31 मई 2010

आस्था बिचारी-हिन्दी शायरियां (astha bichari-hindi shayriyan)

जोगिया रंग ओढ़कर जोगी नहीं हो जाते,
नीयत का साफ होना जरूरी है,
सच्चे संत कभी भोगी नहीं हो पाते।
हाथ में किताब है धर्म की,
नहीं जानते जीवन रहस्य के मर्म की,
धरती की गर्म हवा से विचलित हो जाते,
दौलत की ख्वाहिश वाले कभी निरोगी नहीं हो पाते।
भीड़ जुटा ली अपने चाहने वालों
धर्म का कर रहे सरे राह सौदा,
सर्वशक्तिमान की भक्ति का बनाते रोज नया मसौदा,
एक कंकड़ भी उछल कर सामने आ जाये
तो आकाश से गिरे परिंदे की तरह घबड़ाते।
हमदर्दी बटोरने के लिये रचते नित नये नाटक
ज़माने से खोया विश्वास पाने के लिये
कभी कभी भक्ति के शिकारी
खुद शिकार बनने दिखते
फिर हमदर्दी के लिये हाथ फैलाते।
------------
साहुकार हो गये लापता
अब संत ही हो गये व्यापारी,
माया की जंग में होती ही है मारामारी।
कहीं कंकर पत्थर उछलते
कहीं चलते अस्त्र शस्त्र
आस्था पर संकट क्या आयेगा
वह तो है बिचारी।
--------------

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

-----------------------------
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

27 मई 2010

उनका लक्ष्य हिन्दी ब्लाग जगत की आलोचना करना ही है-हिन्दी संपादकीय (critism of hindi blog)

