28 अप्रैल 2010

प्यार के सौदे में ही उनकी कमाई है-हिन्दी शायरी (pyar ke saude-hindi shayri)

आज की शिक्षा धीमे जहर जैसा
काम कर जाती है।
पैदा होता है इंसान आज़ाद
पर किताबें पढ़कर
गुलाम बनने की इच्छा उसमें घर कर जाती है।
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जब भी बाहर ढूंढा है प्यार,
ठोकर हमने खाई है,
इसलिये अपने अंदर ही दिल में
दर्द हजम करने की ताकत जगाई है।
हंसने की कोशिश कर रहे रुंआसे लोग,
चेहरे चमका रहे हैं, बैठा है दिल में रोग,
पत्थरों के जंगल में इंसान
कोमल दिल कैसे हो सकते हैं,
बातें चिकनी चुपड़े न करें
जज्बात के सौदागर कैसे हो सकते है,
कभी इधर बेचा तो कभी उधर
प्यार के सौदे में ही उनकी कमाई है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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25 अप्रैल 2010

बाज़ार के भगवान-हिन्दी हास्य कविताएँ

बाज़ार में नीलाम हो जायें
वही लोग आजकल कहलाते ‘बड़’े है,
डरते है जो बिकने से या काबिल नहीं बिकने के
वह छोटे इंसानों की पंक्ति में राशन लेने खड़े हैं।
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अब इस धरती पर
भगवान अवतार नहीं लेते,
जिसकी नीलाम बोली ऊंची लगायें सौदागर
लोग उसे ही भगवान मान लेते।
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अब कोई जंग नहीं लड़ना,
सच में किसी का भला न करना।
अब भगवान कहलाने के लिये
हाथ पांवों की अदाऐं सरे आम दिखाना,
जहां बाज़ार के सौदागर करें इशारा
वही उनकी दौलत का बनाना ठिकाना,
बाकी कम सौदागरों के दलाल करेंगे,
चमकायेंगे तुम्हारा नाम, कहीं खाते भरेंगे,
तुम बस, बुत की तरह, बाज़ार के भगवान बनना।
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18 अप्रैल 2010

रिश्ते और जज़्बात-हिन्दी शायरी (rishtey aur jazbat-hindi shayari)

पेड़, पौद्ये, पशु और पक्षी में
दिल लगाना ही क्यों अच्छा लगता है,
शायद इसलिये कि इंसानों की तरह
जज़्बातों से वह खिलवाड़ नहीं करते हैं।
धोखे खाये होंगे हजार जमाने से,
थक गये इंसानों को आजमाने से,
दुर्गंध और बदनीयती से हुआ सामना
जब मिले इंसानी चेहरों से,
इसलिये दे सके जो ताजी हवा
बिना उम्मीद के दिखाये वफा
उन्हीं से रिश्ते निभाने पर जज़्बात मचलते हैं।
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उनके लिये जमाने भर से
घाव अपने दिल पर लेते रहे,
फिर भी कभी उफ नहीं कहा,
अपने मसले हल होते ही
मुंह वह फेर गये
यह भी नहीं पूछा कि
मेरे लिये तुमने कितना दर्द सहा।
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14 अप्रैल 2010

नारेबाजी से मूल प्रश्न गायब नहीं हो सकते-हिन्दी लेख (narebaji aur mool prashna-hindi lekh)

