25 जनवरी 2012

गणतंत्र एक भ्रम-हिन्दी लेख (gantantra or republic or democracy a confusion-hindi article on republic day or 26 janwary or 26 january)

         गणतंत्र एक शब्द है जिसका आशय लिया जाये तो मनुष्यों के एक ऐसे समूह का दृश्य सामने आता है जो उनको नियमबद्ध होकर चलने के लिये प्रेरित करता है। न चलने पर वह उनको दंड देने का अधिकार भी वही रखता है। इसी गणतंत्र को लोकतंत्र भी कहा जाता है। आधुनिक लोकतंत्र में लोगों पर शासन उनके चुने हुए प्रतिनिधि ही करते हैं। पहले राजशाही प्रचलन में थी। उस समय राजा के व्यक्तिगत रूप से बेहतर होने या न होने का परिणाम और दुष्परिणाम जनता को भोगना पड़ता था। विश्व इतिहास में ऐसे अनेक राजा महाराज हुए जिन्होंने बेहतर होने की वजह से देवत्व का दर्जा पाया तो अनेक ऐसे भी हुए जिनकी तुलना राक्षसों से की जाती है। कुछ सामान्य राजा भी हुए। आधुनिक लेाकतंत्र का जनक ब्रिटेन माना जाता है यह अलग बात है कि वहां प्रतीक रूप से राजशाही आज भी बरकरार है।
          मूल बात यह है कि हम गणतंत्र में मनुष्य समुदाय पर एक नियमबद्ध संस्था शासन के रूप में रखते हैं। विश्व के जीवों में एक मनुष्य ही ऐसा है जिसे राज्य व्यवस्था की आवश्यकता है। इसकी वजह साफ है कि सबसे अधिक बुद्धिमान होने के कारण उसके ही अनियंत्रित होने की संभावना भी अधिक रहती है। माना जाता है कि राज्य ही मनुष्य का नियंता है जिसके बिना वह पशु की तरह व्यवहार कर सकता है। राज्य करना मनुष्य की प्रवृत्ति भी है। उसमें अहंकार का भाव विद्यमान रहता है। सभी मनुष्य एक दूसरे से श्रेष्ठ दिखना चाहते हैं और राज्य व्यवस्था के प्रमुख होने पर उनको यह सुखद अनुभूति स्वतः प्राप्त होती है। जिन लोगों को प्रमुख पद नहीं मिलता वह छोटे पद पर बैठकर बाकी छोटे लोगों को अपने दंड से शासित करते है। इस तरह यह क्रम नीचे तक चला आता है। वहां तक जहां से आम इंसान की पंक्ति प्रारंभ होती है। इस पंक्ति के ऊपर बैठा हर शख्स अपने श्रेष्ठ होने की अनुभूति से प्रसन्न है पर साथ ही अपने से ऊपर बैठे आदमी की श्रेष्ठता पाने का सपना भी उसमें रहता है। इस तरह यह चक्र चलता है। जो राज्य व्यवस्था से नहीं जुड़े वह भी कहीं न कहीं अपनी श्रेष्ठता दिखाने के व्यसन में लिप्त हैं।
          राज्य कर्म अंततः राजस भाव की उपज है। उसमें सात्विकता बस इतनी ही हो सकती है जितना आटे में नमक! इससे अधिक की अपेक्षा अज्ञान का प्रमाण है। राज्य कर्म में ईमानदारी एक शर्त है पर उसे न मानना भी एक कूटनीति है। प्रजा हित आवश्यक है पर अपनी सत्ता बने रहने की शर्त उसमें जोड़ना आवश्यक है। अकुशल राज्य प्रबंधकों के के लिये ईमानदारी और प्रजा हित अंततः गौण हो जाते हैं। राज्य कर्म में एक सीमा तक ही सत्य भाषण, धर्म के प्रति निष्ठा और दयाभाव दिखाया जा सकता है। छल, कपट, प्रपंच तथा क्रूर प्रदर्शन राज्य कर्म करने वालों की शक्ति का प्रमाण बनता है। वह ऐसा न करें तो उनको सम्मान नहीं मिल सकता। न्याय के सिद्धांत सुविधानुसार चाहे जब बदले जा सकते हैं।