गजरौला टाईम्स में छपी इस ब्लाग लेखक को अपनी कविता एक ब्लाग पर पढ़ने को मिली। एक पाठक की तरह उसे पढ़ा तो मुंह से अपनी तारीफ स्वयं ही निकल गयी कि ‘क्या गज़ब लिखते हो यार!’
अपनी पीठ थपथपाना बुरा माना जाता है पर जब आप कंप्यूटर पर अकेले बैठे हों तो अपना मनोबल बढ़ाने का यह एक अच्छा उपाय है।
पिलानी के एक विद्यालय ने अपनी एक पत्रिका के लिये इस ब्लाग लेखक की कहानी प्रकाशित करने की स्वीकृति मांगी जो उसे सहर्ष दी गयी। अनुमति मांगने वाले संपादक ने यह बताया था कि ‘यह कहानी जस की तस छपेगी।’ जब इस लेखक ने स्वयं कहानी पढ़ी तो उसमें ढेर सारे शब्द अशुद्ध थे। तब उसमें सुधार कर उसे फिर से तैयार किया गया। वह कहानी पिलानी के उस विद्यालय के संपादक को भेजने के बाद यह लेखक सोच रहा था कि बाकी के ब्लाग पर पढ़ने लायक रह क्या गया? एक बेहतर कहानी थी वह भीे हाथ से निकल कर दूसरे के पास पहुंच गयी।
अपने लिखे पर अपनी राय करना व्यर्थ का श्रम है। उससे ज्यादा बुरी बात यह है कि अपने लिखे पर स्वयं ही फूलना-ऐसी आत्ममुग्धता वाले अधिक समय तक नहीं लिख पाते। अपनी लेखकीय जिम्मेदारी पूरी कर सारे संकट पाठकों के लिये छोड़ देना चाहिये। जब अधिक लिखेंगे तो उच्च, मध्यम तथा निम्न तीनों श्रेणियों का ही लेखन होगा। संभव है कि आप अपना लिखा जिसे बेहतर समझें उसके लिये पाठक निम्न कोटि का तय करें और जिसे आप निम्न कोटि का पाठ समझें वह पाठक दर पाठक जुटाता जाये-कम से कम इस लेखक का अनुभव तो यही कहता है।
यही स्थिति पढ़ने की है। आप किसी के पढ़े को निकृष्ट समझें पर अधिकतर लोग उसे सराहें, ऐसी संभावना रहती है। ऐसे में किसी दूसरे के लिखे पर अधिक टिप्पणियां नहीं करना चाहिये क्योंकि अगर आपको किसी ने चुनौती दी कि ऐसा लिखकर तो बताओ’, तब आपकी हवा भी खिसक सकती है। अगर आप लेखक नहीं है तो लिखने की बात सुनकर मैदान छोड़कर भागना पड़ेगा और लेखक हैं तो भी लिख नहीं पायेंगे क्योंकि ऐसी चुनोतियां में लिखना सहज काम नहीं है। लेखकीय कर्म एकांत में शांति से ही किया जा सकता है।
हिन्दी ब्लाग जगत पर लिखने वालों की सही संख्या का किसी को अनुमान नहीं है। स्वतंत्र और मौलिक लेखकों के लिये यहां श्रम साधना केवल एक विलासिता जैसा है। ऐसे में उनकी प्रतिबद्धतायें केवल स्वांत सुखाय भाव तक सिमटी हैं। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि संगठित प्रचार माध्यमों से -टीवी चैनल, समाचार पत्र पत्रिकायें तथा व्यवसायिक संस्थाऐं- अधिक क्षमतावान लेखक यहां हैं। कुछ लेखक तो ऐसे हैं कि स्थापित प्रसिद्ध लेखक कर्मियों से कहंी बेहतर लिखते हैं। सच बात तो यह है कि अंतर्जाल पर आकर ही यह जानकारी इस लेखक को मिली है कि स्थापित और प्रसिद्ध लेखक कर्मी अपने लेखन से अधिक अपनी प्रबंधन शैली की वजह से शिखर पर हैं। शक्तिशाली वर्ग ने हिन्दी में अपने चाटुकारों या चरण सेवकों के साथ ही अपने व्यवसायों के लिये मध्यस्थ का काम करने वाले लोगों को लेखन में स्थापित किया है। परंपरागत विद्याओं से अलग हटकर ब्लाग पर लिखने वालों में अनेक ऐसे हैं जिनको अगर संगठित प्रचार माध्यमों में जगह मिले तो शायद पाठकों के लिये बेहतर पठन सामग्री उपलब्ध हो सकती है मगर रूढ और जड़ हो चुके समाज में अब यह संभावना नगण्य है। ऐसे में