सांड लाल होते हैं यह हमको पता नहीं। कभी किसी किताब में नहीं देखा न टीवी या फिल्म में देखा। अलबत्ता भूरे चितकबरे सांड देखे हैं। सांड लाल नहीं हो सकते क्योंकि कभी कोई गाय लाल नहीं देखी गयी।
अगर लाल सांड होगा तो यकीनन वह आकाश से अवतरित हुआ होगा। आकाश से देवता अवतरित होते हैं। देवताओं के बारे में कहा जाता है कि वहा जमीन पर आकर चलते फिरते हैं पर उनको पांव जमीन पर नहीं पड़ते। उनको भूख प्यास नहीं लगती। अगर कोई लाल सांड है तो यकीनन वह देवताओं की श्रेणी का होगा उसे हम नमन करेंगे।
एक ब्लाग पर पढ़ने को मिला कि भारतीय बुद्धिजीवी लाल सांड को देखकर भड़कते क्यों हैं? लिखने वाला स्वयं बुद्धिजीवी था-ऐसे लोगों को परबुद्धिजीवी भी कहा जा सकता है।
लोग सोच रहे होंगे कि आखिर यह लाल सांड का मामला क्या है? दरअसल एक ब्लाग लेखक ने नक्सलवादियों-इनमें कुछ लेनिनवादी तो कुछ माओवादी हैं-द्वारा दंतेवाड़ा में 80 से अधिक सुरक्षाकर्मियों की हत्या को जायज ठहराने का प्रयास किया है। आदिवासी क्षेत्रों की गरीबी, भुखमरी तथा शोषण रोकने के नाम पर हिंसा तथा आतंक फैलाने वालों को स्वयं उस लेखक ने लाल सांड कहा है-भारतीय बुद्धिजीवी आखिर उसी पर ही तो भड़कते हैं।
इस घटना ने हमें झिंझोर कर रख दिया थौर इस पर लिखा भी था। यकीनन उस ब्लाग लेखक ने हमें पढ़ा नहीं होगा-इस ब्लाग लेखक के पाठकों को यह पता होना चाहिए कि यह एक फ्लाप लेखक का ब्लाग है-इसलिये यह आशा नहीं करना चाहिये कि उसने नक्सलवादियों के पास होने वाले महंगे हथियारों, गाड़ियों तथा अन्य ऐसी सुविधायें होने के प्रश्न पर अवश्य जवाब देता जो पैसे से नहीं बल्कि बहुत ज्यादा पैसे होने पर ही जुटायी जाती हैं। प्रसंगवश अंतर्जाल पर फ्लाप होने का अपना सुख भी है। अपनी बात चंद लोग पढ़ लेते हैं पर वह उन लोगों तक नहीं पहुंचती जिनको लक्ष्य कर लिखी गयी है जिससे लाभ यह होता है कि विवादों का जवाब देने से बचे रहते हैं। जहां तक हमारी बात पर पढ़कर उनके जवाब देने या उनके सुधर जाने की बात है तो यह आशा तो करना भी नहीं चाहिए।
हमारे प्रश्न साफ हैं उसे चाहे जब मौका मिलेगा दोहराते रहेंगे। चाहे भले ही हम बोर होकर पाठकों को बोर करते रहें, टाईप्ड होने का ठप्पा लग जाये तब भी अपने प्रश्नों का उत्तर तो इसी तरह ढूंढते रहेंगे।
1-संगठित समाचार माध्यमों-टीवी, रेडियो तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं में इन आतंकवादी संगठनों के धन उगाही के व्यापक स्त्रोतों के बारे में छपता है। यह धन किसी राज्य की आय तरह वसूला जाता है। इससे यह नक्सली हथियार खरीदने की बजाय वहां की जनता की भलाई पर क्यों नहंी खर्च करते? इस धरती पर सारी समस्यायें तो धन की कमी के कारण ही तो पैदा होती हैं। क्या कभी इन नक्सलियों ने किसी बीमार को दवा दिलवाई है। किसी भूखे को खाना खिलाया है? क्या किसी गरीब लड़की का विवाह करवाया है? अगर कोई यह दावा करता है कि वह जनता की भलाई करता है तो उसे यही काम कर साबित करना होता है।
