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20 मई 2011

समाज सेवा और धोखे के गुर-हिन्दी शायरी (samaj seva aur dhokhe ke gur-hindi kavita)

समाज सेवा के धंधे में
वही लोग आते हैं,
जिनको लूटने के साथ ही
धोखे देने के गुर आते हैं।
फरिश्तों का बना लेते वेश
गुरु जिनका शैतान होता
नीयत जिनकी काली
चेहरा मेकअप से सजाते हैं।
‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘
दौलत की दौड़
जेल के सींखचों के पीछे तक जाती है,
जरूरी नहीं है कि
सभी बेईमान फंदे में फंस जायें
मगर सवैशक्तिमान की
नज़रें जिन पर हों जायें टेढ़ी
तो जिन हाथों में नोट सजते हैं
हथकड़ियां भी कभी पड़ जाती हैं।
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

30 जनवरी 2011

मेहमानवाजी का विज्ञापन अमेरिका में दिखायें-हिन्दी लघु व्यंग्य (mehmanwaji aur america-hindi vyangya)

मुंबई फिल्मों के उस अभिनेता का वह विज्ञापन अंग्रेजी में अनुवाद कर अमेरिका में भी दिखाया जाना चाहिए क्योंकि उसकी जरूरत भारत में कम वहीं ज्यादा दिखती है जहां 1655 भारतीय छात्रों के पांव में रेडियो कालर बांध दिया गया है। वैसे ही रेडियो कालर जो भारत में संरक्षित वन्य क्षेत्रों में पशुओं की गतिविधियों पर नियंत्रण रखने के लिये पहनाये जाते हैं। टीवी पर मुंबईया फिल्मों के इस अभिनेता का विज्ञापन आता है जिसमें वह लोगों को समझाता है कि विदेश से आये लोगों को मेहमान मानकर उनकी इज्जत करना चाहिए। एक जगह तो वह यह भी बताता है कि यह तो हमारी रोजी रोटी का आधार हैं।’’
यह अभिनेता पिछले कई दिनों से अपनी फिल्में अमेरिका में ऑस्कर के लिये भेज रहा है मगर अभी तक उसे वह नहीं मिला। वैसे देखा जाये तो वह क्या सारे अभिनेता विभिन्न पूंजीपतियों के प्रथक प्रथक समूहों का मुखोटा है जो क्रिकेट हो या फिल्म उससे कहंी न कहीं जुड़ जाते हैं। अवसर मिले तो राजनीति में भी चले आते हैं।
ऐसे में उस अभिनेता के बारे में यह माना जा सकता है कि वह किसी पूंजीपतियों के समूह का मुख हैं जो अमेरिका को खुश करना चाहता है। हम ऐसे ही उसके अज्ञात समूह के रणनीतिकारों को यही सलाह देंगे कि उसका यह मेहमानवाजी का उपदेश अब अमेरिका में भी दिखायें। हां, हम यह नहीं कह सकते कि इससे उनके अमेरिकी आका कहीं नाराज न हो जायें, और अभी तक ऑस्कर से उस अभिनेता की फिल्म विचार के लिये अपने यहां आने देते हैं फिर संभव है कि यह सुविधा भी बंद कर दें।
किस्सा यह है कि आंध्र प्रदेश के 1655 छात्र अमेरिका में स्थापित के विश्व विद्यालय में पढ़ने के लिये गये। इसके लिये उनको वीजा दिया गया जो कि अमेरिकी सरकार के जिम्मेदारी अधिकारियों बिना मिलना संभव नहीं था। पता लगा कि वह विश्वविद्यालय या यूनिवर्सिटी फर्जी है-यह भी बताया गया कि उसका पंजीयन नहीं हुआ इसलिये छात्रों का वीजा रद्द कर दिया गया। अमेरिकी अधिकारियों फर्जी विश्वविद्यालय के लिये वीजा कैसे जारी किया, इसकी जानकारी अभी तक नहीं मिला पर यह तय है कि कहीं न कहीं भ्रष्टाचार हुआ है।

यही छात्र जब अमेरिकी अधिकारियों से शिकायत करने पहुंचे तो उनको रेडियो कॉलर पहना दिया गया कि ताकि उन पर नज़र रखी जा सके। यह अलग से चर्चा का विषय हो सकता है कि अमेरिका में छात्र गये क्यों? क्या वह शैक्षणिक वीजा की आड़ में वहां कोई अपने रहने का जुगाड़ करना चाहते थे?
एक सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें अमेरिकी अधिकारी स्वयं शामिल हैं इसलिये वह अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। दूसरा यह भी कि जो लोग केवल भारतीयों को फर्जी काम करने वाला समझते हैं वह भी जान लें कि यह काम अमेरिकी भी करते है। 1655 भारतीय छात्रों के साथ पशुता का व्यवहार होने के लिये जहां भारत में अमेरिकी मोह तथा वहां के अधिकारियों के ईमानदार होने का भ्रम हो तो जिम्मेदार है पर साथ वहां के प्रशासन की पोल भी खोलता है।
भारत में विदेशी पर्यटकों को बड़ी हैरानी से देखा जाता है पर उतना दुर्व्यवहार नहीं होता जितना हमारे उन अभिनेता के विज्ञापन में दिखाया जाता है। यह अलग बात है कि सवारी आदि में उनसे पैसा ज्यादा ऐंठ लिया जाता हो पर यह दुर्व्यवहार की श्रेणी में नहीं आता। हम तो यहीं कहेंगे कि मेहमानवाजी के बारे में इस देश से ज्यादा विदेशियों को सिखाने की जरूरत है। यह भी स्पष्ट करें कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था विदेशों पर आधारित है फिर भी वहां भारतीयों का सम्मान नहीं है जबकि भारत में केवल सभ्य तबके में ही अमेरिका के प्रति आकर्षण है पर अर्थव्यवस्था का आधार अभी भी यहां की कृषि ही है। मतलब यह कि अगर विदेशी सहारा न हो तो कई लोगों के कमीशन बंद हो जायेंगे। स्विस बैंकों के खाते भी खाली हो सकते हैं पर भारतीय बैंक अपने देश की दम पर टिके रहेंगे। ंफिर भी विदेशी सैलानियों या नागरिकों के साथ ऐसी वैसी बातें नगण्य ही होती हैं। ऐसे में उस अभिनेता के अभिनीत विज्ञापन को अमेरिका और आस्ट्रेलिया में भी दिखाया जाये तो कुछ बात बने।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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4 दिसंबर 2010