         सभी राजस कर्म करने वाले असात्विक हैं यह मानना ठीक नहीं है पर इतना तय है कि उनमें एक बहुत वर्ग ऐसे लोगों का रहता है जो अपने लाभ के लिये इसमें लिप्त होते हैं जिसे राजस भाव माना जाता है। आज के समय में तो राजनीति एक व्यवसाय बन गया है। यह अलग बात है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से परे बुद्धिमान लोग उसमें सत्य, अहिंसा तथा दया के भाव ढूंढना चाहते है।
           विश्व में अधिकतर लोग चाहते हैं कि उन्हें राजसुख न मिल पाये तो उनकी संतान को प्राप्त हो। राजसुख क्या है? यह सभी जानते हैं। दूसरे पर हमारा नियम चले पर हम पर कोई नियम बंधन न हो! लोग हमारी माने पर हम किसी की न सुने। किसी में हमारी आलोचना की हिम्मत न हो। बस हमारी पूजा भगवान की तरह हो। इसी भाव ने राज्य व्यवस्था को महत्वपूर्ण बना दिया है।
           राज्य संकट पड़ने पर प्रजा की मदद करता है। गणतंत्र का मूल सिद्धांत है पर यह एक तरह का भ्रम भी है। प्रजा कोई इकाई नहीं बल्कि कई मनुष्य इकाईयेां का समूह है। मनुष्य अपने कर्म के अनुसार फल भोगता है। वह इंद्रियों से जैसे दृश्य चक्षुओं से, सुर कर्णों से, भोजन मुख से तथा सुगंध नासिका से ग्रहण करने के साथ ही अपने हाथ से जिन वस्तुओं का स्पर्श करता है वैसी ही अभिव्यक्ति उसकी इन्हीं इद्रियों से प्रकट होती है। विषैले विषयों से संपर्क करने वालों से अमृतमय व्यवहार की अपेक्षा केवल अपने दिल को दिलासा देने के लिये ही है। मनुष्य को अपना जीवन संघर्ष अकेले ही करना है। ऐसे में वह अपने साथ गणसमूह और उसके तंत्र के साथ होने का भ्रम पाल सकता है पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है।
       उससे बड़ा भ्रम तो यह है कि गणतंत्र हम चला रहे हैं। धन, पद और अर्थ के शिखर पुरुषों का समूह गणतंत्र को अपने अनुसार प्रभावितकरते हैं जबकि आम इंसान केवल शासित है। वह इस गणतंत्र का प्रयोक्ता है न कि स्वामी। स्वामित्व का भ्रम है जिसमें जिंदा रहना भी आवश्यक है। अगर आदमी को अकेले होने के सत्य का अहसास हो तो वह कभी इस भ्रामक गणतंत्र की संगत न करे। जिनको पता है वह सात्विक भाव से रहते हैं क्योंकि जानते हैं कि सहनशीलता, सरलता और कर्तव्यनिष्ठ से ही वह अपना जीवन संवार सकते हैं। जिनको नहीं है वह आक्रामक ढंग से अभिव्यक्त होते है। वह अनावश्यक रूप से बहसें करते है। वाद विवाद करते हैं। निरर्थक संवादों से गणतंत्र को स्वयं से संचालित होने का यह भ्रम हम अनेक लोगों में देख सकते है।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

12 जनवरी 2012

मौसम में परिवर्तन और मनुष्य का मन-हिन्दी लेख (mausam mein parivartan-hindi lekh or article)

              अगर मौसम का बदलना न हो तो शायद जीवन इस धरती पर विचरने वाले सभी जीवों का बदरंग हो जाये। मनुष्य का मन तो वैसे भी बहुत शीघ्र एकरसता से ऊब जाता है और मौसम का बदलाव ही उसे वह लाभ देता है जिससे वह एक समय के बाद स्वतः तरोताजा हो जाता है। हमारे देश को समशीतोष्ण जलवायु वाला भूभाग माना जाता है। जब तक विश्व में मौसम की विविधता रही तब तक यहां तेज गर्मी और सर्दी का अहसास किया हमेशा जाता रहा है। उत्तर भारत में पहाड़ों की वजह से गर्मी में धूप की तेजी और सर्दी में ठंडी हवाओं का प्रकोप इस कदर रहता है कि सामान्य आदमी कांपने लगता है। इसलिये यहां सावन तथा बसंत मौसम सबसे अधिक लोकप्रिय रहा है जिसमें लोगों को रहता वाली वायु मिलती है। यह अलग बात है कि श्रमजीवी समाज के लिये ऐसे अवसर पर भी दर्दनाक स्थितियों का सामना करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता।