अगर नक्सलवादी यह दावा करते हैं कि वह अपना राज्य आने पर ऐसा करेंगे तो यह दुनियां का सबसे बड़ा धोखा है क्योंकि सभी को पता है कि इस तरह चूहों की तरह हरकत करने वाले कभी राजा नहीं बनते क्योंकि दावा वह चाहे कितना भी करें लोग उनको दिल से समर्थन नहीं करते।
कार्ल मार्क्स के विचार खोखले हैं। वह कहता है कि दुनियां का सबसे बड़ा सच है रोटी पर वह कभी भारत नहीं आया। अगर वह भारत आता तो उसे पता लगता कि यहां रोटी के अलावा भी दूसरी भूख होती है वह अध्यात्मिक शांति की। भारत पर प्रकृति की कृपा रही है इसलिये सदैव यह धन धान्य से संपन्न रहा है। इसलिये रोटी को लेकर यहंा कभी हिंसक संघर्ष नहीं हुआ।
2.नक्सली स्वयं कहां खाते हैं? उनके आय के स्त्रोत भरने वाले कौन हैं? यकीनन वह विदेशी पूंजीपति नहीं है। जनता के पास जब पैसा नहीं है तो वह इन नक्सलियों को कहां से दे सकती है। यह पैसा यहीं के धनपति दे रहे हैं और यकीनन यह दो नंबर का काम करने वाले ही होंगे जो पुलिस प्रशासन का ध्यान बंटने की आड़ में अपना काम चलाते हैं। इस तरह नक्सली जनकल्याण के नाम पर पूंजवादी ताकतों को ही सहारा दे रहें है और अपराध के आश्रयदाता होने के उन पर वहीं की जनता लगाती है जहां वह सक्रिय हैं-यह बात संगठित प्रचार माध्यमों से पता चलती है।
3-संगठित प्रचार माध्यमों में सक्रिय बुद्धिजीवियो की बात अलग है पर अंतर्जाल पर लिखने वाले सभी लेखक सुविधाभोगी वर्ग के नहीं है। इस लेखक ने तो अपना जीवन ही एक श्रमिक के रूप में प्रारंभ किया था। आज कलम की खाता है पर फिर भी अपना पसीना बहाता है। यह लेख लिखते समय भी कुछ पसीना तो चूं ही रहा है। जब यह लेखक एक मजदूर के रूप में संघर्ष कर रहा था तब भी सपना था पर उसके लिये किसी देवता रूप लाल सांड से मदद की अपेक्षा नहीं थी। उस समय भी अनेक लोग जन कल्याण का दावा करते थे पर यह लेखक जानता था कि यह सब केवल नारे बाजी है।
अगर यह खूनखराबा करने वाले नक्सली लाल सांड हैं तो फिर वह देवता हैं। कुछ खाते पीते नहीं होंगे। गोलियां और बंदूक तो वह प्रकट कर लेते होंगे। गाड़िया तो उनको सर्वशक्तिमान ने पैदा होते ही दे दी होंगी। जिन नारियों के दैहिक शोषण कर उनका जीवन नष्ट करते हैं वह कोई उनके स्वर्ग की अप्सरायें होंगी जिस पर हम जैसे इंसानों को बोलने का हक नहीं है। यह बकवास संगठित प्रचार माध्यमों में ही चल सकती है जहां आम लेखक की बात को संपादक के कालम में ही जगह मिलती है। अंतर्जाल पर आपको उन प्रश्नों का जवाब देना ही होगा जो उठ रहे हैं कि आखिर यह हथियार, महंगी गाड़ियां और अन्य महंगा सामान इन गरीबों, शोषकों, आदिवासियों तथा मजदूरों के कल्याण के लिये लड़ने वालों के पास आता कहां से है? इस तरह चाहे कितनी भी जोर से नारे बाजी करें पर मूल प्रश्न गायब नहीं हो सकते।
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9 अप्रैल 2010