समाचार पत्र पत्रिकाऐं यहां हिन्दी ब्लाग जगत पर जब बुरे लेखन की बात करते हैं तो लगता है कि उनकी मानसिकता संकीर्ण और पठन पाठन दृष्टि सीमित है। यह सही है कि इस लेखक के पाठक अधिक नहीं है। कुल बीस ब्लाग पर प्रतिदिन 2200 से 2500 के लगभग पाठक आते हैं। महीने में 70 से 75 हजार पाठक संख्या कोई मायने नहीं रखती। यही कारण है कि अपने पाठों की चोरी की बात लिखने से कोई फायदा भी नहीं होता। बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि एक स्तंभकार ने एक अखबार में अपना पूरा पाठ ही इस लेखक के तीन लेखों के पैराग्राफ से सजाया था। एक अखबार तो अध्यात्म विषयों पर लिखी गयी सामग्री बड़ी चालाकी से इस्तेमाल करता है। शिकायत की कोई लाभ नहीं हुआ। संपादक का जवाब भी अद्भुत था कि ‘आपको तो खुश होना चाहिए कि आपकी बात आम लोगों तक पहुंच रही है।’
उस संपादक ने इस लेखक को अपने हिन्दी लेखक होने की जो औकात बताई उसे भूलना कठिन है। किसी लेखक को केवल लेखन की वजह से प्रसिद्ध न होने देना-यह हिन्दी व्यवसायिक जगत की नीति है और ऐसे में ब्लाग जगत की आलोचना करने वाले सारे ब्लाग पढ़कर नहीं लिखते। इसकी उनको जरूरत भी नहीं है क्योंकि उनका उद्देश्य तो अपने पाठकों को यह बताना है कि हिन्दी ब्लाग पर मत जाओ वहां सब बेकार है। इंटरनेट पर भी उसका रोग लग चुका है। इसके बावजूद यह सच है कि जो स्वयंसेवी हिन्दी लेखक ब्लाग पर दृढ़ता से लिखेंगे उनकी प्रसिद्धि रोकना कठिन है। अलबत्ता आर्थिक उपलब्धियां एक मुश्किल काम है पर पुरस्कार वगैरह मिल जाते हैं पर उसमें पुरानी परंपराओं का बोलबाला है-उसमें वही नीति है जो निकट है वही विकट है।
हिन्दी ब्लाग जगत पर कूड़ा लिखने वालों के लिये को एक ही जवाब है कि भई, समाचार पत्र पत्रिकाओं में क्या लिखा जा रहा है? ओबामा और ओसामा पर कितना लिखोगे। क्या वही यहां पर लिखें? ओबामा का जादू और ओसामा की जंग पर पढ़ते पढ़ते हम तो बोर हो गये हैं। इससे तो अच्छा है कि हिन्दी ब्लाग जगत के छद्म शाब्दिक युद्ध पढ़े जो हर रोज नये रूप में प्रस्तुत होता है। कभी कभी तो लगता है कि आज से दस बीस साल ऐसे पाठों पर कामेडी धारावाहिक बनेंगे क्योंकि संगठित प्रचार माध्यमों द्वारा तय किये गये नायक तथा खलनायकों का कोई अंत नहीं है और लोग उनसे बोर हो गए हैं। स्थिति यह है कि नायक की जगह उसका बेटा लायें तो ठीक बल्कि वह तो  खलनायक के मरने से पहले ही उसके बेटे का प्रशस्ति गान शुरु कर देते हैं ताकि उनके लिए भविष्य में सनसनी वाली सामग्री उपलब्ध होती रहे। कम से कम हिन्दी ब्लाग जगत में नाम, धर्म, तथा जाति बदलकर तो ब्लाग लेखक आते हैं ताकि उनके छद्मयुद्ध में नवीनता बनी रहे। हालांकि हिन्दी ब्लाग जगत के अधिकतर लेखक ऐसे छद्म युद्धों से दूर हैं पर समाचार पत्र पत्रिकाओं के स्तंभकार अपनी लेखनी में उनकी  वजह से ही   समूचे हिन्दी ब्लाग जगत को बुरा बताते हैं। दूसरे विषयों पर नज़र नहीं डालते। ब्लाग दिखाने वाले फोरमों के हाशिए पर (side bar) हिट दिखाये जा रहे इन ब्लाग को देखकर अपनी राय कायम करते हैं। बाकी ब्लाग देखने के लिए उनके पास न समय हा न इच्छा । देखें भी क्यों? उनका लक्ष्य तो आलोचना करना ही है!
----------------
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