मीडिया तो केवल हल्के प्रसारणों के लिये है-हिन्दी लेख

‘दिल्ली में लड़कियां सुरक्षित नहीं, आज फिर हुई एक कोशिश  गैंग रैप की!’
‘गैंग रैप की घटना को इतने दिन हो गये हैं पर पुलिस अभी भी कुछ नहीं कर पाई है।’
दूरदर्शन चैनलों पर यह विलाप अनेक बाद सुनाई देता है-यहां यह भी उल्लेख कर देते हैं कि इनके मीडिया या प्रचार कर्मियों के लिये देश का मतलब दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई, अहमदाबाद, बैंगलोर तथा कुछ अन्य बड़े शहरों ही हैं, बाकी तो केवल उनके लिये कागजी नक्शा  भर हैं।
वह बार बार पुलिस पर बरसते हैं। अभी एक गैंग रैप के मामले में पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार किया, उनमें से दो तो इस तरह की घटना में दूसरी बार शामिल हुए थे। अब सवाल यह है कि पुलिस क्या करे?
आम तौर से ऐसी अनेक घटनायें होती हैं जब पुलिस के साथ मुठभेड़ में खूंखार आतंकवादी तथा अपराधी मारे जाते हैं तो यही चैनल वहां मानवाधिकारों की दुहाई देते हुए पहुंच जाते हैं। इन आतंकवादियों और अपराधियों पर इतने अधिक मामले दर्ज होते हैं जिनकी संख्या भी डरावनी होती है। मतलब यह कि भारतीय संविधान की परवाह तो ऐसे आतंकवादी और अपराधी कभी नहीं करते। उनका अपराध सामान्य नहीं बल्कि एक युद्ध की तरह होता है। उनका कायदा है कि जब तक वह जिंदा रहेंगे इसी तरह लड़ते हुए चलते रहेंगे। कानून या संविधान के प्रति उनकी कोई आस्था नहीं है। ऐसे युद्धोन्मादी लोगों को मारकर ही समाज को बचाया जा सकता है। पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे गये अनेक अपराधियों तथा आतंकवादियों के परिजन पुलिस पर कानून से बाहर जाने का आरोप लगाते हैं पर अपने शहीद का युद्धोन्माद उनको नज़र नहीं आता। उनको ही क्या बल्कि अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी यह पसंद नहीं आता।
अब संविधान की बात करें तो उसमें आस्था रखना सामान्य इंसान के लिये हितकर है इसमें शक नहीं है। देश के अधिकतर लोग कानून को मानते हैं। इसका प्रमाण है कि एक सौ दस करोड़ वाली जनंसख्या में अधिकतर लोग अपने काम से काम रखते हुए दिन बताते हैं इसलिये ही तो शांति से रहते आज़ाद घूम रहे हैं। मगर जिनकी आस्था नहीं है वह किसी भी तरह अपनी हरकत से बाज़ नहीं आते। अगर उनका अपराध कानून के हिसाब से कम सजा वाला है और वह नियमित अपराधी भी नहीं है तो उनके साथ रियायत की जा सकती है पर जिन अपराधों की सजा मौत या आजीवन कारावास है जबकि अपराधी उस पर निरंतर बढ़ता ही जा रहा है तो उसे मारने के अलावा कोई उपाय बचता है यह समझ में नहीं आता।
इस संसार में हर समाज, वर्ण, धर्म, देश, जाति तथा शहर में अच्छे बुरे लोग होते हैं पर यह भारत में ही संभव है कि उनमें भी जाति और धर्म की पहचान देखी जाती है और प्रचार माध्यम या मीडिया यह काम बड़े चाव से करता है। दिल्ली में धौलकुंआ गैंग रैप में गिरफ्तार अभियुक्तों को पकड़ लिया गया। जब पुलिस उनको पकड़ने गयी तो वहां उसका हल्का विरोध हुआ। अगर विरोध तगड़ा होता तो संभव है कि हिंसा की कोई बड़ी वारदात हो सकती थी। ऐसे में एकाध अभियुक्त मारा जाता तो यह मीडिया क्या करता? एक बात यहां यह भी बता दें कि उस मामले में पुलिस के मददगार भी वहीं के लोग थे। यानि किसी एक समुदाय को अपराधी घोषित नहीं करना चाहिए पर मारे गये अपराधी को समुदाय के आधार पर निरीह कहकर उसे शहीद कहना भी अपराध से कम नहीं है।
चाहे कोई भी समुदाय हो उसका आम इंसान शांति से जीना चाहता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि कोई भी अपराधी या आतंकवादी को पसंद नहीं  करता चाहे उसके समुदाय का हो? ऐसे में समुदाय के आधार पर अपराधियों के प्रति प्रचार माध्यमों को निकम्मा साबित कर रहा है। अभी एक टीवी चैनल के प्रमुख संपादक ने कहा था कि वह कार्पोरेट जगत की वजह से बेबस हैं। क्या इसका आशय यह मानना चाहिये कि है कि यही कार्पोरेट जगत उनको समुदाय विशेष के अपराधियों का महिमा मंडन के लिये बाध्य कर रहा है? क्या उनके विज्ञापनदाताओं का संबंध तथा आर्थिक स्त्रोत विश्व के कट्टर धार्मिक देशो से जुड़े हैं जो आतंकवादियों और अपराधियों को धर्म से जोड़कर देखते हैं?
बहरहाल एक बात निश्चित है कि किसी जघन्य मामले में अधिक लिप्त होने वाले अपराधी को सामान्य प्रवृत्ति का नहीं माना जा सकता बल्कि वह तो एक तरह युद्धोन्मादी की तरह होते हैं जिनके जीवन का नाश ही समाज की रक्षा कर सकता है। दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश में लड़कियों के साथ बदसलूकी घटनायें बढ़ रही हैं। दिल्ली में अनेक लड़कियों को ब्लेड मारकर घायल कर दिया गया है। अगर वह अपराधी कहीं पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारा गया तो मीडिया क्या करेगा?
मुठभेड़ के बाद उसका समुदाय देखेगा फिर इस पर भी उसका ध्यान होगा कि कौनसी लाईन से उसको लाभ होगा। कानून के अनुसार कार्यवाही न होने की बात कहेगा? अगर कहीं ब्लेड मारने वाला जनता के हत्थे चढ़ गया और मर गया तो लोगों के कानून हाथ में लेने पर यही मीडिया विलाप करेगा। ऐसे में लगता है कि टीवी चैनलों पर कथित पत्रकारिता करने वाले लोग किसी घटना पर रोने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते। वह सनसनी या आंसु बेचते हैं। कभी चुटकुले बेचकर हंसी भी चला देते हैं। कोई गंभीरता न तो उनके व्यवसाय में है न ही विचारों में-भले ही कितनी भी बहसें करते हों। इन सबसे डर भी नहीं पर मुश्किल यह है कि देश का संचालन करने वाली एजेंसियों में भी आखिर मनुष्य ही काम करते हैं और इन प्रचार माध्यमों का प्रभाव उन पर पड़ता है। उनको इन प्रचार माध्यमों पर ध्यान नहीं देना चाहिए क्योंकि समाज या देश को लेकर उनके पास कोई गंभीर चिंतन इन प्रचार माध्यमों के पास नहीं है। अतः हर प्रकार के अपराध के प्रति उनको अपने विवेक से काम करना चाहिए क्योंकि इस देश में ईमानदार, बहादुर तथा विवेकवाद प्रशासनिक  अधिकारियों  की ही आवश्यकता है और मीडिया तो केवल हल्के प्रसारणों के लिये है। एक घंटे के कार्यक्रम में पौन घंटा क्रिकेट तथा फिल्मों पर निर्भर रहने वाले इन प्रचार माध्यमों से किसी बौद्धिक सहायता की आशा नहीं करना चाहिए।
अगर एक सवाल किसी मीडिया या प्रचार कर्मी से किया जाये कि‘आखिर आप अपने समाचार या चर्चा से क्या चाहते हैं?’
यकीनन उसका एक ही जवाब होगा-‘हम कुछ नहीं चाहते सिवाय अपने वेतन तथा आर्थिक लाभ के। हमें समाचार या बहस समय पास करने के लिये कुछ न कुछ तो चाहिए ताकि चैनल को विज्ञापन मिलते रहें। बाकी जवान मरे या बूढ़ा, हमें तो हत्या से काम, छोरा भागे या छोरी, हमें तो बस सनसनीखेज खबर से काम।’
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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5 नवंबर 2010

बाज़ार का शिखर सम्मेलन-हिन्दी हास्य व्यंग्य (bazar ka shikhar sammelan-hindi hasya vyangya)