परदा-हिन्दी शायरी (parda hindi shayri)

पर्दे के बाहर आता औरत का चेहरा
उनको बहुत डराता है,
बयान न करे आदमी की हकीकत
यह ख्याल उनको डराता है।
इसलिये किताबों में छपे पुराने बयान को
रोज करते है सुनाकर ताजा,
कभी इस धरती पर पैदा न हुए अपने फरिश्ते को
जताते दुनिया का राजा,
उसकी नसीहतों का हमेशा बजाते बाजा,
असलियत न आ जाये परदे से कभी बाहर
इस सोच से ही उनका दिल घबड़ाता है।
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अपने यकीन को ताकतवर कहने वाले
तलवारों को चौराहे पर नचाते हैं।
अमनपसंद होने का दावा करते वह लोग
जो इशारों से खून बहाते हैं।
सच यह है कि देते हैं जमाने को नसीहत
अपने को फरिश्ते दिखने की खातिर
पहले कराते हैं फसाद
फिर सुलह कराने जाते हैं।
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4 अप्रैल 2010

बाज़ार और प्रचार का प्रेम-हिन्दी व्यंग्य (love of bazar and prachar-hindi vyangya)

बचपन में एक गाना सुनते थे कि ‘ऐ, मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए उनकी याद करो कुर्बानीं।’ यह गाना सुनकर वास्तव में पूरी शरीर रोमांचित हो उठता था। आज भी जब यह गाना याद आता है तो उस रोमांच की याद आती है-आशय यह है कि अब पहले रोमांच नहीं होता।
आखिर ऐसा क्या हो गया कि अब लगता है कि उस समय यह जज़्बात पैदा करने वाले गीत, संगीत या फिल्में समाज में कोई जाग्रति या देशभक्ति के लिये नहीं   बनी बल्कि उनका दोहन कर कमाई करना ही उद्देश्य था।
फिर क्रिकेट में देशभक्ति का जज़्बात जागा। जब देश जीतता तो दिल खुश होता और हारता तो मन बैठ जाता था। अब वह भी नहीं रहा। अब स्थिति यह है कि जिसे पूरा देश भारतीय क्रिकेट टीम यानि अपना प्रतिनिधि मानता है उसे अनेक अब एक भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड नामक एक क्लब की टीम ही मानते हैं जो व्यवसायिक आधार पर अपनी टीम बनाती है और आर्थित तंत्र के शिखर पुरुष उसके प्रायोजक मसीहा हैं। इसका कारण यह है कि अब देशों की सीमायें तोड़कर विदेशों से खिलाड़ी यहां बुलाकर देश के कुछ शहरों और प्रदेशों के नाम से क्लब स्तरीय टीमें बनायी जाती हैं। देश क्रिकेट पर पैसा खर्च कर रहा है, तो इस पर सट्टे खेलने और खिलाने वालों के पकड़े जाने की खबरे आती हैं जिसमें अरबों रुपये का दाव लगने की बात कही जाती है। आखिर यह पैसा भी तो इसी देश का ही है।
यह देखकर लगता है कि हम तो ठगे गये। अपना कीमती वक्त फोकट में इस बाजार और उसकी मुनादी करने वालों-संगठित प्रचार माध्यम-के इशारों पर क्रिकेट पर गंवाते रहे।
अब हो क्या रहा है। विश्व उदारीकरण के चलते बाजार देशभक्ति के भाव को खत्म कर वैश्विक जज़्बात बनाना चाहता है। भारतीय बाजार पर स्पष्टतः बाहरी नियंत्रण है। अगर पश्चिम में उसे पैसा सुरक्षित चाहिये तो मध्य एशिया में उसे भारत में ही अपने को मजबूत बनाने वाल संपर्क भी रखने हैं। अब बात करें पाकिस्तान की। पाकिस्तान एक देश नहीं बल्कि एक उपनिवेश है जिस पर पश्चिमी और मध्य एशियों के समृद्धशाली देशों का संयुक्त नियंत्रण है। स्थिति यह है कि जब देश के हालत बिगड़ते हैं तो उसकी सरकार अपनी सेना के साथ बैठक ही मध्य एशिया के देश में करती है। अगर किसी गोरे देश की टीम पाकिस्तान नहीं जाना चाहती तो वह उसका कोटा मध्य एशिया के देश में खेलकर पूरा करती है। यह क्रिकेट एक और दो नंबर के व्यवसायियों के लिये अरबों रुपये का खेल हो गया है और