-----------------------------
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

24 मई 2010

नज़र-हिन्दी शायरी (nazar-hindi shaayri)

रास्ते पर खींचता हुआ
सरियों से लदा ठेला,
पसीने से अंग अंग जिसका नहा रहा है,
कई जगह फटे हुए कपड़ों से
झांक रहा है उसका काला पड़ चुका बदन,
मगर उस मजदूर की तस्वीर
बाज़ार में बिकती नहीं है,
इसलिये प्रचार में दिखती नहीं है।

सफेद चमचमाता हुआ वस्त्र पहने,
वातानुकूलित वाहनों में चलते हुए,
गर्म हो या शीतल हवा भी
जिसका स्पर्श नहीं कर सकती,
काले शीशे की पीछे छिपा जिसका चेहरा
कोई आसानी से देख नहीं सकता
वही टीवी के पर्दे पर लहरा रहा है,
क्योंकि मुश्किल से दिखता    है
इसलिये बिक रहा है महंगे भाव
सभी की नज़र ज़मी वहीं है।
---------


कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

-----------------------------
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

16 मई 2010

आज परशुराम जयंती तथा अक्षय तृतीया-हिन्दी लेख (today parshuram jayanti and akshay tratiya-hindi lekh

आज अक्षय तृतीया पर भगवान परशुराम की जयंती मनाई जा रही है। प्राचीन ग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम का नाम अवतारों के रूप में लिया जाता है। इनका चरित्र इतना अलौकिक लगता है कि अन्य महान पात्रों पर ध्यान कम ही लोगों का जाता है। इनमें से एक हैं महर्षि परशुराम। उनका वास्तविक नाम तो राम ही था। उनकी वजह से यह भी कहा जाता है कि ‘राम से पहले भी राम हुए हैं’। उनका चरित्र वाकई अद्भुत था और भगवान श्री राम पर लिखे गये ग्रंथों में रचयिताओं ने उनका नाम राम की बजाय परशुराम संभवतः अपनी सुविधा के लिये लिखा ताकि भविष्य के लोग अच्छी तरह से अलग अलग दोनों रामों के चरित्रों को समझ सकें।
परशुराम के बारे में कहा जाता है कि वह उन्होंने अनेक बार यह पृथ्वी क्षत्रियों से विदीर्ण की थी। आजकल हमारे बौद्धिक समाज में उनको इसलिये क्षत्रिय जाति का शत्रु माना जाता है। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति तथा विदेशी ज्ञान को ओढ़े समाज ने आज के जिस जातिवादी स्वरूप को प्राचीनतम होने को आरोप को स्वीकार किया है उसे यह समझाना कठिन है कि क्षत्रिय का मतलब कोई जाति नहीं थी। यह एक कर्म था वह भी युद्ध करने वाला नहीं बल्कि राज्य करने वाला। युद्ध केवल क्षत्रिय जाति के लोग लड़ते थे यह कहीं नहीं लिखा। दूसरा यह भी कि संभव है उस समय सेना के उच्च पदों पर तैनात लोगों को ही क्षत्रिय कहा जाता हो। जहां तक युद्ध में लड़ने का सवाल है तो यह आज के समाज को देखते हुए यह संभव नहीं लगता कि प्राचीन समय के राज्यों सेना में केवल उच्च जाति के लोग ही रहते हों। आज के पिछड़े तथा दलित वर्ग के लोगों को बिना भी प्रसिद्ध प्राचीनतम राज्यों सेना पूर्णता प्राप्त प्राप्त करती होगी यह संभावना नहीं दिखती।
कहने का आशय यह है कि उस समय क्षत्रिय शब्द का संबोधन संभवतः राज्य करने वाले शासकों के लिये प्रयुक्त होता होगा जो संभवत उस समय अनुशासन हीन थे-इनमें रावण तो एक था वरना उस समय अनेक राजा अपनी प्रजा ही नहीं वरन् अन्य कमजोर राजाओं की प्रजा तथा परिवार को अपनी बपौती समझते थे और चाहे जो महिला या वस्तु कहीं से उठा लेते थे। अगर उस समय शक्तिशाली वर्ग के धनी या बाहूबली भी ऐसा करते होंगे तो बिना राज्य की सहमति के यह संभव नहीं रहा होगा। कहने का अभिप्राय यह है कि क्षत्रिय का अर्थ राजकाज कर्म था और उस समय धार्मिक और सामाजिक नियमों की अवहेलना शक्तिशाली वर्ग द्वारा ही की जाती होग। भगवान श्रीराम ने इसलिये ही मर्यादित रहकर सारे समाज में जाग्रति लाने का प्रयास किया उससे तो यही सिद्ध होता है। आम आदमी तो उस समय भी आज की तरह असहाय रहा होगा-वरना क्यों उस समय अवतार की प्रतीक्षा होती थी। परशुराम ने फरसा शायद इसलिये ही उठाया था और शक्तिशाली वर्ग की पहचान रखने वाले क्षत्रियों का संहार किया-इस महर्षि का चरित्र ऐसा है कि आम आदमी पर उनका हमला हुआ हो या उन्होंने निहत्थे को मारा हो इसका प्रमाण नहीं मिलता।