          मध्यम वर्गीय कार्यशील समाज गर्मी में सुबह शाम और सर्दी की दोपहर में गतिशील होकर अपने को बचाता है। उच्च वर्ग के लिये तो अब वातानुकूलित भवनों तथा वाहनों का जमावड़ा हो गया है इसलिये वह मौसम की मार से दूर है यह अलग बात है कि इसी वर्ग के कई लोग हमारे समाज के भाग्यनियंता हैं और उन्हें देश की समस्याओं पर विदेशी ढंग से सोचने की आदत हो गयी है।
       अब पूरी दुनियां में मौसम बदला है। रहन सहन और खान पान के साथ मनोरंजन के साधन भी बदले हैं। हालांकि इस बदलाव को कुछ लोग देखते है उनमें से बहुत उसे शब्दों में व्यक्त भी करते हैं। जो देखकर कुछ नहीं बोलते या निजी बातचीत में कहीं व्यक्त करते हैं तो वह निजता के दायरे में रहता है पर कोई लेखक या वाचक व्यक्त करता हैं तो वह सार्वजनिक विचार बन जाता है। ऐसे में अभिव्यक्त होने वालों की सोच पर भी विचार होता है। संसार के बदलाव को व्यक्त करने वालों की सोच का दायरा भी अब सिकुड़ गया है। विश्व में फैले प्रदूषण ने बुद्धिजीवियों की सोच को कलुषित या संकुचित नहीं किया हो यह संभव कैसे हो सकता है? वह केवल अपनी सीमा में ही सोचते हैं। संसार में आये बदलाव ने मनुष्य को दैहिक रूप से गतिशील बनाया है पर मानसिक रूप से जड़ की तरह खड़ा भी कर दिया है। जिनमें चेतना है उनकी सोच का दायरा भी इतना ंसकीर्ण हैं कि वह ‘मैं और मेरे’ की नीति से आगे नहीं जा पाते।
      हम मौसम के बदलाव को देखने के साथ उसे परिभाषित होते भी देख रहे हैं मगर लगता है जैसे कि वह अपूर्ण है। उसमें अभी अधिक जानने की आवश्यकता है। सवाल यह है कि उसे व्यक्त कौन करे? बुद्धिजीवी मौसम के बदलाव को मनुष्य तथा अन्य जीवों पर पड़ने वाले दैहिक प्रभावों का अध्ययन कर सकते हैं पर मानसिक प्रभावों का अध्ययन नहीं कर पाते। पश्चिम में ऐसी कोई विद्या नहीं है जिसमें दैहिक तथा मानसिक प्रभावों का एक साथ अध्ययन किया जा सके। वहां शारीरिक विज्ञान और मनोविज्ञान को अलग अलग विषय माना जाता है। यही कारण है कि मौसम के बदलाव को मनुष्य की दैहिक स्थिति पर ही दृष्टिपात किया जाता है।
हमारे यहां श्रीमद्भागवत गीता के साधक दोनों ही प्रभावों का अध्ययन करते हैं पर उनकी अभिव्यक्ति को वैज्ञानिक नहीं माना जाता है। श्रीमद्भागवत गीता को एक धार्मिक ग्रंथ माना जाता है। गीता साधक जानते हैं कि यह ज्ञान और विज्ञान से सुजज्जित ऐसी पुस्तक है जिसकी मिसाल अन्यत्र नहीं मिलती। इंद्रिया ही इंद्रियों में बरत रही है और गुण ही गुणों में बरत रहे हैं यह ऐसे वैज्ञानिक सूत्र हैं जिनका आधुनिक चिकित्सा शास्त्री विश्लेषण नहीं कर सकते और जो ज्ञानी करते हैं उनके पास आधुनिक चिकित्सा शास्त्र की कोई उपाधि नहीं है। श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित विज्ञान तत्व पर  गेरुए या धवल वस्त्रधारी धार्मिक प्रवचनकर्ता अपनी अभिव्यक्ति  उस ढंग से नहीं करते जिससे उसकी आधुनिक समय में नई सोच पैदा हो। 
