26 दिसंबर 2008

सुखानुभूति-हिंदी शायरी

जीवन की धारा में
पानी के बुलबुलों की तरह बहता आदमी
हर पल सुख की तलाश करता जाता
कई पल ऐसे भी आते हैं
जो मन को गुदगुदाते हैं
फिर समय की धारा में
वह भी बह जाते हैं
खुशी के चिराग जलते कुछ पल
पर फिर अंधेर आ ही जाते हैं
सुखानुभूति कोई ऐसी शय नहीं
जिसे आदमी अपनी जेब में रखकर
निरंतर चलता जाये
पर दिल में ख्यालों की जमीन पर
उम्मीदों के पेड़ उग आते हैं
जिन पर सुख के पल फूल की तरह
पहले खिलते
फिर मुरझा जाते हैं
आदमी कितना भी चाहे
उसके हाथ में हमेशा कुछ नहीं
बना रह पाता
समय कभी शय बदलता तो
कभी उसका इस्तेमाल बेकार कर जाता

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22 दिसंबर 2008

बड़ा कौन, कलम कि जूता-हास्य व्यंग्य

देश के बुद्धिजीवियों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया गया था। गोलमेज सम्मेलन का विषय था कि ‘जूता बड़ा कि कलम’। यह सम्मेलन विदेश में एक बुद्धिजीवी द्वारा सरेराह जूते उछालने की एक घटना की पृष्ठभूमि में इस आशय से आयोजत किया गया था कि यहां के लोग इस बारे में क्या सोचते हैं?
जाने माने सारे बुद्धिजीवी दौड़े दौड़े चले जा रहे थे । एक बुद्धिजीवी तो घर से एक ही पांव में जूता पहनकर निकल गये उनको दूसरा पहनने का होश ही नहीं रहा। रास्ते चलते हुए एक आदमी ने टोका तो वह कहने लगे-"अपने देश के तुम आम लोग भी निहायत जाहिल हो। तुम मेरे पांव के जूते देखने की सोच भी पा रहे होयह जानकर ताज्जुब होता है। अरे, अखबार या टीवी नहीं देखते क्या? विदेश में जूता फैंकने की इतनी बड़ी घटना हो गयी और हमें उसी पर ही सोचना है। मैंने एक ही पांव में जूता पहना है पर यह कोई एतिहासिक घटना नहीं है और इस पर चर्चा मत करो।''

कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्धिजीवियों के लिये यह एक ऐसा विषय था जिसमें उनकी जमात का ही आदमी जूता फैंकने की घटना में शामिल पाया गया था वैसे तो अपने देश में जूतमपैजार रोज होती है पर बुद्धिजीवियों का काम लिखने पढ़ने और भाषण तक ही सीमित होता है। कोई भला काम हो बुरा उनकी दैहिक सक्रियता स्वीकार नहीं की जातीं। पश्चिम से आयातित विचारों पर चलने वाले बुद्धिजीवियों ने स्वयं ही यह बंदिश स्वीकार की है और किसी बुद्धिजीवी द्वारा सरेराह जूता उछालने की घटना देखकर अब यह प्रश्न उठा था कि क्या वह अपनी इस राह में बदलाव करें। क्या मान लें कि बुद्धिजीवी को कलम के अलावा जूता भी उठाना चाहिये। अगर कहीं ऐसी घटना देश में होती तो शायद बुद्धिजीवी विचार नहीं करते मगर यह धटना पश्चिम दिशा से आयी थी इसलिये विचार करना जरूरी था। अपने देश का कोई बुद्धिजीवी होता तो सभी एक स्वर में उसकी निंदा करते या नहीं भी करते। निंदा करते तो उस बुद्धिजीवी को प्रचार होता इसलिये शायद अनदेशा करना ही ठीक समझते या फिर कह देते कि यह तो बुद्धिजीवी नहीं बल्कि एक साधारण आदमी है। विदेश में वह भी पश्चिम में कुछ हो तो यहां का बुद्धिजीवी उछलने लगता है। उस पर कुछ कहने या लिखने के लिए उसका मन उछलने लगता है।

सम्मेलन शुरू हुआ। कुछ बुद्धिजीवियों ने इस कृत्य की घोर निंदा की तो कुछ ने प्रशंसा। प्रशंसकों का मानना था कि यह बुद्धिजीवी के देश में चल रहे आक्रोश का परिणाम है। विरोधियों ने पूछा कि ‘जब अपने पास कलम हैं तो फिर हमारे द्वारा जूते से विरोध प्रदर्शन करना ठीक कैसे माना जा सकता है?’
जूता फैंकने के प्रशंसकों ने कहा-‘लिखे हुऐ का असर नहीं होता तो क्या करें?’*