दो इंसानी बुत शिखर पर बैठे थे। नीचे तलहटी में बाज़ार चल रहा था। छोटे और बड़े व्यापारियों के बीच जगह को लेकर खींचतान तेज हो गयी थी। बड़े व्यापारियों के एक प्रतिनिधि ने छोटे व्यापारियो के प्रतिनिधि से कहा कि ‘देखो उधर शिखर पर बैठे दो महान लोग इसी विषय पर चर्चा कर रहे हैं और जब कोई समझौता हो जायेगा तब इस बाज़ार में तुम्हें कहां जगह दी जाये इसका फैसला होगा।’
छोटे व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘पर यह दोनों बूढ़े महानुभाव कौन है? हम तो इनको जानते भी नहीं।
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘यह बाज़ार दो हिस्सों में बंटा है। दोनों हीे अपने अपने हिस्से के मालिक हैं। वह दोनों चर्चा कर रहे हैं कि बड़े और छोटे व्यापारियों में कैसे जगह का बंटवारा हो।’
छोटे व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘यह बाज़ार तो सार्वजनिक है। इसके मालिक कहां से आ गये। लगता है कि तुम बड़े व्यापारियों की सोची समझी साजिश है! यह कोई छद्म मालिक हैं जो तुमने बनवाये हैं। छोटे व्यापारियों को निपटाने की तुम्हारी योजना हम सफल नहीं होने देंगे!
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘बकवास बंद करो। यह दोनों बाज़ार के सदस्यों के वोट से बने हैं। यहां आने वाले ग्राहकों, सौदागरों, और दलालों ने इनको बनाया है।’
छोटे व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘हम भी तो यहां आते हैं, पर हमने वोट नहीं दिया।’
बड़े व्यापारियों ने कहा-‘यह तुम जानो! तुमने वोटर लिस्ट में नाम नहीं लिखाया होगा। वैसे भी तुम सात दिन में एक बार यहां आते हो, पर हम तो यहां रोज चक्कर लगा जाते हैं कि कहीं बाज़ार पर किसी ने कब्जा तो नहंी कर लिया। कई बार बाहरी लोग भी आकर यहां जमने का प्रयास करते हैं हम ही उनको भगाते हैं। अब अधिक विवाद न करो, वरना तुम्हें भी बाहरी घोषित कर देंगे। अशांति फैलाने और अतिक्रमण के आरोप में बंद करवा सकते हैं। हां, तुम अपने साथियों से अलग होकर कोई फायदा लेना चाहो तो इसके लिये हम तैयार हैं। उन सबको तो तलहटी में भी दूर नाले के पास जगह देंगे। तुम्हें जरूर अच्छी जगह सहयोग देने पर प्रदान कर सकते हैं।
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने छोटे व्यापारियों के प्रतिनिधि को कुछ धमकाया और कुछ समझाया। वह वापस लौट आया।
उसने वापस आकर अपने साथियों को अपनी बात अपने तरीके से समझाई। अलबत्ता अपने फायदे वाली बात वह छिपा गया। अब छोटे व्यापारी शिखर की तरफ देखने लगे। कुछ तो शिखर पर चढ़कर यह देखने चले गये कि दोनों कर क्या कर रहे हैं? कुछ को ख्याल आया कि चलकर उनसे सीधी बात कर लें।
वहां जाकर देखा तो दोनों चाय पी रहे थे। वहां खड़े सुरक्षा कर्मियों ने उनको घेर रखा था। इसलिये छोटे व्यापारी उनके पास जा नहीं सकते थे। अलबत्ता दूर से उनको कुछ दिखाई और सुनाई दे रहा था।
एक इंसानी बुत कह रहा था ‘यार, चाय तो हमारे घर के नीचे होटल वाला बनाता है। मैं तो उससे मंगवाकर पीता हूं। समोसा तो तुम्हारे वाले हिस्से में एक हलवाई बनाता है और मेरा सारा परिवार उसका प्रशंसक है।’’
दूसरा बोलने लगा-‘अच्छा! वैसे तुम्हारे हिस्से में एक कचौड़ी वाला भी है जो इतनी खस्ता बनाता है कि जब तक मेरी पत्नी सुबह मंगवाकर खाती नहीं है तब तक उसको चैन नहीं पड़ता। मेरी बेटी भी उसकी फैन है।’
वह तमाम तरह की बातें कर रहे थे, पर नहीं हो रही थी तो छोटे व्यापारियों की जगह की बात! बहुत सारी इधर उधर की बातें करने के बाद दोनों  उस मार्ग से निकल गये जहां लोगों की उपस्थित नगण्य थी।
इधर छोटे व्यापारी लौटकर आये तो बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने उनको बताया कि समझौता हो गया है और जल्दी घोषित हो जायेगा।
छोटे व्यापारियों ने कहा-‘यह तो बताओ, समझौता हुआ कब! हमने तो दोनों की बातें सुनी थी। दोनों यहां के बूढ़े बाशिंदे हैं जो अभी बहुत दिन बाहर रहने के बाद यहां लौटे हैं और बाज़ार के मालिक कैसे बन गये हमें पता नहीं! अलबत्ता दोनों के बीच बाज़ार के बारे में नहीं बल्कि दुकानों पर मिलने वाले सामान की चर्चा हुई।
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘देखो, अधिक बकवास मत करो। दोनों महान हैं! इसलिये ही तो शिखर पर बैठ कर बात करते हैं। तुम्हारी तरह नहीं कि चाहे जहां बकवास करने लगे।’’
छोटे व्यापारियों में से एक ने कहा-‘तुम चाहे कुछ भी करो, हम तो बाज़ार के मुख्य द्वार पर ही दुकानें लगायेंगे जैसे कि पहले लगाते थे।’
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा कि ‘ज्यादा गलतफहमी नहीं पालना! यहां के रखवाले भी हमारे से चंदा पाते हैं इसलिये उनका लट्ठ भी तुम पर ही चलेगा। वह इंसानी बुत हमारे कहने से शिखर पर चढ़े थे और उतर गये। तुम इस शिखर सम्मेलन का मतलब तब समझोगे जब इसका नतीजा सुनने को मिलेगा।’
इतने में छोटे व्यापारियों का प्रतिनिधि भी वहां आया और बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि के गले मिला। दोनों के बीच में दो नये लोग थे जो शायद प्रवक्ता थे। उन दोनों ने घोषणा की कि ‘शिखर सम्मेलन में समझौते के अनुसार छोटे व्यापारियों को एकदम पीछे जगह दी जायेगी। सबसे पहले बड़े व्यापारी, फिर उनके मातहतों तथा उसके बाद उनके ही दलालों को दुकान लगाने की अनुमति मिलेगी। इसके बाद जो जगह सबसे पीछे बचेगी वह छोटे व्यापारियों को देने का अनुग्रह स्वीकार कर लिया गया है और यह इस सम्मेलन की उपलब्धि है।’
बड़े व्यापारियो, उनके मातहतों तथा दलालों ने जोरदार तालियां बजाई। छोटे व्यापारी चिल्लाने लगे कि ‘हम आग्रह नहीं हक मांग रहे थे। वैसे भी यह बाज़ार सार्वजनिक है और इस सभी का हक है। हम नहीं मानेंगे इस समझौते को!’
छोटे व्यापारियों का प्रतिनिधि अपने साथियों ने बोला-‘देखो भई, भागते भूत की लंगोटी ही सही। अगर इस बाज़ार में बने रहना है तो कोई भी जगह ले लो वरना बड़े व्यापारी उसे भी हड़प लेंगे।’
छोटे व्यापारियों का गुस्सा अपने प्रतिनिधि पर फूट पड़ा। वह उसे मारने के लिये पिल पड़े तो बड़े व्यापारियों के लट्ठधारी रक्षकों ने उसको बचाया। बाहर से पहरेदार भी आ गये। तब छोटे व्यापारी सहम गये। उस समय सारा माज़रा देख रहे एक बुद्धिमान ने छोटे व्यापारियों से कहा-‘तुम लोगों ने इस बाज़ार को बसाया पर अब इसे बड़े व्यापारियों ने हथिया लिया है। तुम तो जानते ही हो कि इस संसार में बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। यही हाल है। यह तो तुम मगरमच्छ बन जाओ या घास की तरह झुकने सीख लो।’
एक छोटे व्यापारी ने उससे पूछा-‘यह शिखर सम्मेलन क्या हुआ? हम तो कुछ समझे ही नहीं। वहां हमने इंसानी बुतों को कोई समझौता करते हुए नहीं देखा। एक बोलता तो दूसरा सोता था और दूसरा बोलता तो पहला सोता था।’
बुद्धिमान ने कहा-‘मित्र, वह इंसानी बुत इन बड़े व्यापारियों ने ही वहां भेजे थे। जो इन्होंने तय किया उसमें उनकी दिलचस्पी नहीं थी! वह तो इस बारे में कुछ नहीं  जानते थे। मालिक तो वह नाम के हैं, वास्तव में तो वह इन बड़े व्यापारियों के प्रायोजित इंसानी बुत थे।
एक छोटे व्यापारी ने कहा-‘पर इन दोनों की मुलाकात को शिखर सम्मेलन क्यों कहा गया।’
बुद्धिमान ने कहा-‘बड़े लोगों की आदत है कि वह महान होते नहीं  पर दिखना चाहते हैं। तलहटी में भी जिनको कोई नहीं पूछता उनको शिखर पर बैठकर ही इज्ज़तदार बनाकर लाभ उठाया जा सकता है। लोगों से दूरी उनको बड़ा बनाती है और शिखर पर बैठने से उनकी बात में वज़न बढ़ जाता है भले ही फैसले सड़कछाप लोग सड़क पर प्रायोजित कर लेते हैं।’
छोटे व्यापारियों के पास कोई मार्ग नहीं था। शिखर सम्मेलन ने उनको तलहटी में भी बहुत नीचे दूर नाले के पास पहुंचा दिया था।
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2 अक्टूबर 2010

शोहदे हो गये अमन पसंद-हिन्दी व्यंग्य कविता (shohe hogaye aman pasand-hindi satire poem)

शहर में अमन देखकर
कुछ हैरान हैं
कुछ लोग परेशान हैं
बंद हैं दुकान
छिपाये हुए हैं इंसानों को मकान
जबकि आयोजित नहीं है ‘शहर बंद’।
सच यह है कि
सारे शोहदे हो गये हैं दौलतमंद,
सर्वशक्तिमान के नाम पर
चंदा बटोरने का व्यापार कर कहलाये अक्लमंद,
सब खुश हैं
फिर भी अमन के मसीहा
लोगों को समझा रहे हैं,
खतरों की पहेली बुझा रहे हैं,
कुछ काम तो उनको भी चाहिये
वरना कौन उनको पहचानेगा,
शोहदों पर अपना कब्जा
नहीं दिखायेंगे तो
हर कोई उन पर हथियार तानेगा,
लोग भी खुश है यह सोचकर कि
उनके रास्ते खुले रहेंगे
भले ही सिक्कों में तुलकर ही
शोहदे हो गये हैं अमन पसंद।
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14 मार्च 2010

गोली को आंख नहीं होती-हिन्दी व्यंग्य कविताएँ (goli ko ankh nahin hoti-hindi vyangya kavitaen)

दूसरे के दर्द का बयान करना
बहुत आसान और अच्छा लगता है,
जब देखते हैं अपना दर्द तो
वही बयान हल्का लगता है।
आदत है जिनकी दूसरों के बयान करने की
जमाने में लूटते हैं वाहवाही
पर अपने दर्द के साथ जीते हुए भी
उनको बयान करना मुश्किल लगता है।

जीकर देखो अपने दर्द के साथ
सतही बयान करने की आदत चली जायेगी,
शब्दों की नदिया कोई
नई बहार लायेगी,
अपने पसीने से सींचे पाठों में
जीना भी अच्छा लगता है।
अपने दर्द पर लिखते आती है शर्म
क्योंकि बेशर्म बनना मुश्किल लगता है।
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उठा लिये हैं
उन्होंने हथियार
जमाने को इंसाफ दिलाने के लिये।
उन्हें मालुम नहीं कि
गोली को आंख नहीं होती
सही गलत की पहचान करने के लिये।

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7 मार्च 2010

इंसान और प्रकृति-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (men and neture-hindi satire poem)