          जब मौसम का प्रभाव देह पर पड़ता है तो मन कैसे बच सकता है। अगर कोई व्यक्ति गर्मी में तप रहा है तो आप उसे यह आशा कैसे कर सकते हैं कि वह आपको शीतलता प्रदान करे। जिसका कंठ सूखा है वह कैसे दूसरे की प्यास बुझा सकता है। उसी तरह जिसका निवास दलदल में है या नाले आदि के पास वह रहता है तो वहां आ रही दुर्गंध उसके देह में प्रवेश करती है। मच्छर या मक्खियों के काटने से वह बीमार पड़ता है। इससे उसकी देह हमेशा कष्ट में रहती है पर दुर्गंध से जो उसका मन विषाक्त होता है उसे कौन समझ सकता है। यह तो रहन सहन का नकारात्मक पक्ष पर इससे मन में जो ग्लानि आती है उसे कोई देखना नहीं चाहता। ऐसे में मौसम के बदलाव ने मनुष्य की मनस्थिति बदली है इस पर कोई विचार नहंीे रक सकता। देखा जाये तो प्राकृतिक रूप से सारे मौसम मौलिक है पर उनके प्रभाव परिवर्तित हुए हैं। उसी तरह मनुष्य की प्रकृति में भी बदलाव नहीं हो सकता पर भले वह मौसम में बदलाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती। 
      आखिर यह हमने सब किसलिये लिखा? दरअसल श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों की आज भी प्रासांगिकता है यह बताने के लिये हम यह लिख रहे है कि उसके संदेश इस संसार की मूल प्रकृतियों का विज्ञान बताते हैं जिनमें बदलाव संभव नहीं है। एक समय हमारे देश में सात्विक प्रवृत्ति के लोगों का प्रभाव था पर आज हम देख रहे हैं कि तामसिक लोग प्रभावी होकर समाज के शीर्ष पर बैठे हैं। लोग भले ही कहे कि हम इसके लिये जिम्मेदार नहीं है पर यह अपने आपको धोखा देना है। हम अपने योग और गीता के विज्ञान को भूल गये है इसलिये हमारी सभी इंद्रियों की सक्रियता सीमित हो गयी है। वातावरण में प्रदूषण ने हमें इतना विषाक्त बना दिया है कि हमारी बुद्धि, मुख, तथा आंखें जहर को अमृत समझने लगी हैं। उसका अध्ययन श्रद्धा के साथ ही ज्ञान प्राप्त करने के लिये करें तो उसके संदेश आज भी हमें ज्ञान के साथ संतोष प्रदान कर सकते हैं है। मूल बात यह है कि हमें इसके लये अपना दृष्टिकोण बदलना होगा अपने अध्यात्म ग्रंथों को आधुनिक संदर्भों में देखना होगा।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

8 जनवरी 2012

रस्में निभाना महंगा हो गया-हिन्दी शायरी (rasmen nibhana mahanga ho gaya-hindi shayri, kavita or poem)

तंग रास्तों से निकलते हुए
ख्यालों के दायरे भी सिमट जाते हैं,
कहें दीपक बापू
अपनी तरक्की चाहने वालों
पहले खुली हवा में
सांस लेना सीख लो
बंद कमरे हों या सोच
उनमें जो रहते हैं
उनकी किस्मत के दाव
सस्ते में निपट जाते हैं।
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रस्में निभाना
महंगा हो गया
फिर भी लोग निभा रहे हैं,
देखते कोई नहीं
एक दूसरे की तरफ
फिर भी दिखा रहे है।
कहें दीपक बापू
बुद्धिमान लोग भी बहुत हैं
मगर मौके पर लाचार होकर
अंधों में अपना नाम लिखा रहे हैं।
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

1 जनवरी 2012

सन् 2011 में छाये रहे अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार, नववर्ष में क्या होगा-हिन्दी लेख (varsh 2011 mein anna aur bhrashtacha chhaya raha, naye varsh mein kya hoga-hindi lekh or article)