अरब देश तेल के अलावा इस पर भी अपनी पकड़ रखते हैं। मध्य एशिया इस समय अवैध, अपराधिक तथा दो नंबर के धंधों का केंद्र बिन्दू हैं अलबत्ता कथित रूप से अपने यहां धर्म के नाम पर कठोर कानून लागू करने का दावा करते हैं पर यह केवल दिखावा है। अलबत्ता समय समय पर आम आदमी को इसका निशाना बनाते हैं। अभी दुबई में अवैध कारोबार में लगे 17 भारतीयों को इसलिये फांसी की सजा सुनाई गयी है क्योंकि उन पर एक पाकिस्तानी की हत्या का आरोप है। इसको लेकर भारत में जो प्रतिक्रिया हुई है वह ढोंग के अलावा कुछ नहीं दिखती। दुबई को भारतीय बाजार से ही ताकत मिलती है। उसके भोंपू-संगठित प्रचार माध्यम-उनको बचाने के लिये पहल कर रहे हैं। अगर वाकई भारतीय अमीर और उनके प्रचारक इतने संवदेनशील हैं तो वह दुबई की सरकार पर सीधे दबाव क्यों नहीं डालते? पीड़ितों को कानूनी मदद के नाम वहां की अदालतों में पेश होने से कोई लाभ नहीं होगा। हद से हद आजीवन कारावास हो जायेगा। अगर भारतीय प्रचार तंत्र में ताकत है तो वह क्यों नहीं पूछता कि ‘आखिर तुम्हारे यहां यह अवैध धंधा चल कैसे रहा था, तुम तो बड़े धर्मज्ञ बनते हो।’
प्रसंगवश याद आया कि एक स्वर्गीय प्रगतिशील नाटककार की पत्नी भी वहां नाटक पेश करने गयी थी। उसमें वहां के धर्म की आलोचना शामिल थी। इसके फलस्वरूप उसे पकड़ लिया गया। पता नहीं उसके बाद क्या हुआ? उस समय यहां के लोगों ने कोई दबाव नहंी डाला। उस प्रगतिशील नाटककारा से सैद्धांतिक रूप से सहमति न भी हो पर उसके साथ हुए इस व्यवहार की निंदा की जाना चाहिये थी पर ऐसा नहीं हुआ।
एक बात तय है कि भारतीय धनाढ्य एक हो जायें तो यह मध्य एशिया के देश घुटनों के बल चलकर आयेंगे। कभी सुना है कि किसी अमेरिकी या ब्रिटेनी को को मध्य एशिया में पकड़ा गया है। इसके विपरीत यहां की आर्थिक, सामाजिक तथा प्रचार शक्तियां तो मध्य एशिया देशों से खौफ खाती दिखती हैं। स्थित यह है कि उनको प्रसन्न करने के लिये उनके पाकिस्तान नामक उपनिवेश से भी दोस्ताना दिखाने लगी हैं।
अभी हाल ही में भारत की एक महिला टेनिस खिलाड़ी और पाकिस्तान के बदनामशुदा क्रिकेट खिलाड़ी की शादी को लेकर जिस तरह भारतीय प्रचार माध्यमों ने निष्पक्षता दिखाने की कोशिश की वह इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण बनने जा रहा है कि भारतीय बाज़ार और उसके प्रचार माध्यमों के लिये देशभक्ति तथा आतंकवाद एक बेचने वाला मुद्दा है और उनके प्रसारणों को देखकर कभी जज़्बात में नहीं बहना चाहिये। पाकिस्तानी दूल्हे के बारे में किसी भी एक चैनल ने यह नहीं कहा कि वह दुश्मन देश का वासी है।
उस पर प्रेम का बखान! अगर भारतीय दर्शन की बात करें तो उसमें प्रेम तो केवल अनश्वर परमात्मा से ही हो सकता है। उसके बाद भी अगर उर्दू शायरों के शारीरिक इश्क को भी माने तो वह भी पहला ही आखिरी होता है। किसी ने शादी तोड़ी तो किसी ने मंगनी-उसमें प्रेम दिखाते यह प्रचार माध्यम अपनी अज्ञानता ही दिखा रहे हैं। वैसे इस शादी होने की भूमिका में बाजार और प्रचार से जुड़े अप्रत्यक्ष प्रबंधकों की क्या भूमिका है यह तो बाद में पता चलेगा। उनकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि क्रिकेट और विज्ञापनों का मामला जुड़ा है। फिर मध्य एशिया में उनके रहने की बात है। इधर एक चित्रकार भी भारत ये पलायन कर मध्य एशिया में चला गया है। कभी कभी तो लगता है कि मध्य एशिया के देश अपने यहां प्रतिभायें पैदा नहीं कर पाने की खिसियाहट भारत से लेकर अपने यहां बसाने के लिये तो लालायित नहीं है-हालांकि यह एक मजाक वाली बात है ।