परशुराम भगवान श्रीराम से परास्त नहीं हुए थे जैसे कि कुछ लोगों द्वारा व्याख्या की जाती है। बाल्मीकी रामायण के अनुसार जब भगवान श्रीराम विवाह कर अयोध्या लौट रहे थे तब उनका सामना परशुराम से हुआ था। शिवजी का धनुष टूटने का खबर सुनकर परशुराम दूसरा धनुष लेकर इसलिये आये थे ताकि खबर की सत्यता का पता लग सके। राजा जनक ने यह प्रतिज्ञा की थी कि जब तक कोई शिवजी के उस धनुष पर जब कोई बाण का अनुसंधान कर लेगा तब अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर देंगे। लंबे समय तक वह निराश बैठे रहे। परशुराम यह देखेने आये थे कि कहीं इस प्रतिज्ञा को पूर्ण होने का छल तो नहीं किया गया-आज के संदर्भ में कहें कि
कोई फिक्सिंग तो नहीं हुई।
लक्ष्मण जी से परशुराम का वाद विवाद हुआ पर बाद में भगवान श्रीराम ने उनके धनुष पर बाण का संधान किया। उस समय हाहाकार मच गया। ब्राह्मण को अकारण मारने का अपराध भगवान श्रीराम करना नहीं चाहते थे तब उन्होंने महर्षि परशुराम से ही निशाना पूछा। परशुराम ने उनको बताया तब वह बाण उन्होंने छोड़ा। भगवान श्रीराम ने उनके पुण्य लोक तो हर लिये पर गमन शक्ति नष्ट की क्योंकि परशुराम दिन ही मे धरती का दौरा कर ं अपने ठिकाने लौट जाते थे। वहां से परशुराम महेंद्र पर्वत चले गये। इस विश्वास के साथ कि उनके द्वारा अन्याय के विरुद्ध युद्ध को श्रीराम जारी रखेंगे।
मगर यहीं उनकी कहानी खत्म नहीं होती। महाभारत काल का योद्धा कर्ण उनसे धनुर्विधा सीखने गया। परशुराम यह कला केवल ब्राह्मणों को ही सिखाते थे-मतलब केवल कथावाचन या प्रवचन करना ही ब्राहमणत्व का प्रमाण नहीं है और अगर था तो भी उसे परशुराम समाप्त करना चाहते थे। कर्ण ने अपना परिचय एक ब्राह्मण के रूप में देकर उनसे शिक्षा प्राप्त करना प्रारंभ की। एक दिन परशुराम कर्ण की जांघ पर पांव रखकर सो रहे थे तब इंद्र महाराज ने-उस समय के ऐसे राजा जो अपने राज्य की प्रजा की रक्षा के लिये गाहे बगाहे अन्य राज्यों में गड़बड़ी फैलाते रहते थे-कीड़ा बनकर कर्ण की उसी जांघ पर काट लिया।
कर्ण की जांघ से रक्त निकलने लगा पर गुरुजी की नींद न टूटे इसलिये चुप रहा। बाद में जब परशुराम की नींद टूटी तब उन्होंने कर्ण की जंघा पर बहता खून देखा। उनको सारी बात समझ में आ गयी। उन्होंने कर्ण से कहा ‘सच बता तू कौन है? इतनी सहने की क्षमता किसी ब्राह्मण में नहीं होती।’
कर्ण ने सच बताया तो उन्होंने उसे शाप दिया कि ‘समय पड़ने पर तू मेरी सिखाई युद्ध विद्या भूल जायेगा।’
अर्जुन के साथ युद्ध में यही कर्ण के सामने यही शाप प्रकट हुआ। भूत, भविष्य और वर्तमान के ज्ञाता परशुराम अगर क्षत्रिय विरोधी होते तो कभी भी कर्ण को ऐसा शाप नहीं देते। मगर वह अन्याय के विरुद्ध न्याय की जीत देखना चाहते थे और इसी कारण अपना पूरा जीवन अविवाहित व्यतीत किया। अगर जाति मोह होता तो विवाह अवश्य करते। कहीं कोई राज्य नहीं किया। कभी व्यसनों में मोह नहीं रखा। किसी की स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली। ऐसे व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति या समूह के संहार से मतलब हो सकता है तो केवल वह आम इंसान के लिये तकलीफदेह है। ऐसे महर्षि परशुराम को हार्दिक नमन! इस अक्षय तृतीया के अवसर पर इस इस लेखक के ब्लाग लेखक मित्रों तथा पाठकों को बधाई।
---------------
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