             इस वर्ष अगर राजनीतिक और खबरों का आंकलन किया जाये तो यकीनन अन्ना हजारे और उनका भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन टीवी चैनलों, समाचार पत्रों तथा इंटरनेट पर छाया रहा। चूंकि प्रचार माध्यमों के प्रकाशनों और प्रसारणों में सब तरह का मसाला बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। इसलिये कभी गंभीर चिंत्तन तो कभी तनाव पूर्ण विवाद तो कभी हास्य व्यंग्य का मिश्रण भी शामिल रहा। हालांकि ऐसे में हम लोगों के लिये केवल देश में व्याप्त भ्रष्टाचार ही चिंत्तन का विषय रहा। यह अलग बात है कि जो बहसें देखी उनमें केवल सतही सोच दिखाई दी। आक्षेपों और हास्य टिप्पणियों ने एक तरह से हमारा मन ही खट्टा किया। हम चाहते थे कि देश में व्याप्त भ्रष्टाचार पर गंभीर मंथन हो न कि व्यक्तिगत आक्षेपों या मजाक में समय बरबाद हो। मगर यह हम जैसे फोकटिया लेखकों के सोचने से क्या होता है? व्यवसायिक लोग जहां चाहे सार्वजनिक बहसों को ले जा सकते हैं।
                    वर्ष के आखिर में हमने इस पर दो लेख लिखे पर लगता नहीं है कि हम अपनी बात पूरी कह पाये। लोकपाल और जनलोकपाल के मध्य द्वंद्व भले ही चलता रहा हो पर हमारी नज़र इस बात पर अधिक रही है कि क्या वाकई समाज इस बात के लिये तैयार है कि वह भ्रष्टाचार व्यवस्था चाहता है। हमें लगता नहीं है कि समाज में कोई गंभीर हलचल है। राज्य व्यवस्था का हर कोई उपयोग अपने हित में करना चाहता है और यही भ्रष्टाचार की जड़ है और इससे आम जनमानस अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। जिस तरह पर बहस चल रही है उसमें हम जैसे चिंत्तक फिट भी नहीं बैठ सकते क्योंकि व्यवसायिक बुद्धिजीवियों का वर्ग केवल अपने तयशुदा विचार पर ही निर्णय करना चाहता है। नयी बात उसे मूर्खतापूर्ण या अप्रासंगिक लगती है। बहरहाल हमारे दोनों लेख यहां प्रस्तुत हैं।

                ईसवी संवत 2011 समाप्त  होकर  ही 2012 प्रारंभ हो गया  है। आमतौर से आधुनिक शिक्षा पद्धति से परे रहने वाले आम भारतीय जनमानस के लिये 31 दिसम्बर तथा 1 जनवरी यह पुराना साल समाप्त तथा नया साल प्रारंभ होने का समय नहीं होता। भारतीय संवत अप्रैल या मार्च में प्रारंभ होता है। इतना ही नही भारत के बजट का वर्ष भी 1 अप्रैल से 31 मार्च को होता है। अलबत्ता बाज़ार तथा प्रचार समूहो  ने अपनी कमाई के लिये 1 जनवरी से नववर्ष प्रारंभ होने के तिथि को इस तरह समाज में स्थापित कर लिया है कि पुरानी, मध्यम तथा नयी पीढ़ी की शहरी पीढ़ी इसके जाल में फंसी हुई है। पहले होता था ‘नववर्ष की बधाई’ और अब हो गया ‘हैप्पी न्यू ईयर’।
       बहरहाल पिछले साल की खबरें, फिल्में, गीत, और समाचारों का पुलिंदा लेकर प्रचार माध्यम हाजिर हैं। हमें यह सब नहीं दिखाई देता। हमें दिखाई देता है भ्रष्टाचार का भूत! इस भूत ने हमारे समाज का वर्ष में से नौ महीने तक पीछा किया है। लग रहा है कि अगले वर्ष का प्रारंभ भी नायक अन्ना हजारे और खलनायक भ्रष्टाचार ही करेगा। आखिर हमने यह दावा किस आधार पर किया। दरअसल हमारे बीस ब्लॉग पिछले छह वर्ष से चल रहे हैं पर भ्रष्टाचार शब्द से इस बार सर्च इंजिनों में जितने ढूंढे गये उतना पिछले सालों में नहीं दिखाई दिया। इतना ही नहीं अन्ना हजारे के नाम से लिखे गये शीर्षक वाले पाठों के ब्लॉगों ने भी अधिक से अधिक पाठक जुटाये। अप्रैल 2011 से पहले भ्रष्टाचार पर लिखी गयी कविताओं तथा लेखों ने इसयिल लोकप्रियता पायी। हम अगर अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को एक वाक्य में सफल बताना चाहें तो वह यह कि उन्होंने भारत में फैले भ्रष्टाचार का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने में योगदान दिया।