विरोधियों ने कहा-‘तो ऐसा लिखो कि कोई दूसरा जूता उछाले। आम आदमी हमारी बात सुनता नहीं है चाहे हम कुछ भी लिखें, पर अपना जूता हाथ में उठाकर किसी पर नहीं फैंकता। इतने दिनों से इशारे में लिखते हैं अब खुलकर लिख कर भी देख लेते हैं कि "जूता उठाओ*।
प्रशंसकों ने कहा-‘अगर कोई दूसरा जूता न उछाले तो आखिर क्या किया जाये?‘
विरोधियों ने कहा-‘अगर आपके लिखे से समाज में कोई दूसरा व्यक्ति सरेराह जूते उछालने को तैयार नहीं है तो फिर उसके लिये लिखने से क्या फायदा?’
प्रशंसकों ने कहा-‘अरे वाह! तुम तो हमारा लिखना ही बंद करवाओगे। तुम पिछडे हुए हो और तुम जानते नहीं कि अब समय आ गया है कि बुद्धिजीवी को एक हाथ में कलम और दूसरे हाथ में जूता उठाना चाहिये।’
यह सुनकर एक पांव में जूता पहनकर आये बुद्धिजीवी को जोश आ गया और उसने अपने पांव से जूता उतार कर हाथ में लिया और चिल्लाया-‘ऐसा करना चाहिये।’
प्रशंसक और विरोधी दोनों खेमों में डर फैल गया। पता नहीं वह कहीं उछाल न बैठे-यह सोचकर लोग जड़वत् खड़े हो गये। सभी को पता था कि अगर उसने जूता उछाला तो वह हीरो बन जायेगा और जिसको पड़ा वह खलनायक कहलायेगा।’
कमबख्त वह आम आदमी भी उस बुद्धिजीवी के पीछे यह जिज्ञासा लेकर आया कि ‘आखिर यह आदमी कहां जा रहा है और क्या करेगा’ यह चलकर देखा जाये। तय बात है कि आम आदमी ही ऐसा सोचता और करता है, कोई बुद्धिजीवी नहीं।

उसने जब यह देखा तो चिल्लाया-‘अरे, यह तो इस कार्यक्रम के न्यौते से ही इतना खुश हो गये कि एक जूता पहनकर चले आये दूसरा पहनना भूल गये-यह बात रास्ते में इन्होंने स्वयं बतायी। अब वह जूता इसलिये पांव से उतार लिया कि कोई पूछे कर हंसी न उडाये और अपनी बात कहकर हीरो भी बन जायें। इस एक जूते को लेकर कब तक पहनकर चलते और हाथ में लेते तो लोग अनेक तरह के सवाल करते। अब कौन पूछेगा कि यह एक जूता लेकर कहां घूम रहे हो? यह बोल देंगे किबुद्धिजीवियों के हाथ में कलम और दूसरे हाथ में जूता लेने का नया रिवाज शुरू हो गया है।’"

उस बुद्धिजीवी को ताव आ गया और उसने वह जूता उस आम आदमी की तरफ ऐसे उछाला जैसे कि उसे लगे नहीं-यानि एक प्रतीक के रूप में! वह भी उस्ताद निकला उसने जूता ऐसे ही लपका जैसे क्रिकेट में स्लिप में बायें तरफ झुककर कैच लिया जाता है और भाग गया।

गोलमेज सम्मेलन में कोहराम मच गया। विरोधियों ने उस जूता फैंकने वाले बुद्धिजीवी की निंदा की तो प्रशंसकों ने भी उसे फटकारा-‘शर्म आनी चाहिये एक आम आदमी पर जूता फैंकते हुए। वह चालाक था इसलिये लेकर भाग गया। बचने की कोशिश करता नजर भी नहीं आया जैसे कि विदेश में हुई घटना में नजर आया है। किसी खास आदमी पर फैंकते तो कुछ एतिहासिक बन जाता। हमने जो विदेश का दृश्य देखा है उससे यह दृश्य मेल नहीं खाता। हो सकता है कि वह किसी अखबार के दफ्तर पहुंचकर यह ख़बर दे कि देखो एक बुद्धिजीवी का जूता मार लाया।

बहरहाल बहस जारी थी। कोई निष्कर्ष नहीं निकला। कई दिन तक बहस चली। अनेक लोग उस पर अपने विचार लिखते रहे। कोई समर्थन करता तो कोई विरोध। आखिर उसी आम आदमी को बुद्धिजीवियों पर दया आ गयी और वह वहां इस सम्मेलन में आया। उसके हाथ में वही जूता था। उसे देखकर सब बुद्धिजीवी भागने लगे। सभी को लगा कि वह मारने आ रहा है। हर कोई यही सोचकर बच रहा था कि ‘दूसरे में वह जूता पड़ जाये पर मैं बच जांऊ ताकि अगर घटना ऐतिहासिक हो तो उस लिखूं। आखिर एक आम आदमी द्वारा बुद्धिजीवी पर जूता बरसना भी एक एतिहासिक घटना हो सकती थी।

वह आम आदमी ढूंढता हुआ उस बुद्धिजीवी के पास पहुंचा जिसका जूता लेकर वह भागा था और बोला-‘मैं आपका जूता ले गया पर बाद में पछतावा हुआ। मैंने अपनी पत्नी को बताया कि यह जूता एक बुद्धिजीवी ने मेरी तरफ उछाला तो वह बोली कि इससे तुम खास आदमी तो नहीं हो गये! जाओ उसे वापस कर आओ। कहीं उसकी पत्नी उसे डांटती न हो। बाहर अगर तुम कोए चीज छोड़ आते हो मैं तुम्हें कितना दांती हूँ।।"