हैरानी है इस बात पर कि
समलैंगिकों के मेल पर लोग
आजादी का जश्न मनाते हैं,
मगर किसी स्त्री पुरुष के मिलन पर
मचाते हैं शोर
उनके नामों की कर पहचान,
पूछतें हैं रिश्ते का नाम,
सभ्यता को बिखरता जताते हैं।
कहें दीपक बापू
आधुनिक सभ्यता के प्रवर्तक
पता नहीं कौन हैं,
सब इस पर मौन हैं,
जो समलैंगिकों में देखते हैं
जमाने का बदलाव,
बिना रिश्ते के स्त्री पुरुष के मिलन
पर आता है उनको ताव,
मालुम नहीं शायद उनको
रिश्ते तो बनाये हैं इंसानों ने,
पर नर मादा का मेल होगा
तय किया है प्रकृति के पैमानों ने,
फिर जवानी के जोश में हुए हादसों पर
चिल्लाते हुए लोग, क्यों बुढ़ाये जाते हैं।
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योगी कभी भोग नहीं करेंगे
किसने यह सिखाया है,
जो न जाने योग,
वही पाले बैठे हैं मन के रोग,
खुद चले न जो कभी एक कदम रास्ता
वही जमाने को दिखाया है।
जानते नहीं कि
भटक जाये योगी,
बन जाता है महाभोगी,
पकड़े जाते हैं जब ऐसे योगी
तब मचाते हैं वही लोग शोर
जिन्होंने शिष्य के रूप में अपना नाम लिखाया है।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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22 फ़रवरी 2010

इल्जाम से डरते हैं-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (ilzam-hindi satire poem)

विश्वास तो करते हैं
पर साथ में धोखे की
गुंजायश भी रखते हैं।
वफा का आसरा करते हमेशा
पर घाव की मरहम भी साथ रखते हैं।
टूटे और बिखरे हैं कई बार
फिर भी कभी इरादा नहीं बदला
कोई हम पर धोखे और बेवफाई का इल्जाम लगाए
इस बात से डरते हैं।
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अपने गुस्से और घमंड से
लोगों को जिंदगी में हारते देखा है,
लूट के सामान से सजाया जिन्होंने घर अपना
बंद अंधेरी कोठरी में उनको रोते देखा है।
मेहनतकशों और ईमानदारों का
पसीना गिरते देखा जमीन पर
मगर आंसु बहाते किसी को नहीं देखा है।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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29 जनवरी 2010

चुटकुले और हास्य कविताऐं भी साहित्य होती हैं-आलेख (chutkule aur sahitya-hindi lekh)

पता नहीं कुछ लोग चुटकुलों को साहित्य क्यों नहीं मानते, जबकि सच यह है कि उनके सृजन में वैसे ही महारथ की आवश्यकता होती है जैसी कि कहानी या व्यंग लिखने में। चुटकुलों में ही एक अधिक पात्र सृजित कर उनसे ऐसी बातें कहलायी जाती हैं जिनसे स्वाभाविक रूप से हंसी आती है और पाठक इस बात की परवाह नहीं करता कि वह साहित्य है या नहीं।
चुटकुलों की तरह हास्य कविताओं को भी अनेक लोग साहित्य नहीं मानते जबकि उनकी लोकप्रियता बहुत है। ऐसे में सवाल यह है कि साहित्य कहा किसे जाता है?
क्या उन बड़ी बड़ी किताबों को ही साहित्य माना जाये जिनको एक सीमित वर्ग का पाठक वर्ग पढ़ता है और बहुतसंख्यक वर्ग उनका नाम तक नहीं जानता। अनेक पुस्तकें तो ऐसी होती हैं कि किसी मध्यम रुचि वाले पाठक को सौंप दी जाये तो वह उसे हाथ में लेकर एक तरफ रख देता है। क्या साहित्य उन पुस्तकों को माना जाये जिनमें अनेक पात्रों वाली उलझी हुई निष्कर्ष से पर कहानी हो या जिनको पाठक पढ़ते हुए यही याद नहीं रख पाता कि कौन से पात्र की भूमिका क्या थी? क्या साहित्य उन निबंधों को माना जाये जिसका आम आदमी की बजाय केवल समाज के एक खास वर्ग के आचार विचार से संबंधित सामग्री होती है?
पता नहीं साहित्य की क्या परिभाषा हो सकती है, पर हमारी नज़र में जो रचना अधिक से अधिक पाठक वर्ग को प्रभावित करे वह साहित्य है। दरअसल हमारे देश के सम्मानों को लेकर विरोधाभासी परंपरा रही है। भारत का व्यवसायिक सिनेमा ही देश की जनता की पंसद है पर जब पुरस्कार की बात आती है तो कथित कलात्मक फिल्मों को ही पुरस्कृत किया जाता है जो कि देश की गरीबी बेरोजगारी या अन्य समस्याओं को सीधे सीधे प्रस्तुत कर दर्शक के सामने प्रश्न चिन्ह प्रस्तुत करती हैं। उनसे न तो समस्यायें हल होती हैं न आदमी का मनोरंजन होता है। सवाल यह है कि एक आम आदमी के सामने प्रश्न आयें तो भी वह क्या करे? देश की सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक समस्याओं की उसकी कोई निर्णायक भूमिका नहीं होती। अब भले ही पुरस्कार देने वाले आत्ममुग्धता की स्थिति में हों पर सच यही है कि व्यवसायिक सिनेमा ही इस देश के लोगों की दिल की धड़कन है।
यही स्थिति साहित्य से संबंधित पुरस्कारों की है। जब किसी लेखक की किताब छपी हो उसे ही पुरस्कार दिया जाता है जबकि सच तो यह है कि इस देश के हजारों ऐसे लेखक हैं जो अपनी रचनाओं से साहित्यक प्रवाह की निरंतरता बनाये हुए हैं-उनकी रचनायें अखबारों में छपती हैं या फिर वह मंच पर सुनाते हैं। इनमें अनेक चुटकुले और हास्य कविता लिखने वाले लेखक भी हैं। दरअसल हुआ यह है कि सम्मान आदि प्रदान करने वाली संस्थाओं पर कुछ रूढ़िवादी लेखक काबिज हो जाते हैं-यकीनन यह पद उनको चाटुकारिता लेखन के कारण ही मिलता है-जो चुटकुले या हास्य कवितायें नहीं लिख सकते वही उनकी गौण भूमिका मानते हैं जबकि इस देश का एक बहुत बड़ा वर्ग चुटकुले और हास्य कविताओं ही सुनता और पढ़ता है। इस देश में ऐसे अनेक कवि हैं जो अपनी हास्य रचनाओं के कारण ही लोगों के हृदय में छाये हुए हैं। यकीनन वह भी साहित्यकार ही हैं। प्रश्न चिन्ह खड़े करने वाली या समस्याओं को रूबरू कर पाठक के मन को चिंताओं के वन में छोड़ने वाली रचनायें ही साहित्य नहीं होती बल्कि जो लोगों के मन को मनोरंजन के साथ शिक्षा भी दें भले ही हास्य कविता या चुटकुले ही क्यों न हों साहित्य ही कही जा सकती हैं। वैसे हमारे यहां अब कुछ लोगों द्वारा क्षणिकाओं को भी साहित्य माना जाता है तब चुटकुलों और हास्य कविताओं की उपेक्षा करना ठीक नहीं लगता। अब लंबी रचनायें लिखने का समय नहीं रहा। थोड़े में अपनी बात कहने की आवश्यकता सभी जगह महसूस की जा रही है तब चुटकुलों और हास्य कविताओं का महत्व कम नहीं माना जा सकता।
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1 जनवरी 2009

अंतर्जाल पर हिंदी भाषा को लेकर चर्चा-आलेख

क्या लेखक केवल लिखने के ही भूखे होते हैं? अधिकतर लोग शायद यही कहेंगे कि ‘हां’। यह बात नहीं है। सच तो यह लेखक को अपने लिखते समय तो मजा आता है पर लिखने के बाद फिर वह उसका मजा नहीं ले पाता। वह किसी का दूसरा लिखा पढ़ना चाहता है। उसमें भी यह इच्छा बलवती होती है कि किसी दूसरे का लिखा पढ़कर वह मजा ले। ऐसे में जब उसे कहंी मनोमुताबिक नहीं पढ़ने को मिलता तो फिर उसके अंदर तमाम तरह के विचार आते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वह नये विषयों पर नये ढंग से विचार करने की मांग नये लेखकों से करता है। कहीं कुछ लेखक पुराने साहित्य को आगे लाने की बजाय नये प्रकार का साहित्य रचने का आग्रह नयी पीढ़े से करता है। यह किसी लेखक की पाठकीय भूख का ही परिणाम होता है।

अक्सर कुछ मूर्धन्य लेखक संभवतः अपनी बात ढंग से नहीं कह पाते और आलोचना का शिकार हो जाते हैं। आप कहेंगे कि आखिर मूर्धन्य लेखक कैसे अपनी बात नहीं कह पाते? वह तो भाषा में सिद्धहस्त होते हैं। नहीं! मन की बात उसी तरह बोलना या लिखना हर किसी के लिये संभव नहीं होता पाता। अगर हो भी तो यह जरूरी नहीं है कि वह समय पर उसी तरह कहा गया कि नहीं जैसे उनके मन में हैं।

भारत में हिंदी भाषा एक आंदोलन की तरह प्रगति करती हुई आई है। मजेदार बात यह है कि शायद यह विश्व की एकमात्र भाषा है जिसमें अध्यात्म और साहित्य एक ही श्रेणी में आ जाते हैं। हिंदी भाषा का स्वर्णकाल तो भक्तिकाल को ही माना जाता है क्योंकि इस दौरान ऐसा साहित्य जो न केवल मनभावन था बल्कि अध्यात्म रूप से भी उसका बहुत बड़ा महत्व था। इसके बाद के साहित्य ने हिंदी भाषा के विकास में अपना योगदान तो दिया पर उसका विषय प्रवर्तन समसामयिक परिस्थतियों के अनुसार होने के कारण उसमें आगे इतना महत्व नहीं रहा। फिर भारत के अधिकतर लोग वैसे ही अध्यात्म प्रवृत्ति के होते हैं इसलिये उनकी जुबान और दिल में भक्तिकाल का ही साहित्य बसा हुआ है। सूर,कबीर,रहीम,मीरा,और तुलसी जैसे लेखकों को लोग संत की तरह आज भी सम्मान देते हैं। सच कड़वा होता है और इसका एक पक्ष यह भी हे कि जैसी रचनायें इन महान लोगों ने जीवन रहस्यों को उद्घाटित करते हुए प्रस्तुत कीं उससे आगे कुछ बचा भी नहीं रहता लिखने के लिये।