-----------------------------
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

12 मई 2010

अमेरिका कभी पाकिस्तान पर गर्माता है कभी शर्माता है-हिन्दी लेख (relation between pakistan and america-hindi article)

अमेरिका की विदेश मंत्री हेनरी क्लिंटन ने कहा था अगर टाईम्स स्कवायर पर बम मिलने की घटना के तार पाकिस्तान से जुड़े पाये गये तो उसे गंभीर परिणाम भोगने पड़ेंगे। इससे पहले कि पाकिस्तान की तरफ से कोई औपचारिक विरोध दर्ज होता अमेरिका के रणनीतिकार ऐसी धमकी देने से ही इंकार करने लगे। इस तरह यह बात जाहिर हो गया है कि अमेरिका अब लगातार रणनीतिक गलतियां करता जा रहा है और सामरिक दृष्टि से विश्व का शक्तिशाली देश होने के बावजूद उनका आत्मविश्वास डांवाडोल हो रहा है।
ऐसा लगता है कि अमेरिकी रणीनीतिकार अपनी कार्य तथा विचार षैली में समय के अनुसार बदलाव नहीं लाना चाहते इसलिये नये लक्ष्यों को प्राप्त करने में अपने पुराने पूर्वाग्रह नहीं छोड़ते जिससे उनको असफलता मिल रही है। इसका सीधा आषय अमेरिकी रणनीतिकारों की बौद्धिक क्षमता पर संदेह उठाना भी लग सकता है। पर अगर यह प्रमाणित हो जाये कि वह लक्ष्य प्राप्त ही नहीं करना चाहते ताकि लंबे अभियानों से वह विष्व समुदाय को भ्रमित कर अपने हथियार तथा तकनीकी बेची जा सके तो फिर कोई प्रष्न नहीं रह जाता। हालांकि इस सौदेबाजी के तरीके के दीर्घकालीन परिणामों का अपने हित में रहने के बारे में अमेरिकी रणनीतिकार आश्वस्त हो सकते हैं पर इसमें इतनी अनिश्चतायें हैं कि हो सकता है कि उल्टा पास पड़ जाये। इसलिये यहां उनकी अदूरदर्शिता साफ दिखाई देती है। खासतौर से पाकिस्तान और अफगानिस्तान को लेकर अमेरिकी रणनीति विफलता की तरफ बढ़ती दिख रही है।
दरअसल अमेरिका विष्व भर के आतंक, अपराध तथा अन्य गैरकानूनी गतिविधियों को अपने हित के नजरिये से देखता है। विष्व में आर्थिक उदारीकरण का प्रवर्तक होने के नाते अमेरिका को यह समझ लेना चाहिये कि अगर रुपये या डालर को अगर राष्ट्र की सीमाओं को बांधा नहीं जा सकता क्योंकि बडे पूंजीपतियों को आपने वैष्विक वृत्ति का मान लिया है पर उनकी छत्रछाया में ही ऐसे अनेक कृत्य होते हैं जिनको गैरकानूनी माना जाता है और उनके सहारे पलने वाले असामजिक तत्व किसी के सगे नहीं होते। यह तो अमेरिकी भी मानते हैं कि आतंकवादियों को अंततः बड़े पैसे वालों द्वारा ही आर्थिक सहायता दी जाती है। ऐसे में पूंजीपतियों को वैष्विक मानना और आतंकवादियों को अपने तथा अन्य देषों के हितों की दृष्टि में बांटना अपने आपको धोखा देने के अलावा और क्या हो सकता है?
वैसे तो आतंकवाद की लड़ाई का कथित नेता होने का दावा करने वाला अमेरिका स्वयं ही संदेहों के दायरे में है। 9/11 के जिम्मेदार उसके प्रसिद्ध अपराधी पाकिस्तान में पनाह लिये हुए हैं। वह उन पर रोज बमबारी करता है पर नतीजा सिफर! कभी कभी तो लगता है कि उसक यहा प्रायोजित कार्यक्रम है ताकि उसके सहारे
वह अपने नयी तकनीकी से सुसज्जित ड्रान विमानों का परीक्षण कर सके-याद रखने वाली बात यह है कि अमेरिकी विरोधी उस पर भी आरोप लगाते हैं कि वह अपने हथियारों के परीक्षण के लिये ऐसे युद्ध जारी रखता है।
यहां बार बार सवाल आता है कि आखिर अमेरिकाष्षत्रु इतने अजेय कैसे हो गये है जिनको मारने के लिये उसे दस वर्ष भी कम पड़ते हैं? फिर वह भारत के पाकिस्तान में रह रहे अपराधियों के प्रष्न को अनदेखा कर देता हैं विभिन्न माध्यमों से मिलने वाले समाचारों पर यकीन करें तो पाकिस्तान के भारत में रह रहे अपराधी कहीं न कहंी अमेरिका पर मेहरबान है इसलिये वह इस विषय पर चुप्पी साध लेता है।
दरअसल अमेरिका अब दो नावों की सवारी करना चाहता है। अपने आर्थिक लाभ के लिये वह भारत को भी अपने पाले में रखना चाहता है तो पाकिस्तान उसके लिये सामरिक महत्व का है जिसे वह छोड़ना नहीं चाहता। कभी कभी तो लगता है कि अमेरिकी रणनीतिकार आत्म्मुग्धता के शिकार हैं क्योंकि उनको लगता है कि वही राजनीतिक जुआ खेलना जानते हैं और बाकी सभी अनाड़ी हैं। बाकी जगह तो पता नहीं पर पाकिस्तान और अफगानिस्तान को लेकर उनको बहुत सारे भ्रम हैं। पाकिस्तान में चीन के साथ खाड़ी देश भी अपने ढंग से सक्रिय हैं तो अफगानिस्तान में भी रूस की सक्रियता है। वैसे कुछ लोगों को लगता है कि कूटनीतिक रूप से पाकिस्तान कोई सफल देश है तो उन्हें यह भ्रम नहीं रखना चाहिए। भले ही वह अमेरिका को अपने मुताबिक फैसले करने को बाध्य करता है पर इसका कारण यह है कि खाड़ी देशों तथा चीन की वजह से उसकी शक्ति बढ़ी हुई है। खाड़ी देश तथा चीन पहले भारत के विरुद्ध उपयोग उसका प्रभाव अपने यहां पड़ने से रोकने के लिये करते थे और आजकल ब्रिटेन और अमेरिका को दुविधा में डालने के लिये भी वही कर रहे हैं।
अमेरिका पहले अमेरिका तथा खाड़ी देशों का उपनिवेश था तो अब चीन भी उसका माईबाप हो गया है। देश के कुछ बुद्धिजीवी अक्सर यह कहते हैं कि आखिर पाकिस्तान भारत विरोध क्यों नहीं छोड़ता? उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि खाड़ी देशों के साथ ही उसे अमेरिका और चीन से आर्थिक सहायता केवल भारत विरोध के कारण ही मिलती है। वह चाहे तो भारत से भी ले सकता है पर जितना माल उसे इन तीन क्षेत्रों से मिलती है वह उस पैमाने पर नहीं मिल सकता। सच तो यह है कि खाड़ी देशों ने धर्म तो चीन ने अर्थ के आधार पर पाकिस्तान को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। उसके पास पैसा खूब आ रहा है इसलिये अमेरिका उसे हथियार बेचकर अपने बाज़ार को लाभ पहुंचाना चाहता है। मुश्किल यह है कि आतंकवाद एक ऐसा विषय है जिस पर किसी को आश्वस्त होकर नहीं बैठना चाहिऐ। मगर अमेरिकी रणनीतिकार जिस तरह आतंकवाद में भेद करते हैं उससे देखकर तो लगता है कि एक दिन उनको इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
बहरहाल अमेरिकी रणनीतिकारों ने अपनी पाकपरस्ती के कारण भारतीय जनता की सहानुभूति पूरी तरह से खो दी है और कालांतर में उसका दुष्परिणाम उसके सामने यह भी आ सकता है कि आतंकवाद के विरुद्ध कथित संयुक्त अभियान में भारतीय रणनीतिकार जन दबाव के अभाव में उसका साथ वैसे न दें जैसी की वह अपेक्षा करता है। दूसरी बात यह है कि उसके हथियार बेचने की रणनीति से आतंकवाद को जोड़ने वाली बातें अब कभी कभी लोगों को सच लगती है इसलिये वैश्विक रूप से कोई बड़ा अभियान चलाना उसके लिये संभव नहीं  रहा है।
-------------------------------------