बुद्धिजीवियों में से एक ने पूछा-‘तुम्हें यहां आते डर नहीं लगा यह सोचकर कि कोई तुम पर दूसरा जूता न फैंके।’
आम आदमी ने कहा-‘यह सोचा ही नहीं, क्योंकि आप लोग बिना प्रस्ताव पास हुए कुछ नहीं करते और ऐसी कोई खबर मैंने अखबार में भी नहीं पढ़ी कि आप लोगों ने किसी आम आदमी पर जूता फैंकने का प्रस्ताव पास किया है, पर आप लोगों को परेशान देखकर सोचता हूं कि आपके सामने खड़ा हो जाता हूं आम एक एक कर मेरे ऊपर जूता उछालो पर एक बात याद रखना कि वह मुझे लगे नहीं।’
बुद्धिजीवियों को गुस्सा आ गया और वह चिल्लाने लगे कि-‘तू मक्कार है। ठहर अभी तेरे को जूते लगाते हैं।
दूसरे बुद्धिजीवी ने आपति की और कहा-"नहीं! यह ख़ास आदमी थोड़ी ही है कि ख़बर चर्चा लायक बनेगी।

वह आदमी हंसता वहीं खड़ा रहा। सभी बुद्धिजीवी एक दूसरे से कहते रहे कि -‘इस आदमी को जूता मारो कोई चिंता वाली बात नहीं है।’

कुछ लोग कहने लगे कि-‘इससे क्या? कोई इतिहास थोड़े ही बनेगा। यह तो एक आम आदमी है। इसको जूता मारने की कोई खबर नहीं छापेगा। फिर हम में से कौन इसे जूते मार यह तय होना है क्योंकि जिसे इस विषय पर लिखना है वह तो जूता फैंककर उसके समर्थन में तो लिख नहीं सकता। यानि जूता वही फैंके जो इस विषय पर लिखना नहीं चाहता।’
इस सभी बुद्धिजीवी एक दूसरे से कहने लगे-तू फैंक जूता मैं तो उस पर लिखूंगा।’
कुछ कहने लगे कि-‘अभी यह तय नहीं हुआ कि बुद्धिजीवी को जूता उठाना चाहिये कि नहीं।’

आम आदमी वहीं खड़ा सब देखता रहा। वह इंतजार करता रहा कि कब उस पर कौनसा सर्वसम्मत प्रस्ताव पास होता है। वह कई चक्कर लगा चुका है पर अभी भी वह यह जानना चाहता है कि‘बुद्धिजीवी को कलम के साथ जूता भी चलाना चाहिये कि नहीं।’

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19 दिसंबर 2008

सौदागरों से ही खरीदेंगे-हिन्दी शायरी

इतनी सुरक्षा करेंगे
कि खरगोश क्या
शेर भी आ गया तो पकड़ लेंगे
मगर भेड़िया ही किला भेद जाता है
आदमी का शिकार चूहे के तरह कर जाता है
कभी उसके पीछे नहीं जाते शिकारी
दिखाने के लिए अपने किले जरूर घेर लेंगे
इंसानों का क्या
वह तो मनोरंजन के लिए ही देखेंगे और खेलेंगे
खाली मन लिए भटकते लोगों को
असल और नक़ल से वास्ता नहीं
शेर बकरी का हो
या चूहे बिल्ली का
या डंडा गिल्ली का
अपनी आँखें वीडियो गेम में ही पेलेंगे
जूता मारने का हो या गोली चलाने का दृश्य
हादसा हो या कामयाबी
सौदागर हर शय को बाज़ार में बेचेंगे
जज्बातों के मायने अब कोई नहीं है
इंसानों में अब जज्बा कहाँ
इसलिए सौदागरों से ही खरीदेंगे

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15 दिसंबर 2008

जूते को अस्त्र कहा जाये या शस्त्र-व्यंग्य

जूते का उपयोग सभी लोग पैर में पहनने के लिये करते हैं इसलिये उसकी अपनी कोई इज्जत नहीं है। हमारे देश में कोई स्त्री दूसरे स्त्री को अपने से कमतर साबित करने के लिये कहती है कि ‘वह क्या है? मेरी पैर की जूती के बराबर नहीं है।’

वैसे जूते का लिंग कोई तय नहीं किया गया है। अगर वह आदमी के पैर में है तो जूता और नारी के पैर में है तो जुती। यही जूती या जूता जब किसी को मारा जाता है तो उसका सारा सम्मान जमीन पर आ जाता है। अगर न भी मारा जाये तो यह कहने भर से ही कि ‘मैं तुझे जूता मारूंगा’ आदमी की इज्जत के परखच्चे उड़ जाते हैं भले ही पैर से उतारा नहीं जाये। अगर उतार कर दिखाया जाये तो आदमी की इज्जत ही मर जाती है और अगर मारा जाये तो तो आदमी जीते जी मरे समान हो जाता है।

इराक की यात्रा में एक पत्रकार ने अपने पावों में पहनी जूतों की जोड़ी अमेरिका के राष्ट्रपति की तरफ फैंकी। पहले उसने एक पांव का और फिर दूसरे पांव का जूता उनकी तरफ फैंका। यह खबर दोपहर को सभी टीवी चैनल दिखा रहे थे। दुनियां के सर्वशक्तिमान देश के राष्ट्रपति पर यह प्रहार भारत का ही नहीं बल्कि विश्व के हर समाज का ध्यान आकर्षित करता है। यानि कम से कम एक बात तय है कि जूता फैंकना विश्व के हर समाज में बुरा माना जाता है।