आधुनिक हिंदी में अनेक लेखक हुए हैं पर उनको वह सम्मान नहीं मिल सका। इसका कारण यह भी है कि कहानियां, कवितायें,व्यंग्य,निबंध जो लिखे जाते हैं उनको तत्कालीन समय और समाज को दृष्टिगत रखते हुए विषय प्रस्तुत किया जाता है। समय और समाज में बदलाव आने पर ऐसी रचनायें अपना महत्व और प्रभाव अधिक नहीं रख पातीं। ऐसे में जिन लेखकों ने अपना पूरा जीवन हिंदी साहित्य को दिया उनके अंदर यह देखकर निराशा का भाव आता है जिससे वह उन महाल संत साहित्यकारों की रचनाओं से परे रहने का आग्रह करते हैं। इसके पीछे उनका कोई दुराग्रह नहीं होता बल्कि वह नहीं चाहते कि नयी पीढ़ी लिखने की उसी शैली पर दोहे या सोरठा लिखकर स्वयं को उलझन में डाले। इसके पीछे उनकी पाठकीय भूख ही होती है। वह चाहते हैं कि नये लेखक लीक से हटकर कुछ लिखें। देखा यह गया है कि अनेक लेखक भक्ति काल से प्रभावित होकर दोहे आदि लिखते हैं पर विषय सामग्री प्रभावपूर्ण न होने के कारण वह प्रभावित नहीं कर पाते। फिर दोहे का उपयोग वह हास्य या व्यंग्य के रूप में करते हैं। एक बात यह रखनी चाहिये कि भक्ति काल में जिस तरह काव्य लिखा गया उसके हर दोहे या पद का एक गूढ़ अर्थ है और फिर उनको व्यंजना विधा में लिखा गया। हालांकि अनेक दोहे और पद अच्छे लिख लेते हैं पर पाठक के दिमाग में तो भक्तिकाल के दोहे और पद बसे होते हैं और वह इसलिये वह नवीन रचनाकारों के दोहों और पदों को उसी शैली में देखता है। इस तरह देखा जाये तो लेखक अपनी मेहनत जाया करते हैं। एक तो पाठक काव्य को लेकर इतना गंभीर नहीं रहता दूसरा यह है कि लेखक ने गंभीरता से महत्वपूर्ण विषय लिया होता है वह भी उसमें नहीं रह जाता। शायर अनेक बड़े लेखकों के दिमाग में यह बातें होती हैं इसलिये ही वह भक्ति काल के साहित्य से पीछा छुड़ाने की सलाह देते हैं। मगर हम यह जो बात कर रहें हैं वह अंतर्जाल के बाहर की बात कर रहे हैें

अंतर्जाल पर हिंदी का रूप वैसा नहीं रहेगा जैसा कि सामान्य रूप से रहा है। कुछ लोगों को काव्य लिखना बुरा लगता है पर अंतर्जाल पर अपनी बात कहने के लिये बहुत कम शब्दों का उपयोग करना पहली शर्त है। एक व्यंग्य या कहानी लिखने के लिये कम से कम पंद्रह सौ शब्द लिखने पड़ते हैं पर अगर अंतर्जाल पर लिखेंगे तो तो पढ़ने के लिये पाठक तैयार नहीं होंगे। सच तो यह है कि अंतर्जाल पर तुकबंदी बनाकर कविता लिखना ज्यादा बेहतर है एक बड़ा व्यंग्य में समय बर्बाद करने के। यहां बड़ी कहानियों की बजाय लघुकथा या छोटी कहानियों से काम चलाना पड़ेगा। फिर मौलिक लेखन कोई आसान काम नहीं है। इसलिये कुछ लेखक पुराने साहित्यकारों की बेहतर रचनाओं को यहां लाने का प्रयास करेंगे। तय बात है कि भक्तिकाल का साहित्य उनको इसके लिये एक बेहतर अवसर प्रदान करेगा क्योंकि कम शब्दों में अपनी बात कहने का जो सलीका उस समय था वह अंतर्जाल के लिये बहुत सटीक है।

ऐसे में अंतर्जाल पर हिंदी रचनाओं की शैली,भाषा,विषय और प्रस्तुतीकरण को लेकर अंतद्वंद्व या चर्चा का दौर हमेशा ही चलता रहेगा। किसी एक की बात को मानकर सभी उसी की राह चलें यह संभव नहंी है। फिर वाद विवाद तो हिंदी में अनेक हैं पर मुख्य बात है प्रभावी लेखन और यहां पाठक ही तय करेंगे कि कौन बेहतर है कौन नहीं। सबसे बड़ी बात यह है कि ब्लाग लेखन एक स्वतंत्र प्रचार माध्यम है और इसे नियंत्रित कर आगे बढ़ाने का प्रयास करना संभव नहीं है पर एक आशंका हमेशा रहती है कि जब यह लोकप्रिय होगा तब इस पर नियंत्रण करने का प्रयास होगा क्योंकि दावे तमाम किये जाते हैं पर बौद्धिक वर्ग पर अन्य वर्ग हमेशा नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास करते है और बौद्धिक वर्ग के ही स्वार्थी तत्व इसमें सहायता करते हैं इस आशय से कि उनका अस्तित्व बचा रहे बाकी डूब जायें।
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22 दिसंबर 2008

बड़ा कौन, कलम कि जूता-हास्य व्यंग्य

देश के बुद्धिजीवियों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया गया था। गोलमेज सम्मेलन का विषय था कि ‘जूता बड़ा कि कलम’। यह सम्मेलन विदेश में एक बुद्धिजीवी द्वारा सरेराह जूते उछालने की एक घटना की पृष्ठभूमि में इस आशय से आयोजत किया गया था कि यहां के लोग इस बारे में क्या सोचते हैं?
जाने माने सारे बुद्धिजीवी दौड़े दौड़े चले जा रहे थे । एक बुद्धिजीवी तो घर से एक ही पांव में जूता पहनकर निकल गये उनको दूसरा पहनने का होश ही नहीं रहा। रास्ते चलते हुए एक आदमी ने टोका तो वह कहने लगे-"अपने देश के तुम आम लोग भी निहायत जाहिल हो। तुम मेरे पांव के जूते देखने की सोच भी पा रहे होयह जानकर ताज्जुब होता है। अरे, अखबार या टीवी नहीं देखते क्या? विदेश में जूता फैंकने की इतनी बड़ी घटना हो गयी और हमें उसी पर ही सोचना है। मैंने एक ही पांव में जूता पहना है पर यह कोई एतिहासिक घटना नहीं है और इस पर चर्चा मत करो।''

कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्धिजीवियों के लिये यह एक ऐसा विषय था जिसमें उनकी जमात का ही आदमी जूता फैंकने की घटना में शामिल पाया गया था वैसे तो अपने देश में जूतमपैजार रोज होती है पर बुद्धिजीवियों का काम लिखने पढ़ने और भाषण तक ही सीमित होता है। कोई भला काम हो बुरा उनकी दैहिक सक्रियता स्वीकार नहीं की जातीं। पश्चिम से आयातित विचारों पर चलने वाले बुद्धिजीवियों ने स्वयं ही यह बंदिश स्वीकार की है और किसी बुद्धिजीवी द्वारा सरेराह जूता उछालने की घटना देखकर अब यह प्रश्न उठा था कि क्या वह अपनी इस राह में बदलाव करें। क्या मान लें कि बुद्धिजीवी को कलम के अलावा जूता भी उठाना चाहिये। अगर कहीं ऐसी घटना देश में होती तो शायद बुद्धिजीवी विचार नहीं करते मगर यह धटना पश्चिम दिशा से आयी थी इसलिये विचार करना जरूरी था। अपने देश का कोई बुद्धिजीवी होता तो सभी एक स्वर में उसकी निंदा करते या नहीं भी करते। निंदा करते तो उस बुद्धिजीवी को प्रचार होता इसलिये शायद अनदेशा करना ही ठीक समझते या फिर कह देते कि यह तो बुद्धिजीवी नहीं बल्कि एक साधारण आदमी है। विदेश में वह भी पश्चिम में कुछ हो तो यहां का बुद्धिजीवी उछलने लगता है। उस पर कुछ कहने या लिखने के लिए उसका मन उछलने लगता है।

सम्मेलन शुरू हुआ। कुछ बुद्धिजीवियों ने इस कृत्य की घोर निंदा की तो कुछ ने प्रशंसा। प्रशंसकों का मानना था कि यह बुद्धिजीवी के देश में चल रहे आक्रोश का परिणाम है। विरोधियों ने पूछा कि ‘जब अपने पास कलम हैं तो फिर हमारे द्वारा जूते से विरोध प्रदर्शन करना ठीक कैसे माना जा सकता है?’
जूता फैंकने के प्रशंसकों ने कहा-‘लिखे हुऐ का असर नहीं होता तो क्या करें?’*