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

-----------------------------
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

9 मई 2010

बाबा प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ योग साधकों के लिये प्रेरणास्त्रोत-हिन्दी लेख (baba prahlad jani'mataji' and yogsadhna-hindi article)

आखिर हठयोगी प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ से चिकित्सा विज्ञान हार गया। उसने मान लिया कि इस हठयोगी का यह दावा सही है कि उसने पैंसठ साल से कुछ न खाया है न पीया है। अब इसे चिकित्सा विज्ञानी ‘चमत्कार’ मान रहे हैं। मतलब यह कि बात घूम फिर कर वहीं आ गयी कि ‘यह तो चमत्कार है’, इसे हर कोई नहीं कर सकता और योग कोई अजूबा है जिसके पास सभी का जाना संभव नहीं है। यहां यह समझ लेना चाहिए कि बाबा प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ सांख्ययोग के पथिक हैं और अगर कोई कर्मयोग का पथिक है तो वह भी उतना ही चमत्कारी होगा इसमें संदेह नहीं हे।
प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ यकीनन एक महान योगी हैं और उन जैसा कोई विरला देखने में आता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण को योगेश्वर कहा जाता है। सुदामा के चावल के दाने भी उनके भोजन के लिये पर्याप्त थे।
प्रसंगवश मित्रता के प्रतीक के रूप में भगवान श्री कृष्ण और सुदामा का नाम लिया जाता है। दोनों ने एक ही गुरु के पास शिक्षा प्राप्त की थी। पूरी दुनियां श्री सुदामा को एक गरीब और निर्धन व्यक्ति मानती है पर जिस तरह श्रीकृष्ण जी ने उनसे मित्रता निभाई उससे लगता है कि वह इस रहस्य को जानते थे कि सुदामा केवल माया की दृष्टि से ही गरीब हैं क्योंकि सहज योग ज्ञान धारण करने की वजह से उन्होंने कभी सांसरिक माया का पीछा नहीं किया। संभवत श्रीसुदामाजी ने एक दृष्टा की तरह जीवन व्यतीत किया और शायर यही कारण है कि उनके पास माया नहंी रही। अलबत्ता परिवार की वजह से उसकी उनको जरूरत रही होगी और उसके अभाव में ही श्रीसुदामा को गरीब माना गया।
जो खाना न खाये, पानी न पिये उसे संसार की माया वरण करे भी कैसे? यह ‘हठयोग’ भारतीय योग विज्ञान का बहुत ऊंचा स्तर है पर चरम नहीं है। यह ऊंचा स्तर पाना भी कोई हंसीखेल नहीं तो चरम पर पहुंचने की बात ही क्या कहना?
पहले हम योग का चरम स्तर क्या है उसे समझ लें जो इस पाठ के लेखक की बुद्धि में आता है।
इस संसार में रहते हुए अपने मन, विचार, और विचारों के विकार निरंतर निकालते रहने तथा तत्व ज्ञान को धारण करना ही योग का चरम स्तर है। इसमें आप देह का खाया अपना खाया न समझें। गले की प्यास को अपनी आत्मा की न समझें। अपने हाथ से किये गये कर्म को दृष्टा की तरह देखें। संसार में सारे कार्य करें पर उनमें मन की लिप्तता का अभाव हो।
हमारे देश के कुछ संतों द्वारा प्राचीन ग्रंथों का एक प्रसंग सुनाया जाता है। एक बार श्रीकृष्ण जी के गांव कहीं दुर्वासा ऋषि आये। उन्होंने उनके गांव से खाना मंगवाया। गांव वालों को पता था कि उनकी बात न मानने का अर्थ है उनको क्रोध दिलाकर शाप का भागी बनना। इसलिये गांव की गोपियां ढेर सारा भोजन लेकर उस स्थान की ओर चली जो यमुना के दूसरे पार स्थित था। किनारे पर पहुंचे कर गोपियों ने देखा कि यमुदा तो पानी से लबालब भरी हुई है। अब जायें कैसे? वह कृष्ण जी के पास आयीं। श्री कृष्ण जी ने कहा-‘तुम लोग यमुना नदी से कहो कि अगर श्रीकृष्ण ने कभी किसी स्त्री को हाथ न लगाया हो तो उनकी तपस्या के फल्स्वरूप हमें रास्ता दो।’
गोपियां चली गयीं। आपस में बात कर रही थीं कि अब तो काम हो ही नहीं सकता। इन कृष्ण ने दसियों बार तो हमको छूआ होगा या हमने उनको पकड़ा होगा।
यमुना किनारे जाकर उन्होंने श्रीकृष्ण जी बात दोहराई। उनके मुख से बात निकली तो यमुना वहां सूख गयी और गोपियां दुर्वासा के पास भोजन लेकर पहुंची।
दुर्वासा जी और शिष्यों ने सारा सामान डकार लिया और जमकर पानी पिया। गोपियां वहां से लौटी तो देखा यमुना फिर उफन रही थी। वह दुर्वासा के पास आयी। उन्होंने गोपियों से कहा-‘यमुना से कहो कि अगर दुर्वासा से अपने जीवन में कभी भी अन्न जल ग्रहण नहीं किया हो तो हमें रास्ता दो।’
गोपियों का मुंह उतर गया पर क्रोधी दुर्वासा के सामने वह कुछ न बोल पायीं। वहां से चलते हुए आपस में बात करते हुए बोली-यह कैसे संभव है? इतना बड़ा झूठ कैसे बोलें? इन्होंने तो इतना भोजन कर लिया कि यमुना उनकी बात सुनकर कहीं क्रोध में अधिक न उफनने लगे।