पत्रकार ने जिस तरह जूता फैंका उससे लगता था कि वह कोई निशाना नही लगा रहा था और न ही उसका इरादा बुश को घायल करने का था पर वह अपना गुस्सा एक प्रतीक रूप में करना चाहता था। वहां उसे सुरक्षा कर्मियों ने पकड़ लिया और वह भी दूसरा जूता फैंकने के बाद। अभी तक बंदूकों और बमों से हमलों से सुरक्षा को लेकर सारे देश चिंतित थे पर अब उसमें उनको जूते के आक्रमण को लेकर भी सोचना पड़ेगा। आखिर सम्मान भी कोई चीज होती है। हमारा दर्शन कहता है कि ‘बड़े आदमी का छोटे के द्वारा किया गया अपमान भी उसके लिये मौत के समान होता है।

इस आक्रमण के बाद बुश पत्रकारों से कह रहे थे कि ‘यह प्रचार के लिये किया गया है। अब देखिये आप उसके बारे में मुझसे पूछ रहे हैं।’

हमेशा आक्रमक तेवर अपनाने वाले उस राष्ट्रपति का चेहरा एकदम बुझा हंुआ था। उससे यह लग रहा था कि उनको अपने अपमान का बोध हो रहा था। उनका चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे कि गोली से बचे हों।
हमारी फिल्मों में दस नंबर जूते की चर्चा अक्सर आती है पर मारे गये जूते का साइज अगर सात भी तो कोई अपमान का पैमाना कम नहीं हो जाता।

दुनियां में सभी महत्वपूर्ण स्थानों की सुरक्षा वहां मैटल डिटेक्टर से केवल बारूद की जांच की जाती है और अगर इसी तरह जूतों से आक्रमण होते रहे तो आने वाले समय में जूतों से भी सुरक्षा का उपाय होगा।

युद्ध में अस्त्र शस्त्र का प्रयोग होता है। जिनका उपयोग हाथ रखकर किया जाता है उनको अस्त्र और जिनका फैंक कर किया जाता है उनको शस्त्र कहा जाता है। अभी तक जूते को अस्त्र शस्त्र की श्रेणी में नहीं माना जाता अलबत्ता इसके अस्त्र के रूप में ही उपयोग होने की बात कही जाती है। जूतों से मारने की बात अधिक कही जाती है पर यदाकदा ही ऐसा कोई मामला सामने आता है। लोग आपस में लड़ते हैं। एक दूसरे को तलवार से काटन या गोली से उड़ाने की बात कही जाती है पर जूते से मारने की बात केवल कमजोर से कही जाती है वह भी अगर अपना हो तो।

एक सेठ जी के यहां अनेक नौकर थे पर वह अक्सर अपने एक प्यारे नौकर को ही गलती होने पर जूते से मारने की धमकी देते थे। वह नौकर भी चालू था। सुन लेता था क्योंकि वह वेतन के अलावा अन्य तरह की चोरियां और दांव पैंच कर भी अपनी काम चलाता था। उसका वेतन कम था पर आय सबसे अधिक करता था। बाकी नौकर यह सोचकर खुश होतेे थे कि चलो हमें तो कभी जूते से मार खाने की धमकी नहीं मिलती। कम से कम सेठ हमारी इज्जत तो करता है और इसलिये सतर्कता पूर्वक काम करते ताकि कभी उनको उसकी तरह से बेइज्जत न होना पड़े। उनको यह पता ही नहीं था कि सेठ उनको साधने के लिये ही उस नौकर को जूते से मारने की धमकी देता था। इज्जत सभी को प्यारी होती है । कई लोग गोली या तलवार से कम जूते की मार खाने से अधिक डरते हैं। तलवार या गोली खाकर तो आदमी जनता की सहानुभूति का पात्र बन जाता है पर जूते से मार खाने पर ऐसी सहानुभूति मिलने की संभावना नहीं रहती । उल्टे लोगों को लगता है कि चोरी करने या लड़की छेड़ने-यही दोनों आजकल जघन्य अपराध माने जाते हैं जिसमें पब्लिक मारने को तैयार रहती है-के आरोप में पिट रहा है। यानि इससे पिटने वाला आदमी हल्का माना जाता है।

एक बात तय रही कि जूता मारने वाला हाथ में पकड़े ही रहता है फैंकता नहीं है-अगर विरोधी के हाथ लग जाये और वह भी उससे पीट दे तो अपमान करने पर प्रतिअपमान भी झेलना पड़ सकता है। एक बात और है कि गोली या तलवार से लड़ चुके दुश्मन से समझौता हो सकता है पर जूते मारने या खाने वाले से समझौता करने में भी संकोच होता है। एक सज्जन को हमेशा ही गुस्से में आकर जूता उठाने की आदत है-अलबत्ता मारा किसी को नहीं है। अपने जीवन में वह ऐसा चार पाचं बार कर चुके हैं। वही बतातेे हैं कि जिन पर जूता उठाया है अब वह कहीं मिल जाने पर देखकर ऐसे मूंह फेर लेते हैं जैस कि कभी मिले ही न होंं न ही मेरा साहस उनको देखने का होता है।

जूता मारना या मारने के लिये कहना ही अपने आप में एक अपराध है। ऐसे में अगर कहीं जूता उठाकर मारा जाये तो वह भी किसी महान हस्ती पर तो उसकी चर्चा तो होनी है। वह भी सर्वशक्तिमान देश के राष्ट्रपति पर एक पत्रकार जूता फैंके। पत्रकार तो बुद्धिजीवी होते हैं। यह अलग बात है कि सबसे अधिक जूता मारने की बात भी वही कहते हैं कि उनकी बंदूक या तलवार चलाने की बात पर यकीन कौन करेगा? यह कृत्य इतना बुरा है कि जूता फैंकने वाले पत्रकार के साथियों तक ने कह डाला कि वह पूरे इराक का प्रतिनिधि नहीं है। कुछ लोगों ने घर आये मेहमान के साथ इस अपमानजनक व्यवहार की कड़ी निंदा तक की है