           अन्ना हजारे 74 वर्ष के हैं। आयु की दृष्टि से उनका सम्मान होना चाहिए पर अपने आंदोलन की वजह से उनको अपमान भी झेलना पड़ा। इसके लिये उनके विरोधियों को नहीं बल्कि उनके समर्थकों को भी कम दोषी नहीं माना जा सकता जिन्होंने उनकी आयु की आड़ में अपने स्वार्थों के तीर चलाने के प्रयास किये।
वर्ष के पूरे नौ महीने तक जो आदमी भारतीय जनमानस पर छाया रहा वह वास्तव में नायक कहने योग्य है। यह अलग बात है कि कह कोई नहीं रहा। वर्ष के सबसे बुरी तरह से फ्लाप फिल्म रावन का नायक रहा। यह बात भी कोई नहीं कह नहीं रहा।
           उस दिन हमारे हम अपने एक मित्र से पहुंचने उसके घर पहुंचे। हमारे मित्र का लड़का रावन पिक्चर देखने मॉल में जा रहा था। हमारे मित्र ने उससे कहा ‘‘तुम्हारे यह अंकल कह रहे हैं कि रावन फिल्म फ्लॉप हो गयी है। हमने भी अपनी जवानी में फिल्में देखी हैं पर वही जो हिट होती थीं। तुम क्यो फ्लॉप रावन फिल्म देखने जाकर अपने घर की परंपरा और इज्जत का फालूदा बना रहे हो?
         पुत्र ने पूछा-‘‘अभी फिल्म आये तीन दिन हुए है तो उसे फ्लाप कैसे कह सकते है?’’
हमारे मित्र ने कहा-’’अंकल इंटरनेट पर सक्रिय रहते हैं और वहां ऐसा ही आंकलन प्रस्तुत किया गया होगा। तभी तो कह रहे हैं!’’
        पुत्र ने उनकी बात नहीं सुनी। तीन दिन बार हमारे मित्र बता रहा था कि उसके पुत्र को हमारी बात न मानने का मलाल था।
        देश की आज़ादी से पहले से यहां ऐसा तंत्र विकसित हो गया था जो यहां के जनमानस को बहलाफुसला कर बाज़ार के अनुकूल चलाने का अभ्यस्त था और उसने प्रचारतंत्र को भी वैसा ही बनाया। इस तरह भारतीय जनमानस भले ही अंग्रेजों के राजतंत्र से मुक्त हो गया पर उनके स्थापित व्यवस्था तंत्र के पंजों में अभी तक है। इतना ही नहीं आधुनिक शिक्षा से प्रशिक्षित अनेक लोग संस्कार और ंसस्कृति के नाम पर समाज को बचाने की बात तो करते हैं पर व्यवस्था की कार्यशैली बदलने की बात वह भी नहीं सोच पाते।         
            देश में भ्रष्टाचार आजादी के बाद से तेजी से पनपा है। अनेक लोग इससे जूड़ते हुए तो अनेक शिकार होते हुए अपना जीवन गंवा चुके हैं। जिनके पास राज्य की हल्दी सी गांठ है वह चूहा भी अपने आपको राजा से कम नहीं समझता। जहां जनता को सुविधा देने की बात आती है वहां राज्य के अधिकारों की बात चली आती है। प्रजा के लिये सुविधा पाना अधिकार नहीं बल्कि वह दे या न दे राज्य के अधिकार की बात हो गयी है। आम आदमी की भ्रष्टाचार से जो पीड़ा है उसका बयान सभी करते हैं पर हल कोई नहीं जानता। भ्रष्टाचार की पीड़ा को अन्ना साहेब के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पूरे विश्व के सामने जाहिर किया पर इससे वह कम नहीं हो गयी। यही कारण है कि इस वर्ष भ्रष्टाचार और अन्ना साहेब ने इंटरनेट पर ढेर सारी खोज पायी। रावन फिल्म फ्लाप हो गयी इसलिये उसे खोज में जगह अधिक नहीं मिली पर दीवाली पर रावन शब्द भी खूब खोजा जाता है। पुराने ईसवी संवत् की विदाई पर बस इतना ही।