विरोधियों ने कहा-‘तो ऐसा लिखो कि कोई दूसरा जूता उछाले। आम आदमी हमारी बात सुनता नहीं है चाहे हम कुछ भी लिखें, पर अपना जूता हाथ में उठाकर किसी पर नहीं फैंकता। इतने दिनों से इशारे में लिखते हैं अब खुलकर लिख कर भी देख लेते हैं कि "जूता उठाओ*।
प्रशंसकों ने कहा-‘अगर कोई दूसरा जूता न उछाले तो आखिर क्या किया जाये?‘
विरोधियों ने कहा-‘अगर आपके लिखे से समाज में कोई दूसरा व्यक्ति सरेराह जूते उछालने को तैयार नहीं है तो फिर उसके लिये लिखने से क्या फायदा?’
प्रशंसकों ने कहा-‘अरे वाह! तुम तो हमारा लिखना ही बंद करवाओगे। तुम पिछडे हुए हो और तुम जानते नहीं कि अब समय आ गया है कि बुद्धिजीवी को एक हाथ में कलम और दूसरे हाथ में जूता उठाना चाहिये।’
यह सुनकर एक पांव में जूता पहनकर आये बुद्धिजीवी को जोश आ गया और उसने अपने पांव से जूता उतार कर हाथ में लिया और चिल्लाया-‘ऐसा करना चाहिये।’
प्रशंसक और विरोधी दोनों खेमों में डर फैल गया। पता नहीं वह कहीं उछाल न बैठे-यह सोचकर लोग जड़वत् खड़े हो गये। सभी को पता था कि अगर उसने जूता उछाला तो वह हीरो बन जायेगा और जिसको पड़ा वह खलनायक कहलायेगा।’
कमबख्त वह आम आदमी भी उस बुद्धिजीवी के पीछे यह जिज्ञासा लेकर आया कि ‘आखिर यह आदमी कहां जा रहा है और क्या करेगा’ यह चलकर देखा जाये। तय बात है कि आम आदमी ही ऐसा सोचता और करता है, कोई बुद्धिजीवी नहीं।

उसने जब यह देखा तो चिल्लाया-‘अरे, यह तो इस कार्यक्रम के न्यौते से ही इतना खुश हो गये कि एक जूता पहनकर चले आये दूसरा पहनना भूल गये-यह बात रास्ते में इन्होंने स्वयं बतायी। अब वह जूता इसलिये पांव से उतार लिया कि कोई पूछे कर हंसी न उडाये और अपनी बात कहकर हीरो भी बन जायें। इस एक जूते को लेकर कब तक पहनकर चलते और हाथ में लेते तो लोग अनेक तरह के सवाल करते। अब कौन पूछेगा कि यह एक जूता लेकर कहां घूम रहे हो? यह बोल देंगे किबुद्धिजीवियों के हाथ में कलम और दूसरे हाथ में जूता लेने का नया रिवाज शुरू हो गया है।’"

उस बुद्धिजीवी को ताव आ गया और उसने वह जूता उस आम आदमी की तरफ ऐसे उछाला जैसे कि उसे लगे नहीं-यानि एक प्रतीक के रूप में! वह भी उस्ताद निकला उसने जूता ऐसे ही लपका जैसे क्रिकेट में स्लिप में बायें तरफ झुककर कैच लिया जाता है और भाग गया।

गोलमेज सम्मेलन में कोहराम मच गया। विरोधियों ने उस जूता फैंकने वाले बुद्धिजीवी की निंदा की तो प्रशंसकों ने भी उसे फटकारा-‘शर्म आनी चाहिये एक आम आदमी पर जूता फैंकते हुए। वह चालाक था इसलिये लेकर भाग गया। बचने की कोशिश करता नजर भी नहीं आया जैसे कि विदेश में हुई घटना में नजर आया है। किसी खास आदमी पर फैंकते तो कुछ एतिहासिक बन जाता। हमने जो विदेश का दृश्य देखा है उससे यह दृश्य मेल नहीं खाता। हो सकता है कि वह किसी अखबार के दफ्तर पहुंचकर यह ख़बर दे कि देखो एक बुद्धिजीवी का जूता मार लाया।

बहरहाल बहस जारी थी। कोई निष्कर्ष नहीं निकला। कई दिन तक बहस चली। अनेक लोग उस पर अपने विचार लिखते रहे। कोई समर्थन करता तो कोई विरोध। आखिर उसी आम आदमी को बुद्धिजीवियों पर दया आ गयी और वह वहां इस सम्मेलन में आया। उसके हाथ में वही जूता था। उसे देखकर सब बुद्धिजीवी भागने लगे। सभी को लगा कि वह मारने आ रहा है। हर कोई यही सोचकर बच रहा था कि ‘दूसरे में वह जूता पड़ जाये पर मैं बच जांऊ ताकि अगर घटना ऐतिहासिक हो तो उस लिखूं। आखिर एक आम आदमी द्वारा बुद्धिजीवी पर जूता बरसना भी एक एतिहासिक घटना हो सकती थी।

वह आम आदमी ढूंढता हुआ उस बुद्धिजीवी के पास पहुंचा जिसका जूता लेकर वह भागा था और बोला-‘मैं आपका जूता ले गया पर बाद में पछतावा हुआ। मैंने अपनी पत्नी को बताया कि यह जूता एक बुद्धिजीवी ने मेरी तरफ उछाला तो वह बोली कि इससे तुम खास आदमी तो नहीं हो गये! जाओ उसे वापस कर आओ। कहीं उसकी पत्नी उसे डांटती न हो। बाहर अगर तुम कोए चीज छोड़ आते हो मैं तुम्हें कितना दांती हूँ।।"

बुद्धिजीवियों में से एक ने पूछा-‘तुम्हें यहां आते डर नहीं लगा यह सोचकर कि कोई तुम पर दूसरा जूता न फैंके।’
आम आदमी ने कहा-‘यह सोचा ही नहीं, क्योंकि आप लोग बिना प्रस्ताव पास हुए कुछ नहीं करते और ऐसी कोई खबर मैंने अखबार में भी नहीं पढ़ी कि आप लोगों ने किसी आम आदमी पर जूता फैंकने का प्रस्ताव पास किया है, पर आप लोगों को परेशान देखकर सोचता हूं कि आपके सामने खड़ा हो जाता हूं आम एक एक कर मेरे ऊपर जूता उछालो पर एक बात याद रखना कि वह मुझे लगे नहीं।’
बुद्धिजीवियों को गुस्सा आ गया और वह चिल्लाने लगे कि-‘तू मक्कार है। ठहर अभी तेरे को जूते लगाते हैं।
दूसरे बुद्धिजीवी ने आपति की और कहा-"नहीं! यह ख़ास आदमी थोड़ी ही है कि ख़बर चर्चा लायक बनेगी।

वह आदमी हंसता वहीं खड़ा रहा। सभी बुद्धिजीवी एक दूसरे से कहते रहे कि -‘इस आदमी को जूता मारो कोई चिंता वाली बात नहीं है।’

कुछ लोग कहने लगे कि-‘इससे क्या? कोई इतिहास थोड़े ही बनेगा। यह तो एक आम आदमी है। इसको जूता मारने की कोई खबर नहीं छापेगा। फिर हम में से कौन इसे जूते मार यह तय होना है क्योंकि जिसे इस विषय पर लिखना है वह तो जूता फैंककर उसके समर्थन में तो लिख नहीं सकता। यानि जूता वही फैंके जो इस विषय पर लिखना नहीं चाहता।’
इस सभी बुद्धिजीवी एक दूसरे से कहने लगे-तू फैंक जूता मैं तो उस पर लिखूंगा।’
कुछ कहने लगे कि-‘अभी यह तय नहीं हुआ कि बुद्धिजीवी को जूता उठाना चाहिये कि नहीं।’

आम आदमी वहीं खड़ा सब देखता रहा। वह इंतजार करता रहा कि कब उस पर कौनसा सर्वसम्मत प्रस्ताव पास होता है। वह कई चक्कर लगा चुका है पर अभी भी वह यह जानना चाहता है कि‘बुद्धिजीवी को कलम के साथ जूता भी चलाना चाहिये कि नहीं।’

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19 दिसंबर 2008

सौदागरों से ही खरीदेंगे-हिन्दी शायरी

इतनी सुरक्षा करेंगे
कि खरगोश क्या
शेर भी आ गया तो पकड़ लेंगे
मगर भेड़िया ही किला भेद जाता है
आदमी का शिकार चूहे के तरह कर जाता है
कभी उसके पीछे नहीं जाते शिकारी
दिखाने के लिए अपने किले जरूर घेर लेंगे
इंसानों का क्या
वह तो मनोरंजन के लिए ही देखेंगे और खेलेंगे
खाली मन लिए भटकते लोगों को
असल और नक़ल से वास्ता नहीं
शेर बकरी का हो
या चूहे बिल्ली का
या डंडा गिल्ली का
अपनी आँखें वीडियो गेम में ही पेलेंगे
जूता मारने का हो या गोली चलाने का दृश्य
हादसा हो या कामयाबी
सौदागर हर शय को बाज़ार में बेचेंगे
जज्बातों के मायने अब कोई नहीं है
इंसानों में अब जज्बा कहाँ
इसलिए सौदागरों से ही खरीदेंगे