यह लगभग उस देश पर हमले जैसा है पर कोई देश उसका जवाब देने का सोच भी नहीं सकता। कोई वह जूते उठाकर उस पत्रकार की तरफ फैंकने वाला नहीं था। उसे सुरक्षा कर्मी पकड़ कर ले गये और यकीनन वह बिना जूतों के ही गया होगा। उसकी हालत भी ऐसे ही हुई होगी जैसी कि आतंकवादियों की बंदूक के बिना हो जाती है।

इतिहास में यह शायद पहली मिसाल होगी जब जूते का शस्त्र के रूप में उपयोग किया गया होगा। अब आखिर उन जूतों का क्या होगा? वह पत्रकार को वापस तो नहीं दिये जायेंगे। अगर दे दिये तो वह उन जूतों को नीलाम कर भारी रकम वसूल कर लेगा। पश्चिम में ऐसी ही चीजों की मांग है। उन जूतों को उठाकर ले जाने की समस्या वहां के प्रशासन के सामने आयेगी। अगर वह कहीं असुरक्षित जगह पर रखे गये तो तस्करों की नजर उस पड़ सकती है। अब वह जूते एतिहासिक हो गये हैं कई लोग उन जूतों पर नजर गड़ाये बैठेंगे। भारत की अनेक एतिहासिक धरोहरों पश्चिम में पहुंच गयीं हैं और यह तो उनकी खुद की धरोहर होगी। भारत की धरोहर का प्रदर्शन तो वह कर लेते हैं पर इस धरोहर का प्रदर्शन करना संभव नहीं है।

वैसे अपने देश में जूता मारने के लिये कहने की कई लोगों में आदत है पर इसका अस्त्र शस्त्र की तरह उपयोग करने की चर्चा कभी नहीं हुई। अब लगता है कि आने वाले इस सभ्य युग में यह भी एक तरीका हो सकता है पर यह पश्चिम के लिये ही है। अपने देश में तो हर आदमी क्रोध में आने पर जूता मारने की बात करता है पर हर कोई जानता है कि उसके बाद क्या होगा? वैसे यहां कोई नई बात नहीं है। किसी ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि तीसरा युद्ध पत्थरों से लड़ा जायेगा। लगता है नहीं! शायद वह जूतों से लड़ा जायेगा। अमेरिका ने परमाणु बम का ईजाद कर जापान पर उसका उपयोग किया पर जूता परमाणु बम से अधिक खतरनाक है। परमाणु बम की मार से तो आदमी मर खप जाता है या कराह कराह कर जीता है पर जूते की मार तो ऐसी होती है कि अगर एक बार फैंका भी जाये तो कोई भी जूता देखकर वह मंजर नजर आता है। या मरने या कराहने से भी बुरी स्थिति है। अब सवाल यह है कि जूते को अस्त्र कहा जाये कि शस्त्र? दोनों की श्रेणी में तो उसे रखा नहीं जाता। या यह कहा जाये कि जूते को जूता ही रहने तो क्योंकि उसकी मार अस्त्रों शस्त्रों से भी गहरी होती है।

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11 दिसंबर 2008

धीमे-धीमे बहाओ खून के आंसू-व्यंग्य कविता

शिष्य के हाथ से पिटाई का
गुरुजी को मलाल हो गया
जिसको पढ़ाया था दिल से
वह यमराज का दलाल हो गया

गुरुजी को मरते देख
हैरान क्यों हैं लोग
गुरू दक्षिणा के रुप में
लात-घूसों की बरसात होते देख
परेशान क्यों है लोग
यह होना था
आगे भी होगा
चाहत थी फल की
बोया बबूल
अब वह पेड युवा हो गया

राम को पूजा दिखाने के लिये
मंदिर बहुत बनाए
पर कभी दिल में बसाया नहीं
कृष्ण भक्ति की
पर उसे फिर ढूँढा नहीं
गांधी की मूर्ति पर चढाते रहे माला
पर चरित्र अंग्रेजों का
हमारा आदर्श हो गया

कदम-कदम पर रावण है
सीता के हर पग पर है
मृग मारीचिका के रूप में
स्वर्ण मयी लंका उसे लुभाती है
अब कोई स्त्री हरी नहीं जाती
ख़ुशी से वहां जाती है
सोने का मृग उसका हीरो हो गया

जहाँ देखे कंस बैठा है
अब कोइ नहीं चाहता कान्हा का जन्म
कंस अब उनका इष्ट हो गया
रिश्तों को तोलते रूपये के मोल
ईमान और इंसानियत की
सब तारीफ करते हैं
पर उस राह पर चलने से डरते हैं
बैईमानी और हैवानियत दिखाने का
कोई अवसर नहीं छोड़ते लोग
आदमी ही अब आदमखोर हो गया

घर के चिराग से नहीं लगती अब आग
हर आदमी शार्ट सर्किट हो गया
किसी अवतार के सब इन्तजार में हैं
जब होगा उसकी फ़ौज के
ईमानदार सिपाही बन जायेंगे
पर तब तक पाप से नाता निभाएंगे
धीमे-धीमे ख़ून के आंसू बहाओ
जल्दी में सब न गंवाओ
अभी और भी मौक़े आएंगे
धरती के कण-कण में
घोर कलियुग जो हो गया