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अन्ना हजारे (अण्णा हज़ारे) के लिये आत्ममंथन का समय-हिन्दी लेख (anna hazare ke liye atmamanthan sa samay-hindi lekh or article)

           अन्ना हज़ारे ने अपना अनशन तथा जेलभरो आंदोलन फिलहाल स्थगित कर अच्छा ही किया है। जब हम अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की बात करते हैं तो उसके राजनीतिक पक्ष की चर्चा अधिक होती है और सामाजिक पक्ष पीछे रह जाता है। हमने जब भी इस पर लिखा है सामाजिक पक्ष को अधिक छूने का प्रयास किया है। एक बात के लिये यह आंदोलन हमेशा याद रखा जायेगा कि इसने संपूर्ण देश के समस्त समाजों के सभी लोगों को चिंत्तन और मनन के विवश किया। मूल प्रश्न भ्रष्टाचार से जुड़ा होने के बावजूद ऐसे अनेक विषय हैं-जिनका संबंध कहीं न कहीं उससे है-जिन पर चर्चा हुई। जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो आमतौर से सरकारी क्षेत्र के भ्रष्टाचार की बात होती है पर उद्योग, व्यापार, कला, तथा धर्म के क्षेत्र के कदाचार छिप जाता है। संभव है हम जैसे चिंतकों के इस मत से कम ही लोग सहमत होंगे कि हमारे समाज का यह सामान्य दृष्टिकोण ही ऐसे भ्रष्टाचार के लिये जिम्मेदार हैं जिसमें धन को सर्वाधिक महिमामय माना जाता है। सिद्धांतों की बात करना सभी को अच्छी लगती है पर जहां धन का मामला आये वहां सभी की आंख बंद हो जाती है।
             अपने आंदोलन के अकेले शीर्षक अन्ना साहेब हैं पर उनके विस्तार में अनेक प्रश्न चिन्ह थे। किसी पाठ में फड़कते शीर्षक के साथ बहुत सारे शब्द होते हैं जिनमें विषय से जुड़े सार का सार्थक होना आवश्यक है। इसके अभाव में शीर्षक एक नारा होकर रह जाता है। हम जैसे गीता साधकों के लिये यह आंदोलन अध्ययन और अनुसंधान के लिये बहुत महत्वपूर्ण रहा है। इस दौरान हमने केवल अन्ना के वाक्यों के साथ ही उनकी पर्दे पर दिख रही गतिविधियों को बहुत ध्यान से देखा। अन्ना के बारे में दूसरे लोग और दूसरे लोगों के बारे मे अन्ना क्या कह रहे हैं इसमें हमने दिलचस्पी नहीं रखी बल्कि अन्ना अपने इस आंदोलन से इस समाज के लिये क्या नया ढूंढ रहे हैं यह प्रश्न हमेशा हमारे लिये महत्वपूर्ण रहा है। अन्ना के स्वास्थ्य की चिंता हमेशा रही और हमारा मानना है कि ज्ञानी और ध्यानी अनशन जैसी हल्की गतिविधि से तब तक दूर रहें जब तक यह आवश्यक न हो। आंदोलनों और अभियानों का शांतितिपूर्ण प्रदर्शन करना ठीक है पर अनशन जैसी गतिविधि विचलित कर देती है।
               अन्ना ने जब अपना अनशन स्थगित किया तो प्रचार माध्यम उनका मखौल उड़ा रहे हैं। इन्हीं प्रचार माध्यमों ने उनके इसी आंदोलन पर अपने विज्ञापनों का समय पास कर कमाई की। टीवी चैनलों को इतने सारे दर्शक मिले होंगे कि वह कल्पनातीत होगा। हमारा मानना तो यह है कि यह आंदोलन ही आम जनमानस को भरमाने के लिये आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों का एक योजनाबद्ध प्रयास था। टीवी चैनलों में शामिल हुए जिन बुद्धिजीवियों ने उनके मुंबई में कम भीड़ होने की जो बात कही है वह इसी का ही परिणाम है। लोकपाल या जनलोकपाल से इतर बहस इस पर चल रही है कि क्या अन्ना साहेब का जादू खत्म हो गया है। तो क्या यह जादू चल रहा था?
