी और लौटकर आया तो देखा कि उड़ल तश्तरी जी की कमेंट वहां दूसरे नंबर पर चमक रही है। क्या एग्रीगेटर को यह अधिकार है कि चाहे जिसकी टिप्पणियां दिखायेगा? नारद और चिट्ठा जगत वाले चेक करें बतायें यार, यह क्या गड़बड़झाला है? मै भ्रम में हूं या ब्लागवाणी वाले खुशफहमी में।
अपनी बात अपने नाम से रखें तो बेहतर है क्योंकि अनामों का साथ मेरे लिये उपयोगी नहीं होगा क्योंकि यह बात निकली है तो दूर तक जायेगी। वैसे मैं किसी प्रकार के विवाद पसंद नहीं करता पर मेहनत कर लिखता हूं और एक मजदूरी की तरह ही हूं। जब कोई किसी की मेहनत पर आक्षेप करता है तब मुझे मजबूर होकर संघर्ष करना पड़ता है अब कोई यह मत कहना कि ज्ञानी होकर ऐसी बात कर रहा है। अब यह बात मत कहना कि दूसरों को प्रोत्साहन की जरूरत है तुम्हें नहीं। याद रखना अपनी मेहनत का मजाक उड़ाने वालों पर मुझे हास्य कविता बरसाने का अभ्यास इसी अंतर्जाल पर हुआ है। कोई तकनीकी गड़बड़ी बताने से पहले यह भी सोच लेना 1983 में कंप्यूटर पर हाथ रखा था।


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एक हिंदुस्तानी की डायरी में अनिल रघुराज 39 बार पढ़ा गया

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टिप्पणियां (कुल: 8)
बोधिसत्व-जय हो भाई..पर यह साहित्यकार कौन है जो नामर्द है......
Udan Tashtari-हमारी आवाज ने जगा ही दिया. बात में तो दम है मगर हम...
आभा-तेरहवी की बात क्यों कर रहे हैं...हमें तो आपकी पोस्...
विजयशंकर चतुर्वेदी-रघुराज भाई, अपन तो सोच रहे थे कि आप गर्मियों की छु...

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यह मेरा ब्लोग केवल नारद और चिट्ठजगत पर ही है इसलिए इस पर लिख कर तसदीक करना चाहता हूँ । फिर आगे कुछ और भी लिखेंगे।

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