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10 दिसंबर 2008

वह विनाश था-लघु कथा

गरीब किसान अपने खेत में हल जोत रहा था. उसी समय एक खूबसूरत चेहरे वाला सूट-बूट पहने एक शख्स उसके सामने आकर खडा हो गया और बोला-''मैं विकास हूँ और तुम्हें भी विकसित करना चाहता हूँ. यह लो कुछ पैसे और अपनी जमीन मुझे दे दो.
किसान ने कहा-''नहीं, यह मेरे बाप-दादों की जमीन है और मैं इसे किसी को नहीं दे सकता.
विकास ने कहा-''देखो मैं पूरे विश्व में फ़ैल रहा हूँ तुम अपने इलाके को पिछडा क्यों रखा चाहते हो, तुम यह जमीन मुझे दे दो. यहाँ तमाम तरह के कारखाने, इमारत, मनोरंजनालय और तरणताल खुलने वाले हैं. तुम और तुम्हारे बच्चों का भविष्य सुधर जायेगा. उनको नौकरी मिलेगी और उनकी जवानी बहुत ऐसे मजे लेते हुए गुजरेगी जैसी तुमने सोची भी नहीं होगी.

किसान सोच में पढ़ गया तो वह बोला-''सृष्टि का नियम है मैं हर जगह जाता हूँ. अभी तुमसे बडे प्यार से कह रहा हूँ, पैसे भी दे रहा हूँ और नहीं मानोगे तो इससे भी जाओगे और तुम्हारे बच्चों का भविष्य भी नहीं बन पाएगा.यहाँ मेरा आना तय है और उसे तुम रोक नहीं सकते.

किसान ने इधर-उधर देखा और पैसे लेते हुए बोला-अब मैं फिर कब आऊँ आपसे मिलने?''
वह कुटिलता से बोला-''एक साल बाद. अभी तो यह पैसा तुम्हारे पास है, जब यह ख़त्म हो जाये तब आना. यह लो और भी पैसा तुम अपना मकान भी खाली कर दो. मैं तुम्हें एक साल बाद अच्छा मकान भी दूंगा.''

एक साल बाद जब अपने पैसे ख़त्म होने के बाद लौटा तो उसने देखा वहाँ सब बदला हुआ था. वह सब वहाँ वह सब था जो विकास ने उसे बताया था. वह पता करता हुआ उसकी कोठी के पास पहुंचा और दरबान से कहा'-मुझे साहब से मिलना है.''

दरबान ने कहा-साहब से क्या तुम्हारी मुलाक़ात तय है तो दिखाओ कोई कागज़, ऐसे अन्दर नहीं जाने दिया जा सकता.''
इतने में उसने देखा कि कार में वही विकास बैठकर बाहर आ रहा है. जैसे ही कर बाहर आयी वह उसके सामने खडा हो गया. विकास बाहर निकला और चिल्लाया-''तुम्हें मरना है?"
किसान बोला-''आपने मुझे नहीं पहचाना. मैं हूँ किसान. आपको यह जमीन दी थी.''
विकास बोला-तो? मैंने तुम्हें पैसे दिए थे. हट जाओ यहाँ से.'
विकास कार में बैठ गया तो किसान उसकी कार के सामने आने की करने लगा पर वह उसे धकियाते हुए निकला गया. कार के पहिये की चोट खाकर वह किसान गिर पडा. एक आदमी ने आकर उसे उठाया. वह आदमी पायजामा कुर्ता पहने हुए था. उसने रोते हुए किसान को उठाया. किसान ने पूछा-''आप कौन?

उसने कहा-''विकास?'
किसान ने पूछा-'' वह कौन था"
आदमी ने कहा-'विनाश! पर अपना नाम विकास बताता है. मैं तुम्हें अपने घर पहुंचा दूं. तुम्हारी मरहम पट्टी करवा दूं. चिंता न करो मैं पैसे खर्च करूंगा.''
किसान ने कहा-''नहीं मैं खुद चला जाऊंगा.'
किसान वहाँ से चला और कहता जा रहा था''विनाश और विकास'
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8 दिसंबर 2008

प्रचार का चक्रव्यूह-व्यंग्य कविता

जीतता है कोई और है
जश्न मनाता कोई और है
हारता कोई और है
उससे अधिक मातम मनाता कोई और है
सपनों के सौदागरों ने
बुन लिया है जाल
लोगों को फंसाने के लिए
एसएम्एस एक चक्रव्यूह की तरह रचा है
जिस पर किसी ने नहीं किया गौर है

सपने दिखाकर लोगों के हमदर्दी
पर अपने जजबातों के सौदागरों में
बहस इस पर नहीं होती कि
क्या सच क्या झूठ है
बल्कि किसने कितना कमाया
इसकी खोज पर होता जोर है
कहै दीपकबापू
कभी-कभी मन बहलाने के
साधन काम पड़ जाएं
तो इन सौदागरों खरीदे हुए
खुशी का जश्न मनाते देख लो
या मातम से जूझता देख लो
जीनते वाला क्या जीता नहीं बताता
हारने वाला भी कहीं छिप जाता
किराए पर खुशी और गम
मनाने वालों का ही सब जगह जोर है