          अन्ना मूलतः अकेले थे पर उनके पीछे अनेक ज्ञात अज्ञात संगठन आये जिनके अपने अपने लक्ष्य थे। जनलोकपाल उनका नारा था जो संसद में लोकपाल का बिल पास होते ही फ्लाप हो गया। अन्ना के अनेक साथियों को लगा कि उनका नारा अब चलने वाला नहीं है। यकीनन अन्ना ने यह सब देखा होगा। अन्ना ने बहुत कुछ कहा पर हमें लगता है कि उन्होंने बहुत कुछ नहीं भी कहा। उनके सामने अनेक ऐसे सत्य अदृश्य रूप में प्रकट हुए होंगे जिनको देखकर वह आश्चर्यचकित हुए होंगे। वह उनको देखते होंगे पर उनका बयान करना उनके लिये कठिन रहा होगा। वह ऐसे सात्विक पुरुष हैं जो राजस पुरुषो के क्षेत्र में घुसकर उनको त्रास देता है। अभी तक उन्होंने राजस पुरुषों से जो द्वंद्व किया था उसमें भी उनके विरोधी राजस पुरुषों की सहायता लेते रहे होंगे। एक को परास्त किया तो दूसरा विजेता बना होगा। इस बार वह राजस पुरुषों के विशाल समूह से लोह लेने निकले थे और धीरे धीरे उनके इर्दगिर्द अपने राजसी वृत्ति के लोगों का आंकड़ा कम होता जा रहा था। राजस पुरुष पराक्रमी होते हैं जबकि सात्विक पुरुषों को पराक्रम की आवश्यकता नहीं होती। यदि राजस पुरुषों के विशाल समूह से सामना करना हो तो पहले अपने पराक्रम का भी परीक्षण करना चाहिए। अन्ना ने यह बात अब जाकर अनुभव की होगी। हम नहीं मानते कि अन्ना हारकर बैठ जायेंगे। दूसरी बात यह भी लगती है कि वह अपने वर्तमान राजस पुरुषों के साथ लेकर अपना अभियान चलने वाले भी नहीं है।
        हम जब अन्ना हजारे के अभियान से राजनीतिक पक्ष से हटकर उसका सामाजिक पक्ष देखते हैं तो लगता है कि अन्ना हजारे की त्यागी छवि जनमानस में है। इसलिये भविष्य में उनको समर्थन नहीं मिलेगा यह सोचना बेकार है। मुश्किल यह है कि अन्ना हजारे को बौद्धिक वर्ग का समर्थन अधिक नहीं मिला। इसका कारण यह है कि इस देश ने कई आंदोलन और उसके परिणाम देखे हैं जिससे निराशावादी दृष्टिकोण उभरता है। अन्ना हजारे के आंदोलन से जुड़े स्वयं सेवी और उनके संगठनों की निष्ठा को लेकर लोगों के मन में अनेक संदेह थे। देश के बौद्धिक समाज से जुड़े अनेक लोगों के लिये वह किसी भी दृष्टि से स्वयंसेवक नहीं थे। समाज सेवा में उनकी भूमिका धनपतियों और आमजनमानस के बीच उनकी भूमिका मध्यस्थ की थी। वैसे हमारा मानना है कि अन्ना को अपना अभियान राजनीति से जुड़े विषय से हटकर समाज में फैले अंधविश्वास, रूढ़िवादिता और भेदभाव मिटाने के लिये प्रारंभ करना चाहिए। हालांकि यह कहना कठिन है कि इसके लिये उनको प्रायोजक मिलेगा या नहीं। एक बात तय रही कि बिना प्रायोजन के ऐसे आंदोलन चल नहीं सकते।
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

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