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15 दिसंबर 2008

जूते को अस्त्र कहा जाये या शस्त्र-व्यंग्य

जूते का उपयोग सभी लोग पैर में पहनने के लिये करते हैं इसलिये उसकी अपनी कोई इज्जत नहीं है। हमारे देश में कोई स्त्री दूसरे स्त्री को अपने से कमतर साबित करने के लिये कहती है कि ‘वह क्या है? मेरी पैर की जूती के बराबर नहीं है।’

वैसे जूते का लिंग कोई तय नहीं किया गया है। अगर वह आदमी के पैर में है तो जूता और नारी के पैर में है तो जुती। यही जूती या जूता जब किसी को मारा जाता है तो उसका सारा सम्मान जमीन पर आ जाता है। अगर न भी मारा जाये तो यह कहने भर से ही कि ‘मैं तुझे जूता मारूंगा’ आदमी की इज्जत के परखच्चे उड़ जाते हैं भले ही पैर से उतारा नहीं जाये। अगर उतार कर दिखाया जाये तो आदमी की इज्जत ही मर जाती है और अगर मारा जाये तो तो आदमी जीते जी मरे समान हो जाता है।

इराक की यात्रा में एक पत्रकार ने अपने पावों में पहनी जूतों की जोड़ी अमेरिका के राष्ट्रपति की तरफ फैंकी। पहले उसने एक पांव का और फिर दूसरे पांव का जूता उनकी तरफ फैंका। यह खबर दोपहर को सभी टीवी चैनल दिखा रहे थे। दुनियां के सर्वशक्तिमान देश के राष्ट्रपति पर यह प्रहार भारत का ही नहीं बल्कि विश्व के हर समाज का ध्यान आकर्षित करता है। यानि कम से कम एक बात तय है कि जूता फैंकना विश्व के हर समाज में बुरा माना जाता है।

पत्रकार ने जिस तरह जूता फैंका उससे लगता था कि वह कोई निशाना नही लगा रहा था और न ही उसका इरादा बुश को घायल करने का था पर वह अपना गुस्सा एक प्रतीक रूप में करना चाहता था। वहां उसे सुरक्षा कर्मियों ने पकड़ लिया और वह भी दूसरा जूता फैंकने के बाद। अभी तक बंदूकों और बमों से हमलों से सुरक्षा को लेकर सारे देश चिंतित थे पर अब उसमें उनको जूते के आक्रमण को लेकर भी सोचना पड़ेगा। आखिर सम्मान भी कोई चीज होती है। हमारा दर्शन कहता है कि ‘बड़े आदमी का छोटे के द्वारा किया गया अपमान भी उसके लिये मौत के समान होता है।

इस आक्रमण के बाद बुश पत्रकारों से कह रहे थे कि ‘यह प्रचार के लिये किया गया है। अब देखिये आप उसके बारे में मुझसे पूछ रहे हैं।’

हमेशा आक्रमक तेवर अपनाने वाले उस राष्ट्रपति का चेहरा एकदम बुझा हंुआ था। उससे यह लग रहा था कि उनको अपने अपमान का बोध हो रहा था। उनका चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे कि गोली से बचे हों।
हमारी फिल्मों में दस नंबर जूते की चर्चा अक्सर आती है पर मारे गये जूते का साइज अगर सात भी तो कोई अपमान का पैमाना कम नहीं हो जाता।

दुनियां में सभी महत्वपूर्ण स्थानों की सुरक्षा वहां मैटल डिटेक्टर से केवल बारूद की जांच की जाती है और अगर इसी तरह जूतों से आक्रमण होते रहे तो आने वाले समय में जूतों से भी सुरक्षा का उपाय होगा।

युद्ध में अस्त्र शस्त्र का प्रयोग होता है। जिनका उपयोग हाथ रखकर किया जाता है उनको अस्त्र और जिनका फैंक कर किया जाता है उनको शस्त्र कहा जाता है। अभी तक जूते को अस्त्र शस्त्र की श्रेणी में नहीं माना जाता अलबत्ता इसके अस्त्र के रूप में ही उपयोग होने की बात कही जाती है। जूतों से मारने की बात अधिक कही जाती है पर यदाकदा ही ऐसा कोई मामला सामने आता है। लोग आपस में लड़ते हैं। एक दूसरे को तलवार से काटन या गोली से उड़ाने की बात कही जाती है पर जूते से मारने की बात केवल कमजोर से कही जाती है वह भी अगर अपना हो तो।

एक सेठ जी के यहां अनेक नौकर थे पर वह अक्सर अपने एक प्यारे नौकर को ही गलती होने पर जूते से मारने की धमकी देते थे। वह नौकर भी चालू था। सुन लेता था क्योंकि वह वेतन के अलावा अन्य तरह की चोरियां और दांव पैंच कर भी अपनी काम चलाता था। उसका वेतन कम था पर आय सबसे अधिक करता था। बाकी नौकर यह सोचकर खुश होतेे थे कि चलो हमें तो कभी जूते से मार खाने की धमकी नहीं मिलती। कम से कम सेठ हमारी इज्जत तो करता है और इसलिये सतर्कता पूर्वक काम करते ताकि कभी उनको उसकी तरह से बेइज्जत न होना पड़े। उनको यह पता ही नहीं था कि सेठ उनको साधने के लिये ही उस नौकर को जूते से मारने की धमकी देता था। इज्जत सभी को प्यारी होती है । कई लोग गोली या तलवार से कम जूते की मार खाने से अधिक डरते हैं। तलवार या गोली खाकर तो आदमी जनता की सहानुभूति का पात्र बन जाता है पर जूते से मार खाने पर ऐसी सहानुभूति मिलने की संभावना नहीं रहती । उल्टे लोगों को लगता है कि चोरी करने या लड़की छेड़ने-यही दोनों आजकल जघन्य अपराध माने जाते हैं जिसमें पब्लिक मारने को तैयार रहती है-के आरोप में पिट रहा है। यानि इससे पिटने वाला आदमी हल्का माना जाता है।

एक बात तय रही कि जूता मारने वाला हाथ में पकड़े ही रहता है फैंकता नहीं है-अगर विरोधी के हाथ लग जाये और वह भी उससे पीट दे तो अपमान करने पर प्रतिअपमान भी झेलना पड़ सकता है। एक बात और है कि गोली या तलवार से लड़ चुके दुश्मन से समझौता हो सकता है पर जूते मारने या खाने वाले से समझौता करने में भी संकोच होता है। एक सज्जन को हमेशा ही गुस्से में आकर जूता उठाने की आदत है-अलबत्ता मारा किसी को नहीं है। अपने जीवन में वह ऐसा चार पाचं बार कर चुके हैं। वही बतातेे हैं कि जिन पर जूता उठाया है अब वह कहीं मिल जाने पर देखकर ऐसे मूंह फेर लेते हैं जैस कि कभी मिले ही न होंं न ही मेरा साहस उनको देखने का होता है।

जूता मारना या मारने के लिये कहना ही अपने आप में एक अपराध है। ऐसे में अगर कहीं जूता उठाकर मारा जाये तो वह भी किसी महान हस्ती पर तो उसकी चर्चा तो होनी है। वह भी सर्वशक्तिमान देश के राष्ट्रपति पर एक पत्रकार जूता फैंके। पत्रकार तो बुद्धिजीवी होते हैं। यह अलग बात है कि सबसे अधिक जूता मारने की बात भी वही कहते हैं कि उनकी बंदूक या तलवार चलाने की बात पर यकीन कौन करेगा? यह कृत्य इतना बुरा है कि जूता फैंकने वाले पत्रकार के साथियों तक ने कह डाला कि वह पूरे इराक का प्रतिनिधि नहीं है। कुछ लोगों ने घर आये मेहमान के साथ इस अपमानजनक व्यवहार की कड़ी निंदा तक की है

यह लगभग उस देश पर हमले जैसा है पर कोई देश उसका जवाब देने का सोच भी नहीं सकता। कोई वह जूते उठाकर उस पत्रकार की तरफ फैंकने वाला नहीं था। उसे सुरक्षा कर्मी पकड़ कर ले गये और यकीनन वह बिना जूतों के ही गया होगा। उसकी हालत भी ऐसे ही हुई होगी जैसी कि आतंकवादियों की बंदूक के बिना हो जाती है।

इतिहास में यह शायद पहली मिसाल होगी जब जूते का शस्त्र के रूप में उपयोग किया गया होगा। अब आखिर उन जूतों का क्या होगा? वह पत्रकार को वापस तो नहीं दिये जायेंगे। अगर दे दिये तो वह उन जूतों को नीलाम कर भारी रकम वसूल कर लेगा। पश्चिम में ऐसी ही चीजों की मांग है। उन जूतों को उठाकर ले जाने की समस्या वहां के प्रशासन के सामने आयेगी। अगर वह कहीं असुरक्षित जगह पर रखे गये तो तस्करों की नजर उस पड़ सकती है। अब वह जूते एतिहासिक हो गये हैं कई लोग उन जूतों पर नजर गड़ाये बैठेंगे। भारत की अनेक एतिहासिक धरोहरों पश्चिम में पहुंच गयीं हैं और यह तो उनकी खुद की धरोहर होगी। भारत की धरोहर का प्रदर्शन तो वह कर लेते हैं पर इस धरोहर का प्रदर्शन करना संभव नहीं है।