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5 दिसंबर 2008

जंग के लिए मित्रों का जमावडा जरूरी -आलेख

1971 का भारत पाक युद्ध जिन लोगों ने देखा है वह यह बता सकते हैं कि उसमें इस देश ने क्या पाया और खोया? सच तो यह है कि वहां से इस देश के हालत बिगड़े तो फिर कभी संभले ही नहीं। भारतीय अर्थव्यवस्था में महंगाई और बेरोजगारी का दौर शुरू हुआ तो वह आज तक थमा ही नहीं है।

कुछ लोगों को लगता है कि देश का प्रबुद्ध वर्ग केवल बहस कर ही अपना काम चलाता है पर इसका कारण यह है कि 1971 के युद्ध की विजय का उन्माद जब थम गया तब उसके बाद जो हालत इस देश में हुए उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। सच तो यह है कि युद्ध के बाद इस देश के आम और खास दोनों प्रकार कम आदमियों में नैतिक चरित्र का गिरावट का ही प्रमाण मिला। उस सयम अमेरिका सहित अनेक देशों ने भारत पर प्रतिबंध लगाये थे जिससे देश में खाद्य सामग्री के साथ ही मिट्टी के तेल का संकट भी शुरू हो गया था। उस समय बाजार में सामान्य ढंग से उपलब्ध गेहूं, चावल, शक्कर,डालडा घी, मिट्टी का तेल, लक्स और लाईफबाय साबुन बाजार से गायब हो गये और उनको राशन की दुकानों पर बेचा जाने लगा। वैसे उस समय कालाबाजार का दौर शुरू हो गया पर आम आदमी की अधीरता का परिचय दे रहा था। लोगों ने मिट्टी के तेल के कनस्तर भरकर घर में रख लिये जैसे कि एक दिन फिर वह मिलने वाला ही न हो। लाईफबाय और लक्स साबुन को वह लोग भी राशन से लेने लगे जो उसका उपयोग नहीं करते थे। उनको भी यह डर लगने लगा कि कहीं अन्य साबुन मिलना भी बाजार में बंद न हो जाये। जिन लोगों को अपने काम से फुरसत नहीं थी वह अपने बच्चों को इस काम में लगाने लगे। लोग उस समय आवश्यकता से अधिक संग्रह कर रहे थे गोया कि बाजार में प्रलय हो जायेगी। आशय यह है कि फिलहाल तो लोग युद्ध की बात कर रहे हैं पर क्या वह उसके समाप्त होने पर अपने भविष्य को लेकर धीरज रख पायेंगे?

युद्ध के बाद बंग्लादेश की सहायता के लिये कर लगाया गया जो बहुत समय तक चला। अनेक चीजों में वह कर लगा था पर पता नहीं वह सभी सरकारी खजाने में जमा हुआ कि नहीं। आज के अनेक प्रबुद्ध लोगों ने यह दृश्य देखे हैं और इसलिये ही वह दोनों देशों के बीच बृहत युद्ध के विचार को खारिज करते हैं। अंतर्जाल पर अनेक ब्लाग लेखकों ने देश के खास वर्ग के लोगों के नैतिक चरित्र पर उंगली उठायी है पर उनको यहां के आम आदमी का चरित्र भी देखना चाहिये। 1971 का युद्ध जब तक चला खूब उन्माद था। लोग रातभर जागकर अपनी गलियों,मोहल्लों में पहरा देते थे कि कहीं दुश्मन का जासूस न आ जाये। जैसे ही युद्ध समाप्त हुआ सभी लोगे अपने स्वार्थ पूर्ति को लेकर अधीर हो गये और उसके बाद भारतीय अर्थव्यव्स्था में गरीब और अमीर के बीच का भेद बढ़ता ही गया और कालांतर में वह इतना विकराल रूप ले बैठा जिसे आज भी देश भुगत रहा है।
1971 में भारत ने जिस बंग्लादेश को आजाद कराया वह भी कोई पाकिस्तान से कम खतरनाक नहीं है। उसके यहां आतंकवादियों के अनेक शिविर है पर वह उनसे इंकार करता है। पूर्वांचल में चल रहा आतंक केवल उसी के सहारे चल रहा है और इस पर भी वह भारत को आंखें दिखाता है। सच बात तो यह है कि 1971 का विजय अपने आप में एक भ्रम साबित हुई है। ऐसे मेें 37 वर्ष बाद किसी ऐसे दूसरे युद्ध को बिना सोचे प्रारंभ करने का प्रबुद्ध लोग विरोध कर रहे हैं तो उनकी बात भी विचारणीय है पर इसका मतलब यह नहीं है कि कोई सीमित कार्यवाही नहीं की जानी चाहिये।

इसके लिये पाकिस्तान की अंदरूनी स्थिति का फायदा उठाना कोई मुश्किल काम नहीं है। पाकिस्तान में पंजाब प्रांत के प्रभाव का उसके तीन अन्य प्रांतों-सिंध, बलूचिस्तान और सीमा प्रांत में जमकर विरोध होता है। देखा जाये तो पाकिस्तान ने मजहब पर आधारित आतंकवाद को अपने देश में पनाह देकर अपने देश को एक ही किया यह अलग बात है कि अब यह आतंकी अपना खेल उसके इन्हीं क्षेत्रों में दिखाने लगे। आज भी पाकिस्तान का संविधान उसके एक बहुत बड़े भूभाग पर नहीं चलता। ऐसे ही भूभाग पर उसने विदेशी आतंकियों को स्थापित किया है जिनकी वजह से वहां के लोग उसके नियंत्रण में है।
अफगानिस्तान पर सोवियत संध के कब्जे के बाद जब अमेरिका ने उसके खिलाफ युद्ध शुरू किया तो बलूचिस्तान और सीमा प्रात में आतंकवादियों के अड्डे बनाये। सोवियत संघ के वहां से हटने के बाद अमेरिका ने भी उन आतंकियों से मूंह फेर दिया पर उन्होंने इसका बदला उसके यहां वर्डट्रेड सेंटर ध्वस्त कर लिया। उसके बाद अमेरिका ने आतंकवादियों के विरुद्ध जंग छेड़ ली और किसी न किसी स्तर पर भारत ने उसका समर्थन दिया।