एक बात दिलचस्प यह है कि क्रिकेट खिलाड़ियों को आस्ट्रेलिया में ही प्रेमिका क्यों मिलती है? क्या वहां कोई ऐसा तत्व या स्थान मौजूद है जो क्रिकेट खिलाड़ियों को प्रेमिकायें और पत्नी दिलवाता है-संभव है अन्य क्षेत्रों से जुड़े लोगों को इच्छित जीवन साथी भी वहां मिलता हो। इसका पता लगाना चाहिये। एक भारतीय खिलाड़ी को भी वहीं प्रेमिका मिली थी जिससे उसकी शादी संभावित है। अपने देश के महान स्पिनर ने भी वहीं एक युवती से विवाह किया था। इसकी जानकारी इसलिये भी जरूरी है कि भारत में अनेक लड़के इच्छित रूप वाली लड़की पाने के लिये तरस रहे हैं इसलिये कुंवारे घूम रहे हैं। इधर कुछ लोग कह रहे हैं कि छोटे मोटे विषयों पर पढ़ने के लिये आस्ट्रेलिया जाने की क्या जरूरत है? ऐसे युवकों वहां इस बजाने जाने का अवसर मिल सकता है कि वहां सुयोग्य वधु पाने की कामना पूरी हो सकती है।
बहरहाल बाज़ार और उसके प्रचार माध्यमों का रवैया यह सिद्ध कर रहा है कि उनके देशभक्ति, समाज सेवा, धर्म और भाषा के संबंध में कोई स्पष्ट रवैया नहीं है और ऐसे में आम आदमी उनके अनुसार जरूर बहता रहे पर ज्ञानी लोग अपने हिसाब से मतलब ढूंढते रहेंगे। एक पाकिस्तानी दूल्हे को जिस तरह इस देश में मदद मिल रही है उससे आम लोगों में भी अनेक तरह के शक शुबहे उठेंगे। 26/11 को मुंबई में हुए हमलों में जिस तरह रेल्वे स्टेशन पर कत्लेआम किया गया उससे इस देश के लोगों का मन बहुत आहत हुआ। बाज़ार और उसके प्रचार माध्यम एक पाकिस्तानी दूल्हे पर जिस तरह फिदा हैं उससे नहीं लगता कि वह आम लोगों के जज़्बात समझ रहे हैं। कोई भारतीय लड़की किसी पाकिस्तानी से शादी करे, इसमें आपत्ति जैसा कुछ नहीं है पर जब ऐसी घटनायें हैं तब दोनों देशो में तनाव बढ़ेगा और इससे दोनों देशों के आम लोगों पर प्रभाव पड़ता है। अलबत्ता क्रिकेट और अन्य खेलों के विज्ञापन माडलों पर इसका कोई असर नहीं पड़ सकता क्योंकि उनको बाज़ार और प्रचार अपनी शक्ति से सहारा देता है। सीधे पाकिस्तान से नहीं तो मध्य एशिया के इधर से उधर यही बाज़ार करता है। पिछली बार जब पाकिस्तान से संबंध बिगड़े थे तब यही हुआ था। आम आदमी की ताकत नहीं थी पर अमीर लोग मध्य एशिया के रास्ते इधर से उधर आ जा रहे थे।
कहने का अभिप्राय यह है कि देशभक्ति जैसे भाव का इस बाज़ार और प्रचार तंत्र के लिये कोई तत्व नहीं है जब तक उससे उनका हित नहीं सधता हो।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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1 अप्रैल 2010

अप्रैल फूल यानि मूर्ख दिवस-हास्य कविता (april fool-hindi hasya kavita)

एप्रिल फूल अब क्या मनायें
यहां तो खुद ही रोज मूर्ख बन जायें।
नकली नायकों को पर्दे पर दिखाकर
देवताओं की तरह उनका नाम जपायें।
बेकसूर रहें खौफ के साये में
कसूरवार जेल में भी जश्न मनायें।
सजाया है बाजार ने पर्दे पर खेल
उसमें आम इंसान अपनी नज़र गंवायें।
रोज रोज वादे कर, वह मुकर जाते हैं
हम हर बार उन पर यकीन जतायें।
देश की तरक्की के चर्चे हैं चारों तरफ
पर हम भूख और लाचारी को न भूल पायें।
खुद ही कसमें खाते हैं रोज बदलने की
पर कभी अपने को सुधार न पायें।
बेअक्लों की महफिल में रोज बैठते हैं
फिर भला क्या मूर्ख दिवस मनायें।
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