गोपियां ने यमुना किनारे आकर यही बात कहीं। यमुना सूख गयी और हतप्रभ गाोपियां उस पार कर गांव आयी।
हम इस कथा को चमत्कार के हिस्से को नज़रअंदाज भी करें ं तो इसमें यह संदेश तो दिया ही गया है कि सांसरिक वस्तुओं का उपभोग तथा उनमें लिप्तता अलग अलग विषय हैं। संकट उपभोग से नहींे लिप्तता से उत्पन्न होता है। जब कोई इच्छित वस्तु प्रापत नहीं होती तो मन व्यग्र होता है और मिलने के बाद नष्ट हो जाये तो संताप चरम पर पहुंच जाता है।
बाब प्रह्लाद जानी को सांख्ययोगी भी माना जा सकता है। श्रीमद्भागवत गीता में सांख्ययोग तथा कर्मयोग की दोनों को समान मार्ग बताया गया है। भगवान श्रीकृष्ण इसी कर्मयोग की स्थापना करने के लिये अवतरित हुए थे क्योंकि संभवतः उस काल में सांख्ययोग की प्रधानता थी और कर्मयोग की कोई सैद्धांतिक अवधारणा यहां प्रचलित नहीं हो पायी थी। आशय यह था कि लोग संसार को एकदम त्याग कर वन में चले जाते थे और संसार में रहते तो इतना लिप्त रहते थे कि उनको भगवत् भक्ति का विचार भी नहीं आता। लोग या तो विवाह वगैरह न कर ब्रह्म्चारी जैसा जीवन बिताते या इतने कामनामय हो जाते कि अपना सांसरिक जीवन ही चौपट कर डालते। कर्मयोग का सिद्धांत मध्यमार्गी और श्रेष्ठ है और इसकी स्थापना का पूर्ण श्रेय भगवान श्रीकृष्ण को ही जाता है।
बाबा प्रह्लाद जानी ने कम उमर में ही इस संसार के भौतिक पदार्थों का उपयोग त्याग दिया पर प्राणवायु लेते रहे। उनको बचपन में भक्ति और ज्ञान प्राप्त हो गया पर उनको देखकर यह नहीं सोचना चाहिये कि योग साधना कोई बड़ी उमर में नहीं हो सकती। अनेक लोग उनकी कहानी सुनकर यह सोच सकते हैं कि हम उन जैसा स्तर प्राप्त नहीं कर सकते तो गलती पर हैं। दुर्वासा जी भोजन और जल करते थे पर उसमें लिप्त नहीं होते थे। वह आत्मा और देह को प्रथक देखते थे। मतलब यह कि हम जब खाते तो यह नहीं सोचना चाहिये कि हम खा रहे हैं बल्कि यह देखना चाहिये कि देह इसे खा रही है।
बात अगर इससे भी आगे करें तो हम विचार करते हुए देखें कि आंख का काम है देखना तो देख रही है, कानों का काम है सुनना तो सुन रहे हैं, टांगों का काम है चलना चल रही हैं, हाथों का काम करना तो करते हैं, मस्तिष्क का काम है सोचना तो सोचता है, और नाक का काम है सांस लेना तो ले रही है। हम तो आत्मा है जो कि यह सब देख रहे हैं।
बाबा प्रह्लाद जानी ने सब त्याग दिया सभी को दिख रहा है पर जिन्होंने बहुत कुछ पाया पर उसमें लिप्त नहीं हुए वह भी कोई कम त्यागी नहीं है। ऐसे कर्मयोगी न केवल अपना बल्कि इस संसार का भी उद्धार करते हैं क्योंकि जहां निष्काम कर्म तथा निष्प्रयोजन दया करने की बात आई वहां आपको इस संसार में जूझना ही पड़ता है।
प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ भारतीय दर्शन का महान प्रतीक हैं। उनसे विज्ञान हार गया पर भारतीय योग विज्ञान में ऐसे सूत्र हैं जिनको समझा जाये तो पश्चिमी विज्ञान का पूरा किला ही ध्वस्त हो जायेगा। बाबा प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ से प्रेरणा लेना चाहिये। भले ही उनके सांख्ययोग के मार्ग का अनुसरण न करें पर कर्मयोग के माध्यम से इस जीवन को सहज बनाकर जीने का प्रयास करें।



कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

-----------------------------
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

2 मई 2010

खोखली धरा पर महल-हिन्दी क्षणिकायें (khokhli dhara par mahal-hindi kshanikaen)

नैतिकता का पैमाना कितना भी नीचे जाये,
काले धन के कुऐं से नीचे नहीं गिरेगा,
जहां धरती पर लहरा नही फसल
किसान के परिश्रम और लगन से
वहां इंसानियत का सच दिखेगा।
---------7
सफेदपोशों ने कर लिया दौलत के कुओं पर कब्जा,
गरीब और मजदूर प्यासे रह गये,
मेहनतकश कर ले तसल्ली एक समय की रोटी से
पर लुटेरों के पेट नहीं करते कभी
बड़े बड़े विद्वान यह कह गये।
------------
दूसरे की दौलत देखकर मचलना नहीं
कई अमीरों के खोखली धरा पर महल खड़े है।
जब तक नज़र न आये उनका गिरा चरित्र
तभी तक भी वह ज़माने में बड़े हैं।
------------

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

-----------------------------
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

संबद्ध विशिष्ट पत्रिकायें

लोकप्रिय पत्रिकाएँ

वर्डप्रेस की संबद्ध अन्य पत्रिकायें