अब अमेरिका के समर्थन की भारत को दरकरार है। सच तो यह है कि वह इस समय विश्व का सर्वाधिक संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र है पर वह भारत विरोधी आतंकियों के प्रति उसका रवैया उतना सख्त नहीं है। अब अगर वह भारत को समर्थन देकर आतंकियों के शिविरों को तहस नहस करने के लिये समर्थन देता है तभी कोई सीमित सैन्य कार्यवाही की जा सकती है। उसके बिना ऐसा करने पर बृहद युद्ध छिड़ जाने की आशंका भी बलवती हो सकती है। अब जो कूटनीतिक गतिविधियां विश्व के परिदृश्य पर उभर रही हैं उससे यह कहना आसान नहीं है कि भारत कोई सीमित कार्यवाही भी कर सकेगा। अमेरिका अगर यह मान लेता है कि भारत विरोधी आतंकी उसके भी दुश्मन है तो ठीक है। इसके विपरीत अगर वह अमेरिका को यह समझाने में सफल हो जाते हैं कि वह उसके विरोधी नहीं हैं तो शायद वह वैसा समर्थन नहीं दे। वैसे अमेरिका ने अभी पूरी तरह अपने पते नहीं खोले हैं पर इतना तय है कि वह पाकिस्तान के प्रति अभी झुका हुआ है पर उसे अब भारत के प्रति भी अपना समर्थन व्यक्त करना होगा क्योंकि यह तो वह भी मानता है आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष में भारत का उसे सहयोग मिलता रहा है। 1971 में भारत की विजय पर उसी ने ही प्रतिबंध लगाकर पानी फेरा था यह इस देश का प्रबुद्ध वर्ग जानता हैं। यह तब की बात है कि जब वह इतना शक्तिशाली नहीं था।
मगर यह सभी अनुमान है। आगे कैसा समय आने वाला है यह कहना कठिन है। अपने जन्म के बाद भारी मंदी से जूझ रहे अमेरिका को कई तरह से भारत की आवश्यकता है। ऐसे में यह भी संभव है कि वह कोई ऐसी योजना बना रहा हो जिससे कि सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। पाकिस्तान पर उसकी पकड़ स्पष्ट है और इसके बावजूद अगर वहां भारत विरोधी आतंकी मौजूद हैं तो शक के घेर में वह स्वयं भी आ जाता है। कुल मिलाकर मामला यह है कि भारत को विश्व के सभी देशों को साथ लेकर कोई कार्यवाही करनी होगी क्योंकि अकेले तो अमेरिका भी अभी आंतकवाद के विरुद्ध विजय प्राप्त नहीं कर सका है। किसी युद्ध में विजय अनिश्चित होती है इसलिये काफी विचार कर ही उसे शुरु करना चाहिये। युद्ध से पहले अपने मित्रों का जमावड़ा बड़ी संख्या में करना चाहिये ताकि समय आने पर वह मदद कर सकें।
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1 दिसंबर 2008

जंग तो कर देती है जिंदगी बदरंग-हिंदी शायरी

अच्छा लगता है दूसरों की
जंग की बात सुनकर
पर आसान नहीं है खुद लड़ना
दूसरों के घाव देखकर
भले ही दर्द उभरता है दिल में
पर बहता हो जब अपना खून
तब इंसान को दवा की तलाश में भटकना

अपने हथियार से दूसरों का
खूना बहाना आसान लगता है
पर जब निशाने पर खुद हों तो
मन में खौफ घर करने लगता है
दूसरों के उजड़े घर पर
कुछ पल आंसू बहाने के बाद
सब भूल जाते हैं
पर अपना उजड़ा हो खुद का चमन
तो फिर जिंदगी भर
उसके अहसास तड़पाते हैं
बंद मुट्ठी कुछ पल तो रखी जा सकती है
पर जिंदगी तो खुले हाथ ही जाती जाती है
क्यों घूंसा ताने रहने की सोचना
जब उंगलियों को फिर है खोलना
जंग की उमर अधिक नहीं होती
अमन के बिना जिदंगी साथ नहीं सोती
ओ! जंग के पैगाम बांटने वालों
तुम भी कहां अमन से रह पाओगे
जब दूसरों का खून जमीन पर गिराओगे
क्रिया की प्रतिक्रिया हमेशा होती है
आज न हो तो कल हो
पर सामने कभी न कभी अपनी करनी होती है
मौत का दिन एक है
पर जिंदगी के रंग तो अनेक हैं
जंग में अपने लिये चैन ढूंढने की
ख्वाहिश बेकार है
अमन को ही कुदरत का तोहफा समझना
जंग तो बदरंग कर देती है जिंदगी
कर सको भला काम तो
हमेशा दूसरे के घाव पर मल्हम मलना

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