वैसे अपने देश में जूता मारने के लिये कहने की कई लोगों में आदत है पर इसका अस्त्र शस्त्र की तरह उपयोग करने की चर्चा कभी नहीं हुई। अब लगता है कि आने वाले इस सभ्य युग में यह भी एक तरीका हो सकता है पर यह पश्चिम के लिये ही है। अपने देश में तो हर आदमी क्रोध में आने पर जूता मारने की बात करता है पर हर कोई जानता है कि उसके बाद क्या होगा? वैसे यहां कोई नई बात नहीं है। किसी ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि तीसरा युद्ध पत्थरों से लड़ा जायेगा। लगता है नहीं! शायद वह जूतों से लड़ा जायेगा। अमेरिका ने परमाणु बम का ईजाद कर जापान पर उसका उपयोग किया पर जूता परमाणु बम से अधिक खतरनाक है। परमाणु बम की मार से तो आदमी मर खप जाता है या कराह कराह कर जीता है पर जूते की मार तो ऐसी होती है कि अगर एक बार फैंका भी जाये तो कोई भी जूता देखकर वह मंजर नजर आता है। या मरने या कराहने से भी बुरी स्थिति है। अब सवाल यह है कि जूते को अस्त्र कहा जाये कि शस्त्र? दोनों की श्रेणी में तो उसे रखा नहीं जाता। या यह कहा जाये कि जूते को जूता ही रहने तो क्योंकि उसकी मार अस्त्रों शस्त्रों से भी गहरी होती है।

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8 दिसंबर 2008

प्रचार का चक्रव्यूह-व्यंग्य कविता

जीतता है कोई और है
जश्न मनाता कोई और है
हारता कोई और है
उससे अधिक मातम मनाता कोई और है
सपनों के सौदागरों ने
बुन लिया है जाल
लोगों को फंसाने के लिए
एसएम्एस एक चक्रव्यूह की तरह रचा है
जिस पर किसी ने नहीं किया गौर है

सपने दिखाकर लोगों के हमदर्दी
पर अपने जजबातों के सौदागरों में
बहस इस पर नहीं होती कि
क्या सच क्या झूठ है
बल्कि किसने कितना कमाया
इसकी खोज पर होता जोर है
कहै दीपकबापू
कभी-कभी मन बहलाने के
साधन काम पड़ जाएं
तो इन सौदागरों खरीदे हुए
खुशी का जश्न मनाते देख लो
या मातम से जूझता देख लो
जीनते वाला क्या जीता नहीं बताता
हारने वाला भी कहीं छिप जाता
किराए पर खुशी और गम
मनाने वालों का ही सब जगह जोर है

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1 दिसंबर 2008

जंग तो कर देती है जिंदगी बदरंग-हिंदी शायरी

अच्छा लगता है दूसरों की
जंग की बात सुनकर
पर आसान नहीं है खुद लड़ना
दूसरों के घाव देखकर
भले ही दर्द उभरता है दिल में
पर बहता हो जब अपना खून
तब इंसान को दवा की तलाश में भटकना

अपने हथियार से दूसरों का
खूना बहाना आसान लगता है
पर जब निशाने पर खुद हों तो
मन में खौफ घर करने लगता है
दूसरों के उजड़े घर पर
कुछ पल आंसू बहाने के बाद
सब भूल जाते हैं
पर अपना उजड़ा हो खुद का चमन
तो फिर जिंदगी भर
उसके अहसास तड़पाते हैं
बंद मुट्ठी कुछ पल तो रखी जा सकती है
पर जिंदगी तो खुले हाथ ही जाती जाती है
क्यों घूंसा ताने रहने की सोचना
जब उंगलियों को फिर है खोलना
जंग की उमर अधिक नहीं होती
अमन के बिना जिदंगी साथ नहीं सोती
ओ! जंग के पैगाम बांटने वालों
तुम भी कहां अमन से रह पाओगे
जब दूसरों का खून जमीन पर गिराओगे
क्रिया की प्रतिक्रिया हमेशा होती है
आज न हो तो कल हो
पर सामने कभी न कभी अपनी करनी होती है
मौत का दिन एक है
पर जिंदगी के रंग तो अनेक हैं
जंग में अपने लिये चैन ढूंढने की
ख्वाहिश बेकार है
अमन को ही कुदरत का तोहफा समझना
जंग तो बदरंग कर देती है जिंदगी
कर सको भला काम तो
हमेशा दूसरे के घाव पर मल्हम मलना

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25 नवंबर 2008

इस जहां में बिकता है ख्वाब-हिंदी शायरी

आकाश में चांद को देखकर
उसे पाने की चाह भला किसमें नहीं होती
पर कभी पूरी भी नहीं होती

शायरों ने लिखे उस पर ढेर सारे शेर
हर भाषा में उस पर लिखे गये शब्द ढेर
हसीनों की शक्ल को उससे तोला गया
उसकी तारीफ में एक से बढ़कर एक शब्द बोला गया
सच यह है चांद में
अपनी रोशनी नहीं होती
सूरज से उधार पर आयी चांदनी
रोशनी का कतरा कतरा उस पर बोती
मगर इस जहां में बिकता है ख्वाब
जो कभी पूरे न हों सपने
उनकी कीमत सबसे अधिक होती
सब भागते हैं हकीकत से
क्योंकि वह कभी कड़वी तो
कभी बहुत डरावनी होती
सूरज से आंख मिला सके
भला इतनी ताकत किस इंसान में होती

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3 नवंबर 2008

शराब खुद ही बीमारी है-व्यंग्य कविता

मयखानों में भीड़ यूं बढ़ती जा रही हैं
जैसे बह्ती हो नदिया जहां दो घूँट पीने पर
हलक से उतारते ही शराब दर्द बन जायेगी दवा
या खुशी को बढा देगी बनकर हवा
रात को हसीन बनाने का प्रयास
हर घूँट पर दूसरा पीने की आस
अपने को धोखा देकर ढूंढ रहे विश्वास
पीते पीते जब थक जाता आदमी
उतर जाता है नशा
तब फिर लौटते हैं गम वापस
खुशी भी हो जाती है हवा
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शराब का नशा चढ़ता नहीं तो पीता कौन
उतरता नहीं तो खामोश होता कौन
गम और दर्द का इलाज करने वाली दवा होती या
खुशी को बढाने वाली हवा होती तो
इंसान शराब पर बना लेता जगह जगह
बना लेता दरिया
मगर सच से कुछ देर दूर भगा सकती हैं
बदलना उसके लिए संभव नहीं
इसलिए नशे में कहीं झूमते हैं लोग
कहीं हो जाते मौन
शराब खुद ही बीमारी हैं
यह नहीं जानता कौन

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8 अक्टूबर 2008

ख्याली पुलाव किसके लिए पकाना-हिन्दी शायरी


अब दिल नहीं भरता किसी की तस्वीर से
लड़ते लड़ते हार गये अब अपने तकदीर से
अपने दिल में मोहब्बत सजा कर रखी थी कई बरस
पर कभी उनको नहीं आया हमारी बक्रारे पर तरस
हर बार उनके इन्तजार के सन्देश लगे तीर से
लगता है अब तस्वीरों से क्या दिल लगाना
ख्याली पुलाव भला किसके लिए पकाना
इसलिए अपने लिए खुद ही बन जाते हैं पीर से

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4 अक्टूबर 2008

अपने अह्सास अकेले में ही सजाना अच्छा लग्ता है-हिंदी शायरी

अपने अह्सासों की धारा में
बह्ते जाना ही अच्छा लगता है
लोगों की मह्फ़िल में
अपने दर्द का हाल सुनाकर
उनका दिल बहलाने से
अपने दिलदिमाग में
उठती गिरती ख्यालों की लह्रों में
डूबना उतरना अच्छा लगता है
बयां करो जो अपने दिल का दर्द
बनता है हमदर्द सामने दिखाने के लिये
पूरा ज़माना
पर नज़रों से हटते ही
हंसता है हमारे हाल पर
इसलिये अकेले में ही
अपनी सोच और ख्याल में
अपने अह्सास सजाना
कही ज्यादा अच्छा लगता है

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28 सितंबर 2008

महफिलों में नहीं असली शायर का काम-हिंदी शायरी

लोगों को आपस में
मिलाने के लिये किया हुआ है
उन्होंने शामियानों का इंतजाम
बताते हैं जमाने के लिये उसे
भलाई का काम
खुद सज जाते हैं हमेशा दूल्हों की तरह
अपना नाम लेकर
पढ़वाते हैं कसीदे
उनके मातहत बन जाते सिपहसालार
वह बन जाते बादशाह
बाहर से आया हर इंसान हो जाता आम

जिनको प्यारी है अपनी इज्जत
करते नहीं वहा हुज्जत
जो करते वहां विरोध, हो जाते बदनाम
मजलिसों के शिरकत का ख्याल
उनको इसलिये नहीं भाता
जिनको भरोसा है अपनी शख्यिसत पर
शायद इसलिये ही बदलाव का बीज
पनपता है कहीं एक जगह दुबक कर
मजलिसों में तो बस शोर ही नजर आता
ओ! अपने ख्याल और शायरी पर
भरोसा करने वालोंे
मजलिसों और महफिलों में नहीं तुम्हारा काम
बेतुके और बेहूदों क्यों न हो
इंतजाम करने वाले ही मालिक
सजते हैं वहां शायरों की तरह
बाहर निकल कर फीकी पड़ जायेगी चमक
इसलिये दुबके अपने शामियानों के पीछे
कायरों की तरह
वहां नहीं असली शायर का काम

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